Monday, November 28, 2011

1991 के अप्रकाशित लेख-(3 )/ 'मानवता का हत्यारा -जार्ज बुश' ------ विजय राजबली माथुर

सन 1991 मे राजनीतिक परिस्थितिए कुछ इस प्रकार तेजी से मुड़ी कि हमारे लेख जो एक अंक मे एक से अधिक संख्या मे 'सप्त दिवा साप्ताहिक',आगरा के प्रधान संपादक छाप देते थे उन्हें उनके फाइनेंसर्स जो फासिस्ट  समर्थक थे ने मेरे लेखों मे संशोधन करने को कहा। मैंने अपने लेखों मे संशोधन करने के बजाए उनसे वापिस मांग लिया जो अब तक कहीं और भी प्रकाशित नहीं कराये थे उन्हें अब इस ब्लाग पर सार्वजनिक कर रहा हूँ और उसका कारण आज फिर देश पर मंडरा रहा फासिस्ट तानाशाही का खतरा है। जार्ज बुश,सद्दाम हुसैन आदि के संबंध मे उस वक्त के हिसाब से लिखे ये लेख ज्यों के त्यों उसी  रूप मे प्रस्तुत हैं-

'मानवता का हत्यारा -जार्ज बुश'

वह दिन अब दूर नहीं जब आज के नौनिहालों की संताने डाक्ट्रेट हासिल करने के लिए अपने शोध-ग्रन्थों मे अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश को मानवता का निर्मम संहार करने वाला एक जघन्य अपराधी और क्रूरतम -हत्यारा लिख कर वर्तमान काल का ऐतिहासिक मूल्यांकन करेंगी। काश साम्राज्यवादी लूट के सौदागरों का सरगना अमेरिका शोषण-प्रवृत्ति के लोभ को त्याग सकता और अपने राष्ट्रपति की भावी छीछालेदर को बचा सकता! 


आज नहीं तो कल वर्ना परसों तो तृतीय विश्वमहायुद्ध अब छिड़ने ही जा रहा है। पूंजीवादी प्रेस और आंध्राष्ट्रीयतावादी ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को इसके लिए उत्तरदाई ठहरा रहे हैं। पश्चिम के साम्राज्यवादी प्रेस ने तो प्रेसीडेंट सद्दाम की तुलना नाजी हिटलर से की है। परंतु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है।

सिक्किम ने वैधानिक रूप से भारत मे अपना विलय कर लिया था परंतु पुर्तगाली साम्राज्य से मुक्त कराने के लिए 1961 मे हमे भी गोवा मे बल -प्रयोग करना पड़ा था। इसी प्रकार कुवैत जो मूलतः ईराकी गणराज्य का अभिन्न अंग था,पाश्चात्य साम्राज्यवादी लुटेरे देशों की दुरभि संधि से ईराक से अलग किया गया था और तथाकथित स्वतन्त्रता के लबादे मे साम्राज्यवाड़ियों का ही उपनिवेश था। अतः 02 अगस्त 1990 को ईराक ने  बलपूर्वक  पुनः कुवैत का ईराक मे विलय कर लिया। एक प्रकार से यह पुराने षड्यंत्र को विफल किया गया था।

संयुक्त राष्ट्रसंघ दोषी-

जिस प्रकार लीग आफ नेशन्स की गलतियों से 1939 मे जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमण करने से द्वितीय विश्वमहायुद्ध भड़का था;ठीक उसी प्रकार आज भी संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा ईराक को कुवैत न छोडने पर युद्ध का आल्टीमेटम देने और अमेरिका द्वारा उस पर अमल करने की आड़ मे ईराक पर हमला करने से तृतीय विश्वमहायुद्ध महाप्रलय लाने हेतु छिड़ने की संभावना प्रबल है।

जब लीबिया पर अमेरिकी राष्ट्रपति बमबारी की ;राष्ट्रसंघ मौन रहा,जब पनामा मे हमला कर वहाँ के राष्ट्रपति को कैद करके अमेरिका ले जाया गया,राष्ट्रसंघ मौन रहा। इससे पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर ने फाकलैंड द्वीप पर हमला करके उसे अर्जेन्टीना से छीन लिया राष्ट्रसंघ मौन रहा। इज़राईल लगातार राष्ट्रसंघ प्रस्तावों की अवहेलना करके जार्डन के गाजा पट्टी इत्यादि इलाकों को जबरन हथियाए बैठा है-राष्ट्रसंघ नपुसंक बना रहा। सिर्फ ईराक का राष्ट्रीय एकीकरण राष्ट्रसंघ की निगाह मे इसलिए गलत है कि,अमेरिका के आर्थिक और साम्राज्यवादी हितों को ठेस पहुँच रही है।

बाज़ारों की लड़ाई है-

ब्रिटेन ,फ्रांस,पुर्तगाल और हालैण्ड सम्पूर्ण विश्व पर अपने कुटिल व्यापार और शोषण के सहारे प्रभुत्व जमाये हुये थे। यूरोप मे भी और अपने उपनिवेशों मे भी अपने-अपने बाजार फैलाने के लिए ये परस्पर सशस्त्र संघर्ष करते रहते थे। परंतु जर्मनी द्वारा प्रिंस बिस्मार्क के प्रधान् मंत्रित्व और विलियम क़ैसर द्वितीय के शासन मे तीव्र औद्योगिक विकास कर लेने के बाद उसे भी अपना तैयार माल बेचने के लिए 'बाजार' की आवश्यकता थी। इसलिए वह पहले से स्थापित साम्राज्यवाड़ियों का साझा शत्रु था। 'प्रशिया 'प्रांत को जर्मनी से निकाल देने पर समस्त साम्राज्यवादी प्रतिद्वंदी इकट्ठे हो कर जर्मनी पर टूट पड़े और 1914 मे प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया। पराजित जर्मनी को बाँट डाला गया। विश्व शांति के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन की पहल पर 'लीग आफ नेशन्स'की स्थापना हुई।


द्वितीय विश्व महायुद्ध भी बाजारू टकराव था-

अमेरिका स्वंय लीग का सदस्य नहीं बना। पराजित जर्मनी मे हर एडोल्फ़ हिटलर,इटली मे बोनीटो मुसोलिनी और जापान मे प्रधानमंत्री टोजो के नेतृत्व मे द्रुत गति से औद्योगिक विकास हुआ और ये तीनों अमेरिका,ब्रिटेन व फ्रांस के समकक्ष आ गए परंतु बाज़ारों पर कब्जा न कर पाये। इटली ने 'अबीसीनिया' पर आक्रमण कर अपने साम्राज्य मे मिला लिया। लीग लुंज-पुंज रहा। 1939 मे जर्मनी ने अपने पुराने भाग पोलैंड पर आक्रमण कर दिया और द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया जिसकी समाप्ती 1945 मे जापान के हीरोशिमा और नागासाकी पर अणु-बमों द्वारा अमेरिकी प्रहार से हुई। पुनः विश्व शांति के लिए 'संयुक्त राष्ट्रसंघ' की स्थापना हुई जिसमे विजेता पाँच राष्ट्रों -अमेरिका,ब्रिटेन,फ्रांस,रूस और चीन को विशेषाधिकार -वीटो दे कर व्यवहार मे इसे पंगु बना दिया गया। इज़राईल के विरुद्ध यू एन ओ का कुछ न कर पाना अमेरिकी वीटो का ही करिश्मा हा।

