Monday, October 31, 2011

खाड़ी युद्ध के भारत पर भावी परिणाम-1991 का अप्रकाशित लेख(1 )


सन 1991 मे राजनीतिक परिस्थितिए कुछ इस प्रकार तेजी से मुड़ी कि हमारे लेख जो एक अंक मे एक से अधिक संख्या मे 'सप्त दिवा साप्ताहिक',आगरा के प्रधान संपादक छाप देते थे उन्हें उनके फाइनेंसर्स जो फासिस्ट  समर्थक थे ने मेरे लेखों मे संशोधन करने को कहा। मैंने अपने लेखों मे संशोधन करने के बजाए उनसे वापिस मांग लिया जो अब तक कहीं और भी प्रकाशित नहीं कराये थे उन्हें अब इस ब्लाग पर सार्वजनिक कर रहा हूँ और उसका कारण आज फिर देश पर मंडरा रहा फासिस्ट तानाशाही का खतरा है। जार्ज बुश,सद्दाम हुसैन आदि के संबंध मे उस वक्त के हिसाब से लिखे ये लेख ज्यों के त्यों उसी  रूप मे प्रस्तुत हैं-

दुर्भाग्य से 17 जनवरी 1991 की प्रातः खाड़ी मे अमेरिका ने युद्ध छेड़ ही दिया है । दोषी ईराक है अथवा अमेरिका इस विषय मे मतभेद हो सकते हैं। परन्तु अमेरिकी कारवाई न्यायसंगत न होकर निजी स्वार्थ से प्रेरित है। जार्ज बुश (जो तेल कंपनियों मे नौकरी कर चुके हैं) अनेकों बार ईराकी सेना को नष्ट करने की धम्की दे चुके थे। उनके पूर्ववर्ती रोनाल्ड रीगन लीबिया के कर्नल गद्दाफ़ी को नष्ट करने का असफल प्रयास कर चुके थे। बुश पनामा के राष्ट्रपति का अपहरण करने मे कामयाब रहे । ईराक पर अमेरिकी आक्रमण का उद्देश्य कुवैत को मुक्त  कराना नहीं अमेरिकी साम्राज्यवाद को पुख्ता कराना है।

जब खाड़ी समस्या प्रारम्भ हुई तो वी पी सरकार के कुशल कदम से ईराक और कुवैत मे फंसे भारतीयों को स्वदेश ले आया गया। परन्तु जब युद्ध के बादल मंडराने लगे तो राजीव गांधी-समर्थित चंद्रशेखर सरकार ने खाड़ी क्षेत्र मे फंसे 12-13 लाख भारतीयों को स्वदेश लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सफाई देते हैं कि वे प्रवासी भारतीय लौटना नहीं चाहते थे और अब युद्ध काल मे उन्हें बुलाया नहीं जा सकता।

युद्ध का लाभ-

एक ओर जहां लाखों भारतीयों का जीवन दांव पर लगा है। हमारे देश के जमाखोर व्यापारी खाड़ी संकट की आड़ मे खाद्यान ,खाद्य-तेल और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ा कर अपना काला व्यापार बढ़ा कर लाभ उठाने मे लगे हुये हैं। प्रधानमंत्री कोरी धमकियाँ दाग कर जनता को दिलासा दे रहे हैं। बाज़ार मे कीमतें आसमान छू रही हैं। राशन की दुकानों मे चीनी और गेंहू चिराग लेकर ढूँढने से भी नहीं मिल रहा है।

गरीब जनता विशेष कर रोज़ कमाने-खाने वाले भुखमरी के कगार पर पहुँचने वाले हैं। सरकार ऐययाशी मे व्यस्त  है। उप-प्रधानमंत्री और किसानों के तथाकथित ताऊ चौ. देवीलाल कहते हैं मंहगाई बढ़ाना उनकी सरकार का लक्ष्य है जिससे किसानों को लाभ हो। वह सोने के मुकुट और चांदी की छड़ियाँ लेकर अट्हास कर रहे हैं।

लुटेरा कौन?

लेकिन निश्चित रूप से बढ़ती हुई कीमतों का लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है। किसान कम दाम पर फसल उगते ही व्यापारियों को बेच देता है। जमाखोर व्यापारी कृत्रिम आभाव पैदा कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रहे हैं और उन्हें सरकारी संरक्षण मिला हुआ है।

गाँव के कृषि मजदूर को राशन मे उपलब्ध गेंहू नहीं मिल रहा ,अधिक दाम देकर वह खरीद नहीं सकता। खेतिहर  मजदूर भूखा रह कर मौत के निकट पहुँच रहा है। प्रदेश और केंद्र की सरकारें अपना अस्तित्व बचाने के लिए पूँजीपतियों के आगे घुटने टेके हुये हैं। पूंजीपति वर्ग और व्यापारी वर्ग मिल कर जनता का शोषण कर रहे हैं और गरीब जनता को भूखा मारने की तैयारी कर रहे हैं और वह भी सरकारी संरक्षण मे।

भूखे भजन होही न गोपाला- 

मध्यम वर्गीय जमाखोर व्यापारियों की पार्टी भाजपा हिन्दुत्व की ठेकेदार बन कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के नाम का दुरुपयोग कर जनता को बेवकूफ बनाने मे लगी हुई है उसका उद्देश्य जनता को गुमराह कर व्यापारियों की सत्ता कायम करना है। उधर पूँजीपतियों की पार्टी इंका अवसरवादी सरकारों को टिका कर शोषक वर्ग की सेवा कर रही है। ये दोनों पार्टियां मण्डल आयोग द्वारा घोषित पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की विरोधी हैं इसलिए मंदिर-मस्जिद के थोथे  झगड़े खड़े करके भूखी,त्रस्त जनता को आपस मे लड़ा कर मार देना चाहती हैं।

क्रान्ति होगी-

यदि हालात ऐसे ही चलते रहे और खाड़ी युद्ध लम्बा चला जिसकी कि प्रबल संभावना है तो निश्चय ही शोषित ,दमित,पीड़ित और भूखी जनता एक न एक दिन (चाहे वह जब भी आए)भारत मे भी वैसी ही 'क्रान्ति'कर देगी जैसी 1917 मे रूस मे और 1949 मे चीन की भूखी जनता ने की थी उसे तलाश है किसी 'लेनिन' अथवा 'माओ' की जिसे भारत -भू पर अवतरित होना ही होगा।
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(एक तो हमारे देश के शोषक वर्ग ने 'पुरोहितवाद'की आड़ मे 'फूट' फैलाकर जनता के एकीकरण मे बाधा खड़ी कर रखी है दूसरे शासक वर्ग असंतोष की चिंगारी देखते ही अपने लोगों को बीच मे घुसा कर जन-असंतोष को दूसरी ओर कामयाबी से मोड देता है जैसा कि 2011 मे 'अन्ना' के माध्यम से किया गया है। अफसोस यह कि साम्यवादी और प्रगतिशील लोग शोषकों द्वारा परिभाषित 'पुरोहितवाद' को ही 'धर्म' मान कर "धर्म" का विरोध कर डालते हैं। "धर्म" का अर्थ है -'धारण'करना जो वह नहीं है जैसा पोंगा-पंथी बताते हैं। भारत के लेनिन और माओ को 'धर्म'(वास्तविक =वेदिक/वैज्ञानिक)का सहारा लेकर पोंगा-पंथी 'पुरोहितवाद पर प्रहार करना होगा तभी भारत मे 'क्रान्ति'सफल हो सकेगी अन्यथा 1857 की भांति ही कुचल दी जाएगी। ) 

Friday, October 28, 2011

मनोज दास जी,बाम-पंथ और आध्यात्मिकता

हिंदुस्तान,लखनऊ,25 अक्तूबर,2011 
उडिया भाषा के प्रख्यात साहित्यकार मनोज दास जी जो खुद बाम-पंथी रहे हैं और अब आध्यात्मिकता के मार्ग से जन-कल्याण मे लगे हुये हैं यहाँ स्पष्ट रूप से कह गए हैं कि 'बुकर पुरस्कार' भारत को नीचा दिखाने वालों को दिया जाता है और "बुकर पुरस्कार तय करने वाली कमेटी सामाजिक यथार्थ और कामुकता का काकटेल है।"

अभी कुछ ही दिनों पहले जन-लोकपाल को नियुक्त करने की कमेटी मे 'बुकर' पुरस्कार प्राप्त लोगों को रखने की मांग एक भारत-विरोधी शख्स ने खुले आम रखी थी। उसी शख्स ने स्वाधीनता दिवस पर ब्लैक आउट रखवाया था उसी ने राष्ट्रध्वज का अपमान करवाया था और आज भी वह तथा उसके गैंग के लोग निर्बाध  घूम रहे हैं।दुर्भाग्य यह है कि विद्वान भी जिनमे इंटरनेटी ब्लागर्स भी शामिल हैं उसी देशद्रोही शख्स के अंध-भक्त बने हुये हैं।

मनोज दास जी ने बताया है कि आज 36 प्रतिशत लोग 'अवसाद'-डिप्रेशन -से ग्रस्त हैं । बच्चों को अपने माँ-बाप पर नही ,फेसबुक और एस एम एस पर विश्वास है।मेरे विचार मे  उसी प्रकार इंटरनेटी ब्लागर्स को देश-भक्तों पर नही 'अन्ना' पर विश्वास है। अन्ना आंदोलन कांग्रेस  के मनमोहन गुट,संघ/भाजपा ,भारतीय और अमेरिकी कारपोरेट घरानों तथा अमेरिकी प्रशासन के सहयोग  से 'कारपोरेट-भ्रष्टाचार के संरक्षण' हेतु चलाया गया था। अपने उद्देश्य मे वह जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ कर पूरी तरह सफल रहा है।  टाटा,अंबानी,नीरा राडिया आदि उद्योगपति और उनके दलाल जिनहोने 'राजा' आदि मंत्री अपने हितार्थ बनवाए खुले घूम रहे हैं और राजा आदि मंत्री जिनहोने इन उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाया जेल मे विराजमान हैं। राजनेताओं का मखौल उड़ाने वाली किरण बेदी एयर टिकटों का घपला करके और अरविंद केजरीवाल प्राप्त चंदे मे घपला करके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मे जनता को बेवकूफ बना रहे थे। हमारे इंटरनेटी ब्लागर्स उनका गुणगान कर रहे थे/हैं। सम्पूर्ण परिस्थितियों के लिए धर्म के नाम पर फैली अधार्मिकता जिम्मेदार है। लेकिन अफसोस कि हमारा बाम-पंथ अधार्मिकों की परिभाषा स्वीकार करके धर्म का विरोध करता तथा जनता की सहानुभूति खोता रहता है। जब मै धर्म की परिभाषा बताने का प्रयास करता हूँ तो सांप्रदायिक तत्व मुझ पर प्रहार करते हैं और हमारे बाम-पंथी बंधु भी उसका विरोध करते हैं। 'सत्य' कड़ुवा होता है और उसे कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता।

आध्यात्मिकता=अध्ययन +आत्मा= अपनी आत्मा का अध्ययन करना ही अध्यात्म है।


धर्म=जो धारण करता है (शरीर को धारण करने हेतु जो आवश्यक है वही धर्म है बाकी सब अधर्म है,एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए मूली अथवा दही का सेवन करना धर्म है लेकिन जुकाम-खांसी के रोगी व्यक्ति हेतु वही दही अथवा मूली सेवन अधर्म है)। यह व्यक्ति सापेक्ष है। सब को एक ही तरह नहीं हाँका जा सकता।

भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन)+व (वायु)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)। इन पाँच प्रकृतिक तत्वों के समन्वय को भगवान कहते हैं इनके पहले अक्षरों के संयोजन से और चूंकि ये खुद ही बने हैं इन्हें किसी ने बनाया नहीं है इसीलिए इन्हे 'खुदा' भी कहते हैं और चूंकि ये GENERATE,OPERATE ,DESTROY करते हैं पहले अक्षरों के संयोजन से इन्हे ही GOD भी कहते हैं। भगवान=खुदा =GOD तीनों एक ही के तीन नाम हैं। मतभेद कहाँ है?

