Monday, March 27, 2017

जमाना योगीयुग : योगी का योगफल ------ K Vikram Rao

 "नतीजन योगी की समता पिछले मुख्यमंत्रियों से नही की जा सकती है। कुछ मायनों में तीसरे मुख्यमंत्री चन्दुभानु गुप्त से संभव है। प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष की अनिच्छा के बावजूद भी गुप्ताजी मुख्यमंत्री बन गये थे। हालांकि लखनऊ पूर्व तथा मोदहा (महोबा) से विधानसभा चुनाव लगातार हार गये थे। पार्टी के भीतरी शत्रुओं तथा खुद मुख्यमंत्री संपूर्णानन्द कारक बने थे। फिर भी अपने आत्मबल से गुप्ताजी 1960 में सीधे शीर्षपद पर जा पहुंचे बिना विधानसभा पहुंचे। फिर उन्हें हटाने के लिए कामराज योजना नेहरू लाये। पार्टी काम हेतु गुप्ताजी को सरकार छोड़ना पड़ा।
योगी जी का भी सत्ता तक सफर सरल नही था। भाजपायी महाबलियों को ठेलकर वे रेस जीते। ऐसा उदाहरण कुछ मायनो में मौर्यराज में विप्र सेनापति पुष्यमित्र शुंग का मिलता है जिसने शासकीय अहिंसा के कारण हिन्दुओं पर हो रहे म्लेच्छ हमले का खात्मा किया था।
अब विश्लेषण कर लें कि योगी क्या कर रहें हैं और क्या करेंगे ?" --- के  विक्रम राव 
****** वरिष्ठ  पत्रकार  के विक्रम राव  साहब लिखते हैं कि, यू पी के तत्कालीन सी एम चंद्र भानु गुप्त को हटाने के लिए नेहरू 'कामराज प्लान ' लाये थे। लेकिन हकीकत यह नहीं है। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राधा कृष्णन  के एक अंगरक्षक रहे एक मेजर साहब ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि, राधाकृष्णन जी खुद पी एम बनना चाहते थे अतः तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज नाडार  से तमिल भाषा में वार्ता कर उन्होने  ही  1963 में ' कामराज  प्लान ' बनवाया था जो कि, नेहरू जी को पी एम पद से हटाने के लिए था न कि, यू पी के सी एम  चंद्रभानु  गुप्त को क्योंकि उस प्लान के अंतर्गत तमाम सी एम और कुछ मंत्री सरकार से बाहर हुये और संगठन में लगाए गए। जबकि, नेहरू जी को उन मेजर साहब ने आगाह कर दिया था अतः दिखावे में तो उन्होने पद- त्याग की इच्छा की किन्तु समर्थकों के जरिये अपने पद - त्याग प्रस्ताव को रद्द करा दिया। चन्द्र्भाणु गुप्त जी ने फैजाबाद की तत्कालीन सांसद सुचेता कृपलानी जी को सी एम बनवा दिया और पहले के किसी मंत्री व विधायक को मौका नहीं मिलने दिया था। अतः 'कामराज प्लान  सी बी गुप्ता को हटाने के लिए नेहरू जी का नहीं था बल्कि नेहरू जी को हटाने के लिए डॉ राधाकृष्णन जी का था जो विफल हो गया था।
(विजय राजबली माथुर ) 