तृतीय विश्वयुद्ध का प्रयास भी साम्राज्यवादी बाजार की रक्षा का प्रयास है-

ईराक द्वारा विश्व के पांचवे भाग का तेल उत्पादक क्षेत्र वापिस अपने देश मे मिलाने से साम्राज्यवादी लुटेरे देशों और उनके आका अमेरिका को अपने हाथ से विश्व बाजार खिसकता नज़र आया और उसी बाज़ार को बचाने के असफल प्रयास मे अमेरिका समस्त मानवता को विनष्ट करने पर तुला हुआ है। पैसा नहीं तो जी कर क्या करेगा पैसों वाला और अकेला क्यों मारे सभी को ले मरेगा अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश।

खाड़ी देशों से प्राप्त होने वाला तेल एक ऐसा ऊर्जा स्त्रोत है जिस पर आज का सम्पूर्ण औद्योगिक विकास व आर्थिक प्रगति निर्भर हो गई है। कल-कारखानों के लिए ईधन हो या विद्युत जेनेरेटर के लिए अथवा खेतों के पंप सेटों के लिए तेल ही की आवश्यकता है। रेलें,यान,पोत सभी को तो तेल चाहिए। अब तक साम्राज्यवादी देश तेल का अधिकांश भाग अपने दबदबे से हड़प लेते थे। राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने ईराक की सत्ता समहालते ही साम्राज्यवाड़ियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया और ईराक को एक प्रगतिशील-समृद्ध -सुदृढ़ राष्ट्र का स्वरूप प्रदान किया जबकि,अन्य खाड़ी देश अब भी साम्राज्यवाड़ियों के पिछलग्गू हैं। कुवैत लेकर सद्दाम ने साम्राज्यवाड़ियों का बाजार छीन लिया अतः उन पर युद्ध थोपा जा रहा है,उद्देश्य है ईराक मे तख़्ता पलट अथवा पराजय से साम्राज्यवाड़ियों का विश्व बाजार चंगुल मे फंसाए रखा जाये। (मेरा 1991 मे यह आंकलन गलत नहीं था ,बाद मे ऐसा ही हुआ और अभी-अभी लीबिया मे भी गद्दाफ़ी के खात्मे से इसकी पुष्टि होती है। )


महा विनाश होगा-

विश्व मे अब तक उपलब्ध परमाणु भंडार मे इतनी संहारक क्षमता है कि सम्पूर्ण प्रथ्वी को छप्पन (56)बार समूल विनष्ट किया जा सकता है। शायद परमाणु युद्ध अपने पूरे यौवन के साथ न भी खेला जाये । परंतु युद्ध प्रारम्भ हो जाने पर ईराक समर्थक जारदन,अल्जीरिया आदि राष्ट्र व विरोधी सऊदी अरब,मिश्र और उनके गुरुघंटाल अमेरिका,ब्रिटेन आदि शत्रु देशों के तेल-कूपों पर प्रहार करेंगे। समस्त खाड़ी क्षेत्र जन-संख्या से वीरान तो हो ही जाएगा उनका भूमिगत तेल-भंडार ज्वालामुखी के विस्फोटों के साथ जल उठेगा। वैज्ञानिकों के अनुसार तब कई वर्षों तक वर्षा नहीं होगी और जब होगी तो अम्लीय जिससे भूमि ऊसर हो जाएगी। अकाल और महामारियों से जन-विनाश होगा। अनुमान है कि,तृतीय महायुद्ध जब भी होगा उसकी समाप्ती होते-होते विश्व की एक चौथाई आबादी ही बचेगी। यदि परमाणु युद्ध भी हुआ तो वायु मण्डल मे ओज़ोन गैस की परतें फट जाएंगी जिससे सूर्य का प्रकाश सीधे प्रथ्वी पर पद कर समस्त जीवों का दहन कर देगा और बचेगा ज्वालामुखी का लावा,खंधर,वीरान प्रथवी मण्डल तब कहाँ साम्राज्यवाद होगा?कहाँ बाजार?और कहाँ जार्ज बुश और उनका अमेरिका। क्या पृथ्वी  पर मानवता का संचार होने की कोई संभावना है?

Friday, November 18, 2011

नाच न आवे आँगन टेढ़ा

आज कल बैठे ठाले कुछ लोग 'ज्योतिष' की आलोचना करना अपना कर्तव्य और बड़प्पन समझ रहे हैं। बे सिर पैर की बातों को लेकर आधार हींन  और अतार्किक प्रश्न उठा कर ज्योतिष को चेलेंज देना तो कोई इनसे बड़ी सरलता से सीख सकता है। वस्तुतः 'काला अक्षर भैंस बराबर' इंनका ज्योतिष ज्ञान है और फुटपाथ पर बैठे 'तोता 'वाले या सड़क पर घूमते 'बैल'वाले को ही ये ज्योतिषी मानते हैं और ज्योतिष की 'धुआंधार आलोचना' करने लग जाते हैं।                                                                                                                                          

'ढोंग पाखंड और ज्योतिष'  मे मैंने ऐसे लोगों की पोल खोल कर सावधान रहने का जनता से आह्वान किया था। परंतु भाषा और साहित्य के ये प्रचंड विद्वान मुझ जैसे अज्ञात व्यक्ति के विचारों को कैसे स्वीकार कर सकते हैं?


मैंने 'ज्योतिष और हम'  द्वारा मानव जीवन पर पड़ने वाले ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव को सरलतम ढंग से स्पष्ट करने का भी प्रयास किया था। जो लोग जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ते हैं उन्हें तो सच्चाई कभी स्वीकार हो ही नहीं सकती परंतु खेद का विषय यह है कि जो लोग खुद को प्रगतिशील और जनता का हमदर्द बताते हैं वे भी झूठ को ही बल प्रदान करते हैं । अफसोसजनक ही है कि जिस 'ज्योतिष' का उद्देश्य 'मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध'बनाना है उसे ही तथाकथित प्रगतिशील विद्वान त्याज्य बताते हुये भर्त्सना  करते हैं।