मतभेद जो है वह दलालों=पुरोहितों ने अपने निजी स्वार्थ मे जनता को बाँट कर शोषण करने हेतु उत्पन्न किया है। अतः हमे पुरोहितवाद का जम कर और डट कर विरोध करना है न कि,अध्यात्म,भगवान,खुदा या गाड का या शरीर को धारण करने वाले धर्म का।

बाम-पंथ,कम्यूनिस्ट और वैज्ञानिक यहीं गलती करते हैं कि वे ढ़ोंगी-पोंगापंथी-पुरोहितों की व्याख्या को धर्म मान कर धर्म का विरोध करते हैं। महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी पुरोहितवाद को ही धर्म मान कर उसका विरोध किया है। आज के कम्यूनिस्ट भी दक़ियानूसी पोंगापंथियों के काले कारनामों को ही धर्म मान कर धर्म का विरोध करते हैं जबकि उन्हे वास्तविकता को समझ कर,पहचान कर जनता को भी समझाना चाहिए तभी 'मानव को मानव के शोषण 'से मुक्त कराकर 'मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध' बनाया जा सकेगा अन्यथा पुरोहितवाद का शिकार होकर परस्पर संघर्षरत रह कर जनता अपना उल्टे उस्तरे से मुंडन कराती रहेगी।

साहित्यकार मनोज दास जी ने जनता को  बामपंथ के मर्म  को समझाने हेतु अध्यात्म का मार्ग अपना कर एक  सकारात्मक पहल की है। हम उनके प्रयासों की सफलता की कामना करते हैं और 'भाई-दोज़' के इस पावन पर्व पर दुनिया मे भाई-चारा और अमन कायम करने की दिली ख़्वाहिश रखते हैं।

'भाई-दोज' पर' चित्रगुप्त-पूजा' भी होती है। 'चित्रगुप्त' के संबंध मे भी पुरोहितवाद ने भ्रांति फैला रखी है। ढोंगियों के अनुसार ब्रह्मा जी की काया से उत्पन्न होने के कारण 'कायस्थ'कहलाने वाले चित्रगुप्त की एक पत्नी ब्राह्मण कन्या और दूसरी नाग कन्या थीं। पढे-लिखे और समझदार कहलाने वाले कायस्थ इसे ही सही मान कर इतराते हैं। लेकिन यह पुरोहितवाद के शिकंजे को और मजबूत करने वाली मनगढ़ंत दन्त-कथा है।

वस्तुतः अब से दस लाख वर्ष पूर्व जब मानव आज जैसी स्थिति मे आया तो बुद्धि,ज्ञान और विवेक द्वारा उसने मनन करना प्रारम्भ किया और इसीलिए वह 'मनुष्य' कहलाया। उस समय 'काया' से संबन्धित ज्ञान देने वाले को 'कायस्थ' कहा गया। अर्थात मनुष्य की 'काया' से संबन्धित सभी प्रकार का ज्ञान देना इस कायस्थ का कर्तव्य था। 12 राशियों के आधार पर चित्रगुप्त की 12 संतानों की गणना प्रचलित हो गई। 

'चित्रगुप्त' कोई व्यक्ति-विशेष नहीं है बल्कि प्रत्येक मनुष्य के 'अवचेतन-मस्तिष्क' मे  गुप्त रूप से सक्रिय रहने वाला उसका अपना ही 'चित्त' है । प्रत्येक मनुष्य द्वारा किए गए सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म का लेखा-जोखा उसके अपने मस्तिष्क के इसी 'चित्त' पर गुप्त रूप से अंकित होता रहता है जो मोक्ष-प्राप्ति तक जन्म-जन्मांतर मे उस मनुष्य के 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' के साथ उसकी 'आत्मा' के साथ चलता रहता है और उसी अनुरूप आगामी जन्म मे उसका 'भाग्य' या प्रारब्ध निर्धारित होता है।

अतः चित्रगुप्त पूजा का अभिप्राय तो मानव मस्तिष्क मे  इस 'गुप्त' रूप से अवस्थित 'चित्त' को स्वस्थ व संतुलित रखने से है न कि,पुरोहितवादी वितंडवाद  मे फँसने से।

बढ़ती आबादी के साथ-साथ जब  'कायस्थ' पर अधिक भार हो गया तो 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा को चार वर्गों मे बाँट दिया गया-
1-ब्रह्मांड से संबन्धित ज्ञान को ब्रह्म-विद्या और देने वाले को 'ब्राह्मण' कहा गया ,उत्तीर्ण करने पर विद्यार्थी को 'ब्राह्मण' की उपाधी दी जाती थी। 
2-क्षात्र विद्या जिसमे सैन्य तथा सामान्य प्राशासन आता था को 'क्षत्री' कहा गया। 
3-व्यापार,बानिज्य से समांबंधित ज्ञान को 'वैश्य' -उपाधि  से विभूषित किया गया। 
4-विभिन्न प्रकार की सेवाओं से संबन्धित ज्ञान प्राप्त  करने वालों को 'क्षुद्र' की उपाधि मिलती थी। 

ये चारों उपाधियाँ अर्जित ज्ञान के आधार पर थीं। 'कर्म' करना उनका उद्देश्य था। जैसे बिना डिग्री के डॉ की संतान डॉ नहीं हो सकती,इंजीनियर की संतान बिना डिग्री के इंजीनियर नहीं हो सकती उसी प्रकार उस समय भी ये उपाधियाँ ज्ञानार्जन से प्राप्त करने वाला ही उसके अनुरूप उन्हें धारण व उनका उपयोग कर सकता था। एक ही पिता की अलग-अलग सन्तानें उपाधि के आधार पर -ब्राह्मण,क्षत्री,वैश्य और क्षुद्र हो सकती थीं।

कालांतर मे शोषणवादी व्यवस्था मे 'पुरोहितवाद' पनपा और उसने इन उपाधियों-डिगरियों के स्थान पर 'कर्म'सिद्धान्त की अवहेलना करके 'जातिगत'व्यवस्था फैला दी जो आज तक उत्पीड़न और शोषण का माध्यम बनी हुई है।

जरूरत तो इस बात की है कि अपनी प्राचीन 'कर्म-सिद्धान्त'पर आधारित ज्ञान-व्यवस्था को बहाल करने मे कम्यूनिस्ट तथा बामपंथी कोशिश करें तथा जनता को जागरूक करें और 'पुरोहितवाद' की जकड़न से उसे छुड़ाए। लेकिन पुरोहितवादियो के कुचक्र मे फंस कर अभी बामपंथ एवं कम्यूनिस्ट आंदोलन इस ओर से आँखें मूँदे हुये है और इसीलिए सफल नहीं हो पा रहा है। हम आशा करते हैं कि महापंडित राहुल सांस्कृतियायान ,स्वामी सहजानन्द सरस्वती और क्रांतिकारी गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्यसमाजी -कम्यूनिस्टों से प्रेरणा लेकर बामपंथ और कम्यूनिस्ट आंदोलन जनता को 'सन्मार्ग' पर ला सकेगा।

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Wednesday, October 26, 2011

विकृत होते दीपावली/होली पर सकारात्मक पहल




Hindustan-Lucknow-13/10/2011
पावर कार्पोरेशन के स्पेशल  डाइरेक्टर जेनेरल शैलजाकान्त मिश्र साहब ने अपने साथियों के साथ पटाखे छोडने के स्थान पर 'टेसू' के वृक्ष लगाने की जो मुहिम शुरू की है वह न केवल सराहनीय वरन अनुकरणीय भी है। 'टेसू' या 'पलाश' अब उत्तर-प्रदेश का राजकीय वृक्ष तो है ही पर्यावरण संरक्षा मे भी सहायक है। 'टेसू' के फूलों से पहले होली मे रंग एक-दूसरे पर डाला जाता था। इसका रंग कच्चा होने के साथ-साथ जो आसानी से छूट जाता है,चर्म-रोगों से त्वचा की रक्षा भी करता है। पटाखे केवल ध्वनि-प्रदूषण ही नहीं करते बच्चों-बड़ों सभी  के लिए घातक भी होते हैं।

प्रतिवर्ष दीपावली पर करोड़ों रुपए पटाखों पर फूँक दिये जाते हैं। इनसे सिर्फ पर्यावरण ही नहीं प्रदूषित होता। इनके निर्माण के पीछे असंख्य बच्चों के शोषण की कहानी भी छिपी हुई है जिस पर विगत वर्ष मे कुछ ब्लागर्स ने अपने-अपने ब्लाग्स पर खुलासा भी किया था। सुप्रसिद्ध आर्य सन्यासी (अब दिवंगत) स्वामी स्वरूपानन्द  जी के प्रवचन कमलानगर,आगरा मे सुनने का अवसर मिला है। उन्होने बड़ी बुलंदगी के साथ बताया था कि जिन लोगों की आत्मा हिंसक प्रकृति की होती है वे ही पटाखे छोड़ कर धमाका करते हैं। उनके प्रवचनों से कौन कितना प्रभावित होता था या बिलकुल नहीं होता था मेरे रिसर्च का विषय नहीं है। मै सिर्फ इतना ही बताना चाहता हूँ कि यशवन्त उस समय 13 या 14 वर्ष का रहा होगा और उसी दीपावली से उसने पटाखे छोडना बंद कर दिया है क्योंकि उसने अपने कानों से स्वामी जी के प्रवचन को सुना और ग्रहण किया। वैसे भी हम लोग केवल अपने पिताजी द्वारा प्रारम्भ परंपरा निबाहने के नाते प्रतीक रूप मे ही छोटे लहसुन आदि उसे ला देते थे। पिताजी ने अपने पौत्र को शुगन के नाम पर पटाखे देना इस लिए शुरू किया था कि औरों को देख कर उसके भीतर हींन भावना न पनपे। प्रचलित परंपरा के कारण ही हम लोगों को भी बचपन मे प्रतीकात्मक ही पटाखे देते थे। अब जब यशवन्त ने स्वतः ही इस कुप्रथा का परित्याग कर दिया तो हमने अपने को धन्य समझा।

स्वामी स्वरूपानन्द जी  आयुर्वेद मे MD  थे ,प्रेक्टिस करके खूब धन कमा सकते  थे लेकिन जन-कल्याण हेतु सन्यास ले लिया था और पोंगा-पंथ के दोहरे आचरण से घबराकर आर्यसमाजी बन गए थे। उन्होने 20 वर्ष तक पोंगा-पंथ के महंत की भूमिका मे खुद को अनुपयुक्त पा कर आर्यसमाज की शरण ली थी और जब हम उन्हें सुन रहे थे उस वक्त वह 30 वर्ष से आर्यसमाजी प्रचारक थे। स्वामी स्वरूपानन्द जी स्पष्ट कहते थे जिन लोगों की आत्मा 'तामसिक' और हिंसक प्रवृति की होती है उन्हें दूसरों को पीड़ा पहुंचाने मे आनंद आता है और ऐसा वे धमाका करके उजागर करते हैं। यही बात होली पर 'टेसू' के फूलों के स्थान पर सिंथेटिक रंगों,नाली की कीचड़,गोबर,बिजली के लट्ठों का पेंट,कोलतार आदि का प्रयोग करने वालों के लिए भी वह बताते थे। उनका स्पष्ट कहना था जब प्रवृतियाँ 'सात्विक' थीं और लोग शुद्ध विचारों के थे तब यह गंदगी और खुराफात (पटाखे /बदरंग)समाज मे दूर-दूर तक नहीं थे। गिरते चरित्र और विदेशियों के प्रभाव से पटाखे दीपावली पर और बदरंग होली पर स्तेमाल होने लगे।

दीपावली/होली क्या हैं?

