Tuesday, August 30, 2011

हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी---विजय राजबली माथुर



हम कौन थे,क्या हो गए हैं,और क्या होंगे अभी।

आओ विचारें आज मिल कर,यह समस्याएँ सभी। । 


राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी की ये काव्य पंक्तियाँ आज बेहद उपयोगी लग रही हैं,इसी कारण शीर्षक मे लिया है। सन 1857 ई .मे पहली बार राष्ट्र व्यापी  रूप मे हमारे देश की जनता ने अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के नेतृत्व मे जिसमे मराठाओ का सम्पूर्ण सहयोग था  ईस्ट इंडिया क के साम्राज्यवादी -शोषणवादी शासन के विरुद्ध 'क्रान्ति' की थी जो हमारे अपने ही लोगो द्वारा विश्वासघात किए जाने के कारण विफल हो गई थी। इससे पूर्व भी और बाद मे भी 'स्वातंत्र्य आंदोलन' चलते रहे। क्रांतिकारी धारा के श्यामजी कृष्ण वर्मा, शिव वर्मा,  लाला हरदयाल,सरदार भगत सिंह,राम प्रसाद'बिस्मिल',लाहिड़ी बंधु,बटुकेश्वर दत्त,चंद्रशेखर 'आजाद',अशफाक़ उल्लाह खान,राजगुरु,सुखदेव  सरदार ऊधम सिंह आदि-आदि एवं उदार धारा के गोपाल कृष्ण गोखले, महात्मा गांधी,डा राजेन्द्र प्रसाद,जवाहर लाल नेहरू,डा भीम राव अंबेडकर,सरोजनी नायडू,विजय लक्ष्मी पंडित,एनी बेसेंट,सी एफ एन्द्र्यूज,मौलाना अबुल कलाम आजाद,खान अब्दुल गफ्फार खान, आदि-आदि एवं अग्रगामी विचार-धारा के लाल-बाल-पाल,नेताजी सुभाष चंद्र बॉस आदि-आदि के असीम त्याग एवं बलिदान के बाद हम यह आजादी 15 अगस्त 1947 को प्राप्त कर सके हैं ।

आजादी के पूर्व का काल नेताओ एवं जनता के त्याग -तपस्या का काल था। आजादी के बाद त्याग-तपस्या का स्थान लूट,अफरा-तफरी,शोषण-अत्याचार ,उत्पीड़न,स्वार्थन्ध्ता ,देश और राष्ट्र से दुराव आदि लेते चले गए। ये भ्रष्ट आचरण भौतिक प्रगति के साथ-साथ बढ़ते रहे। नैतिकता,चारित्रिकता ,ईमानदारी,सर्व-हित की भावना का निरंतर लोप होता गया।

जिस प्रकार मानव शरीर मे हृदय का कार्य सम्पूर्ण अवयवो का समुचित विकास होता है और किसी अवयव मे टूट-फूट या कमी होने पर हृदय उस अंग की ओर विशेष ध्यान देते हुये उसे अतिरिक्त रक्त प्रदान करता और ऊतकों की मरम्मत करता है.उसी प्रकार 'राज्य'-स्टेट का कार्य सभी नागरिकों का समान रूप से विकास करना होता है.यदि किसी क्षेत्र-विशेष या वर्ग -विशेष की स्थिति अत्यधिक कमजोर है तो यह राज्य का कर्तव्य है कि उसे अतिरिक्त सहायता मुहैया कराये. इसी उद्देश्य से संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गयी है.अन्ना-आन्दोलन का एक लक्ष्य इस आरक्षण की धारणा को पंगु करना भी था.

१९६२,१९६५,१९७१ के युद्धों ने हमारे देश की जितनी क्षति की उससे कहीं अधिक क्षति २०११ में अन्ना औरउनकी टीम द्वारा संविधान एवं संसद की सार्वभौमिकता को नग्न चुनौती देने से हो चुकी है जिसके दुष्परिणाम हमें निकट भविष्य में दुरूह रूप में देखने को मिलेंगे. 


राज्यसभा सांसद-शोभना भरतिया कहती हैं "रामलीला मैदान का दबाव विधेयक पर नहीं होना चाहिए."

Hindustan-Lucknow-28/08/2011

उन्हीं के अखबार -हिन्दुस्तान के प्रधान सम्पादक शशि शेखर साहब कहते हैं-"हमारे माननीय सांसदों में से कुछ यदा-कदा राजनीतिक तहजीब का उल्लघन करते रहे हैं. उनकी वजह से इस वक्त समूचा सिस्टम सवालों के घेरे में कैद हो गया है. सवाल उठता है कि क्या कोई भी १२१ करोड़ की आबादी वाले इस ताकतवर देश की संस्थाओं को अपने इशारों पर इस तरह नचा सकता है?"


जिस व्यक्ति ने देश के संविधान और संसद को बेशर्म चुनौती दी है उसके अपने गृह प्रदेश का हाल देखें-
Hindustan-Lucknow-28/08/2011


Hindustan-Lucknow-28/08/2011


Hindustan-Lucknow-28/08/2011
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Hindustan-Lucknow-28/08/2011

कैसे अन्ना और उनकी टीम की हिम्मत हुयी कि वे संविधान और संसद को चुनौती दे सके और सरकार ने उनके विरुद्ध कारवाई क्यों नहीं की? इस बाबत जागरूक पत्रकार महेंद्र श्रीवास्तव साहब ने अपने ब्लॉग में यह स्पष्ट किया है-

"सोनिया गांधी गंभीर रुप से बीमार हैं और अमेरिका में इलाज करा रही हैं। जानकार कहते हैं कि तीन चार महीने वो पार्टी के काम में सक्रिय नहीं रह सकती। अपनी अनुपस्थिति में पार्टी का कामकाज चलाने के लिए उन्होंने एक चार सदस्यीय कमेटी बनाई। इसमे राहुल गांधी, जनार्दन द्विवेदी, अहमद पटेल और ए के एंटोनी को शामिल किया है। इस टीम को लेकर सरकार और पार्टी में शामिल तमाम नेता पार्टी से सख्त नाराज हैं।
अन्ना ने जब आंदोलन की धमकी दी तो पहले ही बातचीत करके मसले का कुछ हल निकाला जा सकता था। लेकिन सोनिया की बनाई टीम को लोग उसकी औकात बताना चाहते थे, लिहाजा किसी ने कोई पहल ही नहीं की। जो कोई आगे आया भी तो वो बाबा रामदेव के तर्ज पर अन्ना से भी निपटने का सुझाव देते रहे। वो ऐसे सुझाव देते रहे, जिससे सरकार की किरकिरी हो। इसी के तहत पहले अन्ना को गिरफ्तार कराया गया, सरकार की किरकिरी हुई, फिर अन्ना को छोडने का फरमान सुनाया गया तो सरकार की किरकिरी हुई, अन्ना ने जेल से बाहर आने से इनकार कर दिया, फिर सरकार की किरकिरी हुई। अनशन के लिए जगह देने में जिस तरह का ड्राम सरकार की ओर से किया गया, उससे भी सरकार की किरकिरी हुई। अब सरकार ने संसद में इस मामले में पूरे दिन चर्चा की, लेकिन बिना किसी नियम के हुई इस चर्चा से वो किसे बेवकूफ बना रहे हैं। ये समझ से परे है। सरकार में तो आपस में मतभेद और संवादहीनता रही है है, टीम अन्ना सही तरह से आंदोलन चलाने में नाकाम रही है।


