Sunday, September 15, 2013

भारत के राजनीतिक दल (भाग-1)---विजय राजबली माथुर

राजनीतिक दलों में चाहे जो दोष हों और चाहें अनेक विचारक उनसे घृणा करते हों,उनका लोकतन्त्र में होना अत्यावश्यक है। वे ही राजनीति को गतिशील बनाते हैं और वे ही निर्णयों पर पहुँचने की प्रक्रिया  के साधन हैं। सार्वजनिक मामलों के वे मुख्य प्रतिनिधि होते हैं। वे वास्तव में संसदात्मक शासन के भारी भवन के स्तम्भ हैं। एम दुवरगर ने अपनी पुस्तक 'पोलिटिकल पार्टीज़' में लिखा है-"संसदात्मक  ढंग के  लोकतन्त्र में तो उनकी आवश्यकता कहीं अधिक है। "

वस्तुतः राजनीतिक दल ही लोकतन्त्र का जीवन-रक्त होते हैं। उनके बिना लोकतन्त्र 'सर्वाधिकारवाद (Totalitarianism)'की ओर बढ़ता है।

विरोधी दल का महत्व:
फरवरी 1956 में नई दिल्ली में 'संसदात्मक लोकतन्त्र' पर एक सेमिनार आयोजित किया गया था जिसमें बोलते हुये भारत स्थित ब्रिटेन के हाई कमिश्नर मेलकाम मैकडोनाल्ड  ने कहा था-"इस प्रकार के लोकतन्त्र का निचोड़ इस बात में है कि कार्यपालिका की विधान मण्डल के भीतर और बाहर वर्ष के प्रतिदिन आलोचना की जा सके । ऐसा न होने पर सरकार लोकतंत्रात्मक न रहेगी ,वह शीघ्र ही मनचाही करने लगेगी और आगे चल कर अत्याचारी शासन का रूप ले लेगी। यह जो बात अपने हित में समझेगी वैसा ही दूसरों के हितों अथवा राष्ट्र हित का ध्यान न करते हुये करने लगेगी।' जनता का शासन जनता के लिए और जनता द्वारा 'महान सिद्धान्त का स्थान 'जनता का शासन 'कुछ थोड़े से व्यक्तियों द्वारा कुछ व्यक्तियों के लिए' का सिद्धान्त ले लेगा "

लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने अपने एक वक्तव्य में कभी इंगित किया था- "संसदीय पद्धति के भी अपने नियम हैं। उनमें सबसे अधिक आधारभूत नियम यह है कि यह पद्धति प्रभावशाली विरोध के बिना नहीं चल सकती। ....... अच्छे से अच्छे इरादे वाले व्यक्ति भी यदि उन पर सदैव ही विरोध का तेज प्रकाश न पड़ता रहे ,शक्ति पाने पर गलत मार्ग पर चले जाएँगे। यह भी प्रश्न नहीं है कि विरोधी दल सत्तारूढ़ दल से अच्छे हैं या बुरे। यह यथार्थ में बुरे हो सकते हैं। परंतु यही बात कि वह निरंतर 'सतर्कता' का प्रयोग करते हैं ,सत्तारूढ़ दल को ठीक मार्ग पर रखती है। "

आज़ादी से पहले कांग्रेस के झंडे के नीचे विदेशी शासन का अंत करने के लिए एक राष्ट्रीय आंदोलन चला था। लेकिन 1920 के बाद 'उदारवादी दल (Liberal  Party) ने एक संसादात्मक दल के रूप में कार्य किया और 1935 के भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत प्रांतीय विधान मंडलों में कांग्रेस ने भी ऐसा ही किया था। शुरू में दो प्रकार के राजनीतिक दल थे:
1 )-वे जिंनका आधार राजनीतिक तथा आर्थिक कार्यक्रम हैं और,
2 )-वे जो सांप्रदायिक भावना व मनोवृत्ति से प्रेरित होकर राजनीति में घुस आए हैं।

सन 1953 में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था (जिसका उल्लेख डी एन पामर ने अपनी पुस्तक 'इंडियन पोलिटिकल सिस्टम'के पृष्ठ-186 पर किया है)-"भारत में वर्तमान दलों को चार समूहों में रखा जा सकता है। कुछ दल ऐसे हैं जिनकी विचार धारा आर्थिक है (यथा-कांग्रेस,समाजवादी दल,साम्यवादी दल और उससे संबन्धित संगठन हैं)। कई सांप्रदायिक दल हैं जिनके नाम भिन्न-भिन्न हैं ,किन्तु वे सभी संकुचित सांप्रदायिक विचार धाराओं पर चल रहे हैं। और कई प्रांतीय अथवा प्रादेशिक दल हैं ,जिनके कार्यों का क्षेत्र उनके अपने प्रदेश हैं। "

