Wednesday, May 27, 2020

सरकार की देश घाती अदूरदर्शिता व अमेरिकापरस्ती का साईड इफेक्ट : नेपाल द्वारा भारत के विरुद्ध युद्ध का ऐलान



सरकार की अदूरदर्शिता व अमेरिकापरस्ती का साईड इफेक्ट देश घाती है ------



विदेश नीति की मूर्खता का द्योतक दृष्टांत है यह बयान बाजी। न केवल भारतीय फौज की गोरखा ब्रिगेड में असंतोष उत्पन्न हो सकता है बल्कि भारत भर में फैले नेपाली नागरिकों द्वारा भारत देश को क्षति पहुंचाई जा सकती है। देश में रह रहे नेपाली गण चीन का माल भारत के बाजारों में तस्करी द्वारा लाए जाने से सस्ता बेच कर पहले ही देश की अर्थ - व्यवस्था को चोट पहुँचा रहे थे अब राजनीतिक तौर पर भी क्षति पहुंचा सकते हैं ------








 ~विजय राजबली माथुर ©

Monday, May 25, 2020

बहुत कुछ है जो बिखर जाएगा लॉकडाउन की मार से घुमंतू समुदाय ------ अश्वनी शर्मा



घुमंतू समुदाय पर बुरी पड़ी लॉकडाउन की मार  ------ अश्वनी शर्मा

कॉमन रूम

बावरी, बागरी, रायका और रैबारी के सामने सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि इनके पास अपने रेवड़ को चराने के लिए कुछ भी नहीं है। ये लोग किराए पर रेवड़ चराते हैं। 


लॉकडाउन का सबसे बुरा प्रभाव घुमंतुओं पर पड़ा है। हमारी आबादी में 10 फीसदी लोग घुमंतू समुदाय से हैं। इनमें से कोई जानवर चराता है, कोई जड़ी-बूटी इकट्ठा करता है। कोई पानी या मिट्टी का खास जानकार है तो कोई बहरूपिया बनकर लोगों का मनोरंजन करता है। आज भी 72 फीसदी घुमंतू टपरी या तंबू में ही रहते हैं। लॉकडाउन में अधिकतर को पकड़कर सरकारों ने एक जगह पर जमा कर दिया है, जिससे इनका जीवन पूरी तरह से रुक चुका है।

त्रासदी तो यह है कि आजादी के 73 साल बीतने के बाद भी हमें नहीं पता कि इन समुदायों की संख्या कितनी है? कोई रिपोर्ट 840 कहती तो कोई 600 बताती है। रैनके आयोग की रिपोर्ट कहती है कि इन समुदायों की जनसंख्या हमारी कुल जनसंख्या का 10 फीसदी है। इन समुदायों की संख्या कितनी भी हो, एक बात साफ है कि सभी समुदाय ज्ञान के विशिष्ट भंडार हैं। कोई समुदाय जड़ी-बूटियों का जानकार है तो किसी समुदाय के पास जानवरों के बारे में गजब का ज्ञान है। कोई समुदाय संगीत का जादूगर है, तो कोई स्टोरी टेलिंग बहुत अच्छी करता है। कोई समाज खेल-करतब वाला है तो किसी समुदाय का हस्तशिल्प अनूठा है।

सिंगीवाल, गोंड चितोड़िया, कालबेलिया ओर कंजर समुदाय जड़ी-बूटी स्पेशलिस्ट हैं। ये लोग वर्ष में दो बार ही जड़ी-बूटियां इकट्ठा करते हैं। एक बार मार्च-अप्रैल में और दूसरी बार बारिश होने के बाद। गरमुंडा, पलाश, कचनार और कदंब के फूल मार्च-अप्रैल में गिरते हैं। ये समुदाय इन फूलों को बीनते हैं, सुखाते हैं, और पीसकर पाउडर बनाते हैं। फिर उनको अन्य औषधियों के साथ मिलाकर उनका मिश्रण तैयार करके बेचते हैं।

बावरी, बागरी, रायका और रैबारी अपने पशुओं के मौसमी स्थानांतरण से न केवल मिट्टी का प्रबंधन करते हैं, बल्कि किसानों से पशुधन का साठा (अदला-बदली) भी करते हैं। लॉकडाउन के चलते अधिकांश पशुचारक अपने रेवड़ों समेत हरियाणा और मध्य प्रदेश के रतलाम, ग्वालियर जिलों में फंसे हैं। इसलिए इस बार साठा नहीं हो पाया। वहीं इनके सामने सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि इनके पास अपने रेवड़ को चराने के लिए कुछ भी नहीं हैं। अधिकांश चरवाहे किराए पर रेवड़ चराते हैं, जिनसे ये लोग जैविक खाद भी बनाते हैं। इनकी खाद प्रयोग करने पर पानी भी कम लगता है। लॉकडाउन में यह न तो रेवड़ चरा पाए हैं और न ही खाद बना पाए हैं, जिसके चलते किसानों को खेत में खाद भी नहीं मिल पाई। कुछ शिकारी समुदाय, जैसे वन बावरिये, मोग्या, कालबेलिया आदि सुविधाओं के अभाव में वापस शिकार की तरफ रुख करेंगे। इससे वन्य जीवन पर विपरीत असर पड़ेगा, सामाजिक ताना-बाना भी टूटेगा।

बहुरूपिया, नट, कठपुतली भाट, भोपा, कलंदर, मदारी, मिरासी इत्यादि मजमे पर टिके हैं। मजमा अच्छा लगा तो इनाम अच्छा मिलता है। अब लॉकडाउन खुल जाए तो भी आने वाले कुछ महीनों तक गांवों में इन लोगों को कार्यक्रम की अनुमति नहीं मिलेगी। कला केंद्रों, शादी-विवाह आदि में लोगों की संख्या फिक्स है तो लंगा मांगणियार, ढोली, ढाढ़ी को भी कोई नहीं बुलाएगा। इनमें भी अधिकतर मुस्लिम हैं। उन पर कोरोना फैलाने की अफवाह पहले से ही उड़ी हुई है तो उन पर अत्याचार भी बढ़ेंगे। इनसे सामाजिक सहिष्णुता टूटेगी।