हमारा देश भारत एक कृषि-प्रधान देश है और प्रमुख दो फसलों के तैयार होने पर ये दो प्रमुख पर्व मनाए जाते हैं। खरीफ की फसल आने पर धान से बने पदार्थों का प्रयोग दीपावली -हवन मे करते थे और रबी की फसल आने पर गेंहूँ,जौ,चने की बालियों (जिन्हें संस्कृत मे 'होला'कहते हैं)को हवन की अग्नि मे अर्द्ध - पका कर खाने का प्राविधान  था।  होली पर अर्द्ध-पका 'होला' खाने से आगे आने वाले 'लू'के मौसम से स्वास्थ्य रक्षा होती थी एवं दीपावली पर 'खील और बताशे तथा खांड के खिलौने'खाने से आगे शीत  मे 'कफ'-सर्दी के रोगों से बचाव होता था। इन पर्वों को मनाने का उद्देश्य मानव-कल्याण था। नई फसलों से हवन मे आहुतियाँ भी इसी उद्देश्य से दी जाती थीं।

लेकिन आज वेद-सम्मत प्रविधानों को तिलांजली देकर पौराणिकों ने ढोंग-पाखंड को इस कदर बढ़ा दिया है जिस कारण मनुष्य-मनुष्य के खून का प्यासा बना हुआ है। आज यदि कोई चीज सबसे सस्ती है तो वह है -मनुष्य की जिंदगी। छोटी-छोटी बातों पर व्यक्ति को जान से मार देना इन पौराणिकों की शिक्षा का ही दुष्परिणाम है। गाली देना,अभद्रता करना ,नीचा दिखाना और खुद को खुदा समझना इन पोंगा-पंथियों की शिक्षा के मूल तत्व हैं। इसी कारण हमारे तीज-त्योहार विकृत हो गए हैं उनमे आडंबर-दिखावा-स्टंट भर  गया है जो बाजारवाद की सफलता के लिए आवश्यक है। पर्वों की वैज्ञानिकता को जान-बूझ कर उनसे हटा लिया गया है ।

इन परिस्थितियों मे चाहे छोटी ही पहल क्यों न हो 'पटाखा-विरोधियों'का 'टेसू'के पौधे लगाने का यह अभियान आशा की एक किरण लेकर आया है। सभी देश-भक्त ,जागरूक,ज्ञानवान ,मानवता-हितैषी नागरिकों का यह कर्तव्य है कि वे इस अभियान की सफलता मे अपना भी योगदान दें। हम इन समाज-हितैषियों की सफलता की कामना करते हैं।

हिंदुस्तान-लखनऊ-24/10/2011
http://krantiswar.blogspot.com/2010/11/blog-post_05.html

Sunday, October 23, 2011

भारत के राष्ट्रीय हित और खाड़ी युद्ध-1991 का अप्रकाशित लेख

17 जनवरी 1991 से प्रारम्भ हुआ खाड़ी युद्ध दिनों दिन गहराता ही जा रहा है और इसके दुष्परिणाम अभी से हमारे देश पर पड़ने लगे हैं। इस युद्ध की आड़ मे खाद्यानों की भी काला बाजारी हो रही है और डीजल की सप्लाई का तो बुरा हाल है। पेट्रोलियम मंत्री द्वारा दिल्ली-भ्रमण की दूरदर्शन रिपोर्ट मे भले ही पेट्रोलियम सप्लाई सही दर्शा दी गई । आगरा के ग्रामीण क्षेत्रों मे किसान सिंचाई के लिए डीजल न मिलने से अभी से कराह उठे हैं। इसी संबंध मे पुलिस उपाधीक्षक का सिर भी फट चुका है। युद्ध अभी शुरू हुआ है और यह लम्बा चलेगा अब तो हेंकड़बाज अमेरिका भी मानने लगा है।

विदेश नीति के विफलता- 

पूर्व विदेश सचिव वेंकटेश्वरन ने तो भारत द्वारा ईराक का समर्थन करने का केवल  एहसास दिलाने की बात कही है और उन्होने अमेरिका का पक्ष लेने की हिमायत की है। परन्तु वास्तविकता यह है कि,भारत अपनी विदेश नीति मे पूरी तरह कूटनीतिक तौर पर  इसलिए विफल हुआ है कि,युद्ध शुरू होने से रोकने के लिए राष्ट्रसंघ अथवा निर्गुट आंदोलन मे भारत ने कोई पहल ही नहीं की।

 पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी की जार्डन के शाह हुसैन और ईराकी राष्ट्रपति श्री सद्दाम हुसैन से फोन वार्ता के बाद उनके निवास पर विपक्षी बाम-मोर्चा आदि के दलों और विदेशमंत्री श्री विद्या चरण शुक्ल की उपस्थिती मे हुई बैठक मे भारत की विदेश नीति की समीक्षा की गई। बैठक के बाद इंका महासचिव श्री भगत ने सरकार की विदेश नीति की भर्तस्ना की। इसी के बाद विदेश मंत्रियों के दौरे शुरू हुये। अमेरिका ने भारत के शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया और सुरक्षा परिषद ने युद्ध विराम की अपील रद्द कर दी है।

अमेरिका की जीत मे भारत का अहित है-

खाड़ी युद्ध से पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक संकट के साथ बेरोजगारी और बढ्ने तथा भुखमरी और बीमारियों के फैलने का खतरा तो है ही। सबसे बड़ा खतरा अमेरिका की जीत और ईराक की पराजय के बाद आयेगा। उस स्थिति मे पश्चिम एशिया के तेल पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का शिकंजा कस जाएगा वहाँ साम्राज्यवादी सेनाएँ मजबूत किलेबंदी करके जम जाएंगी। भारत आदि निर्गुट देशों को तेल प्राप्त करने के लिए साम्राज्यवादियों की शर्तों के आगे झुकना पड़ेगा। हमारी अर्थनीति और उद्योग नीति पश्चिम के हितों के अनुरूप ढालनी होगी तभी हमे तेल प्राप्त हो सकेगा। अतः भारत का 'स्वाभिमान' दांव पर लग जाएगा यदि अमेरिकी गुट की जीत होती है।

एशिया का गौरव सद्दाम -

यह विडम्बना ही है कि न तो भारत और न ही सोवियत रूस ईराक का साथ दे रहे हैं जबकि दोनों देशों की आर्थिक और राजनीतिक ज़रूरत ईराक और सद्दाम को बचाने से ही पूरी हो सकती है। पश्चिम के साम्राज्यवादी -शोषणवादी हमले को ईराक अकेला ही झेल रहा है। यदि ईराक पराजित होता है तो न केवल पश्चिम एशिया औपनिवेशिक जाल मे फंस जाएगा वरन एशिया और अफ्रीका के देशों को पश्चिम का प्रभुत्व स्वीकार करना ही पड़ेगा।

अतः आज ज़रूरत नेताजी सुभाष चंद्र बॉस द्वारा प्रस्तुत नारे-"एशिया एशियाईओ के लिए" पर अमल करने की है । भारत को एशिया के अन्य महान देशों -चीन और रूस को एकताबद्ध करके अमेरिकी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए और ईराक को नैतिक समर्थन प्रदान करना चाहिए। भारत के स्वाभिमान ,आर्थिक और राजनीतिक हितों का तक़ाज़ा है कि,राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन और ईराक की जीत हो।

(उस समय का मेरा यह आंकलन ज्योतिषीय नहीं विशुद्ध रूप से 'राजनीतिक और कूटनीतिक आंकलन' था और अब तक के समय मे वैसा ही घटित होते देखा गया है। आज तो भारत के भावी प्रधानमंत्री हेतु भी अमेरिका नाम का  सुझाव देने लगा है-कौन सा दल किसे अपना नेता चुने यह भी अमेरिका मे तय हो रहा है। भारत मे किस विषय पर आंदोलन चले यह भी अमेरिका तय कर रहा है-अन्ना आंदोलन इसका ताजा तरीन उदाहरण है। अतीत की गलतियों का खामियाजा आज मिल रहा है और आज जो गलतियाँ की जा रही हैं-अन्ना जैसों का समर्थन उसका खामियाजा आने वाली पीढ़ियों को निश्चित रूप से भुगतना ही होगा। )


Saturday, October 22, 2011

कारपोरेट विरोधी आंदोलन

हिंदुस्तान-17/10/2011 -लखनऊ 
1991 से उदारीकरण की नीतियाँ अपना कर वर्तमान प्रधानमंत्री  साहब ने हमारे देश के एक वर्ग को मोहित कर रखा है। दूसरी तरफ जनता का एक विशाल वर्ग निरन्तर अभावों और मुश्किलों की तरफ बढ़ता गया है। आम आदमी का जीना दुश्वार हो चुका है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने शहरों मे रु 32/- और गावॉ मे रु 26/-से ऊपर रोज कमाने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर मानने का हलफनामा सर्वोच्च न्यायालय को दिया है जिसे योजना आयोग के अध्यक्ष के रूप मे मनमोहन सिंह जी का पूर्ण समर्थन है। सरकारी आंकड़ों मे जो आदर्श आहार सूची जारी हुई है उसका मूल्यांकन यदि वर्तमान बाजार भाव पर करें तो चार आदमियों के परिवार का पालन-पोषण करने हेतु न्यूनतम रु 16000/-माहवार आय  की आवश्यकता है। कितनी विसंगति है सरकारी आंकड़ों और बयानों मे। 'होइहे कौऊ नृप हमही को हानि ' के अनुगामी हमारे देशवासी घुट-घुट कर जी रहे हैं या फांसी लगा कर आत्म-हत्याए कर रहे हैं।