बेचारे अन्ना की अंग्रेजी जानते नहीं और हिंदी कम समझते हैं। टीम अन्ना के सदस्य उन्हें जिस तरह से बात समझाते हैं, वो उन्हें समझ में ही नहीं आती। कई बार देखा गया है कि मंत्रियों से बात कुछ हुई और रामलीला मैदान तक पहुंचते पहुंचते बात कुछ और हो जाती है। हालत ये हुई कि सरकार को अन्ना के नुमाइंदों से किनारा करना पडा और एक ऐसे मंत्री को अन्ना से बात करने की जिम्मेदारी दी गई जो महाराष्ट्र से आते हैं। जिससे अन्ना से सीधे मराठी में बात करके उन्हें समझाया जा सके और उनके चंगू मंगू को दूर किया जा सके। "


मुझे लगता है कि पी एम् मनमोहन सिंह जी ,अरविन्द केजरीवाल जी,किरण बेदी जी ने मिल कर एक योजनाबद्ध तरीके से अन्ना हजारे साहब को मोहरा बना कर 'भ्रष्टाचार' के नाम पर यह बखेड़ा इसलिए खडा कराया था कि आम -गरीब-मेहनतकश जनता का ध्यान पेट्रोल,डीजल,गैस में हुयी मूल्य-वृद्धि से फ़ैली मंहगाई ,घपलो-घोटालो की और से हटाया जा सके.अपने मिशन में वे कामयाब रहे. यही कारण है कि स्वाधीनता दिवस पर रात्रि-ब्लैकाउट ,राष्ट्र ध्वज का रात्रि में फहराया जाना और राष्ट्र ध्वज के साथ अन्ना-आन्दोलन चलने पर सरकार ने उनके विरुद्ध कोई कारवाई नहीं की.


मेरे विचारों का आज निश्चय ही मखौल बनाया जाएगा.परन्तु मुझे विशवास है और में पहले भी लिख चुका हूँ कि मेरा लेखन आज के लिए नहीं आज से पचास वर्ष आगे के लिए है.ऐसा ही सोचना महान साहित्यकार श्रद्धेय स्व .भगवती चरण वर्मा जी (जिनकी आज जयंती है )का भी था जैसा कि,उनके पुत्र श्री धीरेन्द्र वर्मा,साहित्यकार ने उनके हवाले से बताया-"लेखन का महत्त्व १०० साल बाद पता चलता है. हमारा मूल्यांकन समकालीन आलोचक नहीं करेंगे.वे मूल्यांकन पूर्वाग्रह से करते हैं."(हिन्दुस्तान,लखनऊ,२९ अगस्त २०११,प्र.०७ )


अफ़सोस और दुःख के साथ कहना पड़ता है कि पत्रकार-शेष नारायण सिंह जी,अमलेंदु उपाध्याय जी,महेंद्र श्रीवास्तव जी तथा वकील रंधीर सिंह'सुमन' जी को छोड़ कर बाकी सभी ब्लागर्स के विचारों से में पूर्णतयः असहमत हूँजिन्होंने राष्ट्रद्रोही अन्ना आन्दोलन के गीत गाये हैं



Thursday, August 25, 2011

संविधान और संसद को चुनौती-अधिनायकवाद की आहट

ढाई हजार वर्ष पूर्व 'अर्थशास्त्र' मे कौटिल्य-चाणक्य ने कहा था-" जिस तरह जीभ पर रखे शहद या जहर को चखे बिना रह सकना असंभव है,उसी तरह सरकारी कर्मचारी भी राजा के राजस्व का कम से कम एक अंश न खाएं ,ऐसा होना भी असंभव है। जैसे यह जानना संभव नहीं है कि जल मे तैरती मछली कब पानी पीती है,वैसे ही यह पता करना भी मुमकिन नहीं है कि सरकारी कार्य मे लगे कर्मचारी कब और कितना धन चुराते हैं। "


मुगलों ने यहाँ रिश्वत के दम पर सत्ता स्थापित की और अंग्रेजों ने भी। 1991 से उदार आर्थिक नीतियों के नाम पर जो व्यवस्था स्थापित हुई उसने भ्रष्टाचार को द्रुत गति से बढ़ा दिया है। कारपोरेट जगत ने इन नीतियों के आधार पर काफी लाभ उठाया है और फँसने पर राजनेताओं पर इल्जाम लगाया है। कुछ नेताओं को सजा मिली भी है और कुछ सजा पाने की कतार मे खड़े हैं। नंबर इन कारपोरेट घराने वालों का भी लग सकता है। उनके बड़े अधिकारी तो जेल मे पहुँच भी गए हैं। अपनी सुरक्षा हेतु इन कारपोरेट धुरंधरों ने N G O कर्ताओं को जिन्हें वे धन देकर ओबलाइज करते थे ,भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने का आग्रह किया। इन लोगों ने महाराष्ट्र के पूर्व फौजी जो अन्ना हज़ारे के नाम से वहाँ लोकप्रिय थे,अपना मोहरा बना कर आगे खड़ा कर दिया ताकि जनता को गुमराह किया जा सके।

(19/08/2011 "हिंदुस्तान-लखनऊ)

(25/08/20111,हिंदुस्तान-लखनऊ )

(25/08/2011,हिंदुस्तान लखनऊ)

(अमलेंदु उपाध्याय जी का आज का फेसबुक स्टेटस )


इसी बीच अमेरिका की ऋण-व्यवस्था चक्रव्यूह मे फंस गई कहीं भारत भी अपना दिया ऋण वापिस न मांगने लगे अतः यहाँ की अर्थव्यवस्था को दूरगामी चोट पहुंचाने हेतु एन जी ओज द्वारा नियंत्रित अन्ना आंदोलन कर्ताओं को वहाँ की 'फोर्ड फाउंडेशन',ओर फाउंडेशन आदि ने भी प्रचुर धन मुहैया करा दिया। जो भाजपा और शिव सेना आज अन्ना हज़ारे का समर्थन कर रहे हैं उन्हीं की सरकार ने महाराष्ट्र मे इन्हीं हज़ारे साहब को तीन माह की जेल कारवाई थी। यह हज़ारे साहब की बुद्धि का ही कमाल है कि आज उन्हीं भाजपा और शिव सेना के जाल मे फंस कर देश-हित को भुला बैठे हैं।

जहां इलेक्ट्रानिक मेडिया और अखबार कारपोरेट घरानों के इशारे पर अन्नावाद से पीड़ित हैं एक जागरूक और देशभक्त पत्रकार महेन्द्र श्रीवास्तव जी  अपने ब्लाग  मे लिखते हैं-(उनके ब्लॉग से लिया गया मैटर उनकी पोस्ट से लिंक किया गया है)


"आज 10 साल बाद एक बार फिर संसद पर हमला हो रहा है। आप भले कहें कि ये कोई आतंकी हमला नहीं है। लेकिन मित्रों मैं बताऊं ये उससे भी बड़ा और खतरनाक हमला है। इस हमले में किसी एक व्यक्ति या नेता की हत्या करना मकसद नहीं है। बल्कि इनका मकसद संसदीय परंपराओं और मान्यताओं की हत्या करना है। आज तमाम लोग भावनाओं में बहकर शायद उन पांच आतंकियों को ज्यादा खतरनाक कहें तो हथियार के साथ संसद भवन में घुसे थे, लेकिन मैं उनके मुकाबले सिविल सोसाइटी के पांच लोगों को उनसे ज्यादा खतरनाक मानता हूं। बस दुख तो ये है कि ये सीमापार से नहीं आए हैं, हमारे ही भाई है। लोकतांत्रिक व्यवस्था से भली भांति परिचित भी हैं, फिर भी देश के लोकतंत्र को कमजोर और खत्म करने .... "