1964 में अजित प्रसाद जैन की अध्यक्षता वाली कांग्रेस की एक संसदीय समिति ने सुझाव दिया था कि, सांप्रदायिक दलों के बनने पर रोक लगा देनी चाहिए।

12 फरवरी 1957 को 'इंडियन एक्स्प्रेस'में प्रकाशित एक समाचार में कहा गया था कि कुछ उच्च कांग्रेसी नेताओं ने विरोधी दलों पर यह आरोप लगाया कि वे विदेशों से आर्थिक सहायता पा रहे हैं। दूसरी ओर विरोधी दलों के नेताओं का यह आरोप था कि कांग्रेस को पूंजीवादी खूब धन दे रहे हैं।

कांग्रेस :
वस्तुतः 1857 की क्रांति की विफलता के बाद उसमे सक्रिय भाग ले चुके स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 में 'आर्यसमाज' की स्थापना जनता को संगठित कर स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य से की थी और उसकी प्रारम्भिक  शाखाएँ ब्रिटिश छावनी वाले  शहरों में ही खोली थीं।ब्रिटिश सरकार ने उनको Revolutionary Saint की संज्ञा दी थी और उनके प्रभाव को क्षीण करने हेतु रिटायर्ड ICS एलेन  आक्टावियन (AO) हयूम का प्रयोग लार्ड डफरिन ने इंडियन नेशनल कान्फरेंस के नेता सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को मिला कर एक सेफ़्टी वाल्व संस्था 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना WC(वोमेश चंद्र) बनर्जी की अध्यक्षता में करवाई थी।इसके शुरुआती नेता कहते थे-'हम नस-नस में राजभक्त हैं।'ये लोग मामूली सुविधाओं की ही मांग सरकार से करते थे। 

स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्देश पर आर्यसमाजी लोग इस कांग्रेस में प्रवेश कर गए जिनके प्रभाव से 1906 में कांग्रेस के कुछ नेता 'स्वराज्य' की मांग उठाने लगे। आगे जाकर गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में आर्यसमाजियों ने बढ़ -चढ़ कर भाग लिया। ' कांग्रेस का इतिहास' के लेखक  डॉ पट्टाभि सीतारमइय्या ने लिखा है कि आज़ादी के आंदोलन में जेल जाने वाले सत्याग्रहियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस 

1948 में 'सहकारी कामनवेल्थ' (Co-operative Commonwealth)का ध्येय अपनाया जिसे 1955 के अवदी अधिवेशन द्वारा 'समाजवादी ढंग के समाज'(Socialist Pattern of society) के लक्ष्य में परिवर्तित किया गया एवं जनवरी 1964 में 'लोकतान्त्रिक समाजवाद '(Democratic Socialism) का ध्येय अपनाया गया। 

नेहरू जी के बाद पूंजीवादी तबका निंरकुश होने लगा और कांग्रेस को ठेठ दक्षिण-पंथ की ओर धकेलने लगा अतः 1969 में राष्ट्रपति चुनाव की आड़ में 'कांग्रेस संगठन'(Congres-O) एवं 'सत्ता कांग्रेस' (Congres-R) के रूप में इसमें विभाजन हो गया। सत्ता कांग्रेस बाद में 'कांग्रेस- आई' अर्थात इन्दिरा कांग्रेस के रूप में जानी गई और संगठन कांग्रेस (जो कि मूल कांग्रेस थी ) का विलय 1977 में जनता पार्टी में हो गया । इस प्रकार स्वाधीनता आंदोलन वाली कांग्रेस का अब 'अस्तित्व' ही नहीं है और सोनिया जी की अध्यक्षता वाली कांग्रेस वस्तुतः 'कांग्रेस -आई' है। 

साम्यवादी दल : 

मूलतः 1924 में इस दल की नींव विदेश में रखी गई तथा दिसंबर 1925 में कानपुर में विधिवत स्थापना हुई। कांग्रेस में शामिल क्रांतिकारी आर्यसमाजी अब इस दल में प्रविष्ट हो गए एवं स्वाधीनता आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की जाने लगी। 
(इसका विस्तृत वर्णन अगले  किसी अंक में )