कुछ घुमंतू समुदाय, जिनमें कंजर, पेरना, राज नट, बेड़िया इत्यादि हैं, देह व्यापार करते हैं। मुंबई में बार डांसर भी अधिकांश नटनी या कंजर महिलाएं ही हैं। इनके इस काम के पीछे व्यवस्था की कमी से जुड़े कई कारण हैं। सरकारी और सामाजिक संस्थाओं के प्रयासों से इसमें कमी आ रही थी, लेकिन अब ये ज्यादा संभावना है कि रोजगार के अभाव में ये समुदाय वापस देह व्यापार की ओर लौटें। इससे पिछले 20 वर्षों की मेहनत पर भी पानी फिर जाएगा। अकेले राजस्थान में 52 घुमंतू समुदाय हैं जिनकी आबादी 60 लाख है। किंतु यहां सरकार ने खाद्य सुरक्षा का 5 किलो अन्न देने का जो नियम निकाला है, उससे भी इन समुदायों को बाहर कर दिया। घुमंतू समुदाय देश की अनमोल धरोहर हैं, जिन्हें लॉकडाउन ने बुरी तरह से तोड़कर रख दिया है। सरकार अगर इन्हें जल्द नहीं सहेजेगी, तो इतना तो तय है कि बहुत कुछ है जो बिखर जाएगा।

http://epaper.navbharattimes.com/details/110255-77320-2.html



~विजय राजबली माथुर ©

Friday, May 22, 2020

मजदूर वर्ग की अंतरराष्ट्रीय एकता सर्वाधिक जरूरी ------ मुकेश असीम








Mukesh Aseem
17-05-2020 

अमरीका साम्राज्यवादी लुटेरों का पुराना जमा हुआ सरदार है जबकि चीन उसे अपदस्थ कर सबसे बड़ा लुटेरा बनने की कोशिश में है। इसके बाद के 10-15 बडे पूँजीवादी देश साम्राज्यवादी लूट में जूनियर पार्टनर के रूप में अपने हिस्से के दावे को मजबूत करने के लिए अभी दोनों से सीधे विरोध से बचते हुए सौदेबाजी में लगे हैं।
दुनिया भर की मेहनतकश जनता की लूट पर आधिपत्य की इन दोनों की होड कोविड महामारी से उत्पन्न संकट में और भी अधिक गलाकाट हो गई है। इसी नाते दोनों की ओर से अभी एक भयानक प्रोपेगैंडा युद्ध छेड दिया गया है।
एक ओर सर्वाधिक विकास और अमीरी का दम भरने वाला ट्रंप नीत अमरीका कोरोना से निपटने में अपनी व्यवस्था के गरीब मुल्कों की तरह ढह जाने की असफलता से ध्यान हटाने के लिए वैश्विक मीडिया के जरिये 'चीनी वाइरस' साजिश को तो जोरों से प्रचारित कर ही रहा है, अमरीकी समाज में श्वेत प्रभुत्ववादी फासिस्ट ताकतों को बढावा दे न सिर्फ चीनियों बल्कि सभी 'अ'श्वेत एशियाई, अफ्रीकी, अरब व हिस्पैनिक नस्ल अल्पसंख्यकों के खिलाफ उसी तरह नफरत फैलाने में लगा है जैसे भारत में हिंदुत्ववादी मुसलमानों के खिलाफ। श्वेत प्रभुत्ववादियों ने भारतीयों समेत इन अल्पसंख्यकों पर बहुत सारे हमले भी किये हैं। याद रहे लिंचिंग का 'उत्सव' अमरीकी श्वेत प्रभुत्ववादियों की पुरानी स्थापित परंपरा है।
दूसरी ओर लुटेरे गिरोह की सरदारी की होड में चैलेंजर होने के नाते चीनी फर्जी कम्युनिस्ट गिरोह की प्रोपेगैंडा शैली भिन्न है। वह सीधा हमला बोलने के बजाय हर मुमकिन तरीके से दुनिया को यह बताने में जुटा है कि अमरीका सहित पुराने साम्राज्यवादी देश दिवालिया व अक्षम हो चुके हैं जबकि चीनी सरकार और पूँजीपति हर स्थिति से कुशलता से निपटने में सक्षम और जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय स्रोत हैं। अतः भविष्य की ताकत वही है और अमरीकी प्रभाव में उसके साथ संबंध बिगाड़ने का जोखिम उठाना ठीक नहीं।
किंतु आर्थिक क्षेत्र में इन दोनों की अर्थव्यवस्था संकट में है और दोनों का शासक पूँजीपति वर्ग मजदूरों के खून को हर मुमकिन तरह से निचोडने में लगा है। अमरीकी शासक खुलेआम कह रहे हैं कि जो वृद्ध, बीमार, अपंग, कमजोर, असहाय पूँजीपतियों के लिए श्रम नहीं कर सकते उनकी जान क्यों बचाई जाये तो दुनिया का सबसे बड़ा पूँजीपति 'कम्युनिस्ट' जैक मा मजदूरों को कह रहा है कि '996' या सप्ताह में 72 घंटे श्रम शक्ति नहीं दे सकते तो मालिकों की ओर से जहन्नुम में जाओ। और ठीक वही सारे पूँजीवादी देशों के शासक वर्ग कर रहे हैं।

इन दोनों लुटेरों में से किसी एक को भी आजादी या विकास की स्वप्नभूमि मान उसके फेक प्रोमोटिड प्रोपेगैंडा पर भरोसा रखने वाले बस गहरे भ्रम का शिकार हैं। विश्व का कोई पूँजीवादी आज मानव समाज की तरक्की में रत्ती भर योगदान नहीं दे सकता बल्कि वे कोरोना से भी बडे संकट पैदा करने वाले हैं। अपने देश के पूँजीपतियों समेत दुनिया भर के पूँजीपतियों के विरुद्ध मजदूर वर्ग की अंतरराष्ट्रीय एकता आज सर्वाधिक जरूरी बन गई है।

https://www.facebook.com/MukeshAseem/posts/3591087900917665



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~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, May 16, 2020

हमें कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी होगी ------ डॉ रणदीप गुलेरिया , डायरेक्टर , एम्स (AIIMS )




Girish Malviya
भारत का नीति आयोग पूरी तरह से बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के निर्देशों पर ही काम कर रहा है, बिल गेट्स जैसी नीति निर्धारित करते हैं भारत मे नीति आयोग वही नीति लेकर के आता है ..............आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नवम्बर 2019 में जब बिल गेट्स भारत मे आए तो नीति आयोग के वाइस चेयरमैन राजीव कुमार ने बिल गेट्स की मौजूदगी में 'हेल्थ सिस्टम फॉर ए न्यू इंडिया: बिल्डिंग ब्लॉक्स- पोटेंशियल पाथवेज टू रिफॉर्म' रिपोर्ट पेश की थी..........यह रिपोर्ट भारत के आगामी हेल्थ सिस्टम का रोडमैप है, क्योंकि यह व्यवस्था उस मध्य वर्ग के लिए है जो अब तक किसी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली जैसे आयुष्मान भारत के दायरे में नहीं आते हैं. ................मुझे तो यह भी लगता है कि आयुष्मान भारत भी नीति आयोग गेट्स फाउंडेशन की सलाह से ही लाया है क्योंकि यह योजना भी अमेरिका की ओबामा केयर योजना की भोंडी नकल मात्र है ओर आयुष्मान भारत को पूरी तरह से पेपरलैस बिल गेट्स को हर तरह का डाटा प्रदान करने के लिए ही किया जा रहा है.........

