Saturday, April 7, 2018

विवाह संस्था से पारिवारिक - सामाजिक स्थिरता ------ विजय राजबली माथुर



आजकल विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं, फेसबुक, ब्लाग वगैरह पर कुछ महिला और कुछ पुरुष लेखकों द्वारा भी समाज के पितृ  सत्तात्मक होने व महिलाओं के दोयम दर्जे की बातें बहुतायत से देखने - पढ़ने को मिल जाती हैं। लेकिन ऐसा हुआ क्यों ? और कैसे ? इस पर कोई चर्चा नहीं मिलती है। अतः यहाँ इसी का विश्लेषण किया जा रहा है जो कि,  समाजशास्त्रीय विधि पर आधारित है । समाजशास्त्रीय विश्लेषण अनुमान विधि को अपनाता है क्योंकि प्राचीन काल के कोई भी प्रमाण आज उपलब्ध नहीं हैं। इस पद्धति में जिस प्रकार 'धुआँ देख कर आग लगने '  का अनुमान   और ' किसी गर्भिणी को देख कर संभोग होने ' का अनुमान किया जाता है  जो कि, पूर्णतया सही निकलते हैं उसी प्रकार प्राप्त संकेतों के अनुसार समाज के विकास - क्रम का अनुमान किया जाता है ।  
अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था। इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था। कोई किसी की संपति (asset) न थी,समूहों का नेतृत्व मातृसत्तात्मक  (mother oriented) था। इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाषाण काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है। परिवार के सम्बन्ध में यह ‘अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मातृ सत्तामक समूह रहे हों)।
अब से दस लाख वर्ष पूर्व जब इस पृथ्वी पर मानव की सृष्टि हुई तो प्रारम्भिक तौर पर युवा नर और नारी का सृजन हुआ था।इसी प्रकार सभी प्राणी युवा रूप में ही सृजित हुये थे ।  (यदि यूरोपीय दृष्टिकोण को सही मानें तब  यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है  कि, पहले मुर्गी या पहले अंडा ? ) क्योंकि केवल युवा नर - नारी ही सृजन कर सकते थे बाल या वृद्ध नहीं। संतान की पहचान उसकी जननी माँ से होती थी । 
इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था। मानव के ह्रास – विकास की कहानी सतत संघर्षों को कहानी है । अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था। इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,  भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था। malthas - माल्थस  के अनुसार उत्पन्न संतानों में आहार, आवास तथा प्रजनन के अवसरों के लिए –‘जीवन के लिए संघर्ष’ हुआ करता है जिसमे प्रिंस डी लेमार्क के अनुसार ‘व्यवहार तथा अव्यवहार’ के सिद्दंतानुसार ‘योग्यता ही जीवित रहती है ’अथार्त जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी वहीँ वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया। कालांतर में तेज बुद्धि मनुष्य ने पत्थर और काष्ठ के उपकरणों तथा शस्त्रों का अविष्कार किया तथा जीवन पद्धति को और सरल बना लिया। इसे ‘उत्तर पाषाण काल’ की संज्ञा दी गयी। पत्थरों के घर्षण से अग्नि का अविष्कार हुआ और मांस को भून कर खाया जाने लगा ।  शिकार की तलाश और जल की उपलब्धता के आधार पर इन समूहों को परिभ्रमण करना होता था जिस क्रम में एक स्थान या जलाशय पर नियंत्रण हेतु इन समूहों में परस्पर संघर्ष होने लगे। अपनी शारीरिक संरचना के कारण संघर्ष - युद्धों में स्त्री- नारी - महिला कमजोर पड़ने लगी और बलिष्ठ होने के कारण पुरुषों का प्रभुत्व बढ्ने लगा। अब धीरे - धीरे परिवार व समाज में भी पुरुष वर्चस्व स्थापित होता गया और परिस्थितियों के चलते स्त्री ने भी इसे स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया। अब परिवार की पहचान स्त्री के बजाए पुरुष से होने के कारण संतान की पहचान भी माँ के बजाए पिता से होने लगी।' विवाह ' संस्था  का उदय हुआ और इसी अवस्था से समाज पुरुष - प्रधान होता चला गया है। परंतु विवाह संस्था ने परिवार को स्थिरता प्रदान की अब केवल माँ का ही दायित्व संतान के विकास का नहीं रह गया बल्कि उसमें पिता का भी योगदान मिलने लगा था। 
धीरे धीरे मनुष्य ने देखा की फल खा कर फेके गए बीज किस प्रकार अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का आकार ग्रहण कर लेते हैं। एतदर्थ उपयोगी पशुओं को अपना दास बनाकर मनुष्य कृषि करने लगा।  कृषि के आविष्कार के कारण स्थाई रूप से निवास भी करने लगा।उत्पादित फसलों के आदान - प्रदान से समाज का निर्वहन होने लगा।  
यहाँ विशेष स्मरणीय तथ्य यह है की जहाँ कृषि उपयोगी सुविधाओं का आभाव रहा वहां का जीवन पूर्ववत ही था यत्र - तत्र पाये जाने वाले आदिवासी समाज इसका उदाहरण हैं परंतु उनमें से भी अधिकांश आज पुरुष - प्रधान हो गए हैं।  इस दृष्टि से गंगा-यमुना का दोआबा विशेष लाभदायक रहा और यहाँ उच्च कोटि की सभ्यता का विकास हुआ जो आर्य सभ्यता कहलाती है और यह क्षेत्र आर्यावर्त। कालांतर में यह समूह  सभ्य,सुसंगठित व सुशिक्षित होता  गया ।  व्यापर कला-कौशल और दर्शन में भी ये सभ्य थे। 
 महाभारत काल के बाद समाज में स्थिति बिगड़ने लगी और पौराणिक काल में ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ्ने के साथ - साथ नारियों की स्थिति निम्न से निम्नतर होती गई किन्तु आज स्त्रियाँ संघर्ष के जरिये  समाज में अपना खोया सम्मान प्राप्त करने में सफल हो रही हैं और विवेकवान पुरुष भी इस बात का समर्थन करने लगे हैं।
किन्तु पूंजी की पूजा ने वर्तमान में वे विकृतियाँ उत्पन्न कर दी हैं जिनका उल्लेख इस प्रकार मिलता है : 



आदिम अवस्था तो वापिस नहीं लौट पाएगी किन्तु केकेयी व सीता के युग को तो पुनः स्थापित किया ही जा सकता है जिसमें नर और नारी समान थे कोई छोटा या बड़ा नहीं। 
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हिंदुस्तान, लखनऊ, दिनांक 13 अप्रैल 2018 से साभार 

 ~विजय राजबली माथुर ©