समाजवादी दल :
1)-1930 में डॉ राम मनोहर लोहिया की प्रेरणा पर 'कांग्रेस समाजवादी दल'(Congres Sociolist party) की स्थापना का विचार मूल रूप से 'साम्यवादी दल' के प्रभाव को क्षीण करने हेतु आया जिसे 1934 में 'नासिक जेल' में अमल में लाया गया। डॉ लोहिया ने 'लोकतान्त्रिक समाजवाद' एवं 'सर्वाधिकारवादी साम्यवाद' के अंतर पर विशेष ज़ोर दिया। 
2)-आज़ादी के बाद आचार्य जे बी कृपलानी ने कांग्रेस से हट कर 'कृषक मजदूर प्रजा पार्टी' बना ली एवं 1952 के प्रथम आम चुनाव 'समाजवादी दल' के साथ मिल कर लड़े एवं लोकसभा के लिए कुल पड़े मतों का 10 .4 प्रतिशत प्राप्त करके 12 सांसदों को निर्वाचित करा लिया। सितंबर 1952 में दोनों दलों का विलय हो गया और इसे 'प्रजा सोशलिस्ट पार्टी '(प्रसोपा) के नाम से जाना गया। 

3)-जनवरी 1956 में हैदराबाद में डॉ लोहिया ने प्रसोपा से अलग 'समाजवादी पार्टी' की स्थापना कर ली थी। 

21 अक्तूबर 1959 को टाईम्स आफ इंडिया में बी जी वर्घीज ने लिखा था कि,'कांग्रेस और प्रसोपा को मिल कर संगठित हो जाना चाहिए जिससे 'प्रतिक्रियावादी' एवं 'साम्यवादी' तत्वों का संगठन अवश्य ही कमजोर होगा। '

4)-दिसंबर 1962 में उत्तर-प्रदेश विधानमंडल के 'समाजवादी दल' व 'प्रजा समाजवादी दल' ने मिल कर 'संयुक्त समाजवादी दल' बनाया उसके बाद राजस्थान में भी इसे दोहराया गया। 1964 में अशोक मेहता को जवाहर लाल नेहरू द्वारा 'प्रसोपा' से तोड़ लेने के बाद श्रीधर महादेव जोशी  और डॉ लोहिया ने मिल कर 'संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी' (संसोपा) का गठन किया। किन्तु कुछ ही समय बाद आचार्य कृपलानी फिर से 'प्रसोपा' के झंडे तले चले गए और इस प्रकार 'संसोपा''प्रसोपा'दो समाजवादी दल चलते रहे। 

1977 में ये सभी दल 'जनता पार्टी' में विलय कर समाप्त हो गए थे। 

समाजवादी जनता पार्टी : 

जनता पार्टी से अलग होकर पूर्व पी एम चंद्रशेखर ने 'सजपा'  का गठन कर लिया था जिसके उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव द्वारा अपने चचेरे भाई राम गोपाल सिंह यादव को राज्यसभा के लिए उनसे पूछे बगैर टिकट देने से वह रुष्ट हो गए थे। 
समाजवादी पार्टी : 
मुलायम सिंह ने अलग 'समाजवादी पार्टी' (सपा) का गठन कर लिया और कई बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई अब भी उनके पुत्र अखिलेश सपा की ओर से मुख्यमंत्री हैं। 
चंद्रशेखर जी के पुत्र नीरज शेखर ने अब 'सजपा' का विलय 'सपा' में कर लिया है। 
यह समाजवादी पार्टी सिर्फ एक उद्देश्य 'साम्यवादी दल' को क्षति पहुंचाने के मामले में 1930 वाली CSP के नक्शे-कदम चल रही है बाकी के डॉ लोहिया के उद्देश्य नाम लेने मात्र के लिए प्रयुक्त होते हैं।

स्वतंत्र पार्टी : 

अगस्त 1959 में स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ,के एम मुंशी,प्रोफेसर एन जी रंगा,मीनू मसानी और पीलू मोदी आदि द्वारा इस दल की स्थापना बड़े जमींदारों,पूँजीपतियों के हितार्थ की गई थी। 1977 में इस दल का  विलय जनता पार्टी में होने पर यह समाप्त हो गया है।


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Saturday, September 14, 2013

Revolt of the people ......... can only usher in a blooming future---Gurudas Dasgupta




It is sad day for the nation Mr. Narendra Modi has been nominated as the candidate of BJP for the post of Prime Minister. A man who had played on communal passions that led to unprecedented killings, loot and destruction of Gujarat, a man who always speaks on fundamentalism, who is close to the corporate world and has no eye for the distress of the masses has been set up. I have great faith in the wisdom of the Indian electorate who surely will not hand over the rein of the country to a man having such blemished black track record. While saying so it is also imperative to note that the UPA government and the Prime Minister and the would-be Prime Minister as has been talked about are totally non performing, corrupt and anti-people. India is in a crossfire. the country must find out a different social and political combination which will not only be secular but must be free from corruption and performance based to bring relief to the distressed humanities of the country suffering from inflation, unemployment, poverty and destitution. The shadow of corporate giants over Indian political life must be ended. However long may be the destination, it is only working for such a perspective that the country can get rid of such a non-performing governance and highly tainted fundamentalist political forces. it is the revolt of the people against these two principal political forces that can only usher in a blooming future.

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