ज्योतिष = ज्योति अर्थात प्रकाश का ज्ञान। 'ज्योतिष' का विरोध करके प्रकाश और ज्ञान से जनता को वंचित करके ये विद्वान किसका हितसाधन कर रहे हैं यह स्वतः स्पष्ट है। इसी प्रकार 'धर्म' का विरोध भी एक प्रगतिशील फैशन के तहत किया जा रहा है। 'धर्म'वह नहीं है जिसे पुरोहितवादी उत्पीड़न और लूट को पुख्ता बनाने के लिए घोषित करते हैं परंतु ये विद्वान उसी ढोंग को ही 'धर्म' माने बैठे है । वे  ढोंगियों और ढोंगवाद की तो भर्त्सना करते नहीं ,उनका विरोध करते नहीं और बिना जाने-बूझे 'धर्म' पर हमला करते हैं। अधर्म के अलमबरदारों और इनमे कोई मौलिक अंतर नहीं है।


'धर्म और विज्ञान' शीर्षक से लिखे लेख मे मैंने 'धर्म' का वैज्ञानिक अर्थ स्पष्ट करने की चेष्टा की है,परंतु सुधी विद्वजन उस पर कोई ध्यान ही नहीं देना चाहते और अपनी गलत धारणाओं को जबरिया सब पर थोप देना चाहते हैं। यही नहीं 'श्रद्धा,विश्वास और ज्योतिष' तथा 'ज्योतिष और अंध विश्वास' के माध्यम से मैंने वैज्ञानिक तर्क सहित 'ज्योतिष' और ढोंग के अंतर को भी स्पष्ट किया है। ढोंग और पाखंड किसी भी रूप मे ज्योतिष नहीं हैं और उनका न केवल विरोध बल्कि उन्मूलन भी होना चाहिए। लेकिन थोथे  वक्तव्यों द्वारा ज्योतिष की आलोचना करने वाले कई ऐसे कामरेड्स को मै जानता हूँ जो प्रत्येक ब्रहस्पतिवार को मजार पर जाकर दीप जलाते है। धर्म और ज्योतिष की आलोचना करने वाले सी पी एम के एक नेता ने तो मुझ से अपनी पुत्री तथा पुत्र की जन्म-पत्री बनवाकर उनका भविष्य इन्टरनेट के जरिये मंगवाया था।  एक बड़बोले आर्यसमाजी ( जो अब अपने पुत्र के पास बेंगलोर चले गए हैं)ने आगरा मे अपनी पुत्री की शादी हेतु जन्म-पत्र आर्यसमाज के ही पूर्व मंत्री से बनवाकर भेजी थी। सरला बाग (दयाल बाग),आगरा मे राधास्वामी मत के अनुयायियों ने मुझसे जन्म-पत्र बनवाए और अपने बच्चों का भविष्य ज्ञात किया लेकिन प्रवचनों मे ज्योतिष की आलोचना करते रहे। जिनकी कथनी और करनी मे अंतर है ऐसे लोग जनता और समाज के शत्रु ही हैं ,हितैषी नहीं। अतः ऐसे लोगों की 'ज्योतिष' अथवा 'धर्म' संबंधी आलोचना को 'जन-विरोधी' समझा जाना चाहिए। 

Saturday, November 12, 2011

विलंबित समाचार


हिंदुस्तान ,लखनऊ,12 नवंबर,2011 के समपादकीय और उसी पृष्ठ पर प्रकाशित वैज्ञानिक सुमन सहाय जी  के लेख के स्कैन से विस्तृत वर्णन मिल जाएगा। ब्लाग जगत मे अनेक डॉ,इंजीनियर और वैज्ञानिक भी हैं और एक वैज्ञानिक ब्लाग एसोसिएशन भी है परंतु ब्लाग्स मे या फेस बुक पर तीन दिनो तक कोई समाचार नहीं दीखा और आज प्रथम पृष्ठ पर छोटी सी खबर के साथ ये लेख पढ़ने को मिले। डॉ खुराना का निधन विश्व के साथ -साथ भारतीय विज्ञान जगत की भी क्षति है।

एक महान वैज्ञानिक को हमारे देश की सरकारों ने तथा साथ ही हमारे वैज्ञानिकों ने भी उपेक्षित रखा। इसी वजह से जब उन्हे 'नोबुल'पुरस्कार मिला और भारत मे उन्हे अपना बताने की होड मची तो उन्होने बड़ी पीड़ा के साथ कहा था कि वह अब भारतीय नहीं हैं और उन्होने अमेरिकी नागरिकता ले ली है एवं अमेरिकी नागरिक की हैसियत से ही उन्हे यह पुरस्कार मिला है। तब यहाँ के समाचार पत्रों ने स्व अमृत लाल नागर समेत अनेक साहित्यकारों तथा दूसरे लोगों के साक्षात्कार छाप कर यह बताया था कि उनमे से किसी को ऐसा पुरस्कार मिलने पर वे अपने को भारतीय ही बताएँगे। एक प्रकार से यह डॉ खुराना का तिरस्कार करना ही था।

अब भी उनके निधन का समाचार विलंब से ही प्रकाश मे आया है। जो भी हो वह जन्म से भारतीय थे और भारत सरकार तथा यहाँ के लोगों को चाहिए जैसा कि 'सुमन सहाय 'जी ने सुझाव भी दिया है कि अब भी डॉ हर गोविंद खुराना के नाम पर उनकी स्मृति मे पुरस्कार या शिक्षा संस्थानों का नामकरण कर के उन्हे श्रद्धांजली दे सकते हैं। 

Thursday, November 10, 2011

"सद्दाम हुसैन "/गरीबों का मसीहा-एशिया का गौरव-1991 का अप्र.लेख(2) ------ विजय राजबली माथुर



सन 1991 मे राजनीतिक परिस्थितिए कुछ इस प्रकार तेजी से मुड़ी कि हमारे लेख जो एक अंक मे एक से अधिक संख्या मे 'सप्त दिवा साप्ताहिक',आगरा के प्रधान संपादक छाप देते थे उन्हें उनके फाइनेंसर्स जो फासिस्ट  समर्थक थे ने मेरे लेखों मे संशोधन करने को कहा। मैंने अपने लेखों मे संशोधन करने के बजाए उनसे वापिस मांग लिया जो अब तक कहीं और भी प्रकाशित नहीं कराये थे उन्हें अब इस ब्लाग पर सार्वजनिक कर रहा हूँ और उसका कारण आज फिर देश पर मंडरा रहा फासिस्ट तानाशाही का खतरा है। जार्ज बुश,सद्दाम हुसैन आदि के संबंध मे उस वक्त के हिसाब से लिखे ये लेख ज्यों के त्यों उसी  रूप मे प्रस्तुत हैं-


नेताजी सुभाष चंद्र बॉस ने कहा था-"एशिया एशियाईओ के लिये"। ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने साम्राज्यवाद के आगे न झुक कर एशिया का मस्तक ऊंचा किया है। जार्ज वाशिंगटन यदि संयुक्त राज्य अमेरिका का संगठक था तो जार्ज बुश विध्वंसक बन रहा है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के खात्मे के साथ ही विश्व से शोषण और दमन का युग समाप्त होगा। यदि राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन सफल रहे तो इसका श्रेय उन्ही को जाएगा।