K Vikram Rao
योगी का योगफल
Yogi Adityanath
विगत सत्तर वर्षों में बीसियों मुख्यमंत्री यूपी में आये-गये। मगर उनके नाम से उनका दौर जुड़ नहीं पाया। महंत आदित्यनाथ योगी का जुदा हैं, वे निराले भी। इसीलिए उनका जमाना योगीयुग कहलाने लगा है। जुमा जुमा पखवाडे भर में ही। कारण तलाशने के लिए गहनशोध की दरकार नहीं है। पहचान अलग हो तो विशिष्ट आ ही जाती है। मात्र परिधान, ललाट, गात्रक इत्यादि से ही नहीं। बात अंदर की है। वैचारिक, अतः मस्तिष्कीय है। नतीजन योगी की समता पिछले मुख्यमंत्रियों से नही की जा सकती है। कुछ मायनों में तीसरे मुख्यमंत्री चन्दुभानु गुप्त से संभव है। प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष की अनिच्छा के बावजूद भी गुप्ताजी मुख्यमंत्री बन गये थे। हालांकि लखनऊ पूर्व तथा मोदहा (महोबा) से विधानसभा चुनाव लगातार हार गये थे। पार्टी के भीतरी शत्रुओं तथा खुद मुख्यमंत्री संपूर्णानन्द कारक बने थे। फिर भी अपने आत्मबल से गुप्ताजी 1960 में सीधे शीर्षपद पर जा पहुंचे बिना विधानसभा पहुंचे। फिर उन्हें हटाने के लिए कामराज योजना नेहरू लाये। पार्टी काम हेतु गुप्ताजी को सरकार छोड़ना पड़ा।******
योगी जी का भी सत्ता तक सफर सरल नही था। भाजपायी महाबलियों को ठेलकर वे रेस जीते। ऐसा उदाहरण कुछ मायनो में मौर्यराज में विप्र सेनापति पुष्यमित्र शुंग का मिलता है जिसने शासकीय अहिंसा के कारण हिन्दुओं पर हो रहे म्लेच्छ हमले का खात्मा किया था।
अब विश्लेषण कर लें कि योगी क्या कर रहें हैं और क्या करेंगे ? पदारूढ़ होते ही योगी ने गाय को अहमियत दी। सही भी हैं। गोरक्षधाम के मुखिया रहें हैं, तो यह स्वाभाविक है। यूं भी जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी गाय के नाम पर सत्ता पाने की राजनीति करती रही। ठोस कुछ किया नहीं। लखनऊ की सड़कों पर 1953 में युवा अटल बिहारी वाजपेयी नारा लगाते रहे ”कटती गौयें करे पुकार, बन्द करो यह अत्याचार।“ अटलजी सत्ता के सोपान का आरोहित होते रहे। उधर गायें भी कटती रहीं। गोरक्षा पर राष्ट्रीय कदम नहीं उठा सके। सत्ता के केन्द्र लोकभवन में प्रवेश करते ही योगी ने गोकशी कानून पर सख्ती की। बूचडखानों पर ताला डलवा दिया। सवा सौ साल पुराने टुण्डे कवाब की दुकान के मालिक मोहम्मद उस्मान ने कहा कि वे गोश्त अन्य जिलों से आयात करेंगे क्योंकि लखनऊ में एक भी वैघ वघशाला नहीं है। सोचें जरा इतने वर्षों से राजधानी में अलग रंग की सरकारें आई और बूचड़खाने बिना लाइसेंस के पनपते रहे। मायावती राज में कानून बना था कि सचिवालय में पान और गुटखा प्रतिबंधित हो। मनभावन कदम था। संगमरमर से निर्मित फर्श और चमकती दीवारें चन्द महीनों बाद इतनी विकृत हो गई कि मानो पीक नहीं पेंट हो और कलाकृतियां चित्रित हो रहीं थें। अब वे चित्रकारी घिसकर, रगड़कर मिटाई जा रही है।
कुछ ज्यादा पढे़ लिखे लोगों को ये कार्य छोटा लगेगा। वही आरोप कि प्रधानमंत्री अब वैश्विक समस्याओं पर ध्यान न देकर स्वच्छ भारत पर केंद्रित है। झाडू थामे है। सत्ता मोह से कभी भी न अघानेवाले सोनिया कांग्रेसियों ने कोयला, रेत का खनन, टूजी ठेका, बैंक से उधारी, हेलिकाप्टर खरीदी आदि को प्राथमिक योजनाएं बनाईं थीं। इधर यूपी में मायावती द्वारा राजकोष की लूट पहला कार्यक्रम रहा। उनके मुख्यमंत्री काल में वर्तनी ही बदल गयी थी दौलत तथा दलित के बीच।
अगर मोदी Narendra Modi शासन की तर्ज पर योगी ने भी स्वच्छ प्रदेश का संकल्प लिया है वो यह सीख महात्मा गांधी से ही मिली है। बापू ने नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद आदि से सेवाग्राम आश्रम में पहले संडास साफ करवाया था। घमण्ड तोड़ने का यह रामबाण है। बापू भारत की आत्मा को भलीभांति पहचानते थे। गुजराती का प्रभाव मोदी पर पड़ना तार्किक रहा। ठीक भी। अर्थात योगी के गुटखामुक्त सचिवालय की योजना को इसी नजरिये से देखना चाहिए।
बड़ी बड़ी विकास योजनाओं का दम भरनेवाले जब आमजन की दैनिक आवश्यकताओं और समस्याओं को टाल देते हैं, तो वही हश्र होता है जो काम बोलनेवालों का हुआ। काम उनका “टें” बोल गया।
मसलन योगी ने सरकारी नौकरों को साढ़े नौ बजे कार्यस्थल में आने का आदेश दिया है। अब दूरदराज गांव से देहातीजन लखनऊ सचिवालय आयें और बडे़ साहब मीटिंग में, पूजा में, बाथरूम में आदि जगहों पर व्यस्त रहें तो वही संदेश जायेगा कि 27 साल से बेहाल यूपी। इसीलिए योगी ने सुशासन की शुरूआत पुलिस थानों से की है। प्रधानमंत्री कहते रहे कि थाने सभी सपा कार्यालय हो गये हैं। जिला प्रशासन ही पूर्णतया यादवमय हो गया था। गोरक्षक योगी अब इन यदुवंशियों को हटा रहे हैं। उनका पहला आदेश तो था कि सैफई गांव में चार घंटे बिजली सप्लाई कम कर दी गई। सैफई समानान्तर राजधानी थी। अगले माह नवरात्रि पर बिजली पूरी आयेगी अर्थात भेदभाव की नीति नकार दी जायेगी। कुछ शमशान-कब्रिस्तान की तर्ज पर।
भेदभाव तो कम होता खूब दिख रहा है। हद पार कर गया था जब अखिलेश यादव Akhilesh Yadav का राज होता था। उदाहरणार्थ उर्दू को तरजीह और संस्कृत अध्यापकों को वेतन न मिलना। गोरखधाम में वेद शिक्षा के प्रबंधक योगी ने विकृति खत्म कर दी है। सरकारी वाहनों पर से हूटर हटवाया है। कारण है कि ध्वनि प्रदूशण दूर करे। मगर इससे राजमद भी टूटेगा।
तीन तलाक से मुक्ति दिलाने के आश्वासन पर त्रस्त मुस्लिम महिलाओं का बहुमत पाने वाले योगी अब मनचलों से बेटियों को निजात दिलाने के लिए क्रियाशील हो गये है। हिरासत में रोमियों की संख्या बढ़ रही है।
खनन माफिया तो सपा सरकार में सत्ता पर सवार थे, सुरक्षित थे। योगी ने एक महिला Archana Pandey को खनन राज्य मंत्री नियुक्त किया है। खुद मंत्री हैं। नदियों का संरक्षण (बालू अब चोरी नहीं किया जायेगा)।
ये सब तो अल्पकालीन काम योगी ने एक आंचलिक पद्धति पर किया है। उनका सबसे बड़ा काम, यदि सफल हुआ तो, है “जाति तोड़ो”।
वही नारा जो राममनोहर लोहिया तथा दीनदयाल उपाध्याय ने दिया था। लोहिया के नारे को सपाइयों ने घुमाफिरा कर एक ही जाति के लिए प्रगति का मार्ग बना दिया। योगी ने इसे सुधारने का वादा किया है। इसका आधारभूत कारण भी है। यादव और जाटव के अलावा यूपी में मानों कोई पिछड़ा और दलित है ही नहीं। ये दोनों जातिवाले कुलश्रेष्ठ बना दिये गये थे। उन्हें समतल बनाकर जाति तोड़ो के अभियान की दिशा में एक सम्यक शुरूआत होगी। याद कीजिए जब 1963 के लोकसभाई उपचुनाव के जौनपुर से जनसंघ पण्डित दीनदयाल उपाध्याय हार गये थे क्योंकि उन्होंने विप्रसभा को संबोधित करने से इंकार कर दिया था। यही उपाध्याय जी आज योगी के प्रथम मार्गदर्षक है। उनका एकात्म मानववाद चिन्तन हैं, प्रकाश स्तंभ है।
पड़ोसी बिहार के पुरोधाओं से वैचारिक मतविशमता भले ही हो पर योगी प्रदेश में भी शराबंदी के इच्छुक हैं। यूं भी अखिलेश यादव सरकार ने अत्यंत अनैतिक कार्य किया। शराब व्यापारियों को अगले वर्ष तक ठेका दे डाला जो गैरकानूनी है। संसाधन के नाम पर खुली लूट हुई है। शराब माफिया, दिवंगत पोन्टी चड्डा के मायावती और अखिलेश यादव खास मित्र रहे। नियम ताक पर थे। सिद्धांतों का तो सवाल ही नही उठता था। उनपर अब योगी की कोपदृष्टि पड़ने की प्रतीक्षा है।
लेकिन योगी पर अभी राजनीतिक कठिनाई आशांकित है। करीब छह मंत्री है जिन्हें विधानमंडल का सदस्य बनना है। किस क्षेत्र से भेजेंगे ? स्वयं भी चुनाव लडेंगे। फिर दो लोकसभाई उपचुनाव होंगे। अपना गोरखपुर से तथा केशव मौर्य का फूलपुर से। दोनों सीटों पर प्रधानमंत्री की साख दांव पर लगी होगी। योगी की प्रथम छमाई की भी परीक्षा होगी।
लेकिन सबसे बड़ा वही प्रश्न होगा मुसलमानों का मिजाज दुरूस्त रखने का। विगत तीन दशकों से मुस्लिमपरस्त, तुष्टिकरण वाली राजनीति से मुसलमान वोट बैंक बड़ा सौदागर बन गया है। मगर मोदी ने साबित कर दिया कि बिना मुस्लिम वोट के भी सत्ता जीती जा सकती है। मोदी की इसी अद्भुत सफलता को योगी को बलवती बनाना होगा ताकि मजहब के नाम पर लामबंदी और सियासत खत्म हो। फिलहाल किसानों का कर्जा माफ करना तथा गोरखपुर से सटे हुये नेपाल की नदियों से पूर्वांचल में आनेवाले बाढ़ से त्रस्त क्षेत्र का परित्राण करना नये मुख्यमंत्री की तात्कालिक चुनौती है। तब योगी का योगफल दिखेगा।
के विक्रम राव
पत्रकार
9415000909
k.vikramrao@gmail.com
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1396463457083951&id=100001609306781 ************************************************************************

