Monday, February 18, 2019

इनको तो पता ही नहीं ये देश क्या है, यहां की संस्कृति क्या है ? : कृष्णा सोबती ------ आर चेतनक्रान्ति





रियर व्यू मिरर : 
* जज ने कहा, अमृता प्रीतम को तो मैं जानता हूं, पर कृष्णा सोबती का नाम नहीं सुना। तब उन्होंने कठघरे से कहा, ‘मैं उस भाषा की लेखिका हूं जो इस देश की राष्ट्रभाषा है।’ 
** वर्तमान सरकार के गद्दीनशीन होने के बाद उनका एकमात्र विषय चौड़ी छाती वाले इसके नायक का विरोध था। ‘इनको तो पता ही नहीं ये देश क्या है, यहां की संस्कृति क्या है ? संस्कृति-संस्कृति चिल्लाते हैं, इनको पता भी है संस्कृति क्या होती है ?'



कृष्णा जी बतौर लेखक एक संपूर्ण इकाई थीं। लेखक होना उनके लिए सिर्फ मूल्य नहीं था, वह उनका स्वभाव था। इसके अलावा कुछ और होने को वे कभी तैयार नहीं हुईं। बंटवारे के बाद लाहौर के हॉस्टल में अपने कमरे की दीवार पर चॉक से यह लिखकर कि ‘याद रखना, कभी हम भी यहां रहे थे’, वे दिल्ली आईं। 

लेखक कब बनीं, यह अब उनको याद नहीं था। 18 फरवरी 1925 को उनकी पैदाइश है। पिछले साल जब उन्हें ज्ञानपीठ मिला तो सन् 35 के कलकत्ता के किसी पत्र (शायद ‘विचार’) में छपी उनकी एक कविता किसी ने ढूंढकर निकाली थी। उससे पहले चार पंक्तियों की एक कविता लिखकर उन्होंने स्कूल में इनाम जीता था, जो उन्हें 94 की उम्र में याद थी, अक्सर उसे सुनाती भी थीं। 

मान सकते हैं कि लेखक उनके भीतर बहुत शुरू से था, लेकिन जो आकार उसने धीरे-धीरे लिया, वह हिंदी में ही नहीं सारी भारतीय भाषाओं में दुर्लभ है। उनका लेखक होना उनका सब कुछ होना था और वह अंत तक रहा। जाने के बारह दिन पहले उन्होंने अस्पताल में अपने पहले उपन्यास ‘चन्ना’ की प्रकाशित प्रति को अपने सीने पर रखकर प्यार किया और पूछा कि इस पर जो फोटो मैंने दिया है वह ठीक से छपा है न! 

‘चन्ना’ 1952 में लिखा गया था। भगवती चरण वर्मा की सलाह पर वह इलाहाबाद के एक प्रकाशक के यहां छपने गया। पांडुलिपि टाइप की थी क्षेमचंद्र सुमन ने। प्रकाशक को किताब अच्छी लगी और उसने पाकिस्तान से आई ‘शरणार्थी हिंदी लेखिका की पहली किताब’ छापने का निर्णय रचनाकार तक पहुंचा दिया। किताब छपने लगी, कुछ छपी। पर छपे हुए पन्ने जब ‘लेखिका’ को मिले तो उसने पहला काम यह किया कि प्रकाशक को तार भेजा, ‘छपाई रोक दें। मैं इलाहाबाद आ रही हूं।’ 

इसका कारण यह था कि प्रकाशक और उनके प्रूफरीडर (नागरी प्रचारिणी से आए श्री लल्लू लाला) ने उपन्यास के कुछ पात्रों के नाम और कुछ स्थानीय शब्द बदल दिए थे। ‘नई लेखिका’ को ‘बड़े प्रकाशक’ का यह फैसला मंजूर नहीं हुआ और छपे हुए तमाम फर्मे अपने सामने जलवाकर उसने प्रकाशक का खर्च बाद में दो किश्तों में चुका दिया। ’52 में लिखा गया वह उपन्यास ‘चन्ना’ उनकी आखिरी किताब की शक्ल में 2019 के पुस्तक मेले में आया। लेखक होने के अर्थ को जीने का यह पहला उदाहरण है, लेकिन जो उन्हें नजदीक से जान पाए वे जानते हैं कि यही उनका हर पल था- लेखक होना। जीवन-भर वे रात को दस बजे से सुबह चार बजे तक अपनी स्टडी टेबल पर होती थीं और कुछ न कुछ लिखती थीं। 

वर्तमान सरकार के गद्दीनशीन होने के बाद उनका एकमात्र विषय चौड़ी छाती वाले इसके नायक का विरोध था। ‘इनको तो पता ही नहीं ये देश क्या है, यहां की संस्कृति क्या है। संस्कृति-संस्कृति चिल्लाते हैं, इनको पता भी है संस्कृति क्या होती है/’ चीखकर वे यहां रुकती थीं, चाय का सिप लेती थीं और सामने बैठे व्यक्ति को कहती थीं, ‘जी आप लीजिए न कुछ, प्लीज।’

यह क्रोध भी उनके लेखक होने का हिस्सा था। वे कहती थीं, लेखक कभी सत्ता के साथ नहीं हो सकता। वे खुद कभी नहीं रहीं। कितने ही पुरस्कारों को उन्होंने मना किया। अपने लिए होने वाले कितने ही आयोजनों को स्थगित करा दिया क्योंकि उन्हें उनमें अपने ‘लेखक’ का समुचित सम्मान दिखाई नहीं दिया। 

और छब्बीस साल एक मुकदमा लड़कर हारीं। ‘जिंदगीनामा’ के शीर्षक को लेकर वे अमृता प्रीतम जैसी रसूखदार और लोकप्रिय लेखिका से अकेली लड़ीं। मुकदमे की सुनवाई में जज ने कहा, अमृता प्रीतम को तो मैं जानता हूं, पर कृष्णा सोबती का नाम नहीं सुना। तब उन्होंने कठघरे में खड़े होकर कहा, ‘मैं उस भाषा की लेखिका हूं जो इस देश की राष्ट्रभाषा है।’ और ठहाका लगाकर हंसीं। उन्हें अदालत को लेकर एक उपन्यास लिखना था। आखिरी दिनों तक कहती रहीं कि यह रह गया। उसे अपने भीतर ही लेकर चली गईं, पर बहुत कुछ छोड़ भी गईं....हमारे लिए।


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 ~विजय राजबली माथुर ©