आज कोरोना काल की सबसे बड़ी उपलब्धि नीति आयोग आरोग्य सेतु एप्प को बता रहा है इसे भी अगर आप ध्यान से देखे तो आप पाएंगे कि उसमे विदेशी वित्त पोषित ई फार्मासिस्ट कंपनियों के ढेरों एड दिखाई दे रहे है

दरअसल यही बिल गेट्स का विजन है गेट्स ने नवम्बर में भारत दौरे जो कहा था उसे ध्यान से समझ लीजिए आपके ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे उन्होंने कहा था.......... 'निजी क्षेत्र के व्यापक इनोवेशन और डिजिटल उपकरणों जैसी तकनीक के इस्तेमाल से भारत को कम खर्च में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने में मदद मिलेगी'.......

आरएसएस के स्वदेशी जागरण मंच ने आरोप लगाया है कि नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत आरोग्य सेतु एप के जरिये ऐसी ई-फार्मेसियों को बढ़ावा दे रहे हैं, जो भारत में अवैध रूप से काम कर रही हैं।....उन्होंने कहा कि 'यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोरोना वायरस से लड़ने के लिए यह एप विदेशी वित्त पोषित ई फार्मासिस्टों की सेवा कर रहा है।"

यह बिल्कुल सच है 18 दिसंबर, 2018 को दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि बिना लाइसेंस के दवा की ऑनलाइन बिक्री नहीं की जा सकती। लेकिन कोरोना के इस दौर में सबसे ज्यादा चांदी कोई काट रहा है तो वह है फार्मा से जुड़ी हुई 1 mg ओर प्रैक्टो जैसी एप्प

ओर अगर आप यह सोच रहे है कि यह सिर्फ दवाई बिक्री की एप्प है तो आप बिलकुल गलत सोच रहे हैं असली प्लान इन कम्पनियों के बहुत ही बड़ा है

ओर वह है भारत के हेल्थ सेक्टर में #टेलीमेडिसिन की एंट्री, नीति आयोग ने हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर के नाम पर टेलीमेडिसिन को बढ़ावा देने की पूरी नीति को तैयार कर रखा है इन सेंटर्स का आयुष्मान भारत मे बहुत बड़ा रोल है

सरकार ने नीति आयोग के साथ मिलकर पिछले महीने ही टेलीमेडिसिन को लेकर जल्दबाजी में एक गाइडलाइन जारी की है जिसमे बहुत से प्रश्नों को छोड़ दिया गया है जिसका सीधा फायदा इन विदेशी कंपनियों को मिलने जा रहा है

‘टेली’ एक ग्रीक शब्द है जिसका अर्थ है ‘दूरी’ और ‘मेडेरी’ एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है ‘ठीक करना’। टाइम पत्रिका ने टेलीमेडिसिन को ‘हीलिंग बाई वायर’ (healing by wire) के नाम से संबोधित किया है।

टेलीमेडिसिन के बहाने भारत का हेल्थ सेक्टर तेजी से ऑर्गेनाइज होने जा रहा है.......आरोग्य सेतु के जरिए ऑनलाइन टेलीमेडिसिन और चिकित्सा परामर्श (कॉल और वीडियो), होम लैब टेस्ट आदि किये जाने की ही बात है.....

वैसे टेलीमेडिसिन अपने आप मे कोई बुरी बात नही है क्योकि हेल्थकेयर पर होने वाले खर्च को कम करने में टेलीमेडिसिन का फंडा बड़ा ही कारगर साबित हो रहा है।
लेकिन सवाल वही है जो आरोग्यसेतु एप्प के साथ है और वह है डाटा सुरक्षा का.....दरअसल यह एप्प पर तो लोगो का ध्यान भी है लेकिन इसी से जुड़ी हुई जो आरोग्‍य सेतु मित्र वेबसाइट है वही असली खेल हो रहा है, उसमे हेल्‍थ सेक्‍टर की कई प्राइवेट कंपनियों के साथ पार्टनरशिप की गयी है.

कानूनी विशेषज्ञ टेलीमेडिसिन कंपनियों और ई-कंस्लटेशन कंपनियों के रेगुलेशन (नियमन) का सवाल उठाते हैं। जिसको अभी कोरोना काल मे एक झटके में दरकिनार कर दिया गया है.......उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि ये कंपनियां मरीजों के डेटा का दुरुपयोग कर सकती हैं। लीगल एक्सपर्ट सिद्धार्थ चंद्रशेखर ने बीबीसी से कहा, "डेटा प्राइवेसी को लेकर चिंता बनी रहेगी। क्योंकि मरीज के पूरे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से जुड़ा डेटा धोखाधड़ी करने वाले तत्वों में हाथों में पड़ सकता है। वे इसका दुरुपयोग कर सकते हैं।"भारत में काम करने वाले एडवोकेसी ग्रुप इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन ने अप्रैल में एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें कहा गया था कि टेलीमेडिसिन एप्स के जरिए इकट्ठा संवेदनशील मेडिकल और पर्सनल डेटा तक किसकी (किस संगठन की) पहुंच होगी, इस पर पारदर्शिता नहीं है।

आने वाले दिनों में आरोग्य सेतु ऐप फोन में इनबिल्‍ट ही रहेगा यानी प्लानिंग बहुत लम्बी है.....