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 क्या ऐसा होगा?  
09/08/2016 03:02
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अयोध्या के बाबरी प्रकरण के बाद उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन की सरकार का अस्तित्व आया था। काशीराम जी को अपने गृह जनपद इटावा से मुलायम सिंह जी ने सांसद तक बनवाया था। यदि यह गठबंधन कायम रहता तो सदा-सर्वदा के लिए उत्तर प्रदेश से भाजपा का अस्तित्व समाप्त हो जाता। अतः संघप्रिय गौतम के माध्यम से मायावती जी को मुलायम सिंह जी के विरुद्ध करके वह सरकार गिरा दी गई। भाजपा के समर्थन से कई बार मायावती जी मुख्यमंत्री बनीं किन्तु उनकी सरकार भाजपा द्वारा ही हर बार गिरा दी गई। इसके बावजूद गुजरात नर-संहार के बाद 2002 में मायावती जी ने अटल व मोदी के साथ भाजपा का वहाँ प्रचार किया था।
2014 के लोकसभा चुनावों से काफी पहले  व्हाईट हाउस में बराक हुसैन ओबामा द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय गोपनीय बैठक की गई थी जिसमें भारत से भी कई दलित कहे जाने वाले चिंतक शामिल हुये थे जिनमें से एक लखनऊ के विद्वान भी थे। वहीं पर मुस्लिमों के विरुद्ध विश्व व्यापी मुहिम चलाये जाने और उसमें प्रत्येक देश के दलित माने जाने वाले लोगों का सहयोग लेने की रूप रेखा तय की गई थी। उसी अनुसार 2014 के लोकसभा चुनावों में समस्त दलित कहे जाने वाले वर्ग का वोट बसपा के बजाए भाजपा को गया था और बसपा का एक भी सांसद न जीत सका था। उसी मुहिम का परिणाम है बसपा से हाल ही में हुई टूटन। मायावती जी को उनके खास लोगों ने उसी अंदाज़ में उनको झटका दिया है जिस अंदाज़ में 1995 में उन्होने खुद मुलायम सिंह जी को झटका दिया था तब उनको भी भाजपा का समर्थन हासिल था जिस प्रकार अब उनको झटका देने वालों को हासिल हुआ है।
2017 के आसन्न चुनावों में यदि बसपा-सपा गठबंधन बना कर चुनाव लड़ा जाये तो अब भी भाजपा के मंसूबों को ध्वस्त किया जा सकता है वरना अभी तो भाजपा बसपा को ध्वस्त करने के लिए गोपनीय समर्थन देकर सपा सरकार फिर से बनवा देगी लेकिन उसके बाद सपा को उसी प्रकार तोड़ेगी जिस प्रकार अभी बसपा को तोड़ा है। मायावती जी व मुलायम सिंह जी दूरदर्शिता का परिचय दें तो दीर्घकालीन मजबूत गठबंधन बना कर न केवल उत्तर प्रदेश में वरन सम्पूर्ण देश में भाजपा को परास्त कर सकते हैं। लेकिन क्या ऐसा होगा?
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1137504919644816

ज़ाहिर है ऐसा नहीं हुआ और इसी लिए भाजपा का सत्तारोहण हुआ । 
****** वरिष्ठ  पत्रकार  के विक्रम राव  साहब लिखते हैं कि, यू पी के तत्कालीन सी एम चंद्र भानु गुप्त को हटाने के लिए नेहरू 'कामराज प्लान ' लाये थे। लेकिन हकीकत यह नहीं है। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राधा कृष्णन  के एक अंगरक्षक रहे एक मेजर साहब ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि, राधाकृष्णन जी खुद पी एम बनना चाहते थे अतः तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज नाडार  से तमिल भाषा में वार्ता कर उन्होने  ही  1963 में ' कामराज  प्लान ' बनवाया था जो कि, नेहरू जी को पी एम पद से हटाने के लिए था न कि, यू पी के सी एम  चंद्रभानु  गुप्त को क्योंकि उस प्लान के अंतर्गत तमाम सी एम और कुछ मंत्री सरकार से बाहर हुये और संगठन में लगाए गए। जबकि, नेहरू जी को उन मेजर साहब ने आगाह कर दिया था अतः दिखावे में तो उन्होने पद- त्याग की इच्छा की किन्तु समर्थकों के जरिये अपने पद - त्याग प्रस्ताव को रद्द करा दिया। चन्द्र्भाणु गुप्त जी ने फैजाबाद की तत्कालीन सांसद सुचेता कृपलानी जी को सी एम बनवा दिया और पहले के किसी मंत्री व विधायक को मौका नहीं मिलने दिया था। अतः 'कामराज प्लान  सी बी गुप्ता को हटाने के लिए नेहरू जी का नहीं था बल्कि नेहरू जी को हटाने के लिए डॉ राधाकृष्णन जी का था जो विफल हो गया था। 
(विजय राजबली माथुर )

  ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, March 25, 2017

पुलिस और गुंडा दलों को सजा देने का अधिकार वही समाज देता है जो ग़ुलामी को स्वीकार करता है! ------ मुकेश त्यागी

 वैसे तो सभी देशों में पुलिस शासक सत्ता की हिफ़ाजत का औज़ार होता है लेकिन भारत में तो पुलिस व्यवस्था आज भी वही है जो 1861 में विदेशी उपनिवेशवादी सत्ता ने अपराध रोकने के लिए नहीं, लूट और दमन के लिए बनाई थी। आज भी इसका काम वही है। इसके बारे में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज आनंद नारायण मुल्ला ने एक फैसले में लिखा था कि पुलिस इस देश में अपराधियों का सबसे संगठित और ताक़तवर गिरोह है। पुलिस तो खुद ही बलात्कारों और स्त्रियों से दुर्व्यवहार करने की सबसे ज्यादा जिम्मेदार है, यहाँ तक कि इस वजह से सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा नियम भी बनाया कि दिन के अतिरिक्त किसी महिला को गिरफ़्तार नहीं किया जायेगा! 
जिस पुलिस ने इन अपराधियों को सारे 'सशक्त' क़ानून रहते बढ़ावा दिया अब वो एंटी-रोमियो स्क्वाड बनाने से इन्हें रोकेगी यह उम्मीद ही या तो भोलापन है या मूर्खता। इतना ही होगा कि पुराने ग़िरोह की जगह नए गिरोह ग़िरोह संरक्षण पाएंगे और संरक्षण के रेट बढ़ जायेंगे। वैसे पुराने गिरोह वाले फिर जल्दी ही सत्ता के क़रीबी नए गिरोहों के सदस्य बन जायेंगे। दूसरे, इस तरह पैदा किया गया डर पुलिस के लिए निर्दोष लोगों से उगाही का बड़ा जरिया बन जाता है। अगर असल में ही पुलिस को इन अपराधों को रोकना होता तो ये बढ़ते ही क्यों? और अन्य राज्यों में क्यों ऐसे ही बढे हैं? 