शोषणवादी-पूंजीवादी लुटेरी मनोवृत्ति के लोग लगातार सद्दाम हुसैन के विरुद्ध विष-वामन किए जा रहे हैं। भाजपा की घोंघावादी नीतियों के समर्थक और प्रशंसक हिन्दू/मुस्लिम के आधार पर और हाल ही मे साम्राज्यवादियों की एजेंट विहिप द्वारा संचालित कमल 'रथ-यात्रा'से फूल कर कुप्पा हुये विचारक ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को तृतीय विश्व महायुद्ध के प्रारम्भ होने का खतरा बता कर दोषी ठहरा रहे हैं और जार्ज बुश का समर्थन कर रहे जो कि,भारत के राष्ट्रीय हितों के सर्वथा विपरीत है ।

संयुक्त राज्य अमेरिका का उदय-

जब स्पेन का कोलंबस भारत की खोज मे भटक कर अमेरिका महाद्वीप पर पहुंचा और इसके पिछड़ेपन के समाचार यूरोप पहुंचे तो यूरोप के साम्राज्यवादी देशों ने अपनी बढ़ती हुई आबादी को नियंत्रित करने के लिये अपने-अपने उपनिवेश कायम करके वहाँ के मूल-आदिवासियों (तथाकथित रेड इंडियन्स)को समाप्त कर दिया।

हालांकि अमेरिका मे कायम उपनिवेश यूरोपीय नस्ल की आबादी के ही थे परंतु उन्होने अपने-अपने मूल राज्यों के विरुद्ध बगावत कर दी और संयुक्त रूप से जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व मे आजादी की लड़ाई लड़ी। लार्डकारनावालिस जो साम्राज्यवाड़ियों की सेना का नायक था जार्ज वाशिंगटन द्वारा कैद कर लिया गया (यही लार्ड कार्नावालिस भारत मे वाईस राय बन कर आया और यहाँ स्थाई बंदोबस्त नाम से किसानों के शोषण के लिये जमींदारी प्रथा लागू कर गया)। चौदह (14) उपनिवेशों ने आजादी पाकर मिल कर एक राष्ट्र 'संयुक्त राज्य अमेरिका' की स्थापना की।

अमेरिकी साम्राज्यवाद-

प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जकड़न ढीली पड़ने लगी और इसका स्थान अमेरिका लेता गया । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब भारत से ब्रिटिश साम्राज्य का उखड़ना प्रारम्भ हुआ तो अमेरिका विश्व के साम्राज्यवादियों के सरगना के रूप मे स्थापित हो चुका था। अमेरिकी गुप्तचर संस्था सी आई ए का मुख्य कार्य लोकतान्त्रिक देशों मे उखाड़-पछाड़ करना और तानाशाहों का समर्थन करना हो गया जिससे अमेरिकी साम्राज्यवाद के हित सुरक्षित  रखे जा सकें। पाकिस्तान,बांग्ला देश आदि के तानाशाह अमेरिकी कठपुतली साबित हो चुके हैं। पश्चिम एशिया मे अरब शेख भी अमेरिकी साम्राज्यवाद के मजबूत पाएदान रहे हैं। इन शेखों ने अपने-अपने देश की पेट्रो -डालर सम्पदा अमेरिकी बैंकों मे विनियोजित कर रखी है।

जो अमेरिका साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की उपज था वही साम्राज्यवाद का क्रूरत्तम  सरगना बना यह भी विडम्बना और खेद की ही बात है।

सद्दाम का संघर्ष-

सद्दाम हुसैन ने ईराक की सत्ता समहालते ही ईराक मे द्रुत गति से विकास कार्य सम्पन्न किए। जनता को समानता और लोकतन्त्र के अधिकार दिये एवं इस्लामी घोंघावाद का पर्दाफाश 
सऊदी अरब आदि शेखों वाले अरब देश जहां सामाजिक आधार पर आज भी उन्नत्त नहीं हैं। सद्दाम ने ईराक मे स्त्री-पुरुष की समानता पर बल दिया और पर्दा-प्रथा को समाप्त कर दिया। सद्दाम हुसैन ईरान के कठमुल्ला आयतुल्ला रूहैल्ला खोमेनी की नीतियों के सख्त विरोधी रहे और आठ वर्षों तक ईरान से युद्ध किया।

हाल मे ईराक ने ईरान से सम्झौता करके उसका विजित  प्रदेश लौटा दिया और अमेरिका के पिट्ठू कुवैत के शेख को भगा कर पुनः कुवैत का ईराक  मे विलय कर लिया । जार्ज बुश को सद्दाम का यह कार्य अमेरिकी साम्राज्यवाद की जड़ों पर प्रहार प्रतीत हुआ। अमेरिका ने अपने धौंस-बल पर संयुक्त राष्ट्र संघ से 29 नवंबर 1990 को ईराक पर आक्रमण करने का प्रस्ताव पास करा लिया और 15 जनवरी 1991 तक का समय झुकाने के लिए तय किया गया।

वीर ईराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को दाद दी जानी चाहिए की,उन्होने साम्राज्यवादी लुटेरे अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश के समक्ष घुटने नहीं टेके और समस्त एशिया से साम्राज्यवाद का खात्मा करने का बोझ ईराक के कंधों पर उठा लिया। 


भारतीय समयानुसार -17 जनवरी 1991 की प्रातः 03 बज कर 40 मिनट पर खूंखवार अमेरिका ने सोते हुये ईराक पर रात्रि के घुप्प अंधकार मे वीभत्स आक्रमण कर दिया और दोपहर  तक 18 हजार टन  गोला बारूद गिरा कर ईराक को जन-धन से काफी क्षति पहुंचाई है। 


पूर्व घोषणानुसार सद्दाम ने 18 ता .को इज़राईल पर मिसाइलों से आक्रमण कर दिया और लेबनान व फिलीसतीं न  की मुक्ति का संकल्प दोहराया। अमेरिका अरब जगत को धौंस जमाने के लिए इज़राईल को अंतर्राष्ट्रीय गुंडागर्दी के लिए उकसाता रहा है और इज़राईल के विरुद्ध राष्ट्रसंघ के सभी प्रस्तावों को वीटो करता रहा है जबकि,ईराक के विरुद्ध राष्ट्रसंघ प्रस्ताव की आड़ मे बर्बर हमला करके तृतीय विश्वयुद्ध की शुरुआत कराना चाहता है।

विहिप आंदोलन और अमेरिका-


1980 से ही अमेरिका विश्व हिन्दू परिषद को आर्थिक सहायता पहुंचा कर भारत मे अस्थिरता फैलाने का प्रयत्न करता रहा है। अमेरिकी कार निर्माता कंपनी फोर्ड का 'फोर्ड फाउंडेशन' खुले रूप मे विहिप को चन्दा देता रहा है। अमेरिकी धन के बल पर 25 सितंबर 1990 से विहिप ने आडवाणी-कमल-रथ यात्रा आयोजित कर समस्त भारत को सांप्रदायिक संघर्ष की आग मे झोंक दिया है।