नीति आयोग कोविड 19 के दौर में सहयोगी के नाम पर बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन को जोड़े हुए हैं उसकी तरफ से30,000 किट आरटीपीसीआर परीक्षण किट-यूपी और बिहार को दिये गए है,..... कोविड 19 पर प्रचार सामग्री बाँटने का ठेका उन्ही के पास है

बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने भारत मे डेल फाउंडेशन और वाधवानी फाउंडेशन के साथ एक्शन कोविड -19 टीम (act) बनाया है और अनुदान के रूप में 100 करोड़ का अनुदान दिया गया, एसीटी ग्रांट एक भारतीय नॉन-फॉर-प्रॉफिट ग्रांट है जो उद्यम पूंजी निवेशकों और स्टार्ट-अप संस्थापकों द्वारा स्थापित किया गया है पिछले 43 दिनों में 39 स्टार्ट-अप को अनुदान दिया है। ये अनुदान टेलीमेडिसिन, मास-स्केल परीक्षण, रोगी ट्रैकिंग, संदिग्ध निगरानी, ​​संपर्क ट्रेसिंग और पीपीई किट के निर्माण के क्षेत्रों में आते हैं,

ये सब बिजनेस है कोई परोपकार - शरोपकार नही है जो बिल गेट्स को परोपकारी उद्योगपति समझे बैठे है वो अपने दिमाग के जाले साफ कर ले........
https://www.facebook.com/girish.malviya.16/posts/3230851870279772

















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  ~विजय राजबली माथुर ©

Friday, May 15, 2020

कोरोना वायरस भारत मे अमेरिकन कारपोरेट के लिए नोटबंदी जैसे अवसर लेकर आया है................ गिरीश मालवीय



अगर मैं आपसे कहूँ कि भारत मे नोटबंदी बिल गेट्स ओर उनके अमेरिकी सहयोगियों के ही इशारे पे की गई तो क्या आप मानेंगे?..... बिल गेट्स और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल रात वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए कोरोना संक्रमण को लेकर दुनिया और भारत के हालात पर व्यापक चर्चा की, यह चर्चा ओपचारिक रूप से हो रही थी इसलिए इसकी खबर छपी है लेकिन बहुत सी ऐसी डील भी होती है जिसके बारे में हमे पता भी नही चलता !.....
आपको अपनी आँखों पर विश्वास नही होगा जो खुलासा अब आप पढ़ने जा रहे  है......

ऐसा भी नही है कि यह दावा करने वाला मैं पहला व्यक्ति हूँ दरअसल 2017 में जर्मनी के अर्थशास्त्री नॉरबर्ट हेयरिंग ने यह दावा कर सनसनी मचा दी थी कि भारत मे नोटबंदी अमेरिका के इशारे पर हुई थी लेकिन हमने उन संगठनों के नाम पर ध्यान नही दिया जिनका नाम नॉरबर्ट हेयरिंग ने लिया था और जिनके दबाव में मोदी सरकार ने ये डिसीजन लिया यह संगठन थे ......बेटर दैन कैश एलाइंस, द गेट्स फाउंडेशन (माइक्रोसॉफ्ट),ओमिडियार नेटवर्क (ई-बे), द डेल फाउंडेशन, मास्टरकार्ड, वीजा और मेटलाइफ फाउंडेशन

उस वक़्त नॉरबर्ट हेयरिंग द्वारा किया गया यह दावा सनसनी बनकर रह गया किसी ने उस पर ध्यान नही दिया क्योकि लेख बड़ा अस्पष्ट सा था इसमें सिर्फ इतना ही जिक्र था कि नोटबंदी के लगभग महीने भर पहले, अमेरिका द्वारा दूसरे देशों को मदद करने के लिए बनाई गई संस्था यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी ऑफ इंटरनेशनल डेवलेपमेंट (यूएसएआईडी) ने ‘कैटलिस्टः कैशलेस पेमेंट पार्टनरशिप’ की स्थापना किए जाने का ऐलान किया था । ओर इसमे भारत के वित्त मंत्रालय की भी हिस्सेदारी थी

कल रात हमने इस बयान की कड़ी से कड़ी जोड़ना शुरू तो हम आश्चर्य चकित रह गए..... यह समझने से पहले वो बाते दिमाग से निकाल दीजिए जिसे नोटबंदी का उद्देश्य बताया जाता है जैसे काले धन का खात्मा, आतंकवाद पर प्रहार, भ्रष्टाचार पर रोक और नकली नोट को रोकना आदि आदि.....

नोटबंदी का सिर्फ और सिर्फ एक ही उद्देश्य था वह था जितनी भी नगदी है उसे वापस बैंक में डालना ओर उसका डिजिटलीकरण कर देना.......तभी नोटबंदी के ठीक बाद कैशलेस, ओर लेस कैश जैसे शब्द हवा में उछाले गए.....

दरअसल नरेंद्र मोदी 2014 में चुनाव जीतने के बाद वाशिंगटन गए तो उन्होंने इस लक्ष्य को लेकर एक वादा किया था। उनकी यात्रा के दौरान ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में बिल गेट्स फाउंडेशन यूएसएआईडी, भारत के वित्त मंत्रालय और डिजिटल लेन-देन में शामिल कई अमेरिकी और भारतीय कंपनियों के बीच एक भागीदारी की घोषणा हुई थी।

बराक ओबामा के भारत दौरे पर भारत ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में शामिल हो गया। 1 सितंबर 2015 की मनी भास्कर की ख़बर है 'भारत अपने फाइनेंशियल इन्‍क्‍लूजन अभियान को और व्‍यापक बनाने के लिए यूनाइटेड नेशंस के ‘बेटर दैन कैश अलायंस’ से जुड़ने जा रहा है।' ( https://www.jansatta.com/national/america-decision-was-behind-pm-narendra-modi-demonetisation-move/469937/ )

इस खबर में एक ओर खास बात आखिरी में लिखी थी यह घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फ्लैगशिप फाइनेंशियल इन्‍क्‍लूजन अभियान प्रधानमंत्री 'जन-धन योजना' की पहली वर्षगांठ के अवसर भी की गई।, इस योजना के तहत 175 मिलियन नए अकाउंट्स खोले गए हैं, जिनमें 22,300 करोड़ रुपए जमा किए गए हैं।'

यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात आपके सामने रख रहा हूँ भारत मे जन-धन खाते की मूल योजना की अनुशंसा रिजर्व बैंक द्वारा बनाई गई नचिकेत मोर कमेटी ने की थी नचिकेत मोर बाद में 2016 में भारत मे बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के भारत मे प्रमुख बने जो 2019 तक उसी पद पर रहते हुए रिजर्व बैंक के डिप्टी डायरेक्टर तक बने..........

