निष्पन्न अपराध है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
यह वर्चुअल युग है ,यथार्थ और उसके समस्त संदर्भों के विध्वंस का युग है, इसमें अन्य या हाशिए के लोगों को मीडिया यथार्थ के बाहर खदेड़कर विध्वंस के हवाले कर दिया गया है। स्थिति बड़ी भयावह है लेकिन मीडिया में यथार्थ के चित्र और यथार्थ की ख़बरें ग़ायब हैं। मसलन्, सालाना हज़ारों औरतें दहेज और घरेलू हिंसा के ज़रिए मारी जा रही हैं,लेकिन उनकी चर्चा तक नहीं मिलती, लाखों किसान और मज़दूर ग़रीबी के कारण मर रहे हैं,वे खबर तक नहीं बन पा रहे हैं, अल्पसंख्यकों पर निरंतर हमले हो रहे हैं लेकिन अधिकांश को पुलिस बयान के आधार पर कभी-कभार अति सामान्य खबर के रुप में पेश करके दफ़्न कर दिया जाता है। इसके अलावा मेडीकल अपराध के कारण हर साल लाखों लोग मारे जा रहे हैं। लेकिन इस क्षेत्र की भी ख़बरें गायब हैं। सवाल यह है यथार्थ ख़बरों से मीडिया क्यों भाग रहा है ?
हमारे चेहरे और शरीर पर प्लास्टिक सर्जरी का रंदा चल रहा है। व्यक्तिगत जैसी कोई चीज नहीं बची है। प्राइवेसी में सेंधमारी चल रही है, निगरानी चल रही है। कहने के लिए हम सूचना क्रांति में दाख़िल हो चुके हैं लेकिन वस्तुत: सूचना के कचरे में डूबे हुए हैं। हमारे आसपास जो दुनिया बनायी गयी है वह यथार्थ से कम और वर्चुअल यथार्थ से बनी ज्यादा है। सब चीज़ों में क्लोनिंग पद्धति दाख़िल हो गयी है।
हमने 'विकास' के जयघोष की आड़ में "अन्य" को हाशिए पर डाल दिया है। साथ ही 'अन्य' पर हमले तेज़ कर दिए हैं। इसके लिए इंटरनेट, सोशलमीडिया , मासमीडिया आदि का रीयल टाइम कम्युनिकेशन के रुप में इस्तेमाल किया जा रहा है। सूचना क्रांति के नाम पर विकसित समूचा ढाँचा समग्रता में यथार्थ की हत्या का तंत्र बन गया है। आज सच्चाई यह है कि कम्युनिकेशन ही यथार्थ और हाशिए के लोगों की हत्या का पूरक तंत्र बन गया है।
नए कम्युनिकेशन के परिदृश्य के प्रधान लक्षण ये हैं-
१. हाशिए के समुदायों का कम्युनिकेशन बंद ।
२.शत्रु के साथ बातचीत बंद।
३. अब किसी क़िस्म की नकारात्मकता मीडिया नज़र नहीं आती, सिर्फ़ परम सकारात्मकता की ही इमेज वर्षा होती रहती है ।
४. अब अन्य नहीं है सिर्फ़ अस्मिता और भिन्नता है
५.अब भ्रम नहीं है , बल्कि हायपर रियलिटी , वर्चुअल रियलिटी है
६. अब गोपनीयता नहीं है बल्कि ट्रांसपरेंसी के नाम पर निगरानी है।
७.मीडिया में सुंदर सामाजिक जीवन का सपना ग़ायब है, उसकी जगह सुंदर वस्तुओं ने ले ली है। यानी मीडिया अब भविष्य नहीं वस्तुओं का बोलबाला है।
यही वह परिप्रेक्ष्य है जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को निष्पन्न अपराध के रुप में निर्मित कर रहा है ।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद -
हाल के वर्षों में और ख़ासकर मोदी सरकार आने के बाद 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 'को लेकर बुद्धिजीवियों से लेकर मीडिया तक चर्चाएं तेज हो गयी हैं। इन चर्चाओं के पीछे किस तरह की राजनीतिक मंशाएँ सक्रिय हैं इसे हम सबलोग जानते हैं।सवाल यह है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद क्या है ? इसका उत्तर इस सवाल से मिलेगा कि ये लोग भारत को किस तरह देख रहे हैं ? किस तरह की सामाजिक इकाइयों के आधार पर देख रहे हैं ? यानी इनके नक़्शे में भारत की किस तरह की तस्वीर है।असल में, यह काल्पनिक धारणा है और इसका भारत के सामाजिक यथार्थ और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से कोई संबंध नहीं है। यह वर्तमान ,अन्य (अदर) और विविधता के निषेध पर निर्मित अवधारणा है।