अब तो और लोग भी साहस करके देश-हित की बात लिखने लगे हैं ,देखिये हिंदुस्तान,लखनऊ 25 अगस्त मे छ्पे ये आलेख -














आज गली-गली ,चौराहे-चौराहे लाउडस्पीकरों से अन्ना  भक्तों द्वारा बिजली की कटिया डाल कर जो शोर मचाया जाता है वह भ्रष्टाचार की श्रेणी मे क्यों नहीं है? N G O क्यों नहीं लोकपाल के आधीन होने चाहिए? क्योंकि इन  N G O को धन विदेशी फाउंडेशनों से मिलता है,कारपोरेट घरानों से मिलता है। उनके भ्रष्टाचार का पर्दाफाश इसलिए ही नहीं होना चाहिए। महेन्द्र श्रीवास्तव जी ने इन पाँच तथाकथित  सिविल सोसाइटी के लोगों को ज्यादा खतरनाक माना है क्योंकि वे जान-बूझ कर भारतीय संविधान और संसद की सार्वभौमिकता को चुनौती दे रहे हैं। इनके पीछे फासिस्ट आर एस एस का खुला हाथ है। 1992 मे इसी संगठन ने अपने सहयोगी संगठनों के साथ विदेशी फाउंडेशनों के धन-बल से संविधान निर्मात्री समिति के चेयरमेन डा  भीम राव अंबेडकर के परी निर्वाण दिवस 06 दिसंबर को अयोध्या का कोर्ट मे विवादित ढांचा गिरा दिया था मानो वे संविधान को गिराने पूर्वाभ्यास कर रहे थे। आज संवैधानिक नियमों को परे रख कर संसद को बंधुआ बना कर अपना कारपोरेट घरानों के बचाव वाला लोकपाल बिल पास कराना चाहते हैं। 


15 अगस्त -स्वाधीनता दिवस की रात्रि 08-09 ब्लैक आउट करने का आह्वान किया गया,रात के समय राष्ट्र ध्वज फहराया गया,
(19/08/2011,हिंदुस्तान लखनऊ )


राष्ट्र ध्वज लेकर अन्ना-भक्तों  जुलूस निकाल रहे हैं और प्रदर्शन हो रहे हैं जो कि सरासर राष्ट्रीय ध्वज का लगातार अपमान किया जा रहा है क्योंकि, 15 अगस्त,26 जनवरी,02 अक्तूबर को छोड़ कर राष्ट्रीय ध्वज सरकारी भवनों को छोड़ कर अन्यत्र प्रयोग नहीं किया जा सकता है। मैंने अपने 'कलम और कुदाल' पर राष्ट्रद्रोह के आरोप मे अन्ना की गिरफ्तारी की मांग की थी। यदि तभी कारवाई हुयी होती तो आज अन्ना आंदोलन का उग्र-राष्ट्र -विरोधी रूप सामने नहीं आ पाता। 


तमाम भ्रष्ट सरकारी अधिकारी और कर्मचारी आज अन्ना -आंदोलन मे शामिल होकर उसके उद्देश्य को स्पष्ट कर रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी जब अपने वरिष्ठ होने पर इतिहास का मूल्यांकन करेगी तब उसे पछतावा ही होगा। यह युवा शक्ति का भ्रष्ट तंत्र द्वारा गलत शोषण है। सरकार का विरोध करने की खातिर अपने देश ,अपने संविधान,अपने राष्ट्र-ध्वज और अपनी संसद को इस प्रकार कमजोर करने का कोई भी प्रयास 'राष्ट्रद्रोह' ही है। 


आर एस एस जो लगातार अपनी अर्ध-सैनिक तानाशाही स्थापित करने के प्रयासों मे लगा रहता है इस राष्ट्र-द्रोही अन्ना आंदोलन को खूब हवा दे रहा है। गोलवालकर साहब का कहना था- यदि गांवो  के 3 प्रतिशत और शहर के 2  प्रतिशत लोग आर एस एस के समर्थक हो जाएँ तो उनकी तानाशाही स्थापित हो सकती है। सहारनपुर से प्रकाशित 'नया जमाना' के संस्थापक संपादक -कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' ने इस बाबत संघ के एक तगड़े नेता लिंम्ये  जी को आगाह किया था कि ऐसा होने पर दिल्ली की सड़कों पर कम्यूनिस्टों और संघियों के मध्य निर्णायक  रक्त-रंजित सत्ता - संघर्ष होगा। विदेशी शक्तियाँ और आर एस एस आदि संगठन मिल कर भी इतनी आसानी से केंद्र की सत्ता को अपनी कैद मे नहीं ले सकेंगे। 


बहरहाल आज का अन्ना आंदोलन और इसके संचालकों के हालात तो यही बता रहे हैं कि वे देश को अशांति की भट्टी मे झोंकने को तैयार बैठे हैं। आम जनता का ही यह दायित्व है कि वह इस कारपोरेट चाल को समझे एवं अपनी रोजी,रोटी,शोषण,उत्पीड़न की समस्याओं के निराकरण की मांग तीव्र करे न कि इस राष्ट्रद्रोही आंदोलन मे भाग लेकर पाप की भागीदार बने। 

Saturday, August 20, 2011

श्री कृष्ण और स्वाधीन भारत---विजय राजबली माथुर


21 अगस्त 2011 को दोपहर 2-25 से अष्टमी प्रारम्भ हो रही है जो 22 अगस्त को साँय 4-14 तक रहेगी। पौराणिक लोग उदय तिथि के कारण 22 को उपवास रख कर रात्री मे नवमी के समय श्री कृष्ण के जन्म का उत्सव मनाएंगे।( जबकि श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद की अष्टमी की अर्द्ध रात्रि मे होने के कारण 21 को मनाना चाहिए,परंतु पोंगा-पंथ जैसे कहेगा वे वैसा ही मानेंगे) वे सदियों से ऐसा ही करते आ रहे है-राम और कृष्ण के जन्म दिन धूम-धाम से मनाते हैं फिर उनके आदर्शों के विपरीत आचरण करते और अपनी दिनचर्या चलाते हैं। लेकिन राम और कृष्ण के नाम पर मार-काट करने को सदैव तैयार रहते है,उन्हें यही धर्म सिखाया गया है। 

वस्तुतः आवश्यकता है राम और कृष्ण के आदर्शों को अपने चरित्र मे उतारने की उन्हें हृदयंगम करने की,परंतु वह कोई नहीं करेगा। और क्यों नहीं करेगा?क्योंकि वे भगवान का अवतार थे हम मनुष्य हैं इसलिए नहीं कर सकते ,यह दलील पेश की जाती है। भगवान की परिभाषा क्या है कोई समझना ही नहीं चाहता है। इसी ब्लाग मे  तथा 'जनहित  मे' भी कई बार स्पष्ट किया है। यहाँ उसे न दोहरा कर ज्योतिषीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करना चाहता हूँ। 