फिर किसी भी जनतांत्रिक समाज में पुलिस का काम अपराधियों को गिरफ्तार कर फैसले और सजा के लिए अदालत में पेश करना होता है, सड़क पर सजा-गालियाँ देना, मरना-पीटना, हत्या करना नहीं। पुलिस को ऐसा अधिकार सिर्फ तानाशाही या फासीवादी सत्ता देती है, जहाँ जनता ग़ुलामी की ज़िन्दगी जी रही होती है। कुछ लोगों का कहना है कि अदालत में सजा नहीं मिलती। पर क्या जाँच, मुकदमे, गवाही की कमजोरी या हेराफेरी होने के लिए यही लुटेरी-भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था जिम्मेदार नहीं है? फिर वही पुलिस कैसे सही सजा देगी? पुलिस और गुंडा दलों को किसी को सजा देने का अधिकार वही समाज देता है जो ग़ुलामी को स्वीकार करता है! 
25 मार्च 2017 
Mukesh Tyagi

Mukesh Tyagi
इस बात में कोई शक नहीं कि उप्र में स्त्रियों के साथ छेड़छाड़ से लेकर बलात्कार जैसे अपराध खूब बढ़े हुए हैं; छत्तीसगढ़, झारखंड, मप्र, हरयाना, कर्नाटक, दिल्ली, बंगाल, बिहार, पंजाब, गुजरात, आदि अन्य राज्यों में भी ऐसा ही है। यह भी सच है कि उप्र में सपा की सरकार और पुलिस का इन अपराधियों को संरक्षण था; ऐसे ही अन्य राज्यों की बीजेपी, कांग्रेस, अकाली, तृणमूल, आदि सरकारों का है। पुलिस ऐसा संरक्षण राजनीतिक दबाव की वजह से देती है, इस से बड़ा कुतर्क क्या हो सकता है! पुलिस का अमला नेताओं, अपराधियों के इस गिरोह का ही अंग है, इस लूट की पूरी हिस्सेदार है। वैसे तो सभी देशों में पुलिस शासक सत्ता की हिफ़ाजत का औज़ार होता है लेकिन भारत में तो पुलिस व्यवस्था आज भी वही है जो 1861 में विदेशी उपनिवेशवादी सत्ता ने अपराध रोकने के लिए नहीं, लूट और दमन के लिए बनाई थी। आज भी इसका काम वही है। इसके बारे में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज आनंद नारायण मुल्ला ने एक फैसले में लिखा था कि पुलिस इस देश में अपराधियों का सबसे संगठित और ताक़तवर गिरोह है। पुलिस तो खुद ही बलात्कारों और स्त्रियों से दुर्व्यवहार करने की सबसे ज्यादा जिम्मेदार है, यहाँ तक कि इस वजह से सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा नियम भी बनाया कि दिन के अतिरिक्त किसी महिला को गिरफ़्तार नहीं किया जायेगा! 
जिस पुलिस ने इन अपराधियों को सारे 'सशक्त' क़ानून रहते बढ़ावा दिया अब वो एंटी-रोमियो स्क्वाड बनाने से इन्हें रोकेगी यह उम्मीद ही या तो भोलापन है या मूर्खता। इतना ही होगा कि पुराने ग़िरोह की जगह नए गिरोह ग़िरोह संरक्षण पाएंगे और संरक्षण के रेट बढ़ जायेंगे। वैसे पुराने गिरोह वाले फिर जल्दी ही सत्ता के क़रीबी नए गिरोहों के सदस्य बन जायेंगे। दूसरे, इस तरह पैदा किया गया डर पुलिस के लिए निर्दोष लोगों से उगाही का बड़ा जरिया बन जाता है। अगर असल में ही पुलिस को इन अपराधों को रोकना होता तो ये बढ़ते ही क्यों? और अन्य राज्यों में क्यों ऐसे ही बढे हैं? 
फिर किसी भी जनतांत्रिक समाज में पुलिस का काम अपराधियों को गिरफ्तार कर फैसले और सजा के लिए अदालत में पेश करना होता है, सड़क पर सजा-गालियाँ देना, मरना-पीटना, हत्या करना नहीं। पुलिस को ऐसा अधिकार सिर्फ तानाशाही या फासीवादी सत्ता देती है, जहाँ जनता ग़ुलामी की ज़िन्दगी जी रही होती है। कुछ लोगों का कहना है कि अदालत में सजा नहीं मिलती। पर क्या जाँच, मुकदमे, गवाही की कमजोरी या हेराफेरी होने के लिए यही लुटेरी-भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था जिम्मेदार नहीं है? फिर वही पुलिस कैसे सही सजा देगी? पुलिस और गुंडा दलों को किसी को सजा देने का अधिकार वही समाज देता है जो ग़ुलामी को स्वीकार करता है! 
फिर अपराध क्या है? बलात्कार, अपहरण, छेड़छाड़ या सहमति वाले जोड़े? लेकिन पुलिस का मुख्य निशाना ये अपराधी नहीं, पार्कों-रेस्टोरेंट में बैठे, बाइक पर जा रहे जोड़े हैं जिन्हें पुलिस और उसके संरक्षण में सत्ता धारी दल के गुंडों द्वारा नैतिकता की शिक्षा दी जा रही है। किसी की नैतिकता की परिभाषा कुछ भी हो, स्त्री-पुरुष को दोस्ती-बात करते देख उनको कितना भी धक्का क्यों न लगता हो, जब तक किसी के खिलाफ अपराध नहीं हो रहा, सहमति से दो स्त्री-पुरुष कुछ कर रहे हैं, वह एक सामाजिक मुद्दा हो सकता है, लेकिन उसमें पुलिस या किसी तीसरे को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार कैसे? पर अभी स्थिति यह है कि बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं और पुलिस इन सहमति वाले जोड़ों को सबक सिखाने और वसूली करने में जुटी है।
वैसे भी यह वही सरकार है जिसके मुख्य और उपमुख्य मंत्री हत्या, अपहरण, डकैती आदि के बहुत से मामलों के आरोपी हैं, खुल कर बलात्कार, आदि का समर्थन करते आये हैं, आम गरीब लोग छोड़िये तो विपक्षी पार्टी की नेता, महिला कार्यकर्ताओं, पत्रकारों को गली-गलौज, बलात्कार की धमकियाँ देना जिनकी राजनीति की ज़बान है, जो कब्रें खोदकर लाशों के साथ बलात्कार करने को कहते हैं! यह पार्टी, अन्य पार्टियों की ही तरह, बलात्कार के आरोपी को केंद्र सरकार में मंत्री भी बना चुकी है। 