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' के पक्षधर भारतीय समाज को धार्मिक इकाइयों के आधार पर वर्गीकृत करके नस्ल के आधार पर देखते हैं। धर्म के आधार पर सामाजिक समूहों को वर्गीकृत करते हुए ये लोग खुलेआम एक ऐसे हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता का दावा कर रहे हैं जो परंपरा में कहीं नहीं मिलता।सामाजिक जीवन में कहीं पर भी नज़र नहीं आता। यह वह हिन्दूधर्म है जिसकी रचना सन् 1925 के आसपास आरंभ हुई। आरएसएस के संस्थापकों ने इसको निर्मित किया। यह वह हिन्दूधर्म नहीं है जो हज़ारों सालों से हमारे देश में विभिन्न सम्प्रदायों के आचार-व्यवहार और शास्त्र विमर्श ने बनाया है। इसलिए इसे 'भगवा हिन्दूधर्म 'कहना समीचीन होगा।' भगवा हिन्दूधर्म 'हमारे वर्तमान के वैविध्य को देखने, समझने में एकदम असमर्थ है।इसके अधिकांश नेताओं की स्वाधीनता संग्राम में नकारात्मक भूमिका रही है। यहां तक कि संविधान बनने के समय और बाद में भी अनेकबार संविधान विरोधी भूमिका रही है।
स्वाधीनता संग्राम में कई तरह की विचारधाराएं और उनके मानने वाले संगठन सक्रिय थे ,संघ ने उनमें से लिबरल और क्रांतिकारी नेताओं और संगठनों के विचारों से प्रेरणा लेने की बजाय उन परंपराओं और राजनीतिक ताक़तों से प्रेरणा ली जिनके पास धर्म के आधार पर देखने या नस्ल के आधार पर देखने का नजरिया था, यही नजरिया संघ ने समाज, राजनीति, इतिहास आदि पर लागू किया।
' सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का मूलाधार है एम.एस. गोलवलकर की किताब "वी ओर अवर नेशनहुड डिफाइंड" है, यह किताब सन् 1938 में लिखी गयी और सन् 1939 में इसका पहला संस्करण प्रकाशित हुआ। इस किताब में नस्ल के आधार पर देश,राष्ट्र ,धर्म , संस्कृति , भाषा आदि को व्याख्यायित किया गया।
गोलवलकर के नज़रिए की सबसे बड़ी समस्या है कि वह भारत में उपलब्ध ज्ञान संपदा और उसके वैविध्यपूर्ण मूल्याँकन की अनदेखी करके कपोल- कल्पनाओं पर आधारित राष्ट्र -राज्य की परिकल्पना पेश करते हैं।उन्होंने हमारी ज्ञान संपदा से मदद लेने की बजाय हिटलर-मुसोलिनी के नजरिए से राष्ट्र-राज्य को परिभाषित करते हैं। यही समझ भारत के बारे में आरएसएस के राजनीतिक विवेक की धुरी है और इसी से निर्देशित होकर संघ और उसके द्वारा संचालित संगठन आए दिन आधुनिक भारत की बातें करते रहते हैं। गोलवलकर ने संघियों में ज्ञान की जो नींव डाली उसका आधार है किंवदन्ती, कपोल कथाएँ और अविवेकवादवाद। इसका सामाजिक लक्ष्य है 'अन्य' के खिलाफ घृणा और हिंसा केन्द्रित शासनतंत्र की स्थापना करना, मौजूदा शासनतंत्र में अविवेकवाद को नॉर्मल विचारधारा के रुप में प्रतिष्ठित करना। लोकतंत्र का आधार नागरिक को आधार बनाने की बजाय धर्म और खासकर हिन्दूधर्म को आधार बनाना। सामाजिक इकाई की नियामक धुरी के रुप में जाति की संरचना की हर हालत में रक्षा करना। संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप को बदलना। आमलोगों में धर्मनिरपेक्षता की बजाय 'भगवा हिन्दूधर्म' का पिरचार करना,धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ घृणा पैदा करना।
गोलवलकर की कपोल -कल्पनाएँ भयावह और बर्बर है