'विद्रोह ' या 'क्रान्ति' कोई ऐसी चीज नहीं होती जिसका विस्फोट एकाएक -अचानक होता है बल्कि इसके अनंतर 'अन्तर' के तनाव को बल मिलता रहता है। अतः हमारे शासकों ने बड़ी चालाकी से बेरोजगारी,मंहगाई,भ्रष्टाचार,उत्पीड़न आदि के कारण उपज रहे असंतोष को भड़कने से पूर्व ही (मनमोहन सिंह ,भाजपा और आर एस एस ने मिल कर) अन्ना हज़ारे और उनकी कारपोरेट भक्त टीम से मिली -भगत करके दूसरी ओर मोड दिया। उपरोक्त स्कैन कापी से स्पष्ट है कि खुद अमेरिका तथा यूरोप मे भी जनता सड़कों पर उतर कर कारपोरेट घरानों की लूट-खसोट का प्रबल विरोध कर रही है। वे साफ-साफ कह रहे हैं कि मुट्ठी भर  लोगों की गलती की सजा 90 प्रतिशत आम जनता क्यों भुगते? लेकिन हमारे देश मे ठीक उल्टा हुआ है -कारपोरेट घरानों ने अन्ना आदि को सरकार तथा मुख्य विपक्षी दल भाजपा के सहयोग से आगे करके  जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ कर सरे आम ठग लिया।

मैंने अपने ब्लाग्स-'क्रांतिस्वर','कलम और कुदाल' पर अन्ना टीम का कडा विरोध किया था। कुछ जागरूक दूसरे ब्लागर्स ने भी अन्ना की पोल खोली थी। अफसोस यह कि इंटरनेटी बुद्धिजीवियों ने अन्ना का बड़ी बेशर्मी से समर्थन किया है यह जानते हुये भी कि अन्ना आंदोलन को भाजपा/संघ,मनमोहन गुट के अलावा भारतीय तथा अमेरिकी कारपोरेट घरानों एवं अमेरिकी प्रशासन का खुला समर्थन था।अन्ना भारत मे कार्पोरेटी तानाशाही लाने की कोशिशों मे जूटे हुए हैं जो नाममात्र के चल रहे लोकतन्त्र को भी खत्म कर देगी और जनता कहीं भी मुँह खोलने लायक नहीं बचेगी।

कारपोरेट घरानों ने न केवल जनता का आर्थिक शोषण किया है बल्कि सामाजिक,धार्मिक क्षेत्रों को भी इन्होने अपने चंगुल मे कर रखा है और राजनीति को तो इन्होने अपना बंधुआ ही बना लिया है। अतः यदि हमे अपने देश मे चल रहे खानापूरी के लोकतन्त्र को बचाना है तो कारपोरेट घरानों का खुल कर और जम कर विरोध करना ही होगा। इसके लिए उनके द्वारा फैलाये धार्मिक वितंडावाद को भी ठुकराना होगा। काश हमारे देशवासियों को इस दीपावली पर सद्बुद्धि हासिल हो जाये!



दोनों कतरनें-साभार-हिंदुस्तान-लखनऊ-21/10/2011 

Friday, October 21, 2011

यदि मै प्रधान मंत्री होता ?

जब यशवन्त 6 या 7 वर्ष का रहा होगा तब उसके लिए यह निबंध लिख कर दिया था जो उस समय की परिस्थितियों के आधार पर तैयार किया था-                                                                                                  

मै न तो व्यंग्य लेखक हूँ ,न पत्रकार न राजनीतिज्ञ फिर कैसी काल्पनिक बातें कर रहा हूँ-आप हँसेंगे। जी हाँ 07 दिसंबर 1990 के पंजाब केसरी मे "निबन्ध लिखो" शीर्षक से श्री मदन गुप्ता सपाटू का व्यंग्य पढ़ कर मुझे निबन्ध लिखने का शौक चररा आया। मेरी  जान-पहचान चोपड़ा जी (श्री विजय कुमार चोपड़ा'निर्बाध') से नहीं है वरना उन्हें ही यह निबन्ध 'पंजाब केसरी'मे छापने को भेजता। वैसे आगे बड़ी कक्षाओं मे ऐसे निबन्ध मुझे भी लिखने ही होंगे,सोचा क्यों न अभी से अभ्यास कर लिया जाये। वैसे मज़ाक करना तो बच्चों का धर्म है ही।सो पढ़िये मेरा बाल मज़ाक-

देश के सामने विषम परिस्थितियों को देखते हुये राष्ट्रपति महोदय ने सरकार बर्खास्त करके लोक-सभा भंग कर दी होती और मुझे प्रधान मंत्री बना दिया होता तो मै दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर एक आदर्श सरकार का गठन करता। मित्र जी को वित्त मंत्री, जेनरल अरोड़ा को रक्षा मंत्री,भूषण जी को गृह मंत्री बना कर मै विकट समस्याओं से निश्चित हो जाता। महिलाओं और मजदूरों के कल्याण के ख्याल से सुभाषिनी अली को 'श्रम एवं कल्याण मंत्री'बना कर समाज की सबसे बड़ी समस्याओं पर भी पार पा लेता। सभी विश्वविद्यालयों और बड़े कालेजों को तीन साल के लिए बन्द कर देता इसलिए मेरी  सरकार मे कोई शिक्षा मंत्री नहीं होता।

मै अपने पास सिर्फ सूचना प्रसारण मंत्रालय रखता ,इसी विभाग मे गुप्तचर विभाग का विलय कर देता। महत्वपूर्ण सूचना का स्त्रोत तो हमारे गुप्तचर ही होते हैं। सूचना विभाग से सबसे पहले संकीर्ण सांप्रदायिक मनोवृत्ति के कर्मचारियों की छटनी कर देता। हमारे देश मे फैले हाल के सांप्रदायिक दंगों के  पीछे हमारे दूरदर्शन की भी गलत भूमिका रही है। दूरदर्शन ने ही  निर्दोष छात्रों को मण्डल कमीशन का विरोध करके मरने के लिए उकसाया था। अतः दोषी अधिकारी और कर्मचारी जायज सजा के पात्र हैं।

बढ़ रही मंहगाई,जमाखोरी और काला बाजारी को दूर करने के लिए तुरंत सौ और पचास के नोटों को रद्द कर देता। बीस बड़े औढयोगिक ग्रुपों को अविलंब सरकारी नियंत्रण मे ले लेता। टाटा,बिड़ला आदि बड़े घरानों को किसी भी प्रकार का कोई मुआवजा न दिलवाता।

बेरोजगारी दूर करने के लिए सब जगह कंप्यूटर का प्रयोग बन्द करके नए नौजवानों को लगाने का आदेश देना मेरे सरकार की सबसे बड़ी कारवाई होती। सेना और पुलिस की सेवाओं को छोड़ कर सब सरकारी और गैर सरकारी सेवाओं से कंप्यूटर हटा दिये जाते।

खाड़ी संकट और आसन्न तृतीय विश्वयुद्ध को देखते हुये अनिवार्य सैनिक शिक्षा लागू कर देता । सब भारतीयों को एक रखने मे सैन्य-शिक्षा अमूल्य योग देती। महात्मा विश्वनाथ प्रताप सिंह को विदेश मंत्री का महत्वपूर्ण विभाग सौंप देता। महावीर ,बुद्ध और गांधी का देश होने के कारण हम अहिंसा के पुजारी हैं और मेरी सरकार सभी युद्ध रत देशों से तुरंत व्यापारिक और आर्थिक संबन्ध विच्छेद कर लेती।

आत्म-निर्भरता,सुदेशी हमारी सरकार के मूल मंत्र होते। सारे देश मे कुटीर उद्द्योगो का जाल फैलवा देता। कृषि मे महत्वपूर्ण सुधार करके जमीन उसकी जो जोते के आधार पर बँटवा देता। इस तरह बड़े जमींदारों और उदद्योगपतियों का शोषण समाप्त करा देता।


उत्पादक और उपभोक्ता के मध्य सीधा संपर्क स्थापित करने के लिए मेरी  सरकार उत्पादकों और उपभोक्ताओं की सहकारी समितियों को वितरण प्रणाली मे स्थान देती। इससे बिचौलियों का सफाया हो जाता। सारी जनता सुखी हो जाती---काश मै प्रधानमंत्री होता!

(यह लेख 1990-91मे उस समय के व्यक्तित्वों और परिस्थितियों के अनुसार लिखा गया था ,बिना किसी संशोधन के अब प्रकाशित किया जा रहा है क्योंकि इधर कुछ ब्लागर्स ने व्यंग्यात्मक रूप से लेख लिख कर प्रधानमंत्री न बनने की घोषणा की है और मै उस समय की परिस्थितियों मे छोटे बच्चे के माध्यम से प्रधानमंत्री को क्या जन-हित मे करना चाहिए था यह बताना चाहता था और मुझे लगता है कि पात्र बदल कर अब भी वैसा ही कुछ किया जाना चाहिए ।   )

Wednesday, October 19, 2011

भ्रष्टाचार मिटाने को भ्रष्टाचार का सहारा एक तरफ और जन-संघर्ष दूसरी तरफ

Hindustan-Lucknow-13/10/2011
रामदेव,अन्ना ट्रायल के बाद आडवाणी साहब( जो भारत की आजादी के पाँच साल बाद  मुंबई से कारांची पहुंचे जेड ए भुट्टो के बदले मे करांची से भारत एक गुप्त समझौते के तहत आए थे) 'भ्रष्टाचार'के विरोध मे और सुशासन के पक्ष मे एक माडर्न-रथ पर सवार होकर निकले जिसके पक्ष मे  सूचना देने के लिए मध्य -प्रदेश मे पत्रकारों को रु 500/-500/-की खुली रिश्वत दी गई जिसे आप ऊपर के स्कैन मे देख रहे हैं।

आडवाणी साहब खुद भी पत्रकार रहे हैं उनसे बेहतर पत्रकारों को कोई नहीं समझ सकता है। इस मामले मे प्रबन्धकों ने गोपनीयता का पालन क्यों नहीं किया ?आडवाणी साहब का भंडाफोड़ क्यों कर दिया?ये सब बातें भाजपा की अंदरूनी राजनीति से ताल्लुक रखती हैं ,हमारे चिंतन का विषय नहीं है। हम केवल यह बताना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के तीरों से भ्रष्टाचार को समाप्त करने की कलाकारी क्या सिर्फ जनता को बेवकूफ बनाने के लिए नहीं है?