ऐसे लोग जब स्त्री के सम्मान की बात करते हैं तो अफ़ग़ानिस्तान के उन तालिबानियों और ईरानी मुल्लाओं के जुड़वाँ भाई नजर आते हैं जिन्होंने ठीक यही तर्क देकर वहाँ की स्त्रियों को जीवन के हर क्षेत्र से बाहर कर पूरी तरह परदे में कैद करने का अभियान चलाया था। उस ISIS से यह कैसे भिन्न है जो स्त्रियों को परदे की नैतिकता सिखाते हुए बलात्कारियों की फ़ौज खड़ी करता है? इन सब ने भी इन जुर्मों की शुरुआत इन्हीं बातों से की थी कि स्त्रियों को घर से निकलने, प्रेम करने, अपनी मर्जी से विवाह करने का अधिकार नहीं है; उन्हें घरेलू दासी और बच्चे पैदा करने की मशीन बनने के अलावा और कोई अधिकार नहीं! और दूर न जायें तो पाकिस्तान में पिछले 40 साल का इतिहास ही देख लें कि यह रास्ता किस मंजिल तक ले जाता है। इन गुंडा दलों और इनके नियंत्रण वाली पुलिस को स्त्री सम्मान का रक्षक सिर्फ भक्त, मुर्ख या वास्तविकता भूल भोले बने लोग ही कर सकते हैं। अफ़सोस कि कई जनवादी बातें करने वाले लोग भी ऐसा कर रहे हैं।
https://www.facebook.com/MukeshK.Tyagi/posts/1718175274875613



25 मार्च 2017 

हिंदुस्तान, लखनऊ , 25 मार्च 2017 के अंक में प्रकाशित इन कुछ  समाचारों से भी मुकेश त्यागी जी के लेख की पुष्टि होती है जो लगभग रोजाना ही पढ़ने को मिल रहे हैं। :


  ~विजय राजबली माथुर ©



Sunday, March 19, 2017

ई वी एम हैक हो सकती है और इसके विरुद्ध जनांदोलन चलाना होगा ------ अनिल सिनोजिया





http://teesrijungnews.com/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A5%9E-%E0%A4%8F%E0%A4%95-sms-%E0%A4%AD%E0%A5%87%E0%A4%9C%E0%A4%95%E0%A4%B0-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A5%80-evm-%E0%A4%95%E0%A5%87/


सिर्फ़ एक SMS भेजकर भारत की EVM के नतीजे बदले जा सकते हैं, चुनाव आयोग BBC की इस को रिपोर्ट पढे!

Posted by newseditor
मायावती और अरविंद केजरीवाल की ईवीएम में गड़बड़ी की मांग पर चुनाव आयोग ने सख्त रवैया अपनाया है आयोग ने कहा है कि वोटिंग मशीन को हैक किया ही नहीं जा सकता और अगर किया जा सकता है तो कोई कर दिखाए या सबूत ला कर पेश करे।

EVM हैक हो सकती है और इसको हैक करके दिखाया जा चुका है, चुनाव आयोग के इस जवाब का जवाब 2010 में ही आ चुका है।

18 मई 2010 को छपी बीबीसी की रिपोर्ट में साफ कहा गया था कि ईवीएम को हैक किया जा सकता है रिपोर्ट में मिशिगन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के हवाले से दावा किया गया है कि सिर्फ एक एसएमएस भेजकर भारत की ईवीएम के नतीजे बदले जा सकते हैं।

रिपोर्ट में प्रोफेसर जे एलेक्स हाल्डरमैन ने बाकायदा एक वीडियो में ईवीएम को हैक करके दिखाया था। इस रिपोर्ट में दावा किया गया था कि ईवीएम के डिस्प्ले बोर्ड को हैक किया जा सकता है और एक मैसेज के बाद वो मशीन में जमा डाटा न दिखाकर टैंपर किया गया डाटा दिखाने लगती है।

इसके अलावा वैज्ञानिकों ने एक बेहद सूक्षण माइक्रोप्रोसेसर भी मशीन में लगाकर दिखाया, इस माइक्रोप्रोसेसर से मशीन के अंदर जमा डाटा को भी बदला जा सकता था।

US scientists ‘hack’ India electronic voting machines : BBC report
By Julian Siddle
Science reporter, BBC News
18 May 2010
From the section South Asia
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Indian officials inspect an electronic voting machine (2009)

India’s voting machines are considered to be among the most tamperproof
Scientists at a US university say they have developed a technique to hack into Indian electronic voting machines.
After connecting a home-made device to a machine, University of Michigan researchers were able to change results by sending text messages from a mobile.
Indian election officials say their machines are foolproof, and that it would be very difficult even to get hold of a machine to tamper with it.
India uses about 1.4m electronic voting machines in each general election.

*’Dishonest totals’
A video posted on the internet by the researchers at the University of Michigan purportedly shows them connecting a home-made electronic device to one of the voting machines used in India.
Professor J Alex Halderman, who led the project, said the device allowed them to change the results on the machine by sending it messages from a mobile phone.
It is not just the machine, but the overall administrative safeguards which we use that make it absolutely impossible for anybody to open the machine

*Alok Shukla, Indian Election Commission
“We made an imitation display board that looks almost exactly like the real display in the machines,” he told the BBC. “But underneath some of the components of the board, we hide a microprocessor and a Bluetooth radio.”
“Our lookalike display board intercepts the vote totals that the machine is trying to display and replaces them with dishonest totals – basically whatever the bad guy wants to show up at the end of the election.”
In addition, they added a small microprocessor which they say can change the votes stored in the machine between the election and the vote-counting session.

India’s electronic voting machines are considered to be among the most tamperproof in the world.
There is no software to manipulate – records of candidates and votes cast are stored on purpose-built computer chips.
Paper and wax seals

India’s Deputy Election Commissioner, Alok Shukla, said even getting hold of machines to tamper with would be very difficult.
“It is not just the machine, but the overall administrative safeguards which we use that make it absolutely impossible for anybody to open the machine,” he told the BBC.

“Before the elections take place, the machine is set in the presence of the candidates and their representatives. These people are allowed to put their seal on the machine, and nobody can open the machine without breaking the seals.”
The researchers said the paper and wax seals could be easily faked.

However, for their system to have any impact they would need to install their microchips on many voting machines, no easy task when 1,368,430 were used in the last general election in 2009.