खैर आगें बढ़ते हैं

दिसम्बर 2015 में अमेरिकी ट्रेजरी विभाग और यूएसएआईडी ने संयुक्त रूप से वाशिंगटन में एक वित्तीय समावेशन फ़ोरम आयोजित किया. जिसमे बिल गेट्स ने कहा "अर्थव्यवस्था का पूरी तरह डिजिटाइजेशन विकासशील देशों में अन्य जगहों के मुकाबले तेज रफ़्तार से हो सकता है. निश्चित रूप से यह हमारा लक्ष्य है कि हम आने वाले तीन सालों में बड़े विकासशील देशों में इसे सम्भव बनाएँ. …गेट्स भारत में आधार कार्ड के "सर्वव्यापी होने" से बेहद उत्साहित थे क्योंकि इससे हर व्यक्ति को "पहचान सुनिश्चित करके उसे सेवा प्रदान की जा सकेगी." उन्होंने एक और दिलचस्प बात कही कि भारत जैसे देश अमेरिका की तुलना में ज्यादा तेज रफ़्तार से डिज़िटलीकरण की दिशा में बढ़ सकते हैं क्योंकि वहाँ लोगों की निजता और डेटा को संरक्षित करने की कानूनी बाध्यताएँ बहुत कम हैं.

बेटर दैन कैश एलायंस में भारत शामिल हो चुका था इस एलायंस में वीजा और मास्टरकार्ड के अलावा सिटी बैंक भी शामिल था जो उस वक्त दुनिया का सबसे बड़ा बैंक था, दरअसल सिटी बैंक और ये संस्थान नगदी के सख्त खिलाफ थे , (दरअसल एक बात और थी 2010 में अमेरिका डॉड फ्रैंक एक्ट लागू हुआ था और इसके कारण 2015 में अमेरिकी पेमेंट कंपनियों का कमीशन आधा रह गया था इस मुद्दे पर पृथ्वीराज चव्हाण ने इंडियन एक्सप्रेस में लेख भी लिखा था, उस पर विस्तार से फिर कभी )

नोटबंदी के 9 महीने पहले फरवरी 2016 में अमेरिकी संस्था यूएसएआईडी एक रिपोर्ट जारी करती है इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 97 फीसदी रिटेल ट्रांजैक्‍शन अभी भी कैश पर आधारित है और पिछले तीन माह में केवल 29 फीसदी बैंक एकाउंट का उपयोग हुआ है, इलेक्‍ट्रॉनिक पेमेंट मेथड्स जैसे डेबिट कार्ड और मोबाइल वॉलेट का उपयोग बहुत निम्‍न है।.......यूएसएआईडी भारत के कैश फ्लो को डिजिटल इकोनॉमी की सबसे बड़ी बाधा बताता है ( https://www.indiatv.in/paisa/business-ninety-seven-per-cent-of-retail-transactions-still-cash-based-541620)

नॉरबर्ट हेयरिंग ने नोटबंदी के दो साल बाद लिखे लेख में इन सब बातों का खुलासा करते हुए बतलाया कि 'जितना कम नगद इस्तेमाल होता है, उतना ज्यादा बैंक में जमा राशि का रूप लेता है। बैंक में जितना ज्यादा पैसा जमा होगा, वे उतने फायदेमंद धंधों में घुस सकते हैं.........भारत मे भी ठीक यही हुआ......नोटबंदी के थोड़े समय बाद अमेरिकी सलाहकार कंपनी बीसीजी और गूगल ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें भारतीय लेन-देन के बाजार को ‘500 अरब डॉलर के सोने का बर्तन’ कहा गया। नोटबंदी के बाद अमेरिकी निवेशक बैंक ने संभावित मुख्य लाभार्थियों में वीजा, मास्टरकार्ड और एमेजॉन को शामिल किया।......ओर बीते कुछ सालो में हमने देखा कि वह सही थे , अमेज़न ने नोटबंदी के बाद बहुत आक्रामक तरीके से भारतीय e कॉमर्स बाजार में कदम रखे....... ओर डिजिटाइजेशन का मुख्य फायदा वीजा ओर मास्टर कार्ड को ही मिला

ओर बाद में बिल गेट्स ने भी भारत की मोदी सरकार द्वारा की गई नोटबंदी के डिसीजन की भूरी भूरी प्रशंसा की उन्होंने कहा कि इससे पारदर्शी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने में मदद में बड़ी मदद मिलेगी..........दरअसल नोट बंदी का फैसला वित्तमंत्री अरुण जेटली और रिजर्व बैंक का फैसला कभी था ही नहीं उन्हें इस कदम का कोई अंदाजा यह नरेंद्र मोदी का ही फैसला था।........




आप यकीन मानिए कोरोना वायरस भारत मे अमेरिका के बिग कारपोरेट के लिए फिर से एक बार नोटबंदी जैसे ही नए अवसर लेकर आया है................( https://khabar.ndtv.com/news/india/bill-gates-twitter-reaction-after-talk-with-pm-modi-on-coronavirus-pandemic-2229116 )

https://www.facebook.com/girish.malviya.16/posts/3228016347229991



 ~विजय राजबली माथुर ©

Sunday, May 3, 2020

यों ही जारी रहा लॉकडाउन : न जनता बच पाएगी, न कारोबार ------ स्वामिनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर






स्वामिनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर
न जनता बच पाएगी, न कारोबार
अगर यों ही जारी रहा लॉकडाउन
स्वामिनॉमिक्स
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कोरोना के दौरान शटडाउन का दुनिया भर में सबसे बड़ा सबक यह रहा कि इस दौरान कोरोना वायरस से जितने लोग मारे गए, लगभग उतने ही लॉकडाउन के कारण अपनी जान गंवा बैठे। कोरोना के इलाज का जो तरीका है, वह बीमारी के बराबर ही बुरा है।

