http://krantiswar.blogspot.in/2011/10/blog-post_26.html
26 अक्तूबर 2011 को मैंने इस लिंक पर दिये गए लेख में यह भी बताया था:
"सुप्रसिद्ध आर्य सन्यासी (अब दिवंगत) स्वामी स्वरूपानन्द जी के प्रवचन कमलानगर,आगरा मे सुनने का अवसर मिला है। उन्होने बड़ी बुलंदगी के साथ बताया था कि जिन लोगों की आत्मा हिंसक प्रकृति की होती है वे ही पटाखे छोड़ कर धमाका करते हैं। उनके प्रवचनों से कौन कितना प्रभावित होता था या बिलकुल नहीं होता था मेरे रिसर्च का विषय नहीं है। मै सिर्फ इतना ही बताना चाहता हूँ कि यशवन्त उस समय 13 या 14 वर्ष का रहा होगा और उसी दीपावली से उसने पटाखे छोडना बंद कर दिया है क्योंकि उसने अपने कानों से स्वामी जी के प्रवचन को सुना और ग्रहण किया। वैसे भी हम लोग केवल अपने पिताजी द्वारा प्रारम्भ परंपरा निबाहने के नाते प्रतीक रूप मे ही छोटे लहसुन आदि उसे ला देते थे। पिताजी ने अपने पौत्र को शुगन के नाम पर पटाखे देना इस लिए शुरू किया था कि औरों को देख कर उसके भीतर हींन भावना न पनपे। प्रचलित परंपरा के कारण ही हम लोगों को भी बचपन मे प्रतीकात्मक ही पटाखे देते थे। अब जब यशवन्त ने स्वतः ही इस कुप्रथा का परित्याग कर दिया तो हमने अपने को धन्य समझा।
स्वामी स्वरूपानन्द जी आयुर्वेद मे MD थे ,प्रेक्टिस करके खूब धन कमा सकते थे लेकिन जन-कल्याण हेतु सन्यास ले लिया था और पोंगा-पंथ के दोहरे आचरण से घबराकर आर्यसमाजी बन गए थे। उन्होने 20 वर्ष तक पोंगा-पंथ के महंत की भूमिका मे खुद को अनुपयुक्त पा कर आर्यसमाज की शरण ली थी और जब हम उन्हें सुन रहे थे उस वक्त वह 30 वर्ष से आर्यसमाजी प्रचारक थे। स्वामी स्वरूपानन्द जी स्पष्ट कहते थे जिन लोगों की आत्मा 'तामसिक' और हिंसक प्रवृति की होती है उन्हें दूसरों को पीड़ा पहुंचाने मे आनंद आता है और ऐसा वे धमाका करके उजागर करते हैं। यही बात होली पर 'टेसू' के फूलों के स्थान पर सिंथेटिक रंगों,नाली की कीचड़,गोबर,बिजली के लट्ठों का पेंट,कोलतार आदि का प्रयोग करने वालों के लिए भी वह बताते थे। उनका स्पष्ट कहना था जब प्रवृतियाँ 'सात्विक' थीं और लोग शुद्ध विचारों के थे तब यह गंदगी और खुराफात (पटाखे /बदरंग)समाज मे दूर-दूर तक नहीं थे। गिरते चरित्र और विदेशियों के प्रभाव से पटाखे दीपावली पर और बदरंग होली पर स्तेमाल होने लगे।
दीपावली/होली क्या हैं?:
हमारा देश भारत एक कृषि-प्रधान देश है और प्रमुख दो फसलों के तैयार होने पर ये दो प्रमुख पर्व मनाए जाते हैं। खरीफ की फसल आने पर धान से बने पदार्थों का प्रयोग दीपावली -हवन मे करते थे और रबी की फसल आने पर गेंहूँ,जौ,चने की बालियों (जिन्हें संस्कृत मे 'होला'कहते हैं)को हवन की अग्नि मे अर्द्ध - पका कर खाने का प्राविधान था। होली पर अर्द्ध-पका 'होला' खाने से आगे आने वाले 'लू'के मौसम से स्वास्थ्य रक्षा होती थी एवं दीपावली पर 'खील और बताशे तथा खांड के खिलौने'खाने से आगे शीत मे 'कफ'-सर्दी के रोगों से बचाव होता था। इन पर्वों को मनाने का उद्देश्य मानव-कल्याण था। नई फसलों से हवन मे आहुतियाँ भी इसी उद्देश्य से दी जाती थीं।
लेकिन आज वेद-सम्मत प्रविधानों को तिलांजली देकर पौराणिकों ने ढोंग-पाखंड को इस कदर बढ़ा दिया है जिस कारण मनुष्य-मनुष्य के खून का प्यासा बना हुआ है। आज यदि कोई चीज सबसे सस्ती है तो वह है -मनुष्य की जिंदगी। छोटी-छोटी बातों पर व्यक्ति को जान से मार देना इन पौराणिकों की शिक्षा का ही दुष्परिणाम है। गाली देना,अभद्रता करना ,नीचा दिखाना और खुद को खुदा समझना इन पोंगा-पंथियों की शिक्षा के मूल तत्व हैं। इसी कारण हमारे तीज-त्योहार विकृत हो गए हैं उनमे आडंबर-दिखावा-स्टंट भर गया है जो बाजारवाद की सफलता के लिए आवश्यक है। पर्वों की वैज्ञानिकता को जान-बूझ कर उनसे हटा लिया गया है ।"
शशिशेखर जी ने उपरोक्त संपादकीय में परमावश्यक तथ्यों का उल्लेख करते हुये सामाजिक पर्वों में आज के संदर्भ में बदलाव किए जाने की आवश्यकता बतलाई है। जबकि वस्तुतः इन पर्वों को अपने मौलिक स्वरूप में वापिस लौटाने भर की ज़रूरत है। हमारे सभी पर्व 'देश-काल-जातिभेद' से परे समस्त पृथ्वीवासियों के हितार्थ थे उनको उसी रूप में मनाया जाये और व्यापार-जगत के लाभ में न चलाया जाये। बस जनता को यही समझाये जाने की आवश्यकता है जिसका व्यापारियों के एजेन्टों/पोंगापंथी ब्राह्मणों द्वारा प्रबल विरोध किया जाएगा जिस पर जन-समर्थन से विजय प्राप्त की जा सकती है। इस ब्लाग के माध्यम से इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास चल रहा है।
अब जब शशिशेखर जी जैसे प्रबुद्ध संपादक गण भी लोक-प्रचलित पोंगा-पंथ का विरोध करने को आगे आ गए हैं तो हम उनका हार्दिक स्वागत करते हैं।
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