प्रत्येक मनुष्य जीवन मे उत्तरोत्तर सुख की कामना करता है और कोई भी प्राणि स्वतः दुख नहीं उठाना चाहता,परंतु फिर भी संसार मे दुख है और यह सर्वव्यापक है। यदि यह आपको मालूम हो जाये कि आपके जीवन मे कितना दुख है और कब तक है तो आप उसका निराकरण करके सुख की प्राप्ति कर सकते हैं। राम और कृष्ण ने ऐसा ही किया था तो उन्हें दुख -दुख लगा ही नहीं। 

प्रतिवर्ष श्री कृष्ण जन्माष्टमी को भारत तथा अन्यत्र भी धूम-धाम से मनाने वाले लोग यदि बुद्धि-विवेक का प्रयोग करते हुये ज्योतिष की दृष्टि से देखें तो श्री कृष्ण के चतुर्थ भाव पर 'मंगल'अपनी दशम दृष्टि डाल रहा है जिस कारण उन्हें जन्मते ही माता देवकी के सुख से वंचित होना पड़ा। बचपन से ही गोकुल मे कठोर श्रम करना पड़ा। लेकिन इसी मंगल के प्रभाव से उन्होने पिता वासुदेव व पिता कुल का नाम रोशन किया कंस,शिशुपाल आदि का संहार कर जनता को त्रास से मुक्ति दिलाकर। 

ज्योतिष के ग्रन्थों मे बताया गया है कि यदि 'मंगल' चतुर्थ भाव को देख रहा हो तो यह शुभ नहीं रहता,भाग्य साथ नहीं देता ,कठोर श्रम करना पड़ता है,बचपन मे ही मात्र सुख से वंचित रहना पड़ता है। 

इस सबके बावजूद जातक अपने पिता और अपने कुल का नाम रोशन करता है तथा समाज को ऊंचा उठाता है। 

 श्री कृष्ण के साथ बिलकुल ऐसा ही तो हुआ। 

ज्योतिष के ही अनुसार यदि चतुर्थ भाव पर 'चंद्र' की दृष्टि हो तो जातक सौम्य ,सरल एवं उन्नत्त विचारों का होता है  उसका घरेलू जीवन सुखद और सानन्द व्यतीत होता है। यदि चंद्रमा के साथ गुरु भी हो तो जातक के गजेटेड अधिकारी बनने के योग रहते हैं। यदि 'मंगल' एवं 'चंद्र' दोनों एक साथ चतुर्थ भाव को देखते हो  तो जातक को जीवन मे किसी भी प्रकार धन का आभाव नहीं रहता है। 

श्री कृष्ण की जन्म कुंडली मे 'चंद्रमा' अपनी चतुर्थ दृष्टि से उनके चतुर्थ भाव को देख रहा है है जिस कारण श्री कृष्ण का स्वभाव सौम्य,सरल व उन्नत्त विचारों वाला रहा। उनका घरेलू जीवन सुखी व सानन्द रहा। पत्नी रुक्मणी उनकी सहायिका रहीं तो पुत्र प्रद्युम्न तो उनकी छाया कृति ही कहे जा सकते हैं। 

'मंगल' और 'चंद्र' दोनों ही ग्रहों का श्री कृष्ण की कुंडली के चतुर्थ भाव को देखने का ही परिणाम था कि श्री कृष्ण सर्व ऐश्वर्य सम्पन्न द्वारिकापुरी की स्थापना कर सके। 

स्वाधीन भारत 

15 अगस्त 2011 को हम अपनी स्वाधीनता की 65वी वर्षगांठ मना चुके हैं। आजादी के 64 वर्षों बाद भी हमारा देश समृद्ध नहीं हो सका तो इसका कारण है कि हमारे देश की स्वाधीनता की कुंडली के चतुर्थ भाव पर 'मंगल' की तृतीय दृष्ट जिसने आजादी की शैशवावस्था मे ही आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र मे देश को रुग्ण बना दिया। साथ ही चतुर्थ भाव पर 'केतू' की भी दशम दृष्टि पड़ रही है पुनः यह आजादी की शैशवावस्था मे  रुग्णता को ही बढ़ा रही है।पडौसी राष्ट्रों का असहयोग तथा राष्ट्र को बाधाओं का सामना भी चतुर्थ भाव पर इसी केतू की दृष्टि का परिणाम रहा। 

इसी केतू की दृष्टि का प्रभाव है कि आज भी हमारा देश ऋण जाल मे फंसा हुआ है । भारत के मित्र समझे जाने वाले राष्ट्र भी इसका हित सम्पादन नहीं करते हैं। 'केतू' की चतुर्थ भाव पर  दृष्टि का ही परिणाम है कि भारत के मस्तक भाग 'कश्मीर' पर गहरी चोट पड़ी है। और वह आज भी समस्याग्रस्त है। 

ज्योतिष के अनुसार कुंडली के चतुर्थ भाव को  केतू देख रहा हो तो वह बचपन से ही बीमार रहता है। स्वभाव मे झल्लाहट व चिड़चिड़ापन रहता है,बाधाओं का सामना करना पड़ता है। धन की चिंता मे कठोर श्रम करना पड़ता है। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि कुंडली का चतुर्थ भाव  जो सुख भाव है न केवल सामान्य मनुष्य वरन योगीराज 'श्री कृष्ण' तथा  स्वाधीन भारत राष्ट्र पर भी ग्रहों का भरपूर प्रभाव पड़ा है। देश की प्रगति व विकास हेतु और स्वाधीन भारत की कुंडली के आधार पर मंगलकेतू ग्रहों के दुष्प्रभाव से बचाव के वैज्ञानिक (पोंगापंथ के अनुसार नहीं) उपाए हमारे शासकों को करने ही पड़ेंगे तभी हम अपने देश को ऋण जाल से मुक्त कराने तथा कश्मीर समस्या का समाधान कराने मे सफल हो सकेंगे अन्यथा जो जैसे चल रहा है,चलता ही रहेगा। ग्रहों का प्रभाव अमिट है और उनकी शांति ही एकमात्र उपाय है।

१३ अगस्त २०११ को  रक्षाबंधन (श्रावणी पूर्णिमा) भी शनिवार को पड़ रही है जबकि ३० जून की अमावस्या भी शनिवार को थी.परिणामतः रोग-शोक की वृद्धि,निर्धन लोगों पर कष्ट,पशुओं तथा मनुष्यों के स्वास्थ्य में न्यूनता,रहने की संभावना है.लिहाजा सरकार द्वारा विशेष व्यय भी संभावित है.अन्ना को खुला साम्प्रदायिक समर्थन मिलने से जनता के बीच सौहाद्र नष्ट होने की भी सम्भावना प्रबल है.१९७४ में लोकनायक जयप्रकाश के सप्तक्रांति आन्दोलन में घुस कर भ्रष्टाचार को आवरण बना कर जनसंघ ने अपनी ताकत बढ़ा ली थी ,फिर १९८८-८९ में वी.पी.सिंह के बोफोर्स भ्रष्टाचार आन्दोलन में घुस कर उनकी सरकार को नचाया -गिराया और अंततः १९९८-२००० तक खुद के नेत्रित्व में सरकार चलाई.आज फिर अन्ना -आन्दोलन में घुस कर भाजपा-संघ अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं न कि भ्रष्टाचार का खात्मा करना.बगैर धार्मिक भ्रष्टाचार दूर किये आर्थिक भ्रष्टाचार दूर करने की बातें केवल आकाश-कुसुम तोडना ही है.