फाइनैंशल टाइम्स, लंदन के मुताबिक अधिकतर देशों में मार्च और अप्रैल के महीने में मृत्यु दर पिछले पांच बरसों के मुकाबले ज्यादा थी, खासकर यूरोपीय देशों में। आंकड़ों के मुताबिक सामान्य मृत्यु दर के मुकाबले यह आंकड़ा 49 फीसदी ज्यादा था। लेकिन इसमें से बमुश्किल आधी मौतें कोरोना की वजह से हुई थीं। इनमें भी गैर-कोरोना मौतों के आंकड़ों में शायद कई मौतें ऐसी भी थीं, जिनमें कोरोना का पता नहीं चल पाया। ऐसे ज्यादातर लोग लॉकडाउन के साइड-इफेक्ट्स के कारण मारे गए। इससे क्या सीख मिलती है ?  यही कि भारत को लॉकडाउन जल्दी-से-जल्दी खत्म कर देना चाहिए। हां, हमें ऐहतियात जरूर बरतनी चाहिए। सुरक्षा के कारगर तरीके ढूंढने चाहिए और आर्थिक गतिविधियां चालू कर देनी चाहिए।

बढ़ी हुई मृत्यु दर की बात करें तो बेल्जियम में यह आंकड़ा 60 फीसदी, नीदरलैंड में 51 फीसदी लेकिन स्वीडन में सिर्फ 12 फीसदी ही था। दिलचस्प यह है कि यूरोपीय देशों में स्वीडन इकलौता ऐसा देश है जिसने लॉकडाउन लागू नहीं किया है। उसने सोशल डिस्टेंसिंग, बार-बार हाथ धोने और लगातार सैनिटाइजेशन पर जोर दिया। इससे यह संकेत मिलता है कि दुनिया में सबसे सख्त तरीके से लॉकडाउन लगाने वाले भारत ने शायद लोगों की ज़िंदगी को बचाए बगैर अर्थव्यवस्था की हत्या कर दी क्योंकि लॉकडाउन के कारण कोरोना मौतों में कमी लॉकडाउन की वजह से होने वाली ज्यादा मौतों का मुकाबला नहीं कर पाती है। भारत को जल्द-से-जल्द बढ़ी हुई मृत्यु दर के बारे में विश्लेषण करना चाहिए।

यह मृत्यु दर महानगर केंद्रित है - 1500 फीसदी जर्काता में, 299 फीसदी न्यू यॉर्क में और 96 फीसदी लंदन में। डॉक्टरों का कहना है कि दिल की बीमारी, स्ट्रोक, कैंसर जैसी दूसरी बीमारियों के मरीजों के अस्पताल में आने की संख्या अभी काफी कम हो गई है। लक्षण होने के बावजूद लोग अस्पताल जाने से बच रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अस्पताल जाने पर कहीं कोरोना न हो जाए। पूरा का पूरा मेडिकल तंत्र कोरोना के खिलाफ लड़ाई में इस कदर जुट गया है कि दूसरी बीमारियां नजरअंदाज हो गई हैं। गैर-जरूरी सभी सर्जरी रोक दी गई हैं, आईसीयू के अधिकतर बेड कोरोना मरीजों के लिए रिजर्व रख कर दिए गए हैं। कोरोना को रोकने की इस कोशिश में दूसरी वजहों से मौत का आंकड़ा बढ़ गया है।

ब्रिटेन के कैंसर रिसर्च इंस्टिट्यूट के अनुसार जांच के लिए अस्पताल जाने वाले कैंसर के संभावित मरीजों की तादाद अचानक काफी कम हो गई है। अनुमान है कि हर हफ्ते कैंसर के करीब 2000 मामले नजरअंदाज हो रहे हैं। इनमें से 400 महज इसलिए पकड़ में नहीं आ रहे क्योंकि ब्रेस्ट और पेट के कैंसर की साधारण जांच फिलहाल बंद कर दी गई है। अकेले ब्रिटेन में 20 लाख सर्जरी टाल दी गई हैं।

हमारे देश में प्राइवेट अस्पतालों का मानना है कि लॉकडाउन के कारण सर्जरी और ओपीडी में आने वाले मरीजों की संख्या पूरी तरह से कम हो गई है। आईसीयू में बेड खाली पड़े हैं और पैसे का जबरदस्त नुकसान हो रहा है। काम चालू रखने और कर्मचारियों को सैलरी देने के लिए अस्पतालों को सरकार से वित्तीय मदद की दरकार है।

भारत में हर साल टीबी के 2.50 करोड़ मामले सामने आते हैं जिनमें से 4.40 लाख की हर साल मौत हो जाती है। भारत में हर साल मलेरिया के 20 लाख मामले पता चलते हैं, जिनमें से 20 हजार की मौत हो जाती है। लॉकडाउन के कारण लगभग हर राज्य में एंटी-मलेरिया अभियान रोक दिया गया है। ऐसे में कोरोना से होने वाली कुछ एक हजार मौतें दूसरी बीमारियों से होने वाले कुल मौतों के मुकाबले कहीं कम हैं।

लॉकडाउन ने ट्रैफिक और वर्कप्लेस पर होने वाली मौतों को अच्छी-खासी संख्या में कम किया है। अपराधी घरों में बंद हैं इसलिए हत्याएं कम हो रही हैं। इन सब वजहों से गैर-कोरोना मौतें बेहद कम होनी चाहिए थीं लेकिन लॉकडाउन में हुआ उलटा है। येल यूनिवर्सिटी की एक स्टडी के मुताबिक इस बार मार्च की शुरुआत से लेकर 4 अप्रैल तक अमेरिका में 15,400 मौतें सामान्य से ज्यादा हुईं। इन ज्यादा मौतों में कोरोना का योगदान 53 फीसदी थ। इसमें सबसे ज्यादा मौतें मिशिगन में 77 फीसदी, जबकि मेरीलैंड में सबसे कम 18 फीसदी थीं।

आंकड़ा विशेषज्ञ प्रणब सेन सही ही कहते हैं कि भारत को न सिर्फ ज़िंदगी बल्कि कारोबार को भी बचाना चाहिए। कारोबार ही लोगों को रोजगार देता है। भारत में उत्पादन करने वाली आधी क्षमता लॉकडाउन में बंद है। भारत में 6.50 करोड़ इंटरप्राइज़ेज हैं जिनमें से मुश्किल से 40 लाख रजिस्टर्ड हैं। नॉन-रजिस्टर्ड काम-धंधे बहुत बड़े तबके को रोजगार मुहैया कराते हैं लेकिन लॉकडाउन में उनकी सामूहिक हत्या हो गई है। अगर जल्दी से आर्थिक गतिविधियां शुरु नहीं होतीं और इन काम-धंधों को चालू नहीं किया गया तो आप न सिर्फ कारोबार बल्कि लोगों की भी हत्या कर देंगे! अमेरिका, जापान और चीन में जीडीपी धड़ाम से नीचे गिर गई है। भारत भी उसी रास्ते पर है। महामंदी के बाद यह सबसे बड़ी गिरावट है।