गोलवलकर की कपोल -कल्पनाएँ सतह पर सामान्य और सहज प्रतीत होती हैं लेकिन इनका राजनीतिक आयाम भयावह और बर्बर है। कपोलकथाएं बर्बरता का अंग कैसे बन गयां यह चीज आरएसएस रचित शास्त्र और विभिन्न राज्य और केन्द्र सरकारों के नीतिगत फैसलों के मूल्याँकन के ज़रिए सहज ही समझी जा सकती है। मसलन्, यह कपोल कल्पना कि हिन्दू श्रेष्ठ होते हैं,पहले यह चीज पंडितों की कहानियों तक सीमित थी, इसका राजनीति से कोई संबंध नहीं था। इसके आधार कोई नया शास्त्र, सामाजिक नियम, संविधान अथवा दण्डविधान बनाने की कोई कोशिश पहले नहीं की गयी, यहां तक कि धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावादी संरचनाओं के खिलाफ कभी हमले नहीं किए गए। लेकिन पहलीबार आरएसएस ने अपने जन्म से लेकर आज तक इन कल्पित कहानियों को सामयिक राजनीतिक विमर्श , सामाजिक संरचनाओं और राज्य की नीतियों ,शिक्षा के पाठ्यक्रम और राजनीतिक गोलबंदी का आधार बना दिया।
आरएसएस के जन्म के पहले रैनेसां में पुनरुत्थानवादी धारा थी जिनमें शामिल कई बडे विचारकों ने धर्म और नस्ल के आधार समाज को देखने का नज़रिया पेश किया। इस तरह के लोग ब्रिटिश परंपरा, प्राच्यवादी परंपरा और देशज पुनरुत्थानवादी रैनेसां परंपरा में मौजूद थे। आरएसएस के प्रचारक इन विचारकों का बार - बार जिक्र करते हैं। मूल बात यह है कि समाज को धर्म और नस्ल के आधार पर देखने की राजनीतिक परंपरा का श्रीगणेश ब्रिटिश दौर में हुआ। यह नजरिया मध्यकाल में नहीं मिलता। यहां तक कि मध्यकाल में हिन्दू- मुस्लिम वैमनस्य के दर्शन भी नहीं होते। यही वजह है कि संघ का पुनरुत्थानवादी विचारकों और ब्रिटिशपंथी विचारकों के साथ सहज रुप में गहरा संबंध भी है। उनके इस नजरिए का साहित्य और कला रुपों में किस तरह का असर हुआ है इस पर गंभीरता से सोचने की जरुरत है और यह भी विचारणीय है कि साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इसका किस तरह विरोध किया गया।
आधुनिककाल में हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सामने भी यह संकट था कि पुरुत्थानवादी नजरिए से साहित्य का इतिहास लिखा जाय या प्राच्यवादी नजरिए से लिखा जाय? शुक्लजी ने इन दोनों ही दृष्टियों का इतिहास और आलोचना में इस्तेमाल नहीं किया और इतिहासदृष्टि का जो मॉडल चुना वह मानवतावादी -वस्तुवादी है। इस मॉडल की अपनी समस्याएं हैं लेकिन पुनरुत्थानवादी और प्राच्यवादी इतिहास मॉडल से यह भिन्न और ज्यादा उदार मॉडल है। इसमें विकास की अनंत संभावनाएँ हैं, यह लचीला मॉडल है।
'हिन्दी साहित्य का इतिहास ' उदार मानवतावादी दृष्टिकोण
मसलन्, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य के इतिहास को धर्म और अध्यात्मवाद के आधार पर निर्मित नहीं किया,हिन्दी और हिन्दीभाषी क्षेत्र की बोलियों और भाषाओं को संस्कृत की बेटी नहीं माना। संस्कृत साहित्य से अलग करके हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा। पुनरुत्थानवादी और संघ यह मानता है कि संस्कृत तो हिन्दी की जननी है। जबकि शुक्लजी यह नहीं मानते। इसके विपरीत उन्होंने हिन्दी के उदय और विकास को हिन्दीभाषी क्षेत्र की जनता,जनभाषाओं और लोक संस्कृति के साथ जोडकर देखा। उन्होंने प्राच्यवादियों के नजरिए से अलगाते हुए साहित्य का दनक रहस्यवाद या धर्म या अध्यात्मवाद को नहीं माना । जबकि गोलवलकर यह माँग करते हैं कि साहित्य और कलाओं को अध्यात्म और धर्म के आधार पर देखा जाना चाहिए। उल्लेखनीय है शुक्लजी जब इतिहास लिख रहे थे तब आरएसएस का जन्म हो चुका था और विभिन्न क्षेत्रों में धर्म के आधार पर और ख़ासकर हिन्दूधर्म के आधार पर देखने की बातें अनेक बड़े लोग कर रहे थे। इनमें मदनमोहन मालवीय और उनके दूसरे समानधर्मा नेताओं के नाम आते हैं। लेकिन शुक्लजी ने अपने को इनके नज़रिए से मुक्त रखा । शुक्लजी ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' उदार मानवतावादी दृष्टिकोण के आधार निर्मित किया और इतिहास को इतिवृत्तवादियों, प्राच्यविदों और पुनरुत्थानवादियों के नज़रिए से मुक्त होकर लिखा।