यह उद्धरण है मेरे 02 जूलाई 2011 को लिखे पोस्ट से । उसमे और भी आशंकाए प्रकट की थीं जो सत्य निकल चुकी हैं या चल रही हैं। ठीक स्वाधीनता दिवस की रात्री पर ब्लैक आउट की घोषणा के साथ अन्ना साहब झंजावात लेकर मैदान मे कूद पड़े।

हमारा देश पहले सोने की चिड़िया कहलाता था। तब भी इसका भूगोल वास्तु दोष पर आधारित था। किन्तु हमारे देशवासी वैज्ञानिक वेदिक मतानुसार हवन पद्धति जो पूर्ण रूप से मेटेरियल साईंस पर अवलंबित है का अनुपालन करते थे। आज पौराणिकों (जिन्हें विदेशी शासकों के हितार्थ ढाला गया) के बहकावे मे इस वेदिक पद्धति का परित्याग कर दिया गया है और परिणाम सबके सामने हैं। अन्ना का ढ़ोल-तमाशा उसी कहानी का हिस्सा है।

यदि वस्तुतः जनता देश का कल्याण चाहती है तो ईश आराधना कैसे की जाये इसे देखें जनहित पर। 

Wednesday, August 17, 2011

राष्ट्र की सार्वभौमिकता सर्वोपरि है

I N DIA   IS   SOVEREIGN DEMOCRATIC SOCIALIST REPUBLIC-ये संविधान के शब्द हैं। 15 अगस्त 2011 की रात 8-9 के मध्य रोशनी बन्द करने का आह्वान है उस शख्स का जिसका इस संविधान मे विश्वास बिलकुल भी नहीं है। उस शख्स के अभियान को खुला समर्थन दिया है अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता विक्टोरिया नूलैंड ने । वाशिंगटन D C मे संवाददाताओं से उन्होने कहा-वह लोकतान्त्रिक भारत से उम्मीद करती हैं कि वह शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनकारियों के खिलाफ संयम बरतेगा। इस शख्स के वकील और सहयोगी का कहना है-अमेरिकी टिप्पणी मे गलत क्या है। देखिये हिंदुस्तान,लखनऊ (14-8-2011)प्र-12 पर छपे समाचार की स्कैन-

अब देखिये उसी अखबार के 12-8-2011 के प्र 16 पर छ्पे इस स्कैन कापी को-



जिस सरकार से उसके अपने देश के नागरिक असंतुष्ट हैं उसके विदेश विभाग की अधिकारी भारत सरकार को निर्देश जारी करें और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के वकील साहब उसका समर्थन करें ,यह सब किस तथ्य का द्योतक है?

यह सब इसलिए है क्योंकि जब पाकिस्तान मे घुस कर वहाँ की सरकार की इजाजत लिए बगैर ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी सेना ने मार डाला तो उसका प्रतिवाद करने की बजाए हमारे देशवासियों ने समर्थन किया था। अमेरिका ने दिखा दिया कि वह न पाकिस्तान की न भारत की सार्वभौमिकताकी परवाह करता है। सरदार भगत सिंह ,चंद्रशेखर आजाद ,बटुकेश्वर दत्त ,अशफाक़ उल्लाह खान ,लाहिड़ी बंधुओं,रामप्रसाद बिस्मिलआदि अनगिनत क्रांतिकारियों की शहादत तथा राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गांधी,जवाहर लाल नेहरू,लाला लाजपतराय ,बिपिन चंद्र पाल,बाल गंगा धर तिलक नेताजी सुभाष चंद्र बॉस आदि असंख्य नेताओं के त्याग एवं बलिदान से प्राप्त आजादी के दिन-15 अगस्त 2011 को सजावट-रोशनी करने की बजाए अंधकार-शोक-ब्लैक आउट करने का आह्वान करके अन्ना हज़ारे ने राष्ट्रद्रोहका परिचय दिया था अतः सरकार को चाहिए था कि उन्हें राष्ट्रद्रोहके आरोप मे गिरफ्तार करके मुकदमा चलाती। लेकिन वर्ल्ड बैंक और I M  F के चहेते प्रधानमंत्री की सरकार ने अन्ना साहब को गिरफ्तार किया सरकारी आदेश न मानने की धारा 65 मे जो असंवैधानिक ठहराई जा सकती थी अतः उन्हें उन्हीं की शर्तों पर छोड़ दिया गया ,यह प्रमाण है सरकार और अन्ना की मिलीभगत का जिसे पूर्ण अमेरिकी शह प्राप्त है।

बेहद दुख की बात है कि हमारे देश मे भेड़-चाल के चलते पढे-लिखे,समझदार लोगों ने भी साजिश को अनदेखा करके अन्ना-पूजा’ चालू कर दी। आज अपने देश की सार्वभौमिकता की परवाह किसी को भी नहीं है न ही आज की सरकार को और न ही जनता को। लेकिन जागरूक लोगों ने अपने कर्तव्य का पालन जरूर किया है,देखिये पार्टी जीवन से साभार लिए इन लेखों की स्कैन कापियाँ-
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Hindustan-Lucknow-18/08/2011-Page-13

Saturday, August 13, 2011

A I S F का प्लेटिनम जुबली समारोह

अंतर्राष्ट्रीय युवा दिवस 12 अगस्त को प्रारम्भ होकर 13 अगस्त को मनाए गए रक्षाबंधन पर्व जिसका संबंध ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार से है के दिवस A I S F का प्लेटिनम जुबली समारोह सम्पन्न हुआ। 75 वर्ष पूर्व आजादी के आंदोलन को बल प्रदान करने हेतु इस संगठन की स्थापना महात्मा गांधी एवं गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के आशीर्वाद से लखनऊ के गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल मे हुयी थी। सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष लखनऊ के पी .एन .भार्गव साहब को इसका महामंत्री तथा जवाहर लाल नेहरू जी को अध्यक्ष चुना गया था। 12-13 अगस्त 1936 की पुनरावृत्ति 12-13 अगस्त 2011 को   उसी हाल मे हुयी जब A I S F का प्लेटिनम जुबली समारोह मनाया गया। यह हमारी खुश किस्मती थी कि एक कार्यकर्ता के रूप मे हमे भी इस मे भागीदारी करने का मौका मिला।

सम्मेलन मे आए अधिकांश प्रतिनिधियों को उसी छेदी लाल धर्मशाला मे ठहराया गया था जिसमे 1936 मे आए प्रतिनिधि को ठहराया गया था। यह वही धरमशाला है जिसमे ठहर कर क्रांतिकारी रामप्रसाद 'बिस्मिल'ने अपने साथियों के साथ 'काकोरी' अभियान की रूप-रेखा तैयार की थी। ये दोनों स्थान क्रांतिकारियों की कर्मस्थली रह चुकने के कारण किसी तीर्थ से कम कतयी नहीं हैं। यह भी हमारा परम-सौभाग्य है कि हमे A I S F के प्लेटिनम जुबली समारोह के दौरान इनमे भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ।