दुनिया भर का अनुभव यही कहता है कि भारत को अपने लोगों और कारोबार को बचाने के लिए खुला खर्च करना चाहिए। जापान अपनी जीडीपी में से इसके लिए अतिरिक्त 20 फीसदी खर्च कर रहा है। अमेरिका ने जो पहला पैकेज जारी किया है, उसमें यह आंकड़ा जीडीपी का 10 फीसदी है, दूसरे पैकेज में 6 प्रतिशत और मिल सकता है। भारत ने फिलहाल जिस राहत पैकेज का ऐलान किया है, वह जीडीपी के एक फीसदी से भी कम है। इसे पांच गुना बढ़ाए जाने की जरूरत है। चूंकि सरकारी आमदनी सीमित है, टैक्स से मिलने वाली आमदनी में भी कमी होगी इसलिए आरबीआई को जीडीपी की कम-से-कम 5 फीसदी रकम के रुपये छापने चाहिए ताकि लोगों की जिंदगी और कारोबार को बचाने में इसे खर्च किया जा सके। कुछ अर्थशास्त्रियों को डर है कि इससे महंगाई में इजाफा होगा लेकिन दूसरे देशों में जब ऐसी कोशिश हुई थी तो उससे कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हुई।


कुल मिलाकर सबसे बड़ी सीख है कि अमेरिका, जापान और यूरोप में लॉकडाउन के दौरान दिए गए राहत पैकेज गिरती हुए जीडीपी को थामने में नाकाम रहे हैं। ऐसे में इस हालत में जान फूंकने के लिए आर्थिक गतिविधियों को फिर से बहाल करना जरूरी है। भारत को लॉकडाउन की सख्ती में काफी ढील देने की जरूरत है। साथ में ऐहतियात को भी बनाए रखना होगा। यह जोखिम भरा है, लेकिन है जरूरी

http://epaper.navbharattimes.com/details/107509-78142-2.html



 ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, May 2, 2020

The lockdown imposed with only four hours' notice has been problematic...... Kanuru Sujatha Rao , Ex- Union health secretary

Elicit contrary opinions: Ex-secretary
Frontpage
G.S. MUDUR New Delhi

Some public experts, while acknowledging India's early initiatives to curb the spread of the novel coronavirus, have expressed concern about what they believe are signals of inadequate planning and poorly coordinated responses to the pandemic.
The Telegraph had requested former Union health secretary Kanuru Sujatha Rao, who had spent in the health sector 20 of her 36 years as an IAS officer, to share her thoughts about how India has handled the epidemic. Rao was the Union health secretary in 2009-10.
"It is important to find independent voices and con- trary opinions to optimise final decisions," Rao, who has been a Takemi Fellow at the Harvard School of Public Health, said.
She highlighted the absence of epidemiologists at the helm of India's responses and said the lockdown imposed with only four hours' notice has been problematic.
Rao said the quicker India moved out of the lockdown the better, but the government should through micro-planning ensure the infection did not slip into the green zones.
Excerpts from an interview follow:

Q: How would you describe India's response? Could things have been done differently? Do you see avoidable mistakes or judgement errors?
 Rao: The challenges the Centre and the state governments are facing are extraordinary. In hindsight it is always easy to find something that could have been done better or differently. This virus is like no other -- in its speed, stealth and virulence -- and calls for highly sophisticated responses.
Very little is known about this virus. So a response is beset with uncertainties and unknowns that necessitate doing by learning -- step by step. Given these circumstances, there is an urgency to fall back upon the science of epidemiology, past experience -- after all, this is not the first time India (has encountered) a new virus -- and a careful weighing of options based on evidence.
I would perhaps have opted for a calibrated response like Kerala's. I would have closed borders for foreign travel in the first fortnight of February, with the World Health Organisation declaring the novel coronavirus to be a Public Health Emergency of International Concern on January 30, enforced a strict protocol of isolating the infected, and rigorously traced all contacts and tested them. It would have been advisable to engage with state health ministers and alerted them to ensure close coordination with the MEA (ministry of external affairs) and the states early on.
The second set of actions would have been to focus on expanding testing, launch information campaigns towards physical distancing, (encourage the) use of masks to ensure people don't get into panic or fear. These are standard responses and must have been considered in the department of health. I don't know the reasons for not acting along those lines.
Q: You mentioned the need to fall back on the science of epidemiology in decision-making. Do you believe India has done that in the best possible way?
Rao: I'm not sure who ultimately is driving the decisionmaking of our response. If it is the Indian Council of Medical Research (ICMR), I would find it strange as it is the department of health that has the experience of having handled and operationalised interventions to contain epidemics over decades -- from small pox, polio or HIV to the spate of viral outbreaks we've faced in recent times such as SARS, H1N1 influenza, Zika or Nipah.
The ICMR has always provided the knowledge base on which the department of health would formulate the response in consultation with states. Here, I find the ICMR laying down strategy to the extent of even fixing test rates for the private sector.
 Be that as it may, I didn't see many of the known epidemiologists in the initial phase of the response. Even the technical committee constituted by the Niti Aayog /ICMR on March 18 didn't have any of the wellknown epidemiologists.
They have one or two but they work under the DGICMR and that could have circumscribed their ability to give their frank views in case they were different from that of the DG or other seniors in the department. What is important is to find independent voices and contrary opinions for optimising the final decision.
It would seem odd if an epidemiologist, no matter how famous, guides policy on clinical disciplines. So too public health or epidemiology is a distinct discipline and a science on its own. That needs to be respected. I'm not sure what epidemiologists would have recommended but I think they would have argued for strategic interventions and differential approaches based on evidence rather than a one-sizefits-all approach.
I think they would have asked for more testing and ring-fencing of vulnerable populations such as the elderly and people with comorbidities.
Q: Over the past week, we've seen government efforts to show evidence that the nationwide lockdown has been timely and effective and given India the opportunity to ramp up testing and hospital facilities. Some officials have argued that without the lockdown, India's confirmed cases would have by now exceeded 100,000 instead of being less than 35,000. How do you view these efforts to showcase the "success" of the lockdown?
Rao: I don't think one should get defensive and at this stage of the battle try to justify past decisions with data. Who is to say whether we have averted 1 or 2 lakh infections? It could even be 3 lakh depending on the assumptions you make. Those estimates may well be true. But the issue is not that. The issue is why everyone from Kashmir to Kanyakumari had to be locked up at a four-hour notice.
On March 24, we had around 500 cases and barely 10 deaths. In over 600 districts, people had not even heard of the infection. In locking down the whole country, our attention and scant energies were diverted in managing the lockdown instead of focusing on persons returning from abroad and international travellers.
This does not mean the lockdown is a bad decision. But it could have been a planned act instead of a kneejerk reaction as there is no evidence to suggest that if we didn't, we would have lost many lives the very next day.
In planning a week (ahead), we could have saved the huge amount of human suffering, got medical supplies and ration shops stocked, placed orders to buy kits and PPE (personal protective equipment).
But it has been said again and again: the lockdown does not eliminate the virus; it just slows it down. To contain the virus, we need to know where it is spreading and that can be known only by testing. We should have called on our biotech companies to work on good kits, bought high-quality kits and ramped up our lab capacity to expand testing in what would be the red and buffer zones.
The ICMR should have swung into action and set up surveillance sites to monitor the spread of the virus. There is an important distinction that needs to be understood. The tests for surveillance and epidemiology help us know where the virus is, among whom and at what speed it is circulating; the tests to diagnose the infection (are meant) to isolate and treat.
Q: There have been anecdotal reports of private hospitals/clinics denying patients healthcare services. Recently, the health secretary asked all states to ensure that private hospitals/clinics continue to offer such services to patients. Could such a situation have been avoided?
Rao: The private sector has reacted somewhat irresponsibly at one level by shutting down OPDs and refusing elective surgeries. I don't think this was necessary at all. At the same time, with the conversion of almost all government facilities for Covid patients, it is private hospitals that have helped patients get some care at least. This should have been managed better at the state levels.
The letter from the health secretary is timely and I hope the states pay heed to it. We must remember that we'll soon face outbreaks of vectorborne diseases that are seasonal and preventive actions need to be taken now to avert deaths and outbreaks of dengue. While Covid is important, it is not a choice a government can offer -- die of Covid or dengue.
Q: You have tweeted about the ICMR's embarrassing recall of antibody test kits that its own lab (NIV) had earlier approved. Does this not cast doubts about the ICMR's test validation process? Do you view it as unusual that the ICMR became involved in procuring test kits?
Rao: The ICMR is a reputable organisation. It has people of high calibre and integrity. When kits are recalled and found substandard it affects its credibility. This could have been avoided. There are procurement processes and procedures. The ICMR procures kits or consumables for its own laboratories. I have never come across an instance where procurement for a programme like this was done by the ICMR.
Q: Some experts have said India's poor capacity to respond is partly the outcome of the low priority given over the years to investing in disease surveillance, which they describe as the "radar" for infectious diseases. Has India under-invested in this radar?
Rao: Absolutely. There cannot be doubts or opinions Sujatha Rao about this. India not only under-invests in health but has completely neglected public health at its own peril. Today we are witnessing the results of our past neglect. Our surveillance systems are hopeless. More than 250 epidemiologists' posts are vacant at state levels, forget the districts. The public health cadre of the Union government is becoming extinct.
This is worrying as 36 per cent of our disease burden is still communicable diseases. Since 1995, several expert committees have recommended that a department of public health be created with the director-general of public health as its technical head. The DG public health would be a qualified public health person with experience in primary healthcare institutions implementing disease control programmes. But that has not found traction.
Our technical wing in the ministry has been gradually weakened as clinicians after working all their life in an operation theatre in Ram Manohar Lohia Hospital or Safdarjung Hospital become the DG. This has to change. We need a strong public health cadre and expertise in every state.
The directors of public health and chief medical officers in the districts must be qualified in public health, infectious diseases or family medicine. But in India, I feel no one cares and when a Covid strikes, we get hysterical. Unfortunately, we don't respect science. I earnestly hope the government will act at least now after this horrific experience and develop public health cadres and our public health institutions.
Q: We're still in the middle of the pandemic. Are there any course corrections in India's technical or operational response that you would like to or hope to see?
Rao: Not course corrections. Our challenge is to get out of the comfort zone of the lockdown and restore normality and have the ability to face any surges in infection. It is sad to see that the lockdowns are so arbitrarily being extended by chief ministers. On what grounds, may I ask? Goa had seven infected people, all cured. Not a single death and not a single infection. Why should it have a lockdown? I'm afraid such decision-making reflects a fear and an inability to face the tougher job of restor- ing normality. My hunch is that this up and down, hide and seek with the virus will continue till a vaccine is found or we develop herd immunity. But for any herd immunity we have to get out of the lockdown and allow our young and healthy to get exposed to the virus. The quicker we move towards that by getting out of the lockdown the better.
That said, I feel that the lifting of the lockdown has to be gradual and planned in microdetail. District collectors must come up with micro-plans of how they would ensure that public health principles are adhered to by the public and under no circumstances is infection allowed to enter the green zones.
As for the red zones, very detailed planning (is necessary) and a humane enforcement of the lockdown needs to be enforced. We have the institutional capability for this.
Q: What lessons do you believe India can take away from this pandemic?
Rao: The positive outcome of this pandemic is that people are more disciplined, maintaining social distance, wearing masks, not violating lockdown rules and so on. I have to compliment our people, the police authorities, our caregivers and the administration for doing such a great job. It's not easy.
In several cases, people have come out to help and also shown great respect to healthcare workers and doctors. The people have borne huge inconveniences with a great sense of resilience that is truly remarkable.
But at the policy level, as said above, institutional reform needs to be brought in without further delay. Health is a state subject but infectious diseases are very much a concurrent subject and so the central government has an equal responsibility.
Second, we have to learn to incentivise and engage civil society and NGOs. Health and education are sectors that need people's engagement and can never be done by the government alone through fiats and orders.
Third, we must invest more in research. The ICMR has some fine institutions, all struggling for funds. The department of health research should be more like the US National Institutes of Health, focus on fundamental research, strengthen disease surveillance, and build capacity to assess disease burdens at district levels and even below.
Until we have that kind of knowledge base, our policies and their implementation will always be found wanting or inadequate. And finally, it is very important that in health, the spirit of federalism is fully maintained.
The states must be encouraged to build their own capacity and capabilities and the GOI must not be prescriptive (but) facilitative. There is great merit in differential planning and differential focus..

Curtecy The Telegraph,Calcutta