-http://www.bbc.com/news/10123478





 ~विजय राजबली माथुर ©

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Tuesday, March 14, 2017

सपा सरकार को उनके भीतरघातियों ने ही हरवाया है ------ विजय राजबली माथुर

*इन चुनावों में उत्तर प्रदेश में सत्तरूढ़ दल की हार के लिए दल के भीतर और बाहर मुख्यमंत्री तथा पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव जी को ही उत्तरदाई ठहराया जा रहा है किन्तु यह सच्चाई से मुंह मोड़ना ही है। वस्तुतः पार्टी में स्थापित रहे लोगों के प्रति व्यक्तिगत रूप से निष्ठावान रहे कार्यकर्ताओं ने पार्टी के अधिकृत प्रत्याशियों के प्रचार का कार्य न करके उनके साथ  लाल टोपी पहन कर बतौर खुफिया चलते रहे और सारी सूचनाएँ विरोधियों को देते रहे।..... सपा अल्पसंख्यक सभा की एक नेत्री के पत्रकार पुत्र खुल कर भाजपा प्रत्याशी के लिए कार्य करते रहे , अल्पसंख्यक सभा के ही स्थानीय पार्षद विरोधी लोग मंत्री जी के साथ चलते हुये भी भाजपा के लिए अंदरूनी तौर पर कार्य करते रहे। .....पूरे प्रदेश में यही स्थिति रही है। अखिलेश जी को बदनाम करके पुनः स्थापित लोगों को पार्टी पर काबिज करने के लिए सरकार को उनके भीतरघातियों ने ही हरवाया है। 
( हमारे इस निष्कर्ष की पुष्टि स्वम्य  अखिलेश जी के इस कथन से भी हो जाती है। ) : 

*यह तो तय है कि, अखिलेश जी ने जो लेपटाप छात्रों को पढ़ने के लिए दिये थे वे गरीब छात्रों ने बेच दिये थे जिनको भाजपा के लोगों ने खरीद लिया था और उनके जरिये सोशल मीडिया पर सपा व अखिलेश जी के ही विरुद्ध धुआ धार प्रचार किया गया था। उनकी सरकार ने जिन कारपोरेट कंपनियों में बेरोजगार युवाओं को रोजगार दिलवाया था उन युवाओं का प्रयोग कारपोरेट कंपनियों ने भाजपा के प्रचार मे जम कर किया था।








Kanwal Bharti

"यह फितूर अभी तक नहीं निकला है कि 2007 के चुनाव में इसी सोशल इंजिनियरिंग ने उन्हें बहुमत दिलाया था. जबकि वास्तविकता यह थी कि उस समय कांग्रेस और भाजपा के हाशिए पर चले जाने के कारण सवर्ण वर्ग को सत्ता में आने के लिए किसी क्षेत्रीय दल के सहारे की जरूरत थी, और यह सहारा उसे बसपा में दिखाई दिया था. यह शुद्ध राजनीतिक अवसरवादिता थी, सोशल इंजिनियरिंग नहीं थी. अब जब भाजपा हाशिए से बाहर आ गयी है और 2014 में शानदार तरीके से उसकी केन्द्र में वापसी हो गयी है, तो सवर्ण वर्ग को किसी अन्य सहारे की जरूरत नहीं रह गयी, बल्कि कांग्रेस का सवर्ण वोट भी भाजपा में शामिल हो गया. लेकिन मायावती हैं कि अभी तक तथाकथित सोशल इंजिनियरिंग की ही गफलत में जी रही हैं, जबकि सच्चाई यह भी है कि मरणासन्न भाजपा को संजीवनी देने का काम भी मायावती ने ही किया था. उसी 2007 की सोशल इंजिनियरिंग की बसपा सरकार में भाजपा ने अपनी संभावनाओं का आधार मजबूत किया था."
https://www.facebook.com/kanwal.bharti/posts/10202653799143390


"लेकिन यह भी बिलकुल सच है कि, कांशीराम - मुलायम समझौते के बाद सत्तारूढ़ 'सपा - बसपा गठबंधन' की सरकार को मायावती जी ने भाजपा के सहयोग से तोड़ कर और भाजपा के ही समर्थन से खुद मुख्यमंत्री पद ग्रहण किया था। दो बार और भाजपा के ही समर्थन से सरकार बनाई थी तथा गुजरात चुनावों में मोदी के लिए अटल जी के साथ चुनाव प्रचार भी किया था। भाजपा की नीति व नीयत साफ थी कि, मायावती जी के जरिये मुलायम सिंह जी व सपा को खत्म कर दिया जाये और बाद में मायावती जी व बसपा को यह सब जानते हुये भी मायावती जी भाजपा की सहयोगी रहीं थीं। यदि वह 'सपा - बसपा गठबंधन' मायावती जी ने भाजपा के फायदे के लिए न तोड़ा होता तो आज 2017 में भाजपा द्वारा न तो सपा को और न ही बसपा को हानी पहुंचाने का अवसर मिलता वह केंद्र की सत्ता तक पहुँच ही न पाती। "
http://vijaimathur.blogspot.in/2017/03/blog-post_12.html

"हालांकि अब उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर और बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती जी ने भी EVM मशीनों से छेड़ - छाड़ की संभावना व्यक्त की है। 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान बनारस में ऐसी ही कारवाई का ज़िक्र खूब हुआ था किन्तु केंद्र में भाजपा की सरकार बन जाने से हुआ कुछ भी नहीं। अब भी इन संभावनाओं और आरोपों पर कुछ भी नहीं होने जा रहा है।
वस्तुतः ऐसी छेड़ - छाड़ हुई अथवा नहीं प्रामाणिक रूप से सिद्ध किया जाना मुश्किल ही है। परंतु यह तो तय है कि, अखिलेश जी ने जो लेपटाप छात्रों को पढ़ने के लिए दिये थे वे गरीब छात्रों ने बेच दिये थे जिनको भाजपा के लोगों ने खरीद लिया था और उनके जरिये सोशल मीडिया पर सपा व अखिलेश जी के ही विरुद्ध धुआ धार प्रचार किया गया था। उनकी सरकार ने जिन कारपोरेट कंपनियों में बेरोजगार युवाओं को रोजगार दिलवाया था उन युवाओं का प्रयोग कारपोरेट कंपनियों ने भाजपा के प्रचार मे जम कर किया था। "
http://vijaimathur.blogspot.in/2017/03/blog-post_11.html


https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=1381183768611920&id=100001609306781

इन चुनावों में उत्तर प्रदेश में सत्तरूढ़ दल की हार के लिए दल के भीतर और बाहर मुख्यमंत्री तथा पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव जी को ही उत्तरदाई ठहराया जा रहा है किन्तु यह सच्चाई से मुंह मोड़ना ही है। वस्तुतः पार्टी में स्थापित रहे लोगों के प्रति व्यक्तिगत रूप से निष्ठावान रहे कार्यकर्ताओं ने पार्टी के अधिकृत प्रत्याशियों के प्रचार का कार्य न करके उनके साथ  लाल टोपी पहन कर बतौर खुफिया चलते रहे और सारी सूचनाएँ विरोधियों को देते रहे। एक मंत्री महोदय को उनके ई - मेल पर इसकी सूचना तभी दी थी जिस पर शायद ध्यान देने की उनको फुर्सत नहीं थी। सपा अल्पसंख्यक सभा की एक नेत्री के पत्रकार पुत्र खुल कर भाजपा प्रत्याशी के लिए कार्य करते रहे , अल्पसंख्यक सभा के ही स्थानीय पार्षद विरोधी लोग मंत्री जी के साथ चलते हुये भी भाजपा के लिए अंदरूनी तौर पर कार्य करते रहे।पूरे प्रदेश में यही स्थिति रही है। अखिलेश जी को बदनाम करके पुनः स्थापित लोगों को पार्टी पर काबिज करने के लिए सरकार को उनके भीतरघातियों ने ही हरवाया है। 