12 अगस्त को प्रातः 10 बजे छेदी लाल धरमशाला प्रांगण मे झण्डारोहन का .डी.नरसिंघा राओ जी के कर-कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ जो इस संगठन के प्रभाव शाली नेता रह चुके हैं। उदघाटन भाषण पूर्व न्यायाधीश हैदर अब्बास रजा साहब ने दिया जो खुद इस संगठन के कर्मठ नेता रह चुके हैं। अब्बास साहब ने A I S F को मजबूत बनाने के साथ-साथ सम्पूर्ण बाम-पंथ की एकता पर बल दिया।  उन्होने छात्रों का आह्वान किया कि वे आज शिक्षा पर आए संकट और उस पर बढ़ते बाजारीकरण के प्रभाव को समाप्त करने की दिशा मे जोरदार आंदोलन चलाएं। बाद मे का .अतुल कुमार 'अनजान' ने अपने उद्बोधन मे बताया कि जस्टिस साहब ने अपने छात्र जीवन मे शिक्षा के प्रारम्भ हुये निजीकरण का तीव्र विरोध किया था और आंदोलन का सफल नेतृत्व किया था । 'अनजान' साहब ने यह भी बताया कि उस आंदोलन का नारा था-"यू पी के तीन चोर-मुंशी,गुप्ता,जुगल किशोर"।के एम मुंशी तब गवर्नर थे,चन्द्र्भानु गुप्ता मुख्यमंत्री और जुगल किशोर शिक्षा मंत्री थे।

जस्टिस अब्बास साहब के बाद स्वागताध्यक्ष डा.गिरीश का स्वागत भाषण हुआ था जिसे आप बड़ा देखने के लिए इस स्कैन इमेज पर डबल क्लिक करके पढ़ सकते हैं। ---


बिहार A  I S  F ने अपनी राष्ट्रीय परिषद को एक मशाल भेंट की जिसे उनके राष्ट्रीय कार्यालय ,आसिफ अली रोड ,दिल्ली मे सजाया जाएगा। 



पूर्व छात्र नेतागण -एस सुधाकर रेड्डी साहब (पूर्व सांसद ),अमरजीत कौर जी आदि के भाषण बेहद तर्कसंगत एवं प्रभावशाली रहे। 13 अगस्त को "वर्तमान स्थितियों मे छात्रों की भूमिका" विषय पर एक गोष्ठी हुयी जिसमे प्रो .अशोक वर्धन ,प्रो .अली जावेद,राज्य सभा सदस्य का .अजीज पाशा ने प्रकाश डाला और छात्रों का मार्ग-दर्शन किया। ये सभी अपने समय के प्रभावशाली छात्र नेता रहे हैं।

A I S F के अध्यक्ष परमजीत ढाबा और महामंत्री अभय मनोहर टकसाल ने भविष्य मे शिक्षा विदों के सुझाव पर अमल करने का आश्वासन दिया। का .टकसाल चाहते थे कि खुशवंत सिंह के पिता शोभा सिंह के महिमामंडन को रोका जाये जिनकी गवाही सरदार भगत सिंह की फांसी का आधार बनी थी। सम्मेलन मे शिक्षा पर घटते बजट की तीव्र आलोचना की गई और विदेशी विश्वविद्यालयों को खोले जाने की निन्दा।



सम्मेलन के समापन से पूर्व स्वागत समिति के अध्यक्ष डा .गिरीश ने जिन 25-30 कार्यकर्ताओं का नाम लेकर आभार और धन्यवाद दिया उनमे मेरा नाम भी 19 वे न .पर था।



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कार्यक्रम  के कुछ फोटोस-
प्रदर्शनी 


हौल के भीतर से मंच  का दृश्य 

हौल के भीतर से मंच  का दृश्य 

हौल के भीतर से मंच  का दृश्य 

हौल के भीतर से मंच  का दृश्य 

हौल के भीतर से मंच  का दृश्य 

Tuesday, August 9, 2011

स्वतन्त्रता आंदोलन मे युवा/छात्रों का योगदान ------ विजय राजबली माथुर

1922 ई .मे गांधी जी द्वारा चौरी-चौरा कांड के नाम पर असहयोग आंदोलन वापिस लेने पर युवा/छात्र क्रान्ति की ओर मुड़े । क्रांतिकारी आंदोलन को चलाने और बम आदि बनाने हेतु काफी धन की आवश्यकता थी। अतः राम प्रसाद 'बिस्मिल'/चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व मे क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाना कब्जे मे लेने की योजना बनाई। 09 अगस्त 1925 की रात्रि लखनऊ के 'काकोरी'रेलवे स्टेशन पर पेसेंजर गाड़ी के गार्ड से खजाने को हस्तगत किया गया। आज इस घटना को हुये 86 वर्ष पूर्ण हो गए हैं।


इस क्रांतिकारी घटना मे भाग लेने वाले स्वातंत्र्य योद्धाओं मे राम प्रसाद 'बिस्मिल',अशफाक़ उल्ला खान ,रोशन सिंह तथा राजेन्द्र सिंह लाहिड़ी को 17 एवं 19 दिसंबर 1927 को ब्रिटिश सरकार ने फांसी दे दी। बिस्मिल उस समय शाहजहाँपुर के मिशन स्कूल मे नौवी कक्षा के छात्र थे। वह पढ़ाई कम और आंदोलनों मे अधिक भाग लेते थे। गोरा ईसाई हेड मास्टर भी उनका बचाव करता था। एक बार जब वह कक्षा मे थे तो ब्रिटिश पुलिस उन्हें पकड़ने पहुँच गई। उस हेड मास्टर ने पुलिस को उलझा कर कक्षा अध्यापक से राम प्रसाद''बिस्मिल' को रेजिस्टर  मे गैर-हाजिर करवाया और भागने का संदेश दिया। बिस्मिल दूसरी मंजिल से खिड़की के सहारे कूद कर भाग गए और पुलिस चेकिंग करके बैरंग लौट गई। लेकिन खजाना कांड मे फांसी की सजा ने हमारा यह होनहार क्रांतिकारी छीन लिया। 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क मे पुलिस से घिरने पर चंद्रशेखर 'आजाद'ने भी खुद कोअपनी ही पिस्तौल की गोली से  शहीद कर लिया। 


(Shaheed Smarak-Patna)




होनहार युवा/छात्रों ने आजादी की मशाल को थामे रखा जब 08 अगस्त 1942 को गांधी जी के आह्वान पर 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का प्रस्ताव पास किया गया था। लगभग सभी बड़े नेता ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए थे। इस दशा मे सम्पूर्ण आंदोलन युवाओं और छात्रों द्वारा संचालित किया गया था। 11 अगस्त 1942 को पटना सचिवालय से यूनियन जेक को उतार कर तिरंगा छात्रों ने फहरा दिया था किन्तु सभी सातों छात्र ब्रिटिश पुलिस की गोलियों से शहीद हो गए थे। उनकी स्मृति मे वहाँ उनकी प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं। इस अभियान का नेतृत्व राजेन्द्र सिंह जी ने किया था और सबसे आगे उन्हीं की मूर्ती है। इस अभियान के संबंध मे श्री अजय प्रकाश ने एक लेख  लिखा था जो 18 जनवरी 1987 को प्रकाशित -'पटना हाईस्कूल भूतपूर्व छात्र संघ' की 'स्मारिका' मे छ्पा था ,आप भी उसकी स्कैन कापी देख सकते हैं-
(बड़े अक्षरों मे पढ़ने हेतु डबल क्लिक करें)






उसी स्मारिका मे छपा यह लेख आज भी छात्रों/युवाओं के महत्व को रेखांकित करता है-










'लोकसंघर्ष' मे प्रकाशित महेश राठी साहब के एक महत्वपूर्ण लेख द्वारा बताया गया है कि,"आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन का बेहद गौरवमयी और प्रेरणापरद हिस्सा है। ए .आई .एस .एफ .भारतीय स्वाधीनता संग्राम का वह भाग है जिसके माध्यम से देश के छात्र समुदाय ने आजादी की लड़ाई मे अपने संघर्षों और योगदान की अविस्मरणीय कथा लिखी"। 