1974 मे भी लोकनायक जयप्रकाश नारायण के 'सप्तक्रांति'/सम्पूर्ण  क्रान्ति  आंदोलन मे नानाजी देशमुख को आगे करके संघ और जनसंघ ने अपनी घुसपैठ कर ली थी और उसी के परिणामस्वरूप मोरारजी देसाई की जनता सरकार मे अटल बिहारी बाजपेयी 'विदेश' तथा आडवाणी साहब 'सूचना व प्रसारण मंत्री' बन सके थे। इन लोगों ने अपने-अपने विभागों मे संघियों को नियुक्त कर लिया था। इनके द्वारा नियुक्त कर्मचारियों-अधिकारियों ने भविष्य मे आने वाली सरकारों को भी प्रभावित किया।

1975 की एमेर्जेंसी के दौरान सम्पन्न  'देवरस-इंदिरा' गुप्त  समझौते के अनुसार संघियों ने जनता सरकार को गिरा दिया और खुल कर संघ ने 1980 मे इंदिरा कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत दिला दिया । भाजपा ने इस चुनाव मे दो सीटें प्राप्त कीं और अटल जी भी हार गए किन्तु संघ को जो राजनीतिक लाभ मिला वह कहीं ज्यादा लाभप्रद था।

जयप्रकाश के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन,वी पी सिंह के बोफोर्स भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और अभी हाल ही मे अन्ना साहब के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मे घुस कर संघ/भाजपा ने अपनी स्थिति सुदृढ़  कर ली है। इस स्थिति को आगामी चुनावों तक बरकरार रखने के लिए भाजपा ने अपने कई नेताओं को रथ-यात्राओं पर उतारा था उसी कड़ी मे खुद को सुपर लीडर बताने हेतु आडवाणी साहब भी कूद पड़े। उनको वहम  है कि 'जिन्ना' साहब की पाकिस्तान जाकर तारीफ करने से उन्हें दूसरे दलों का भी समर्थन मिल जा सकता है। ज्योतिषीय आधार पर वह उप-प्रधानमंत्री तक ही पहुँच सकते थे जो पहुँच चुके अब उनकी सारी कवायद व्यर्थ है बस उससे केवल वह भाजपा के भ्रष्टाचार को ढकने का ही कार्य कर पाएंगे।

आज पत्रकार बड़े-बड़े नेताओं को अपने इशारे पर नचा कर फोटो खींचते और उनकी रिपोर्ट छापते  हैं यही वजह है कि बड़े से बड़े पूंजीवादी  नेता उन्हें खुश करने हेतु आडवाणी साहब जैसा ही प्रयास करते हैं। पत्रकार दावा करते हैं कि वे चाहे जिस नेता को गिरा दें ,चाहे जिस नेता को उठा दें। एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूँगा।

आगरा मे एक वर्ष सूखा पड़ने पर भाजपा ने प्रार्थना-प्रदर्शन की योजना बनाई थी ,दैनिक जागरण उन्हीं की विचार-धारा का अखबार होने के कारण उन्होने संबन्धित पत्रकार को मुंह-मांगी रकम देने से इंकार कर दिया। उस पत्रकार ने भाजपा का प्रदर्शन फ्लाप करने हेतु समाजवादी पार्टी की महिला विंग की नगर मंत्री से संपर्क साध कर उनके प्रदर्शन कार्यक्रम से एक दिन पूर्व विक्टोरिया पार्क मे 'समाजवादी महिला सभा' की कुछ महिलाओं को इस प्रकार के सिटिंग एरेञ्ज्मेंट्स से बैठा कर फोटो खींच कर अखबार मे खबर और फोटो सुर्खियों के साथ छाप दिये। प्रदर्शन काफी बड़ा नजर फोटो मे आ रहा था। ऐसे पत्रकारों को मेनेज किए बगैर भाजपा /आडवाणी रथ यात्रा सुर्खियां कैसे बटोर सकती थी?अतः यह धन-वितरण उसी का एक छोटा सा नमूना है।ये भी खबरें हैं कि यू पी से एम पी मे प्रवेश के समय 'टोल टैक्स'की भी चोरी की गई है तथा आडवाणी साहब की सभाओं हेतु माईक के लिए बिजली चोरी की स्तेमाल की गई है।

प्रगतिशील पत्रकार धन नहीं दूसरे तरीकों से लेखकों को अपने इशारे पर नचाने का प्रयास करते हैं। वे अपने ही राष्ट्रीय नेताओं के पक्ष की टिप्पणियों और लेखों को सेंसर करके रख देते हैं एवं ब्लाग्स तथा अखबार मे नहीं छापते हैं। उन्हें भय है कि कहीं नए लोग दूसरों की नजर मे न आ जाएँ ,इसलिए उन्हें दबा दो भले ही इससे उनके अपने  संगठन को क्षति होती है तो होती रहे उनका एक छत्र राज् तो कायम ही रहेगा। 

उन्होने 18 अक्तूबर 2011 के उपवास-धरना हेतु sms जारी किए जिनमे 'you have to' शब्दों का इस्तेमाल किया गया था जबकि वह खुद प्रदर्शन-स्थल पर 12 .14 pm पर पधारे और 01 .19 पर प्रस्थान कर गए जबकि उनके वरिष्ठ नेता ने 'please attend' शब्दावली का प्रयोग किया था और पूरे वक्त प्रदर्शन स्थल पर डटे रह कुशल संचालन किया।

(चार बामपंथी दलों के आह्वान पर पूरे प्रदेश से आए कार्यकताओं ने राजधानी के 'झूले लाल वाटिका' मे एक-दिवसीय 'उपवास'और धरना दिया जो साँय तक शांतिपूर्ण और पूर्ण अनुशासित रूप सम्पन्न हुआ। इसके उद्देश्यों को नीचे स्कैन को डबल क्लिक करके देख सकते हैं।)



सभा का संचालन भाकपा के राज्य सचिव डॉ गिरीश ने किया और उदघाटन भाषण दिया फारवर्ड ब्लाक के प्रदेश अध्यक्ष राम किशोर शर्मा जी ने। महिला फ़ेडरेशन की आशा मिश्रा जी,एडवा की मधु गर्ग जी, सी पी एम के प्रदेश सचिव डॉ श्री प्रकाश कश्यप,भकपा के वरिष्ठ नेता अशोक मिश्रा जी, डॉ अरविंद राज स्वरूप AISF की प्रदेश संयोजिका निधि चौहान,AIYF के प्रदेश संयोजक नीरज यादव ,पूर्व विधायक इम्तियाज़ अहमद आदि ने संबोधित किया। बामपंथी नेताओं के वक्तव्यों मे जनता  के हितों उसकी मूलभूत समस्याओं पर ज़ोर था। डॉ प्रो .रमेश दीक्षित ने भी सभा को संभोधित करते हुये बाम-पंथ का आह्वान किया की जनता उनकी ओर देख रही है और वे आगे आ कर उसका मार्ग-दर्शन व नेतृत्व करें। डॉ दीक्षित खुद बामपंथी नहीं हैं और उनका संबंध यू पी ए के एक घटक से है,परंतु वह जन-हितैषी हैं इसलिए AISF तथा प्रगतिशील लेखकों के सम्मेलन मे भी उपस्थित रहे थे। 

1991 के बाद से अपनाई 'उदारीकरण'की आर्थिक नीतियों को भ्रष्टाचार  के तीव्र प्रसार का कारक वक्ताओं ने बताया। 70 प्रतिशत 'काला धन'श्रमिकों की मजदूरी चुराने से सृजित होता है। अतः शोषण समाप्त किए बगैर भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता। जो लोग लफ्फाजी करके जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रहे हैं वे वस्तुतः 'कारपोरेट घरानों'का ही संरक्षण कर रहे हैं। इसी हेतु उनकी 'जन-लोकपाल' मे कारपोरेट घरानों को लाने की मुहिम नहीं है और इसलिए भी कि देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों से उनके एन जी ओज को भारी रकम चंदे के नाम पर रिश्वत स्वरूप मिलती है। 

2012 के यू पी के चुनावों मे चारों बामपंथी दलों ने मिल कर जनता को उसके वास्तविक शत्रुओं -जातिवाद,संप्रदाय वाद से परिचित कराने का संकल्प व्यक्त किया। किसानों के भूमि-अधिग्रहण,उनकी आत्म-हत्याओं ,मजदूरों के शोषण-उत्पीड़न,बेरोजगारी,मंहगाई आदि का सामाजिक जन-जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है अतः इंनका वास्तविक निदान कराने हेतु  जनता को बाम-पंथी मोर्चे के पीछे लामबंद करने की आवश्यकता बताई गई। डॉ ,सर्जन,प्रो ,आदि बुद्धिजीवी लोग लगातार भाकपा कार्यालय मे आकर उनसे ऐसा निवेदन कर रहे हैं।   

सभा के अंत मे लोक मंडली ने एक नाटक प्रस्तुत किया जिसकी मुख्य उल्लेखनीय बातों मे था-'जय हो जय हो भ्रष्टाचार विरोधी नारे की जय हो','आयेगा-आयेगा एन जी ओ वाला आयेगा -उल्टे उस्तरे से जनता को मूढ़ ले जाएगा'। 

भ्रष्टाचार सिर्फ आर्थिक ही नहीं होता है वह-सामाजिक,धार्मिक भी होता है। जब तक इस सामाजिक-धार्मिक भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं होगा तब तक आर्थिक भ्रष्टाचार का भी खात्मा नहीं हो सकता। चाहे जितनी रथ-यात्राएं निकल जाएँ,जितने चाहे प्रदर्शन -अनशन हो जाएँ।

Wednesday, October 12, 2011

प्रगतिशील लेखक संघ की 75वी वर्षगांठ -अप्रकाशित/अचर्चित बातें

हालांकि मै प्रगतिशील लेखक संघ का सदस्य नहीं हूँ परंतु इसके 75वी वर्षगांठ के अवसर पर जारी खुले निमंत्रण पत्र के आधार पर  08 और 09 अक्तूबर के कार्यक्रमों मे क्रमशः नेहरू युवा केंद्र एवं कैफी आज़मी एकेडमी मे उपस्थित रहा। विभिन्न समाचार पत्रों मे जो बातें प्रकाशित हुई हैं अथवा रवीन्द्र प्रभात जी के परिकल्पना ब्लागोत्सव पर मनोज पांडे जी द्वारा,अमलेंन्दू उपाध्याय जी के हस्तक्षेप पर डॉ संजय श्रीवास्तव द्वारा एवं भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी पर तथा उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ पर प्रदीप तिवारी जी द्वारा जो कुछ ब्लाग्स मे उद्घाटित किया गया है उनकी पुरावृत्ति मै नहीं कर रहा हूँ। समारोह मे चर्चाओं के दौरान जो महत्वपूर्ण बातें विद्वानों ने कहीं थीं और अप्रकाशित हैं तथा मेरे खुद अपनी समझ से जिन बातों की चर्चा की जानी चाहिए थी और हुई नहीं केवल उन्हीं पर प्रकाश डालना मेरा अभीष्ट है। 

समारोह मे जो स्मारिका वितरित की गई उसके कवर का स्कैन यह है -




निम्न लिंक पर हिंदुस्तान लखनऊ के 09 और 10 अक्तूबर के अंकों मे प्रकाशित समाचार की स्कैन कापियाँ देख सकते हैं-

http://vijaimathur.blogspot.com/2011/10/75.html

दोनों दिन समारोह मे वक्ताओं ने खुल कर अपने विचार रखे यह तो अच्छी बात रही किन्तु प्रत्येक के वक्तव्य से यह झलक रहा था कि वह ही सर्व-श्रेष्ठ हैं यह अहं संस्थापक अध्यक्ष मुंशी प्रेमचंद जी की भावनाओं के विपरीत था।क्योंकि उन्होने अपने अध्यक्षीय भाषण मे ही कहा था-"हमारे पथ मे अहंवाद अथवा अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को प्रधानता देना वह वस्तु है,जो हमे जड़ता,पतन और लापरवाही की ओर ले जाती है और ऐसी कला हमारे लिए न व्यक्तिगत -रूप मे उपयोगी है और न समुदाय -रूप मे। "