अमेरिका संभावित युद्ध की विभीषिका के मद्दे नज़र भारत को कमजोर करना चाहता था जिससे एशियाईओ की अस्मिता की रक्षा मे भारत न खड़ा हो सके। कुछ हद तक अमेरिका को अपनी भारतीय शक्तियों -भाजपा/आर एस एस,विश्व हिन्दू परिषद,मौलाना बुखारी,सैयद शहाबुद्दीन,जमाते -इस्लामी,मुस्लिम लीग आदि के सहयोग से सफलता भी मिली। 17 ता को दिल्ली मे बुखारी और शहाबुद्दीन  द्वारा ईराक विरोधी बयान जारी करने और असम मे आडवाणी द्वारा ईराक की कड़ी आलोचना करने से अमेरिकी साजिश की ही पुष्टि होती है।

भारत का दायित्व-


भारत भरसक प्रयास के बावजूद युद्ध नहीं रोक सका है। रूस युद्ध मे अमेरिका का साथ नहीं देगा ,यह घोषणा करके राष्ट्रपति गोर्बाछोव ने एशिया के हित मे कदम उठाया है। चीन ने भी अमेरिका को चेतावनी दी थी कि,वह ईराक पर आक्रमण न करे। भारत का यह दायित्व हो जाता है कि,एशिया की तीनों शक्तियों-भारत,रूस और चीन को एकता -बद्ध करे और साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध ईराक को नैतिक समर्थन दे जिससे विश्व से शोशंणकारी शक्तियों को निर्मूल किया जा सके। विश्व की शोषित जनता के मसीहा के रूप मे सद्दाम हुसैन का नाम सदैव अमर रहेगा। 
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K Vikram Rao
एंग्लो-अमरीकी पाप उजागर आज हुआ
अन्ततः बारह साल बाद आज सच उभरा कि अमरीकी-ब्रिटिश फौज द्वारा Iraq पर हमला झूठी गुप्तचर रपट का नतीजा था। सब-कुछ प्रायोजित था। नवउपनिवेशवाद की साजिश थी। लार्ड जान चिलकोट की अध्यक्षता वाली जांच समिति के बारह खण्डों में छब्बीस लाख शब्दों में लिखे गये इस जाँच रपट से राष्ट्रपति जार्ज बुश George H. W. Bush और प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर Tony Blair पर युद्ध अपराधी का मुकदमा चलना चाहिये। मानवता का यह तकाजा है। डेढ लाख इराकी जनता का बमबारी से संहार किया गया था। राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन Saddam Hussein को फांसी दी गई थी। लार्ड चिलकोट ने लिखा कि ईराक की अपार हानि हुई। सद्दाम पर अणु बम बनाने का आरोप भी मनगढ़त पाया गया। 
अमरीकी हमले के बाद में IFWJ - Indian Federation of Working Journalists के पत्रकारों को लेकर मैं बगदाद गया था। सद्दाम हुसैन तब जीवित थे। उनके पुत्र इराकी श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के अध्यक्ष उदय हुसैन से भेंट भी की थी। ईराकी जर्नलिस्ट्स यूनियन के तमाम पदाधिकारियों से वार्ता भी मेरी हुई थी। वास्तविकता तभी उभर आई थी।
विद्रूपता देखिये। ब्रिटेन के समाजवादी प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर ने बाथ सोशलिस्ट नेता सद्दाम हुसैन के समतामूलक राष्ट्र पर अमरीकी साम्राज्यवादियों के पुछलगू बनकर आक्रमण किया। कांग्रेस-समर्थित भारत की समाजवादी जनता पार्टी सरकार के प्रधान मंत्री ठाकुर चन्द्रशेखर सिंह ने अमरीकी ब्रमवर्षक वायुयानों को मुम्बई में ईंधन भरने की विशेष अनुमति भी दे डाली थी।
बांग्लादेशी और पाकिस्तानी इस्लामी सेना ने इन उपनिवेशवादियों की नौकरी बजायी। सऊदी अरब और ईमाम बुखारी ने भी सद्दाम हुसैन के विरूद्ध पुरजोर अभियान चलाया। अमरीकियों की झण्डाबरदारी की। अमरीकी पूंजीवादी दबाव में शाही सऊदी अरब ने सद्दाम हुसैन के सोशिलिस्ट ईराक को नेस्तनाबूद करने में कसर नहीं छोड़ी। सऊदी अरब के बादशाह ने पैगम्बरे इस्लाम की जन्मस्थली के निकट अमरीकी हमलावर जहाजी बेड़े को जगह दी। नाना की मसनद (जन्म स्थली) के ऊपर से उड़कर अमरीकी आततायियों ने नवासे की मजारों पर कर्बला में बम बरसाए थे। मीनारों को क्षतिग्रस्त देखकर मुझ जैसे गैर-इस्लामी व्यक्ति का दिल भर आया था कि सऊदी अरब के इस्लामी शासकों को ऐसा नापाक काम करते अल्लाह का भी खौफ नही रहा | शकूर खोसाई के राष्ट्रीय पुस्तकालय में अमरीकी बमों द्वारा जले ग्रन्थों को देखकर उस दौर की याद बरबस आ गई जब चंगेज खाँ ने (1258) मुसतन्सरिया विश्वविद्यालय की किताबों का गारा बना कर युफ्रेट्स नदी पर पुल बनवाया था। 
हिन्दुस्तान के हिन्दुवादियों ने सद्दाम हुसैन को मात्र मुसलमान माना। अटल बिहारी पाजपेयी की जीभ उन दिनों जम गई थी। इसीलिये अब फिर हिन्दू राष्ट्रवादियों को याद दिलाना होगा कि ईराकी समाजवादी गणराज्य के अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन अकेले मुस्लिम राष्ट्राध्यक्ष थे जिन्होंने कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग कहा था। उनके राज में सरकारी कार्यालयों में नमाज़ अदायगी हेतु अवकाश नहीं मिलता था। कारण यही कि वे मज़हब को निजी आस्था की बात मानते थे। अयोध्या काण्ड पर जब इस्लामी दुनिया में बवण्डर उठा था तो बगदाद शान्त था। सद्दाम ने कहा था कि एक पुरानी इमारत गिरी है, यह भारत का अपना मामला है। उन्हीं दिनों ढाका में प्राचीन ढाकेश्वरी मन्दिर ढाया गया था। तस्लीमा नसरीन Tasleema Nasreen ने अपनी कृति (लज्जा) में बांग्लादेश में हिन्दू तरूणियों पर हुए वीभत्स जुल्मों का वर्णन किया है। इसी पूर्वी पाकिस्तान को भारतीय सेना द्वारा मुक्त कराने