राठी साहब ने बताया है कि,भारतीय छात्र आंदोलन का संगठित रूप 1828 मे सबसे पहले कलकत्ता मे 'एकेडेमिक एसोसिएशन'के नाम से दिखाई दिया जिसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र विवियन डेरोजियो द्वारा की गई । 1840 से 1860 के मध्य 'यंग बंगाल मूवमेंट'के रूप मे दूसरा संगठित प्रयास हुआ। 1848 मे दादा भाई नौरोजी की पहल पर मुंबई मे 'स्टूडेंट्स लिटरेरी और सायींटिफ़िक सोसाइटी '
की स्थापना हुयी। कलकत्ता के आनंद मोहन बॉस और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 मे 'स्टूडेंट्स एसोसिएशन'की स्थापना हुयी जिसने 1885 मे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना मे महती भूमिका अदा की। 16 अक्तूबर 1905 मे बंगाल विभाजन के बाद छात्रों एवं युवाओं ने जबर्दस्त आंदोलन चलाया जिसमे आम जनता का भी सहयोग रहा।


1906 मे राजेन्द्र प्रसाद जी (जो पहले राष्ट्रपति बने थे) की पहल पर 'बिहारी स्टूडेंट्स सेंट्रल एसोसिएशन'की स्थापना हुयी जिसने बनारस से कलकत्ता तक अपनी शाखाएँ खोली और 1908 मे बिहार मे इसी संगठन के बल पर कांग्रेस की स्थापना हुयी। श्रीमती एनी बेसेंट ने 1908 मे 'सेंट्रल हिन्दू कालेज'नामक पत्रिका मे एक अखिल भारतीय छात्र संगठन बनाने का विचार प्रस्तुत किया।


25-12-1920 को नागपूर मे आल इंडिया कालेज स्टूडेंट्स कान्फरेंस का आरंभ हुआ जिसकी स्वागत समिति के अध्यक्ष आर .जे .गोखले थे। इसका उदघाटन लाला लाजपत राय ने किया था। 1920 से 1935 तक देश मे बड़े स्तर पर विद्यालयों  और महा विद्यालयों की स्थापना हुयी। आजादी के संघर्ष मे छात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई दे रही थी।


26 मार्च 1931 को कराची मे जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता मे एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमे देश भर से 700 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। 23 जनवरी 1936 को यू .पी .विश्वविद्यालय छात्र फेडरेशन ने अपनी कार्यकारिणी मे अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन बुलाने का निर्णय लिया। पी .एन .भार्गव की अध्यक्षता मे एक स्वागत समिति का गठन किया गया जिसने देश के सभी छात्र संगठनों तथा कांग्रेस,सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी सहित सभी राजनीतिक धड़ों से संपर्क बनाया।


12-13 अगस्त 1936 को लखनऊ मे -सर गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल मे A I S F का स्थापना सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमे 936 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिसमे से 200 स्थानीय और शेष 11 प्रांतीय संगठनों के प्रतिनिधि थे। सम्मेलन मे महात्मा गांधी,रवीन्द्रनाथ टैगोर,सर तेज बहादुर सप्रू और श्री निवास शास्त्री सरीखे गणमान्य व्यक्तियों के बधाई संदेश भी प्राप्त हुये। सम्मेलन का उदघाटन जवाहर लाल नेहरू ने किया।


A I S F के स्थापना सम्मेलन मे पी .एन .भार्गव पहले महा सचिव निर्वाचित हुये । 'स्टूडेंट्स ट्रिब्यून'इसका पहला आधिकारिक मुख पत्र था। 22-11-1936 को लाहौर मे दूसरा सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता शरत चंद बॉस ने की और उसमे 150 लोगों ने भाग लिया। इसमे छात्रों का एक मांग पत्र भी तैयार हुआ।
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आजादी के आंदोलन मे सक्रिय और महत्वपूर्ण भाग लेने वाला यह संगठन आगामी 12-13 अगस्त 2011 को लखनऊ के उसी गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल मे अपनी प्लेटिनम जुबली मनाने जा रहा है जिसका खुला निमंत्रण A I S F की ओर से जारी किया गया है-






Friday, August 5, 2011

तुलसी दास की प्रासंगिकता---विजय राजबली माथुर

05 अगस्त 2011 (श्रावण शुक्ल सप्तमी)-तुलसी जयंती पर-





गोस्वामी तुलसीदास मानव जीवन के पारखी थे,
सच्चे इतिहासकार,कुशल राजनीतिज्ञ और विचारों के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषक भी थे । जिस समय उनका आविर्भाव हुआ,भारतीय जन-जीवन क्षत-विक्षत हो चुका था । मानवीय विचारधाराओं का संगम साहित्य लुप्तप्राय हो चुका था । भारत मे एक विदेशी सत्ता-मुगल साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी । धन-वैभव मे मुगल शासक भोग-विलास मे लिप्त रहते थे । दूसरी ओर भारतीय दर्शन मृतप्राय हो चुका था । निर्गुणोपासक निराकार सर्वव्याप्त ईश्वर -प्रचार मे निमग्न थे,तो वैष्णव कर्मकाण्ड और आडंबर का राग आलाप रहे थे । ऐसे विषम समय मे तुलसीदास ने 'रामचरितमानस'की रचना करके समाज,धर्म और राष्ट्र मे एक नूतन क्रांति की सृष्टि कर दी ।

रामचरितमानस कोई नरकाव्य नहीं है । यह कोई छोटा-मोटा ग्रन्थ नहीं है । यह मानव जीवन का विज्ञान(ह्यूमन साइन्स )है । विज्ञान किसी भी विषय के क्रमबद्ध एवं नियमबद्ध (श्रंखलाबद्ध) अध्ययन का नाम है । इसमे मानव-जीवन के आचार-विचार,रहन-सहन ,परिवार,राज्य और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों पर विशद,गूढ एवं व्यापक प्रकाश डाला गया है । गोस्वामी जी ने इस ग्रन्थ की रचना 'सर्वजन हिताय' की है । किसी भी लेखक या साहित्यकार पर सामयिक परिस्थितियों का प्रभाव न्यूनाधिक रूप मे अवश्य ही पड़ता है । फिर गोस्वामी जी ने इसे 'स्वांतःसुखाय'लिखने की घोषणा कैसे की?दरअसल बात यह है कि तत्कालीन शासक अपने दरबार मे चाटुकार कवियों को रखते थे और उनकी आर्थिक समस्या का समाधान कर दिया करते थे । इसके विनिमय मे ये राज्याश्रित दरबारी कवि अपने आश्रयदाता की छत्र छाया मे इन शासकों की प्रशंसा मे क्लिष्ट साहित्य की रचना करते थे । अर्थात जब गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन कवि 'परानतःसुखाय'साहित्य का सृजन कर रहे थे तुलसीदास ने 'रामचरितमानस'की रचना राज्याश्रय से विरक्त होकर 'सर्वजन सुखाय-सर्वजन हिताय'की । 'सब के भला मे हमारा भला' के वह अनुगामी थे । एतदर्थ रामचरितमानस को 'स्वांतः सुखाय'लिखने की घोषणा करने मे गोस्वामी जी ने कोई अत्युक्ति नहीं की ।