उसी भाषण मे उन्होने यह भी कहा था-"जिन्हें धन -वैभव प्यारा है ,साहित्य-मंदिर मे उनके लिए स्थान नहीं है । यहाँ तो उन उपासकों की आवश्यकता है,जिनहोने सेवा को ही अपने जीवन की सार्थकता मान लिया हो ,जिनके दिल मे दर्द की तड़प हो और मुहब्बत का जोश हो अपनी इज्जत तो अपने हाथ है। अगर हम सच्चे दिल से समाज की सेवा करेंगे तो मान,प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि सभी हमारे पाँव चूमेंगी। फिर मान-प्रतिष्ठा की चिन्ता हमे क्यों सताये?और उसके न मिलने से हम निराश क्यों हों?सेवा मे जो आध्यात्मिक आनंद है,वही हमारा पुरस्कार -हमे समाज पर अपना बड़प्पन जताने,उस पर रोब जमाने की हवस क्यों हो?दूसरों से ज्यादा आराम के साथ रहने की इच्छा भी क्यों सताये?हम अमीरों की श्रेणी मे अपनी गिनती क्यों कराएं?हम तो समाज के झण्डा लेकर चलने वाले सिपाही हैं और सादी  जिंदगी के साथ ऊंची निगाह हमारे जीवन का लक्ष्य है। जो आदमी सच्चा कलाकार है,वह स्वार्थमय जीवन का प्रेमी नहीं हो सकता। उसे अपनी संतुष्टि के लिए दिखावे की आवश्यकता नहीं-उससे तो उसे घृणा होती है। वह तो इकबाल के साथ कहता है -
          
        मर्दुम आज़ादमआगूना रायूरम कि मरा,
         मीतवा कुश्तव येक जामे जुलाले दीगरा।


(अर्थात मै आज़ाद हूँ और इतना हयादार हूँ कि मुझे दूसरों के निथरे हुये पानी के एक प्याले से मारा जा सकता है। )"

प्रेमचंद जी के ये उद्गार वितरित की गई स्मारिका से ही लिए गए हैं। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव का. अतुल 'अनजान' ने अपने उद्बोधन मे प्रगतिशील लेखकों का आह्वान किया कि वे जनोपयोगी साहित्य का सृजन कर राजनेताओं का मार्ग दर्शन करें जिससे जनता को शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने का कार्य सहज सम्पन्न हो सके।

 डॉ रुदौल्वी ने स्थापना सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष चौधरी मोहमद अली साहब रुदौलवी साहब का नामोलेख न किए जाने की ओर तथा डॉ नामवर सिंह जी द्वारा मजाज साहब को पर्याप्त सम्मान न दिये जाने की ओर ध्यानकर्षण किया था। एक विद्वान लेखक का सुझाव था कि ब्राह्मण वाद पर प्रहार करने की बजाए 'पुरोहितवाद' पर प्रहार किया जाना चाहिए क्योंकि ब्राह्मण से एक जाति की बू आती है और पुरोहित चाहे किसी भी धर्म के ठेकेदार हों अपनी-अपनी जनता को ठगते और लूटते हैं। मै समझता हूँ कि उनके सुझाव को 'प्रस्ताव'के रूप मे पारित किया जाना चाहिए था। 
मूल संकट ही पुरोहितों( अर्थात तथाकथित धर्म के ठेकेदारों जिनके लिए दलाल शब्द ज्यादा उपयुक्त है ) द्वारा अपने-अपने तथाकथित धर्मों मे पैदा किया गया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य मे तो इन पुरोहितों/दलालों ने धर्म की गलत व्याख्या करके कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत जाति-व्यवस्था मे परिणत करके एक बड़ी आबादी को प्रगति/विकास करने से रोक दिया उनके ज्ञानार्जन को प्रतिबंधित कर दिया और उनके स्थाई आर्थिक/सामाजिक शोषण को पुख्ता कर दिया। यही वजह रही कि अध्यक्ष नामवर जी से अंबेडकर महासभा के लोगों ने लिखित विरोध दर्ज कराया। 


वस्तुतः 'प्रलेस' का गठन ही शोषण और साम्राज्यवाद के विरुद्ध हुआ था किन्तु लगभग चार माह बाद ही मुंशी प्रेमचंद जी का निधन हो जाने से उनकी बातें पीछे चली गई होंगी। अब तो उनके द्वारा तैयार घोषणा-पत्र को ही बदले जाने की मांग हो रही है। यदि मुंशी प्रेमचंद जी के साहित्य की तर्ज पर दूसरे रचनाकार भी दमित-शोषित तबकों की आवाज बुलंद करके उन्हें लामबंद करते तो आज किसी को शिकायत करने का मौका ही न मिलता। 


प्रगतिशील लेखक संघ ने भी कम्यूनिस्टों  की भांति ही 'धर्म' का वह अर्थ लिया जो अधार्मिकों द्वारा परिभाषित किया गया था। विद्वान लेखकों ने यह मान लिया कि पूंजीवाद और विज्ञान के बढ़ते प्रभाव से देश मे जाति-प्रथा की समाप्ती हो जाएगी जबकि कुछ विद्वानों ने निर्भीकता से कहा भी कि यह आंकलन गलत निकला। दरअसल यही सच्चाई है कि आप शोषण -उत्पीड़न को 'धर्म' की वास्तविक व्याख्या प्रस्तुत किए बगैर कभी भी समाप्त नहीं कर सकते हैं। परंतु खेद के साथ कहना चाहता हूँ कि,प्रलेस के विद्वान भी 'धर्म' को कम्यूनिस्टों की भांति ही सीधे-सीधे खारिज कर देते हैं क्योंकि 'मार्क्स' ने धर्म का विरोध किया था। वे यह भूल जाते हैं कि मार्क्स ने भी उसे ही 'धर्म'मान लिया था जिसे वहाँ के पुरोहित बताते थे।  अतः मार्क्स ने जिस बात का विरोध किया है वह तो 'पुरोहितवाद' का विरोध है और वह जायज था। हमे इस बात को ठीक से समझना और साहित्य के माध्यम से बताना चाहिए था जैसे कि मुंशी प्रेमचंद जी करते थे। 'प्रलेस' के अब तक के 75 वर्षों मे लेखकों ने यह मूल कर्तव्य  नहीं निबाहा इसीलिए जनता से कट गए हैं। आज लेखक अपने-अपने को श्रेष्ठ मान रहे हैं और सच्चाई से दूर भाग रहे हैं। रस्मों-अदायगी से कोई 'क्रान्ति' ऐसे लेखक कभी नहीं कर पाएंगे। 


एक प्रगतिशील पत्रकार साहब का मुझसे कहना है-"तुम धर्म और मार्क्स का घालमेल कर देते हो यह नहीं चलेगा। " लगभग दूसरे लोग भी ऐसा ही सोचते होंगे क्योंकि सभी 'धर्म'उसे मानते हैं जिसे पूँजीपतियों/साम्राज्यवादियों के दलाल पुरोहितों द्वारा बताया जाता है।समारोह मे एक विद्वान ने तुलसीकृत रामचरितमानस की कड़ी आलोचना की और ज्योतिष का मखौल उड़ाया। वह यह भूल गए या छिपाना चाहते थे कि तुलसी के इसी ग्रंथ को शोषक पुरोहित जला दिया करते थे जब वह संस्कृत मे लिखते थे और इसी कारण उन्हें काशी छोड़ कर एवं संस्कृत की बजाए 'अवधी' मे रचना करनी पड़ी जो जन-भाषा थी। इसमे भी कुछ पोंगा-पंथियों ने कुछ विक्षेपक लगा दिये हैं जिनका विरोध करते हुये किसी ने गीता-प्रेस गोरखपुर पर मुकदमा भी दायर कर दिया है। उत्तर प्रदेश इप्टा के सचिव राकेश जी ने तुलसीदास द्वारा मस्जिद मे शरण लेने और सम -भाव प्रदर्शन के लिए सराहना भी की। मेरे समझ से उनका दृष्टिकोण जन-हितैषी है। ऐसे ही विचारों को अपना कर हम अपनी बात मजबूती से जन-मानस मे बैठा सकते हैं। 


 मैंने अपने इस ब्लाग के माध्यम से एक नहीं अनेक बार 'धर्म'की अर्वाचीन व्याख्या प्रस्तुत की है कि 'धर्म' का अर्थ पोंगापंथी रीति-रिवाजों को बंदरिया के मरे बच्चे की तरह चिपटाए रखना नहीं है। 'धर्म' का अर्थ हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने 'धारण करने वाला' बताया है। अर्थात जो शरीर को धारण करने मे सहायक है वह धर्म है और जो 'मानव द्वारा मानव के शोषण से रक्षा करे वही धार्मिकता है। ' यदि इस सत्य को स्वीकार कर लें तो 'मार्क्स' सबसे बड़े धार्मिक ज्ञाता सिद्ध होते हैं। 'मार्क्स वाद' ' व्यवहार के धरातल पर रूस मे इसीलिए विफल हुआ क्योंकि वहाँ 'धर्म' वर्जित था अर्थात 'धारण करने वाला तत्व ही उपेक्षित था तो 'मार्क्स वाद' टिकता किस पर?आधारहीनता ही उसके लिए घातक बनी। 


इसलिए मेरा ज़ोर भारत मे 'मार्क्स वाद' को सफल बनाने हेतु 'धर्म' की वास्तविक व्याख्या को जन-प्रकाश मे लाने पर रहता है। मैंने अपने पूरे ब्लाग मे धर्म के नाम पर फैले 'अधर्म' और 'अंधविश्वास'का तीखा विरोध किया और संप्र्दायवादियों की गालियां खाई हैं। यदि मेरे लेखन के आधार पर 'प्रगतिशील लेखक संघ' मुझे शामिल करता और बोलने का मौका देता तो मैं वहाँ इन्हीं बातों को रखता। खेद की बात है कि प्रगतिशील लेखकों ने फेस बुक पर मेरे लेख 'दंतेवाड़ा त्रासदी -समाधान क्या  है?'के लिंक को अपनी-अपनी वाल से हटा दिया ,सच्चाई को न जानना या न जानने देना कौन सी 'प्रगतिशीलता'है? यह तो जड़ -दकियानूसीपन हुआ 'महर्षि कार्ल मार्क्स' लेख द्वारा भी मै मार्क्स वाद  को भारत मे सफल बनाने हेतु इसी प्रकार के विचार दे चुका हूँ। 'रावण -वध एक पूर्व-निर्धारित योजना' लेख मे मैंने संत श्याम जी पाराशर द्वारा की गई व्याख्या के आधार पर सिद्ध किया था कि यह साम्राज्यवादी रावण पर जन-नायक राम की जीत थी। इस लेख पर सांप्रदायिक तत्वों ने प्रतिवाद भी किया था किन्तु प्रगतिशील तत्व भी मानने को तैयार नहीं हैं। 


खगेन्द्र ठाकुर साहब ने 'प्रगति' शब्द की व्याख्या करते हुये बताया था कि प्रगति का तात्पर्य है -नीचे से ऊपर आना और पीछे से आगे आना। मुझे यह व्याख्या सर्व-श्रेष्ठ समझ आती है। इस अवधारणा को मान कर प्रगतिशील लेखक संघ वास्तव मे प्रगति कर सकता है। 