पर शेख मुजीब के बांग्लादेश को मान्यता देने में सद्दाम सर्वप्रथम थे। इन्दिरा गांधी की (1975 ईराक यात्रा पर मेज़बान सद्दाम ने उनका सूटकेस उठाया था। जब रायबरेली लोकसभा चुनाव में वे हार (1977 गईं थीं तो इन्दिरा गांधी को बगदाद में स्थायी आवास की पेशकश सद्दाम ने की थी। पोखरण द्वितीय (मई, 1988, पर भाजपावाली राजग सरकार को सद्दाम ने बधाई दी थी, जबकि कई परमाणु शक्ति वाले राष्ट्रों ने आर्थिक प्रतिबन्ध लादे थे। सद्दाम के नेतृत्ववाली बाथ सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में शिरकत करते रहे। भारतीय राजनेताओं को स्मरण होगा कि भारतीय रेल के असंख्य कर्मियों को आकर्षक अवसर सद्दाम ने वर्षों तक उपलब्ध कराए। उत्तर प्रदेश सेतु निर्माण निगम ने तो ईराक से मिले ठेकों द्वारा बहुत लाभ कमाया। पैंतीस लाख भारतीय श्रमजीवी सालाना एक खरब रुपये भारत भेजते थे। भारत को ईराकी तेल सस्ते दामों पर मुहय्या होता रहा। इस सुविधा का दुरूपयोग करने में कांग्रेस विदेश मंत्री (नटवर सिंह जैसे) तक नहीं चूके थे। आक्रान्त ईराक के तेल पर कई भारतीयों ने बेशर्मी से चाँदी काटी। भारत के सेक्युलर मुसलमानों को फक्र होगा याद करके कि ईराक में बुर्का लगभग लुप्त हो गया था। नरनारी की गैरबराबरी का प्रतीक यह काली पोशाक सद्दाम के ईराक में नागवार बन गई थी। कर्बला, मौसूल, टिकरीती आदि सुदूर इलाकों में मुझे तब बुर्का दिखा ही नहीं। स्कर्ट और ब्लाउज़ राजधानी बगदाद में आम लिबास था। माथे पर वे बिन्दिया लगाती थीं और उसे “हिन्दिया” कहती थीं। आधुनिक स्कूलों में पढ़ती छात्राओं, मेडिकल कालेजों में महिला चिकित्सकों और खाकी वर्दी में महिला पुलिस और सैनिकों को देखकर आशंका होती थी कि कहीं हिन्दूबहुल भारत से आगे यह इस्लामी देश न बढ़ जाए।
सद्दाम हुसैन के समय में हुई प्रगति में आज परिवर्तन आया है। अधोगति हुई है। टिग्रिस नदी के तट पर या बगदाद की सड़कों पर राहजनी और लूट अब आम बात है। एक दीनार जो साठ रूपये के विनिमय दर पर था, आज रूपये में दस मिलता है। दुपहियों और तिपहियों को पेट्रोल मुफ्त मिलता था, केवल शर्त थी कि चालक खुद उसे भरे। भारत में बोतल भर एक लीटर पानी दस रूपये का है। सद्दाम के ईराक में उसके चैथाई दाम पर लीटर भर पेट्रोल मिलता था।
अमरीका द्वारा थोपे गये “लोकतांत्रिक” संविधान के तहत सेक्युलर निज़ाम का स्थान आज कठमुल्लों ने कब्जाया है। नरनारी की गैरबराबरी फिर मान्य हो गई है। दाढ़ी और बुर्का भी प्रगट हो गये हैं। ईराकी युवतियों के ऊँचे ललाट, घनी लटें, गहरी आंखें, नुकीली नाक, शोणित कपोल, उभरे वक्ष अब छिप गये। यदि आज बगदाद में कालिदास रहते तो वे यक्ष के दूत मेघ के वर्ण की उपमा एक सियाह बुर्के से करते। ईराक में ठीक वैसा ही हुआ जो सम्राट रजा शाह पहलवी के अपदस्थ होने पर खुमैनी.राज में ईरान में हुआ, जहां चांद को लजा देने वाली पर्शियन रमणियां काले कैद में ढकेल दी गईं। नये संविधान में बहुपत्नी प्रथा, ज़ुबानी तलाक का नियम और जारकर्म पर केवल स्त्री को पत्थर से मार डालना फिर कानूनी बन गया हैं।
अतः चर्चा का मुद्दा है कि आखिर अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का अंजाम ऐसा क्यों हुआ मजहब के नाम पर बादशाहत और सियासत करने वालों को सद्दाम कभी पसन्द नहीं आए। उनकी बाथ सोशलिस्ट पार्टी ने रूढ़िग्रस्त ईराकी समाज को समता-मूलक आधार पर पुनर्गठित किया। रोटी, दवाई, शिक्षा, आवास आदि बुनियादी आवश्यकताओं को मूलाधिकार बनाया था। पड़ोसी अरब देशों में मध्यकालीन बर्बरता राजकीय प्रशासन की नीति है, मगर बगदाद में कानूनी ढांचा पश्चिमी न्याय सिद्धान्त पर आधारित था। ईराक में चोरी का दण्ड हाथ काटना नहीं था, वरन् जेल की सज़ा होती थी। 
सद्दाम को जार्ज बुश ने सेटन (शैतान) कहा। टिकरीती का एक यतीम तरूण सद्दाम हुसैन चाचाओं की कृपा पर पला। पैगम्बरे इस्लाम की पुत्री फातिमा का यह वंशज जब मात्र उन्नीस वर्ष का था तो बाथ सोशलिस्ट पार्टी में भर्ती हुआ। श्रम को उचित महत्व देना उसका जीवन दर्शन था। अमरीकी फौजों ने अपदस्थ राष्ट्रपति की जो मूर्तियां ढहा दी है, उनमें सद्दाम हुसैन हंसिया से बालियाँ काटते और हथौड़ा चलाते दिखते थे। अक्सर प्रश्न उठा कि सद्दाम हुसैन ईराक में ही क्यों छिपे रहे, क्योंकि उन्होंने हार मानी नहीं, रार ठानी थी। अमूमन अपदस्थ राष्ट्रनेतागण स्विस बैंक में जमा दौलत से विदेश में जीवन बसर करते हैं। बगदाद से पलायन कर सद्दाम भी कास्त्रों के क्यूबा, किम जोंग इल के उत्तरी कोरिया अथवा चेवेज़ के वेनेजुएला में पनाह पा सकते थे। ये तीनों अमरीका के कट्टर शत्रु रहे। जब अमरीकी सैनिकों ने उन्हें पकड़ने के बाद पूछा कि आप कौन हैं, तो इसी दृढ़ता के साथ सद्दाम का सीधा जवाब था, “सार्वभौम ईराक का राष्ट्रपति हूँ”। महज भारत के लिये ही सद्दाम हुसैन का अवसान साधारण हादसा नहीं हैं क्योंकि इस्लामी राष्ट्रनायकों में एक अकेला सेक्युलर व्यक्ति बिदा हो गया था। केवल चरमपन्थी लोग ही इस पीड़ा से अछूते रहेंगे। कारण-दर्द की अनुभूति के लिए मर्म होना चाहिए !
K Vikram Rao
9415000909