रामचरितमानस तुलसीदास की दिमागी उपज नहीं है और न ही यह एक-दो दिन मे लिखकर तैयार किया गया है । इस ग्रंथ की रचना आरम्भ करने के पूर्व गोस्वामी जी ने देश,जाति और धर्म का भली-भांति अध्ययन कर सर्वसाधारण की मनोवृति  को समझने की चेष्टा की और मानसरोवर से रामेश्वरम तक इस देश का पर्यटन किया ।

तुलसीदास ने अपने विचारों का लक्ष्य केंद्र राम मे स्थापित किया । रामचरित के माध्यम से उन्होने भाई-भाई और राजा-प्रजा का आदर्श स्थापित किया । उनके समय मे देश की राजनीतिक स्थिति सोचनीय थी । राजवंशों मे सत्ता-स्थापन के लिए संघर्ष हो रहे थे । पद-लोलुपता के वशीभूत होकर सलीम ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया तो उसे भी शाहज़ादा खुर्रम के विद्रोह का सामना करना पड़ा और जिसका प्रायश्चित उसने भी कैदी की भांति मृत्यु का आलिंगन करके किया । राजयोत्तराधिकारी 'दारा शिकोह'को शाहज़ादा 'मूहीजुद्दीन 'उर्फ 'आलमगीर'के रंगे हाथों परास्त होना पड़ा । इन घटनाओं से देश और समाज मे मुरदनी छा गई ।

ऐसे समय मे 'रामचरितमानस' मे राम को वनों मे भेजकर और भरत को राज्यविरक्त (कार्यवाहक राज्याध्यक्ष)सन्यासी बना कर तुलसीदास ने देश मे नव-चेतना का संचार किया,उनका उद्देश्य  सर्वसाधारण  
मे राजनीतिक -चेतना का प्रसार करना था । 'राम'और 'भरत 'के आर्ष चरित्रों से उन्होने जनता को 'बलात्कार की नींव पर स्थापित राज्यसत्ता'से दूर रहने का स्पष्ट संकेत किया । भरत यदि चाहते तो राम-वनवास के अवसर का लाभ उठा कर स्वंय को सम्राट घोषित कर सकते थे  राम भी 'मेजॉरिटी हेज अथॉरिटी'एवं 'कक्की-शक्की मुर्दाबाद'के नारों से अयोध्या नगरी को कम्पायमानकर सकते थे । पर उन्होने ऐसा क्यों नहीं किया?उन्हें तो अपने राष्ट्र,अपने समाज और अपने धर्म की मर्यादा का ध्यान था अपने यश का नहीं,इसीलिए तो आज भी हम उनका गुणगान करते हैं । ऐसा अनुपमेय दृष्टांत स्थापित करने मे तुलसीदास की दूरदर्शिता व योग्यता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । क्या तुलसीदास ने राम-वनवास की कथा अपनी चमत्कारिता व  बहुज्ञता के प्रदर्शन के लिए नहीं लिखी?उत्तर नकारात्मक है । इस घटना के पीछे ऐतिहासिक दृष्टिकोण छिपा हुआ है । (राष्ट्र-शत्रु 'रावण-वध की पूर्व-निर्धारित योजना' को सफलीभूत करना)।

इतिहासकार सत्य का अन्वेषक होता है । उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल मे प्रविष्ट होकर तथ्य के मोतियों को सामने रखती हैं । वह ईमानदारी के साथ मानव के ह्रास-विकास की कहानी कहता है । संघर्षों का इतिवृत्त वर्णन करता है । फिर तुलसीदास के प्रति ऐसे विचार जो कुत्सित एवं घृणित हैं (जैसे कुछ लोग गोस्वामी तुलसीदास को समाज का पथ-भ्रष्टक सिद्ध करने पर तुले हैं ) लाना संसार को धोखा देना है ।

तुलसीदास केवल राजनीति के ही पंडित न थे ,वह 'कट्टर क्रांतिकारी समाज सुधारक'भी थे । उनके समय मे कर्मकाण्ड और ब्राह्मणवाद प्राबल्य पर था । शूद्रों की दशा सोचनीय थी,उन्हें वेद और उपनिषद पढ़ने का अधिकार न था ,उन्हें हरि-स्मरण करने नहीं दिया जाता था । उनके हरि मंदिर प्रवेश पर बावेला मच जाता था। शैव और वैष्णव परस्पर संघर्ष रत थे। यह संघर्ष केवल निरक्षरों तक ही सीमित न था। शिक्षित और विद्वान कहे जाने वाले पंडित और पुरोहित भी इस संघर्ष का रसास्वादन कर आत्म विभोर हो उठते थे।

तुलसी दास ने इसके विरोध मे आवाज उठाई । उन्होने रामचरित मानस मे पक्षियों मे हेय व निकृष्ट 'काग भूषण्डी'अर्थात कौआ के मुख से पक्षी-श्रेष्ठ गरुड को राम-कथा सुनवाकर जाति-पांति के बखेड़े को अनावश्यक बताया । यद्यपि वह वर्ण-व्यवस्था के विरोधी नहीं थे । वह वेदों के 'कर्मवाद'सिद्धान्त के प्रबल समर्थक थे जिसके अनुसार शरीर से न कोई ब्राह्मण होता है और न शूद्र ,उसके कर्म ही इस सम्बन्ध मे निर्णायक हैं।

राम को शिव का और शिव को राम का अनन्य भक्त बताकर और राम द्वारा शिव की पूजा कराकर एक ओर तो तुलसीदास ने शैवो और वेष्णवोंके पारस्परिक कलह को दूर करने की चेष्टा की है तो दूसरी ओर् राष्ट्र्वादी दृष्टिकोण उपस्थित किया है(शिव यह हमारा भारत देश ही तो है)

इतने पुनीत और पवित्र राष्ट्र्वादी ऐतिहासिक दृष्टिकोण को साहित्य के क्षेत्र मे सफलता पूर्वक उतारने का श्रेय तुलसीदास को ही है। तुलसीदास द्वारा राम के राष्ट्र्वादी कृत्यों व गुणगान को रामचरित मानस मे पृष्ठांकित करने के कारण ही कविवर सोहन लाल दिवेदी को गाना पड़ा-

कागज के पन्नों को तुलसी,तुलसी दल जैसा बना गया। 
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(यह लेख सर्वप्रथम सप्तदिवा साप्ताहिक,आगरा के 28 जूलाई से 03 अगस्त 1982 अंक मे प्रकाशित हुआ था जिसे अब ब्लाग मे शामिल किया है। )



28 जूलाई 1982 को 'सप्तदीवा'आगरा मे प्रकाशित यह लेख 30 वर्ष की आयु की समझ से लिखा था जिसे आज 29 वर्ष बाद पुनः प्रकाशित कर रहे हैं तुलसी दास जी की जयंती-श्रावण शुक्ल सप्तमी के अवसर पर ।

खेद यह है कि कुछ दूसरे ब्लागो पर आपको तुलसी दास जी का दूसरा रूप दिखाया जाएगा जो उनका था नहीं। तमाम लोग भक्ति-अध्यात्म के नाम पर महान 'ऐतिहासिक-राजनीतिक ग्रंथ' को जनता के सामने पाखंडी रूप मे प्रस्तुत करते और तमाम वाहवाही लूटते हैं। अफसोस आज के विज्ञान के युग मे भी लोग-बाग अपनी सोच को परिष्कृत नहीं करना चाहते। खैर मैंने अपना फर्ज अदा किया है। -





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03 -08-2014
:22 अगस्त 2015