ऋग्वेद 10/192/2 मंत्र मे कहा गया है-
संगच्छ्ध्व संवद्ध्व सं वो मनासि जानताम। 
देवा भाग यथा पूरवे संजानानां उपासते। । 


(सम्पूर्ण मानव समाज कदम- से- कदम मिला कर चले,सब मिल कर विचार विमर्श करें ,सब एक साथ मिल कर बोलें-मानव बनने का यही मार्ग है)


किस प्रकार ये विचार मार्क्सवादी नहीं हैं? अथवा 'सर्वे भवनतु सुखिना : ' मे समस्त मानव जाति के सुख-कल्याण की जो कल्पना है वह मार्क्स वाद  के विपरीत कैसे है? क्योंकि शोषक पुरोहितों द्वारा की गई व्याख्या को ही प्रगतिशील भी 'धर्म'कहते हैं सिर्फ इसी लिए उसका विरोध करते हैं। जनता को शोषकों के चंगुल से मुक्त कराने हेतु हमे उसे वास्तविक 'धर्म'के मर्म को समझाना ही होगा। निष्काम परिवर्तन पत्रिका ,नवंबर 2002 के अंक मे श्री मदन रहेजा ने लिखा है -"लोग ईश्वर को ढूँढने यहाँ से वहाँ भटकते रहते हैं,काशी-काबे जाते हैं,मंदिरों -मस्जिदों मे सिजदे करते हैं,नदियों मे नहाते हैं,पहाड़ों की ऊंचाइयों पर जाते हैं परंतु उनको आज तक न तो ईश्वर की प्राप्ति हुई है और न ही भविष्य मे कभी होगी कारण उनमे अभी भी अज्ञानता घर किए हुये है। ईश्वर ढूँढने की वस्तु नहीं है,वह कोई ऐसी शै (चीज)नहीं है जो खो गई है ,वह परमात्मा तो हमारे अंग-संग मे रहता है क्योंकि हमसे या हम  उससे जुदा हो ही नहीं सकते क्योंकि परमेश्वर सर्वव्यापक है-भला वह हमसे अलग कैसे हो सकता है?................ हम स्वंय को अच्छा समझते हैं-विद्वान समझते हैं,समझदार समझते हैं और दूसरों को बुरा समझते हैं-बेवकूफ समझते हैं -नीचा समझते हैं। ...... अहंकार के कारण हम मनुष्यको मनुष्य नहीं समझते । अपने को ऊंचा समझते हैं औरों को नीचा मानते हैं। इसी अहंकार की वजह से इतने मत-मतान्तर-पंथ-मजहबों का निर्माण हुआ है। ... आज धर्म के नाम पर पाखंड होता है-धंधा होता है-व्यवसाय होता है क्यों?ये सभी अहंकारी हैं । धर्म नाम की कोई भी वस्तु इन मे नहीं पाई जाती। .... दो साधू बाबा एक ही मंच पर बैठ नहीं सकते-दो सन्यासी एक साथ नहीं बैठ सकते ,दो विद्वान भी एक ही मंच पर बैठ नहीं सकते क्यों? अहंकार के कारण। "वह और भी कहते हैं-"जितना हो सके आपस मे प्रेम से शांति से रहें। ... जैसा व्यवहार हम दूसरों से चाहते हैं वैसा ही व्यवहार हम सब से करें और किसी को दुख नहीं पहुंचाए,कोई ऐसा कार्य न करें कि जिससे हमे बाद मे पछताना पड़े-वही धर्म है। "


स्वामी सहजानन्द और गेंदा लाल दीक्षित आर्यसमाजी तथा पूर्ण कम्यूनिस्ट एक साथ थे। सरदार भगत सिंह जी सत्यार्थ प्रकाश पढ़ कर कम्यूनिस्ट बने थे और महा पंडित राहुल सांस्कृत्यायन जी भी आर्यसमाजी,कम्यूनिस्ट, रहे हैं। 
इन तथ्यों से मुंशी प्रेमचंद जी अथवा कार्ल मार्क्स का टकराव कहाँ है?प्रेमचंद जी के कृत्यों का प्रभाव नीचे दिये स्कैन मे देखें। 


हिंदुस्तान-लखनऊ-12/10/2011 


प्रगतिशील लेखक संघ को यदि साम्राज्यवादियो/'पूंजीवादियों पर बीते 75 वर्षों मे सफलता नहीं मिल सकी है तो इसका कारण यही है कि वे जड़ता को ही प्रगतिशीलता मानते आ रहे हैं। अगले 25 वर्षों मे प्रगतिशीलता को यदि अपना लिया जाये तो 'प्रलेस' को सफलता प्राप्त करने से कोई रोक नहीं सकेगा। मुझे उम्मीद है कि 'प्रगतिशील लेखक संघ' की 100वी वर्षगांठ मनाते समय यह सफलता उसके पास होगी। 

Saturday, October 8, 2011

आम आदमी के साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद

स्मृति दिवस 08 अक्तूबर पर विशेष


धनपत राय उर्फ मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जूलाई 1880 और मृत्यु 08 अक्तूबर 1936 को हुई थी। अपने सम्पूर्ण साहित्य लेखन मे प्रेमचंद जी ने आम गरीब आदमी की पीड़ा को समझा और उसका निदान बताने का प्रयास किया है। जिस प्रकार अपने लेखन से उन्होने दासता के विरुद्ध आवाज उठाई थी,उसी प्रकार लेखको के उत्पीड़न के विरुद्ध भी उन्होने सक्रिय भूमिका अदा की। उनके सक्रिय योगदान से लखनऊ के रिफ़ाह-ए-आम क्लब मे 10 अप्रैल 1936 को 'प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना हुई थी। प्रलेस के पहले अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष थे -चौधरी मोहमद अली साहब रुदौलवी।चौधरी साहब के स्वागत भाषण के बाद सर्वसम्मती से प्रेमचंद जी को अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया था। उन्होने पैतालीस मिनट मे पंद्रह पृष्ठों का भाषण पढ़ा था।

प्रेमचंद जी की प्रेरणा से प्रलेस ने एक घोषणा पत्र भी स्वीकार किया था। सज्जाद जहीर साहब को संगठन का महामंत्री बनाया गया था। प्रेमचंद  जी की पुण्य तिथि (08 अक्तूबर 2011)को प्रगतिशील लेखक संघ के 75 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य मे हीरक जयंती समारोह भी लखनऊ मे ही मनाया जा रहा है। इसका उदघाटन डा नामवर सिंह द्वारा किया जाना प्रस्तावित है।

अभी 24 सितंबर 2011 को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रेमचंद साहित्य पर एक गोष्ठी सम्पन्न हुई थी जिसमे दीप प्रज्वलन डा रामवीर सिंह ,केंद्रीय हिन्दी संस्थान,आगरा द्वारा किया गया था। डा रामवीर सिंह जी कमलानगर ,आगरा मे हमारे पड़ौसी रहे हैं और वह अपनी बारात मे भी हमे ले गए थे। उनके लखनऊ आगमन पर इस कार्यक्रम मे अपनी अस्वस्थता के कारण भाग न ले सकने का अफसोस है। परंतु उनके द्वारा व्यक्त विचारों को इस स्कैन के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

हिंदुस्तान25/09/2011 
http://krantiswar.blogspot.com/2011/07/blog-post_31.html

Tuesday, October 4, 2011

दशहरा क्या है?

आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक शारदीय नवरात्रि तथा दशमी को दशहरा पर्व मनाए जाते हैं। ऋतु परिवर्तन के संक्रमण काल मे नवरात्रि मनाने का उद्देश्य मानव मात्र को स्वस्थ रखने हेतु हवन द्वारा पर्यावरण को शुद्ध करना था। किन्तु आज कल तथाकथित प्रगतिशीलता और विज्ञान के युज्ञ मे लोग अंधविश्वास से ग्रसित होकर अर्थ का अनर्थ करते हुयी और अधिक पर्यावरण प्रदूषित कर रहे हैं। पोंगावाद के चक्कर मे 'हेल्थ एंड हाईजीन 'के पर्व को ढोंग और पाखंड से जोड़ दिया गया है जिससे शोषण-प्रक्रिया को अधिक मजबूत किया जा सके और अफसोस कि जिंनका शोषण होता है वे ही ऐसे ढोंग -पाखंड को बढ़ाने मे अग्रणी रहते हैं। इसका एक कारण शोषितों के हमदर्दों-कम्यूनिस्टों  का धर्म के इस क्षेत्र को शोषकों(पूँजीपतियों,साम्राज्यवादियों) हेतु खुला छोड़ देना है। वे शोषकों(साम्राज्यवादियों) वारा निर्धारित मानदंडों के आधार पर धर्म को ही रद्द कर देते हैं। जबकि धर्म का अर्थ धारण करना है और प्रत्येक मनुष्य को शरीर धारण करने हेतु आवश्यक नियमों का पालन करना ही धर्म कहलाता है। पोंगापंथियों की व्याख्या धर्म नहीं अधर्म मे उलझाती है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अथक प्रयास द्वारा भारत मे व्याप्त कुरीतियों तथा पाखंड पर प्रहार करके जनता को जागरूक किया था किन्तु उन्ही के प्रचारक रहे आचार्य श्रीराम शर्मा ने विशुद्ध आर्थिक स्वार्थों के चलते स्वामी जी की मेहनत पर पानी फेर दिया, गायत्री परिवार द्वारा पुनः ढोंग-पाखंड को जबर्दस्त तरीके से भारत-भर मे फैला दिया गया। आज अनेकों पाखंडी संगठन धर्म के नाम पर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रहे हैं । जनता के हितैषी बजाए धर्म के मर्म को समझाने के धर्म को ही गलत ठहरा रहे हैं जबकि धर्म वह नहीं है जिसे पोंगापंथी बताते हैं। आज दुर्गा अष्टमी के अवसर पर प्रस्तुत है श्री गजाधर प्रसाद आर्य द्वारा प्रकाशित आँखें खोलने वाली यह रचना-

'जगदंबा बकरे नहीं खाती है '




आज से दो दिन बाद दशहरा मनाया जाएगा और लोग रावण के पुतले फूँक कर तमाशा मचाएंगे। किंवदंती फैला दी गई है कि इसी दिन राम ने रावण का वध किया था जो बिलकुल गलत है। रावण का संहार चैत्र मास की अमावस्या को हुआ था। आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी 'विजया दशमी' कहलाती है ज्योतिषीय गणना के आधार पर इस दिन किए गए कार्यों मे निश्चित सफलता मिलती है। इसीलिए श्री राम ने इस दिन किष्किंधा  की राजधानी 'पम्पापुर' से लंका की ओर प्रस्थान किया था। अंततः उन्हें अपने उद्देश्य मे पूर्ण सफलता मिली थी और वह साम्राज्यवादी रावण को जन-सहयोग से  परास्त करने मे सफल रहे थे ।