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Wednesday, November 9, 2011

और पाप का घड़ा छलक गया





(हिंदुस्तान,लखनऊ,09-11-2011)
उपरोक्त स्कैन पढ़ कर आपको कैसा लगा?अखबार के संवाददाता ने तो प्रशासन को जम कर कोस डाला क्या यह उचित है?इसी से मिलते -जुलते मामले मे सच्चाई बयान करने पर न्यायपालिका ने स्वामी अग्निवेश को कानूनन अपराधी मान लिया और शायद वह दंडित भी हो जाएँ। क्या जन-आस्था के नाम पर अपराध होते रहें और उस ओर ध्यान दिलाने पर -जनता को जागरूक करने के प्रयास पर लोग दंडित होते रहें तब इस प्रकार के हादसे नहीं होंगे?क्यों नहीं ऐसे कार्यक्रमों के आयोजकों को दोषी माना जाता जिनहोने बेगुनाह 20 लोगों को असमय मौत की नींद सुला दिया और 50 घायल हुये? 'वैज्ञानिक -सत्य' उद्घाटित करना आस्था के नाम पर तो दंडनीय अपराध मान लिया गया किन्तु संविधान-प्रदत्त 'अभिव्यक्ति की स्वन्त्र्ता' का संरक्षण भी स्वामी अग्निवेश को प्राप्त न हुआ। संविधान सर्वोपरि है न की जन-आस्था के नाम पर फैला आडंबर । 

हादसा कराने  वाला 'गायत्री परिवार' वेदिक नियमों की अवहेलना करने वाला एक व्यापारिक संगठन है । 1551 कुंडीय यज्ञशाला पूर्णत्यः वेदिक सिद्धांतों के विपरीत है। यज्ञशाला मे एक ही कुंड होना चाहिए और उसमे चारों ओर 2-2 व्यक्ति मिला कर एक बार मे 8 से अधिक व्यक्ति एक साथ आहुतियाँ नहीं दे सकते। किन्तु धनार्जन -दक्षिणा के लालच मे एक से अधिक कुंड बना लिए जाते हैं और इसी दक्षिणा के बटवारे को लेकर आचार्य श्री राम शर्मा के दामाद और पुत्र के मध्य खींच-तान तथा मुक़दमेबाज़ी भी चल रही है। 

'सच्चे साधक धक्के खाते ,अब चमचे मजे उड़ाते हैं'-नारद नाम से 'अमर उजाला',आगरा मे 1975 मे एक सज्जन ने जो लिखा था वही सब जगह देखने को मिल रहा है। आज झूठ,मक्कारी, बेईमानी ,ठगी,ढोंग-पाखंड का बोल-बाला है और उन्हीं को कानूनी संरक्षण भी मिला हुआ है। 'खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है'-ग्रेशम का यह अर्थशास्त्रीय सिद्धान्त आज सभी क्षेत्रों मे 'सत्य' सिद्ध हो रहा है। 

 नन्द लाल जी के इस ज्ञान को समझ सकें तो जनता ऐसे छली आयोजनों के भंवर -जाल मे फँसने से बच सकती है। 




यदि आचार्य श्री राम शर्मा द्वारा गायत्री परिवार के माध्यम से स्वामी दयानन्द द्वारा लायी गयी जागरूकता को समाप्त न किया जाता तो इस प्रकार के सभी दूसरे हादसों को भी रोका जा सकता था। इस संदर्भ मे यह लिंक भी देखें--http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.com/2011/11/blog-post_09.html

Thursday, November 3, 2011

पत्रकारिता का शौक और सिद्धान्त निष्ठा




http://vijaimathur.blogspot.com/2011/02/blog-post_27.html

हमारे होटल मुगल के सहकर्मी श्री हरीश छाबरा ने ( जिंनका जिक्र पूर्व मे किया जा चुका है के सहपाठी रहे) डॉ राम नाथ शर्मा ,आर एम पी से परिचय कराया था। उनके पिताजी -काली चरण वैद्य जी आगरा के काफी मशहूर   वैद्य थे । एक जमाने मे स्टेशन पर रिक्शा वाले से उनका नाम लेने पर वह उनके घर लेंन  गौ शाला पहुंचा देता था। वैद्य जी टाईफ़ाईड-मोतीझला के विशेज्ञ थे। एक बार मै बउआ का हाल बता कर दवा लाया था और उनकी फीस रु 2/- दे आया था। अगले दिन फिर दवा लेने जाने पर उन्होने पहचानते हुये कहा कि तुम तो बलुआ (डॉ का घर का नाम) के दोस्त हो ,तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जो मुझे पैसे दे गए पहले अपने दिये ये रु 2/-सम्हालो फिर माँ का हाल बताओ। फायदा होने तक उन्होने पूरी दवा मुफ्त दी।

डॉ भी घर आने-जाने की फीस नहीं लेते थे केवल दी गई दवा की कीमत लेते थे। 1981 मे टूंडला बतौर पंडित उन्होने ही शादी कारवाई थी। घर से सूट-बूट पहन कर बाराती बन कर गए थे ,फेरों के वक्त कोट उतार कर पंडित की भूमिका अदा करा दी फिर उसके बाद बाराती बन गए थे। यदि वह क्लीनिक मे उपलब्ध हुये तो घंटों उनसे इधर-उधर की बातें होती रहती थीं। ज्योतिषीय सलाह भी वह हमे मुफ्त ही प्रदान करते थे।