Sunday, March 12, 2017

यह युवा ही इस देश का दुर्भाग्य साबित हो रहा है -----~आनंद जैन / अश्वनी श्रीवास्तव


Ashwani Srivastava

यदि मैं कहूं कि मैं यूपी में मोदी की जीत से दुखी हूं तो यह अंडरस्टेटमेंट होगा. उत्तर प्रदेश में भाजपा की इस जीत के लिये तमाम कारण गिनाए जा रहे हैं, भक्तों के लिये यह मोदी का करिश्मा, तो बाकि ईवीएम के बहाने खंभा नोच रहे हैं.
मेरे लिये यह लोकतंत्र के लिये आने वाले खतरे की आहट है. यह हिंदुत्व के नाम पर एक ऐसा ध्रुवीकरण है जिसमें सत्ता, मीडिया, नौकरशाही और ज्युडीशियरी सब शामिल हैं. देश के हित-अहित को ताक पर रख कर केवल हिंदुत्व के नाम पर वोट देने का यह फिनोमेना अगले दो सालों में हमारे इस लोकतंत्र को डिक्टेटरशिप में बदल देगा. हिंदुत्व के नाम पर यह वृहद् ध्रुवीकरण हिंदी बेल्ट में ही सबसे अधिक परिलक्षित हो रहा है.
मेरे लिये सबसे आश्चर्य की बात है, पढ़े लिखे नौकरीपेशा हिंदू युवा की अंधभक्ति. वो किसी भी कीमत पर मोदी का सपोर्ट करने को तैयार है. देश के टुकड़े होने की कीमत पर भी. अंग्रेजी का मारा और दुनियाभर के इंफीरियोरिटी कॉंप्लेक्स से घिरा यह युवा ही इस देश का दुर्भाग्य साबित हो रहा है.
२०१९ का आम चुनाव काऊ बेल्ट वर्सेस रेस्ट ऑफ इंडिया होने वाला है. दुर्भाग्य से यदि मोदीजी २०१९ में जीत जाते हैं, तो देश बहुत तेजी से विघटन की ओर बढ़ेगा, और यही हमारी चिंता का प्रमुख कारण होना चाहिये.
इस बीच अगले दो वर्षों में बेरोजगारी हमारी सबसे बड़ी समस्या बन कर खड़ी होगी. तीन वर्षों में हमने २ करोड़ रोज़गार खोये हैं, अगले दो वर्षों में यह समस्या और विकराल रूप धारण करेगी. ५ करोड़ नौकरियां जाने के बाद जो नई अनएंप्लॉयबल वर्कफोर्स बाजार में आयेगी, उसके गुस्से को भाजपा आरक्षण और मुस्लिमों के प्रति रिडायरेक्ट करेगी. फलस्वरूप २०१९ में हमारा युवा एक ऐसी भीड़ में तब्दील हो जायेगा, जिसे लिबरल विचार से लेकर सिक्युलरिज्म तक सब कुछ अपने खिलाफ खड़ा नजर आयेगा.
भारतीय समाज और लोकतंत्र ७० वर्षों में अपनी सबसे कड़ी परीक्षा के गुजर रहा है और इसमें एक तरफ - लिबरल, सिक्युलर, ग्लोबलाईज्ड विचार हैं और दूसरी तरफ विघटनकारी ताकतें जिनके साथ पत्रकार और पूंजी भी खड़ी है.
अब च्वाईस आपकी है कि आप किस तरफ खड़े हैं, देश की तरफ या टुकड़े करने वालों की तरफ. अपने आपको राष्ट्रवादी मत कहियेगा, यह शब्द अपने मायने खो चुका है.

~आनंद जैन जी की वाल से~
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=704636639709034&id=100004881137091


 ~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, March 9, 2017

विज्ञान पर आधारित प्राच्य भारतीय ज्ञान ------ विजय राजबली माथुर

  
हिंदुस्तान, लखनऊ, 09 मार्च 2017 , पृष्ठ --- 14
 हिंदुस्तान,लखनऊ, 04-03-2017, पृष्ठ -8 


हमारे देश में कुछ वैज्ञानिक, साईंसदान, एथीस्ट और यूरोप का गुणगान करने वाले वामपंथी लोग यह मानते हैं कि, 'वेद ' गड़रियों के गीत हैं और भारत विज्ञान से अछूता देश था । के एम एम हाईस्कूल, सिलीगुड़ी में हमारे साईन्स अध्यापक  श्री जुगल किशोर मिश्रा ( निवासी घुंडी गली, कानपुर ) तो 1965 में बड़े दावे के साथ कहा करते थे कि, भारत में साईन्स यूरोप से आई है यहाँ तो केवल पहाड़े ईजाद हुये थे। अब प्रोफेसर डी एस चौहान साहब ने विज्ञान कान्फरेंस में यह स्वीकार किया है कि, '' सबसे पहले भारत में हुई विज्ञान की उत्पत्ति " । 
हिंदुस्तान, लखनऊ, 09 मार्च 2017 , पृष्ठ --- 14 पर प्रकाशित समाचार में बताया गया है कि, " पहाड़ों पर अगले तीन दिन बारिश - बर्फबारी " लेकिन नीमच के 'चंड - मार्तंड ' पंचांग ने जो बहुत पहले ही प्रकाशित हो चुका था के पृष्ठ 54 और 55 पर 11 फरवरी से 12 मार्च 2017 और आगे  के विषय में स्पष्ट लिख दिया था :
* षडाश्टकी गुरु भौम की, सम  सप्तक गुरु -शुक्र।  
   ऋतु विषम से आपदा, मेघ गाज नव चक्र ॥  
* युति योग भृगु भौम का, राशि मीन प्रसंग। 
   बैंक कोश मुद्रा विषय, शासन नव्य  तरंग॥ 
*  चक्रवात वायु प्रबल, सांसारिक गतिचार। 
   ऋतु विषय से आपदा,  जन धन क्षति प्रहार॥ 
*  पूनम फागुन मास की, मेघ गाज गति लक्ष। 
    भावी तेजी मानिए, गल्ला धान के पक्ष ॥ 
*  फागुन में बादल बनें, किन्तु न बरसे नीर। 
    तो फिर वर्षा काल में, वर्षा बने प्रवीर॥ 
अर्थात 20 जनवरी से 28 फरवरी तक शुक्र और मंगल के  'मीन ' राशि में एक रहने एवं  27 जनवरी से गुरु 'मीन ' राशि में प्रविष्ट हो कर 'कन्या ' के गुरु के साथ 180 डिग्री का कोण बनाने वाले इन योगों  के परिणाम स्वरूप बैंकों के नए चार्ज वसूली के फरमान सामने आए ।पहाड़ों पर बर्फबारी हुई। 07 मार्च को पटना में और 09 मार्च को दिल्ली में  भी बारिश हुई एवं होली से पूर्व लखनऊ में भी बारिश की उम्मीद 'मौसम विभाग ' जता ही चुका है। 
इसके अतिरिक्त आगामी पूर्णिमा 12 मार्च,2017 को यदि बादल गरजते हैं तो निश्चित है कि, गल्ला ( गेंहू, धान ) मंहगा होगा। यदि फागुन माह में सिर्फ बादल बन कर रह जाते और बरसते नहीं तब तो आगामी वर्षा काल मे प्रचुर वर्षा होने की संभावना रहती। परंतु अब पहाड़ों के साथ - साथ ही गंगा - यमुना के दोआबे में भी बारिश हो गई है अतः वर्षा ऋतु में पर्याप्त वर्षा होने की संभावना समाप्त हो गई है। यदि भारतीय ज्योतिष विज्ञान के आंकलन ( पुजारियों / पोंगा पंडितों की कल्पना नहीं ) को ध्यान रख कर आर्थिक व जन कलयांणकारी योजनाएँ बनाई जाएँ तब इन संकटों पर निजात पाई जा सकती है। अन्यथा त्राहि - त्राहि व जन असंतोष व आंदोलनों का सामना करना ही पड़ेगा। 
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10 मार्च 2017 : 
9/10 तारीख की रात्रि में हल्की ही सही बारिश लखनऊ में भी हो ही गई तथा 10 की प्रातः आंधी के बाद 'ठंड' का एहसास भी होने ही लगा। मौसम विभाग को भी कहना ही पड़ा जिसे पंचांग में काफी पहले ही स्पष्ट कहा गया था। 