'विजया दशमी' को राम की सहायता मे सुग्रीव की सेना के प्रस्थान को यादगार बनाने हेतु प्रारम्भ मे इस दिन 'विजय जुलूस' निकालने की परिपाटी पड़ी थी। धीरे-धीरे लोग नाट्य कला के माध्यम से संघर्ष को इस दिन दिखाने लगे। फिर कई दिन तक नाट्य प्रदर्शन शुरू हुये  और विजया दशमी के दिन रावण का पुतला फूंका जाने लगा। ढोंग और दिखावे का बोल-बाला बढ़ता गया तथा नीति और आदर्श अदृश्य होते गए ,यही है आज की राम-लीला और दशहरा का सार।

आचार्य किशोरी दास बाजपेयी( जिन्हें हिन्दी का पाणिनी माना जाता है और जिन्हें डा रामधारी सिंह 'दिनकर' ने हिन्दी भाषा और साहित्य का डा राम मनोहर लोहिया कहा था ) ने भाषा-विज्ञान के आधार पर सिद्ध किया है कि 'राक्षस' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'रक्षस' धातु से हुई है जिसका अर्थ है -रक्षा करना। 'रावण' आदि प्रवासी आर्य  अपने को 'राक्षस' अर्थात आर्य-सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने वाले कहते थे। राम और रावण दोनों ही आर्य थे और दोनों के मध्य मतभेद तथा टकराव साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रवाद के संघर्ष के रूप मे था। विदेशी इतिहासकारों ने इसे आर्य-द्रविड़ संघर्ष बता कर फूट डालने का कृत किया है। रावण एक महान आर्य विद्वान था ,वह दसों दिशाओं का ज्ञाता था।

दस दिशाएँ-

1-पूर्व,2-पश्चिम,3-उत्तर,4-दक्षिण,5-ईशान(उत्तर-पूर्व),6-आग्नेय(दक्षिण -पूर्व),7-ने ऋत्य(दक्षिण-पश्चिम),8-वावव्य (उत्तर-पश्चिम),9-आकाश और 10-पाताल(धरती के भीतर)।

एक महान विद्वान और प्रकांड ज्ञाता को दशानन इसी लिए कहा गया था और उसके पुतले पर गधे के सिर लगाना विद्वता को ठुकराना एवं कुचलना है जो निंदनीय होना चाहिए परंतु बड़ी ठसक से खुद को काबिल कहने वाले लोग भी ऐसी कुत्सित बातों पर इठलाते हैं। खुद राम ने लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञान प्राप्त  करने भेजा था और अंत समय मे रावण ने लक्ष्मण के माध्यम से राम को ज्ञान प्रदान किया था।

हमारे देश मे एक बड़ा वर्ग पोंगापंथियों को बल प्रदान करता है और दूसरा खुद को काबिल समझने वाला वर्ग धर्म की अवधारणा को ठुकराता है। वास्तविक समस्या यह है जनता को समझाये कौन ?यदि कोई इस ओर प्रयास करे तो पोंगापंथी और प्रगतिशील दोनों मिल कर उस पर सामूहिक प्रहार करने लगते हैं। सत्य से आज किसी को कोई सरोकार नहीं है । ढोंग और पाखंड का पर्दाफाश करने की कड़ी मे एक छोटा सा प्रयास 'विजया दशमी' या दशहरा क्या है ?का रहस्य बताने की चेष्टा की है यह जानते हुये भी कि,आज भी लोग सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे। 

Saturday, October 1, 2011

गांधी-शास्त्री जयंती


मोहनदास करमचंद गांधी जब महात्मा गांधी बने तो जन-जन के प्रिय नायक भी थे। आज भी यही कहा जाता है कि भारत को स्वतन्त्रता महात्मा गांधी के ही मुख्य प्रयासों से मिली है। लेकिन डा सम्पूर्णानन्द जो यू पी के मुख्यमंत्री और राजस्थान के राज्यपाल भी रहे और संविधान सभा के सदस्य भी रहे बहौत ही निराशा के साथ साप्ताहिक हिंदुस्तान मे 1967 मे लिखे अपने एक लेख मे कहते हैं-"हमारे देश मे भी गांधी नाम का एक पागल पैदा हुआ था,संविधान के पन्नों पर उसके नाम का एक भी छींटा देखने को नहीं मिलेगा। "

 सम्पूर्णानन्द जी ने अपने अनुभवों के आधार पर कोई गलत निष्कर्ष नहीं निकाला है। आजादी के तुरंत बाद गांधी जी की उपेक्षा शुरू हो गई थी अंत तक उन्हें नेहरू-पटेल के झगड़ों मे मध्यस्थता करनी पड़ती थी। परंपरागत रूप से  प्रतिवर्ष गांधी जयंती को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप मे मनाया जाता है। गांधी जी के नाम पर गोष्ठियाँ करके खाना-पूर्ती कर ली जाती है। कुछ समय पूर्व तक खादी  के वस्त्रों पर गांधी आश्रम से छूट मिलती थी। यह कह कर इतिश्री कर ली जाती है कि गांधी जी के विचार आज भी प्रासगिक हैं जबकि कहने वाले भी उन पर अमल नहीं करना चाहते।


गांधी जी के नाम का उपयोग एक फैशन के रूप मे किया जाता है। 1977 मे आपात काल के बाद छत्तीस गढ़ मे पवन दीवान को छत्तीस गढ़ का गांधी कह कर प्रचारित किया गया था और अभी-अभी कारपोरेट घरानों के रक्षा कवच अन्ना हज़ारे को दूसरा गांधी कहा गया है। वाराणासी के एक चिंतक महोदय ने एन डी ए शासन मे हुये रु 75000/-करोड़ के यू टी आई घोटाले के समय रहे यू टी आई चेयरमैन डा सुब्रहमनियम स्वामी की तुलना गांधी जी से की है।

गांधी और गांधीवाद का बेहूदा मज़ाक उड़ाया जा रहा है। 1980 मे 'गांधीवादी समाजवाद' का शिगूफ़ा उन लोगों ने छोड़ा था जिन्हें गांधी जी की हत्या के लिए उत्तरदाई माना जाता रहा था। यदि 1970 के लगभग लार्ड रिचर्ड  एटन बरो ने'गांधी' नामक फिल्म न बनाई होती तो आज की पीढ़ी शायद गांधी जी के नाम से भी अपरिचित रह जाती।

गांधी जी का आग्रह सर्वाधिक 'सत्य' और 'अहिंसा' पर था और इन्हीं दोनों को उन्होने अपने संघर्ष का हथियार बनाया था। 'अहिंसा'-मनसा -वाचा-कर्मणा होनी चाहिए तभी वह अहिंसा है। लेकिन आज गांधीवादी कहे गए अन्ना जी के इंटरनेटी भक्त 'तुम्हें गोली से मार देंगे','वाहियात', 'बकवास ' आदि अनेकों अपशब्दों का प्रयोग खुल्लम-खुल्ला कर रहे हैं। यही है आज का गांधीवाद। 

लाल बहादुर शास्त्री 

एक अत्यंत गरीब परिवार मे जन्मे और अभावों मे जिये लाल बहादुर शास्त्री सच्चे गांधीवादी थे । गांधी जयंती पर ही उनकी जयंती भी है। छल -छद्म से दूर रह कर स्वाधीनता संघर्ष मे भाग लेने के बाद शास्त्री जी ने ईमानदारी से राजनीति की है। यू पी के गृह मंत्री रहे हो या केंद्र के रेल मंत्री सभी जगह निष्पक्षता व ईमानदारी के लिए शास्त्री जी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इसीलिए अपनी गंभीर बीमारी के समय नेहरू जी ने शास्त्री जी को निर्विभागीय मंत्री बना कर एक प्रकार से कार्यवाहक प्रधानमंत्री ही बना दिया था। नेहरू जी की इच्छा के अनुरूप ही शास्त्री जी को उनके बाद प्रधान मंत्री बनाया गया। दृढ़ निश्चय के धनी शास्त्री जी ने अमेरिकी  PL-480 की बैसाखी को ठुकरा दिया और जनता से सप्ताह मे एक दिन उपवास रखने की अपील की जिसका जनता ने सहर्ष पालन भी किया। अमेरिकी कठपुतली पाकिस्तान को 1965 के युद्ध मे करारी शिकस्त शास्त्री जी की सूझ-बूझ और कठोर निर्णय से ही दी जा सकी।

आज शास्त्री जी का नाम यदा-कदा किन्हीं विशेष अवसरों पर ही लिया जाता है। गांधी जी का नामोच्चारण तो राजनीतिक फायदे के लिए हो जाता है परंतु शास्त्री जी का नाम लेकर कोई भी ईमानदारी के फेर मे फंसना नहीं चाहता। नेहरू जी के सलाहकार के रूप मे शास्त्री जी ने जिन नीतियों का प्रयोग किया उनसे यू पी मे कम्यूनिस्टों का प्रभाव क्षीण हो गया और कालांतर मे सांप्रदायिक शक्तियों का उभार होता गया। खुद गरीब होते हुये भी गरीबों के लिए संघर्ष करने वालों को ठेस पहुंचाना शास्त्री जी का ऐसा कृत्य रहा जिसके दुष्परिणाम आज गरीब वीभत्स रूप मे भुगत रहे हैं।

गांधी जी ट्रस्टीशिप के हामी थे और शास्त्री जी सच्चे गांधीवादी परंतु आज देश मे शिक्षा समेत हर चीज का बाजारीकरण हो गया है। बाजार ही राजनीति,धर्म और समाज को नियंत्रित कर रहा है। गांधी-शास्त्री जयंती मनाना एक रस्म-अदायगी ही है। भविष्य मे कुछ सुधार हो सके इसकी प्रेरणा प्राप्त करने हेतु गांधी-शास्त्री का व्यक्तित्व और कृतित्व अविस्मरणीय रहेगा।

गांधी जी ने आम आदमी को केन्द्रित किया था। एक आर्यसमाजी उपदेशक महोदय ने अपने प्रवचन मे बताया  था की जब गांधी जी चंपारण मे नीलहे गोरों के अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने गए थे तो एक गरीब आदिवासी परिवार ने उन्हें बुलाया था। गांधी जी उस परिवार के लोगों से मिलने गए तब उन्हें उनकी वास्तविक गरीबी का र्हसास हुआ,परिवार की महिला ने गांधी जी से कहा की वह अपनी बेटी को भी भेजेगी अतः वह अंदर गई और वही धोती पहन कर उसकी बेटी गांधी जी से मिलने आई। गांधी जी को समझ आ गया कि वहाँ माँ -बेटी के मध्य केवल एक ही धोती है। उसी क्षण उन्होने आधी धोती पहनने का फैसला किया और मृत्यु पर्यंत ऐसा ही करते रहे। ब्रिटिश सरकार उन्हें हाफ नेक्ड फकीर कहती रही परंतु उन्ही से वार्ता भी करनी पड़ी। उन्ही गांधी जी के देश मे आदिवासियों से क्या सलूक हुआ,एक नजर डालें हिंदुस्तान,लखनऊ,01 अक्तूबर 2011 के इस सम्पाद्कीय पर।हम प्रतिवर्ष गांधी जयंती तो मनाते हैं परंतु गांधी जी से प्रेरणा नहीं लेते जिसकी नितांत आवश्यकता है।

1-10-11 का समपादकीय-