ऐसे डॉ राम नाथ(03-11-1951) के पड़ौसी और बचपन के मित्र थे श्री विजय शर्मा(डॉ से लगभग दो वर्ष छोटे) जो संजय गांधी की यूथ कांग्रेस के नेता रहे और जनता सरकार बनने पर जनता पार्टी मे शामिल हो गए। उनके बड़े भाई राज कुमार शर्मा जी जल निगम मे सहायक अभियंता थे और उन्होने अपनी दो नंबर की कमाई को एक मे बदलने हेतु छोटे भाई से एक अखबार 'सप्तदिवा-साप्ताहिक'चलवा दिया था । वह खुद सरकारी नौकरी मे होने के कारण कबीर उपनाम से 'कलम कबीर की' व्यंग्य कालम लिखते थे। उन्हें मेरे विचार पसंद आए अतः अपने भाई विजय से मुझे अपने साथ जोड़ने को कहा। पहली बार लेन-गौ शाला से निकलते अखबार मे मै मात्र लेखक था। एक शख्स खुद को 'सरिता' का पूर्व उप-संपादक बता कर उनके अखबार मे इतना गहरा घुसा कि उन्हीं के घर पर भी डेरा डाल लिया।उसने 'श्रमजीवी पत्रकार समिति'का गठन करवाया और उस समिति को मालिक बनवा दिया। विजय जी ने उसे प्रबंध संपादक बना दिया था। मैंने उसकी गतिविधियों से उन्हें सावधान रहने को कहा था परंतु उन्होने उपेक्षा कर दी। किन्तु बाद मे उन दोनों मे मतभेद हो गए ,वह शख्स अपनी पत्नी को उन्हीं के घर छोड़ कर खुद छीपी-टोला मे अपने रिश्तेदार के घर रहने लगा। मैंने उन्हें दोबारा चेताया कि उन जनाब की श्रीमती जी दिल्ली के मिरांडा हाऊस की स्टूडेंट रही हैं ,अकेले उन्हे घर पर रखेंगे तो परेशानी मे फंस जाएँगे। उनका सवाल था कि कैसे हटाएँ? मैंने उन्हें सुझाव दिया कि श्रीमती जैन को कहें कि अपने पति को या तो बुलाएँ या उनके पास ही जाएँ । इतना सवाल उठते ही वह शर्मा जी का घर छोड़ गई। बाद मे उनकी उस चालाक शख्स से कोर्ट मे मुकद्म्मेबाजी भी चली और अखबार बंद हो गया।

मुकद्म्मा जीत कर उन्होने दूसरी बार अखबार गांधी नगर से प्रकाशित करना शुरू किया और इस बार उन्हें एक और ठग मिल गया जिसे उन्होने प्रबंध संपादक बना दिया। राज कुमार जी ने कमला नगर मे -शालीमार एंक्लेव मे-एक मकान लिया और उसमे सुधार कार्य करने का दायित्व भी उन ठग साहब को सौंप दिया। मैंने विजय जी को फिर आगाह किया परंतु उनका जवाब था कि वह भाई साहब का मुंह लगा है हम कुछ नहीं कर सकते। उस ठग ने जब राज कुमार जी का काफी पैसा साफ कर दिया तब उनकी आँखें खुलीं और उसे हटा दिया। इस प्रकार दूसरी बार फिर उन्हें अखबार बंद करना पड़ा।

तीसरी बार विजय जी ने अपने घर के निचले हिस्से मे प्रेस डालकर खुद अपने नियंत्रण मे अखबार निकालना शुरू किया ,उनके भाई साहब ने हाथ खींच लिया तो उन्होने अपनी मित्र-मंडली को अपना फाइनेंसर बना लिया।
दूसरी बार की तरह इस बार भी डॉ राम नाथ के साथ-साथ मुझे भी सह-संपादक बनाए रखा। इस बार डॉ राम नाथ के मेरे पिताजी से कहलाने के कारण मुझे भी उस समिति का एक शेयर रु 100/- का लेना पड़ा। अब व्यंग्य लेखक उनके भाई के स्थान पर एस एन मेडिकल कालेज के एक्सरे टेकनीशियन डॉ राकेश कुमार सिंह थे जिंनका संबंध 'जलेस' से था।

तीनों बार के प्रकाशन मे विजय जी ने मेरे एक साथ कई-कई लेख एक ही अंक मे निकाले थे। यहाँ तक कि कई लेख मुझे दूसरे रिशतेदारों के नाम डाल कर भी देने पड़े थे। डॉ राकेश केवल व्यंग्य कहानिया ही देते थे,बाकी समाचार और लेख मै ही लिखता था। कई बार मैंने भाकपा के मुख-पत्र 'मुक्ति संघर्ष' से अपने पसंदीदा लेख दिये उन्हें भी उन्होने छाप दिया। लेकिन 1991 आते -आते आर एस एस का आतंक इतना तीव्र हो गया था कि उसने समस्त सहिष्णुता समाप्त कर दी थी। समाज का वातावरण विषाक्त हो रहा था। वैमनस्य का बोल-बाला हो गया था। उनके फाइनेंसर अधिकांश संघी/भाजपाई थे उन्हें मेरे लेखों पर एतराज होने लगा। मेरे कई लेखों मे विजय जी ने मुझ से संशोधन करने को कहा जिससे फाइनेंसर्स का एतराज दूर हो सके। मैंने एक शब्द का भी संशोधन करना मंजूर नहीं किया। उनका तर्क था कि आखिर जो पैसा लगा रहा है वह अपने खिलाफ कैसे आपके लेखन को सह ले?मेरा तर्क था कि आप मेरे लेख मुझे वापिस कर दें और फाइनेंसर्स की दी नोटों की गड्डियाँ मशीन के सामने रख दें तो क्या आपके लेख छ्प सकते हैं?मै किसी दूसरे की संतुष्टि हेतु अपना ईमान क्यों गवाऊ?

अंततः उन्हें मेरे लेख वापिस करने पड़े और विषय-वस्तु के आभाव मे उन्हे अखबार भी बंद करना पड़ा और अपने उसी पुराने प्रतिद्वंदी के हाथों बेच देना पड़ा। उन्हें भी एक दाल मिल मे नौकरी करनी पड़ी। एक प्रकार से संपर्क टूट बराबर गया। यदा-कदा रास्ते मे मुलाक़ात हो जाया करती थी। आजकल 1991 जैसे हालात 'अन्ना','रामदेव','आडवाणी','कांग्रेस के मनमोहन गुट'ने बना कर रख दिये है;ईराक का इतिहास लीबिया मे दोहराया जा चुका है। अतः मैंने अपने उन अप्रकाशित लेखों को 'क्रांतिस्वर' पर प्रकाशित करने का सिलसिला चला रखा है। 

डॉ सुब्रहमनियम स्वामी चाहते क्या हैं?http://krantiswar.blogspot.com/2011/09/blog-post_25.html

यदि मै प्रधानमंत्री होता?http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/blog-post_21.html

 खाड़ी युद्ध का भारत पर भावी परिणाम 1991 का  अप्रकाशित लेख http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/1991-1.htm

उपरोक्त तीनों लेख दे चुका हू और 'सद्दाम हुसैन','जार्ज बुश' आदि कुछ लेख क्रमशः देने हैं। इनमे से डॉ सुब्रहमनियम स्वामी वाले लेख को तो श्री शेष नारायण सिंह जी ने 'भड़ास' ब्लाग पर तथा श्री अमलेन्दू उपाध्याय जी ने 'हस्तक्षेप .काम ' पर भी प्रकाशित किया था। वैसे अधिकांश मस्त-मौला टाईप के लोगों को ये पसंद नहीं आए हैं और आ भी नहीं सकते थे क्योंकि उन्हें 'सत्य' जानने मे कोई दिलचस्पी नहीं होती है। मैंने इन विचारों को भविष्य मे वर्तमान काल का इतिहास लिखने वालों की सहूलियत के ख्याल से इन्हें देना उचित समझा है।