~विजय राजबली माथुर ©

Friday, March 3, 2017

पूँजी और मुनाफे के संकेन्द्रण से जीवन में गहन संकट पैदा होगा ------ Mukesh Tyagi

Mukesh Tyagi

"समाज में स्वतन्त्र चिंतन-विचार को भी नियंत्रित करने का अभियान चल रहा है क्योंकि पूँजी और मुनाफे के इस संकेन्द्रण से अधिकाँश लोगों के जीवन में जो गहन संकट पैदा होगा उसके ख़िलाफ़ होने वाले हर प्रतिरोध को पहले ही दबा देने की कोशिश की जा रही है। फासीवादी हमले को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। फासीवादी गुंडा दलों के पीछे असल में उद्योग, मीडिया, तकनीक, शिक्षा जगत, आदि को नियंत्रित करने वाले ये वित्तीय पूंजीपति ही हैं।"
बैंक में हम जो बचत (savings) या चालू (current) खाता खोलते हैं उसे माँग (demand) खाता भी कहा जाता है क्योंकि इसमें बैंक हमारा रुपया लेकर वादा करता है कि माँगते ही वह हमें वह रकम अदा करेगा। इन खातों में यही contract होता है। लेकिन अब कहा जा रहा है कि बैंक हमें रकम अपनी शर्तों पर देगा, नहीं तो दंड वसूल करेगा। क़ानूनी तौर इसे वादाखिलाफी माना जाना चाहिए, पर आज की स्थिति यही है कि हम बैंकों की इस खुली डकैती के सामने मजबूर हैं। क्यों?
इसके लिए हमें पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की 2 मुख्य अवस्थाओं को समझना चाहिए। पहली अवस्था में औद्योगिक पूँजी थी अर्थात उद्योग के मालिक अपनी पूँजी लगाकर उद्योग चलाते थे, श्रमिकों की श्रम शक्ति खरीदते थे, उसका अधिशेष (surplus value) हथिया कर मुनाफा बनाते थे। लेकिन इनकी स्थिति बाजार और समाज पर आधिपत्य करने की नहीं थी और इन्हें माँग/सप्लाई के बाज़ार नियमों पर प्रतिस्पर्धा करनी होती थी। उस समय बैंकों की भूमिका मुख्यतः भुगतान व्यवस्था को संचालित करना था। 
फिर उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ उद्योगों को अधिक पूँजी की जरुरत हुई। भुगतान व्यवस्था में अपनी स्थिति के चलते बैंक इसमें मध्यस्थ बन गए। उन्होंने पुराने अभिजात वर्ग, व्यापारिक तबके और उभरते मध्य वर्ग के अनुत्पादक धन को इकठ्ठा कर उद्योगों को कर्ज देना शुरू किया, बाद में शेयरों के जरिये पूँजी भी बैंकों के माध्यम से जुटाई जाने लगी। बैंक या उनके विभिन्न रूपी वित्तीय संस्थान (म्यूच्यूअल फण्ड, बीमा कम्पनी, हेज / वेंचर / पेंशन फण्ड, आदि) ही आज उद्योगों के लिए पूँजी के मुख्य स्रोत हैं। ब्याज़ और लाभांश के रूप में यह पूँजी श्रम के अधिशेष में अपना हिस्सा वसूलती है। इस पूँजी को वित्तीय पूँजी कहा जाता है। 
लेकिन जहाँ पहले बहुत से पूँजीपति बाज़ार में मुकाबला करते थे वहाँ अब इस वित्तीय पूँजी के चंद बड़े खिलाडी संस्थान ही उद्योग/व्यापार के हर क्षेत्र को ही नहीं शिक्षा, मीडिया, फिल्म, कला-साहित्य से लेकर राजनीति तक पर अपनी विशाल पूँजी की ताक़त से नियंत्रण कर चुके हैं और बहुत सारे तथाकथित शोध संस्थान, थिंक टैंक और एनजीओ इनके पैसे से चलते हैं। नीति-कानून बनने से लेकर सामाजिक आंदोलनों तक को इनमें वेतनभोगी या फंड प्राप्त 'बुद्धिजीवी' प्रभावित करते हैं। 
यह वित्तीय पूँजी ही आज मुनाफे की अपनी अंतहीन भूख से अर्थव्यवस्था ही नहीं जीवन के उस प्रत्येक पहलू को नियंत्रित करना चाहती है जो अभी उससे बचा हुआ है जैसे छोटे उद्योगों-कारोबारों, खेती-बाड़ी, रेहड़ी-पटरी वालों, कुशल-अर्धकुशल श्रमिकों की सेवाओं की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था। इसी के लिए जीएसटी, डिजिटल, कैशलेस, आधार, आदि के नियंत्रण का पूरा जाल इतने हमलावर ढंग से बिछाया जा रहा है जिससे हर क्षेत्र से श्रम द्वारा पैदा अधिशेष का मुख्य हिस्सा यह वित्तीय पूँजी हथिया सके। 

इसी क्रम में समाज में स्वतन्त्र चिंतन-विचार को भी नियंत्रित करने का अभियान चल रहा है क्योंकि पूँजी और मुनाफे के इस संकेन्द्रण से अधिकाँश लोगों के जीवन में जो गहन संकट पैदा होगा उसके ख़िलाफ़ होने वाले हर प्रतिरोध को पहले ही दबा देने की कोशिश की जा रही है। फासीवादी हमले को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। फासीवादी गुंडा दलों के पीछे असल में उद्योग, मीडिया, तकनीक, शिक्षा जगत, आदि को नियंत्रित करने वाले ये वित्तीय पूंजीपति ही हैं।

https://www.facebook.com/MukeshK.Tyagi/posts/1690371410989333

  ~विजय राजबली माथुर ©
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03-03-2017 
03-03-2017