Sunday, September 25, 2016

आएंगे उजले दिन जरूर आएंगे : कवि वीरेन डंगवाल की याद में संगोष्ठी





क़ैसर बाग,लखनऊ स्थित राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह के जयशंकर प्रसाद सभागार में कवि नरेश सक्सेना की अध्यक्षता में एक गोष्ठी का आयोजन 24 सितंबर,2016 को किया गया  था, जिसका कुशल संचालन डॉ चंद्रेश्वर ने  किया । डॉ चंद्रेश्वर ने  बीज वक्तव्य देते हुये यह भी बताया कि, हालांकि वीरेन  डंगवाल की कविताओं का रचनाकाल 1970 से माना जाता रहा है परंतु वह 1965 से ही कविताओं का सृजन कर रहे थे। 1967 के नक्सल बाड़ी आंदोलन का उनकी रचनाओं पर व्यापक प्रभाव रहा। अपने सम्बोधन में प्रोफेसर रवि भूषण ने अपनी खोज के आधार पर पुनः 1970 को ही उनके काव्य- सृजन का आधार वर्ष बताया जबकि नरेश सक्सेना साहब ने बताया कि, 1966-67 में 'आधार ' पत्रिका के लिए वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वीरेन  डंगवाल से उनकी कवितायें मांगने गए थे और वह  वास्तव में 1965 से ही कवितायें लिख रहे थे। 
प्रोफेसर मैनेजर पांडे (फोटो सौजन्य से कौशल किशोर जी )

प्रोफेसर मैनेजर पांडे साहब ने बताया कि, झूठ और झूठ की व्यवस्था पूरे विश्व में हैजा व प्लेग के रूप में फैली हुई है तब ऐसे में वीरेंद्र डंगवाल सच के हामी के तौर पर उभरे। उनके अनुसार (1) कविता में जन का होना बहुत ज़रूरी है तभी कविता जंनतान्त्रिक होगी। (2 ) कविता की भाषा , संरचना,बनावटऐसी हो जो अधिकाधिक लोगों को समझ आए तभी वह जनतांत्रिक होगी। वीरेन  डंगवाल  की कविता में ये दोनों बातें है अतः वह जनतांत्रिक कवि थे। वह राजनीतिक चेतना व संवेदना के कवि थे। उनकी हर कविता में राजनीतिक धारा ज़रूर दीखेगी। 
प्रोफेसर रवि भूषण , रांची (फोटो सौजन्य से कौशल किशोर जी )

प्रोफेसर रवि भूषण साहब ने बताया कि, 19970 से 1995 के कार्यकाल में सार्थक और घातक दोनों प्रकार की कविताओं का सृजन हुआ है जबकि इसी कार्यकाल में वीरेन डंगवाल की कविताओं में संयम पाया जाता है। उनकी एक कविता की एक पंक्ति 'काफी बुरा समय है ' की व्याख्या करते हुये उन्होने बताया कि, 1980 तक का समय बुरा था तो उसके बाद का समय बहुत बुरा था। 1982 में इन्दिरा गांधी ने पहली बार विश्व बैंक से ऋण लिया था। 1984 में दूसरी बार इसलिए नहीं लिया कि, शर्तें बहुत कड़ी थीं और छह माह बाद ही उनकी हत्या कर दी गई थी। इसी आर्थिक प्रभाव का ही नतीजा था कि, पंजाब का खालिस्तान व कश्मीर का उग्रवाद आंदोलन सामने आए। 1966 में इन्दिरा के आगमन से जिस भ्रम का प्रारम्भ हुआ था अंततः वह 1975 में आपातकाल में परिणत हुआ। वीरेन   डंगवाल की कविताओं में इस कालक्रम का पूरा प्रभाव परिलक्षित होता है। 

गोष्ठी के सफल आयोजन का श्रेय कौशल किशोर जी का है। प्रमुख उपस्थित लोगों में डॉ गिरीश श्रीवास्तव,रवीन्द्र वर्मा, सुभाष राय, किरण सिंह,कात्यायनी,उषा राय, ताहिरा हसन, डॉ निर्मला सिंह, भगवान स्वरूप कटियार,आदियोग,डॉ रवीकान्त, ओ पी सिन्हा, विजय राजबली माथुर भी शामिल रहे।

Tuesday, September 20, 2016

ऐसे शासक ही चुने विवाद व विग्रह नहीं ------ विजय राजबली माथुर



September 15 at 6:22pm · 
बेहद ताज्जुब होता है जब फेसबुक पर विद्वानों को धर्म,ईश्वर,आस्तिक,नास्तिक,साधू,संत,सत्संग,भगवान आदि-आदि की निरर्थक बहस में उलझते देखता हूँ। वस्तुतः समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है।
धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं। 
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
साधू = जिसने अपने जीवन को साध लिया है वही साधू,रंगीन पोशाकधारी नहीं। 
संत= जिसने जीवन को संतुलित बना लिया हो और समाज के संतुलन हेतु प्रयास रत हो।
सत्संग= अच्छे लोगों का साथ देना न कि, ढ़ोल-मजीरा,चिमटा बजाना। 
ईश्वर = जो ऐश्वर्य सम्पन्न हो । क्या आज ऐसा कोई है? 
आस्तिक = जिसका अपने ऊपर विश्वास हो। 
नास्तिक = जिसका अपने ऊपर विश्वास न हो किसी दूसरे द्वारा निर्देशित हो। 
आत्मा = वह शक्ति- ऊर्जा -energy जो प्राणी शरीर को संचालित करती है। 
परमात्मा = वह अदृश्य शक्ति- अदृश्य ऊर्जा - unforeseen energy जो संसार की असंख्य आत्माओं को संचालित करती है। 
विज्ञान = किसी भी विषय का नियमबद्ध और क्रमबद्ध अध्यन न कि सिर्फ बीकर द्वारा प्रयोगशाला में सिद्ध करने की कला मात्र। 

इसी प्रकार हर विवाद का समाधान किया जाये तो समस्या ही न बचे तब इन विद्वानों की विद्वता का क्या मोल रह जाये इसलिए समाज में विवाद व विग्रह कायम रखे जाते हैं।
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September 19, 2012 · 
गणेश=ग+ण+ईश =ज्ञान +मोक्ष +नायक =परमात्मा का वह स्वरूप जो ज्ञान और मोक्ष का प्रदाता है। यह शोर -शराबा तो अज्ञान और पाप का द्योतक है जो आज कल सड़कों पर दिखाई देता है।गण +ईश=गणेश =जननायक=राष्ट्रपति। राष्ट्रपति एवं जननायकों को गणेश जैसा होना चाहिए इस रूप का संदेश वही है। अर्थात शासक सुने सबकी (हाथी जैसे कान और सूंघने की सूंड जैसी शक्ति)और सब बातों को पचा कर रखने वाला हो जो करना हो वह कहे नही (खाने के दाँत और दिखाने के और)तथा पंच मार्गियों,देशद्रोहियों,आतंकियों को कुचल कर रखे -चूहे की सवारी का यही आशय है। ढोंग करने की अपेक्षा ऐसे शासक ही चुने यही इस पर्व का महत्व है।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/412248028837179



श्राद्ध और तर्पण :
 जीवित माता-पिता-गुरु-सास-ससुर की इच्छा को श्रद्धा पूर्वक 'तृप्त' करना ही 'श्राद्ध- तर्पण ' है। उनकी आत्मा की तृप्ति के नाम पर ढ़ोंगी-पाखंडी को खिलाना केवल 'फ्लश 'के जरिये फिजूल की बरबादी है। 



 ~विजय राजबली माथुर ©
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