*( दिलचस्प बात यह है पुनरुत्थानवाद के नज़रिए का बड़े पैमाने पर आर्यसमाज के संस्थापक दयानन्द सरस्वती ने जमकर प्रचार किया। इस नज़रिए के अनेक पहलुओं का माधव सदाशिव गोलवलकर के नज़रिए से मेल बैठता है। यही वजह है कि आर्यसमाज का 1920-21 के बाद से लगातार साम्प्रदायिकता की ओर रुझान बढ़ा है। आज देश में अधिकांश स्थानों पर आर्यसमाज संगठन पर संघ का ही क़ब्ज़ा है।
दयानन्द सरस्वती का मानना था कि भक्ति आंदोलन की कोई भूमिका नहीं है। वहीं पर एम.एस. गोलवलकर ने "वी ओर अवर नेशनहुड डिफाइंड" में लिखा है कि भगवान से बडा भर्त को मानने की मध्यकालीन परंपरा सही नहीं है इससे व्यक्तिवादिता का विकास हुआ और धार्मिक सामूहिकता का क्षय हुआ। )* यानी वे भी प्रकारान्तर से भक्ति आंदोलन के बुनियादी नजरिए का विरोध करते हैं। भक्ति आंदोलन के अधिकांश कवि यह मानते हैं कि धर्म निजी चीज है , सभी धर्म समान हैं, सबका सम्मान करना चाहिए ,धर्म का राजनीति और राजसत्ता से कोई संबंध नहीं है। यही वह बुनियादी नजरिया है जो आधुनिककाल में राजा राममोहन राय के धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण औरआधुनिक भारत की अवधारणा का बुनियादी आधार बनता है। दिलचस्प बात यह है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के नजरिए का भी यही मूलाधार है। वे पुनरुत्थानवादियों और प्राच्यविदों के नजरिए से भिन्न धर्मनिरपेक्ष नजरिए से साहित्य के इतिहास का जो ढांचा प्रस्तावित करते हैं वह तुलनात्मक तौर खुला है और उसमें विवेकवादी दृष्टिकोण के विकास की अनंत संभावनाएं हैं।
साम्प्रदायिक इतिहासदृष्टि का मानना है हिन्दीभाषी क्षेत्र में एक ही प्रमुख भाषा है वह है खडी बोली हिन्दी और यह सैंकडों सालों से बोली जा रहीहै। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस नजरिए को खंडित किया है। उनका मानना है कि आधुनिककाल के पहले खडी बोली हिन्दी का प्रयोग बहुत कम लोग करते थे , ज्यादातर जनता अवधी,भोजपुरी,मैथिली ,ब्रजभाषा आदि आंचलिक बोलियों और भाषाओं का प्रयोग करती थी , मध्यकाल के प्रमुख लेखक गैर-खडी बोली की भाषाओं से आते हैं। उनका लिखा साहित्य ही हिन्दी का मूल साहित्य है। इन बोलियों और भाषाओं की जननी संस्कृत नहीं बल्कि इस इलाके में रहने वाली जनता है। भाषा का निर्माण जनता करती है। इसी प्रक्रिया में विभिन्न भाषाओंके साहित्य की परंपरा और इतिहास को भी देखा जाना चाहिए। इससे यह तथ्य सामने आता है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र एकभाषी न होकर बहुभाषी है।यहां संस्कृति की बहुलतावादी परंपरा रही है। इसमें सभी किस्म की जातियों के लेखकों की बडी भूमिका रही है।अत: हिन्दीभाषी क्षेत्र को एकभाषी क्षेत्र के रुप में देखना सही नहीं होगा। यहां सवर्ण और असवर्ण लेखकों में जाति के आधार पर भेद नहीं था ।अत: वर्णाश्रम व्यवस्था और जातिप्रथा का साहित्य और संस्कृति में कोई मूल्य नहीं है, प्रासंगिकता नहीं है। इसके अलावा शुक्लजी ने साहित्य का इतिहास लिखते समय राष्ट्रवाद को अप्रासंगिक धारणा के रुप में ही देखा। आश्चर्य है कि वे राष्ट्रवादी लेखकों का नामोल्लेख तक नहीं करते। बल्कि वीरगाथा काल के लेखकों की रचनाओं की प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्त करते हुए प्रकारान्तर से राष्ट्रवाद को ही खारिज करते हैं। वे उन लेखकों पर कम लिखते हैं जिनकी रचनाओं में धर्म को आधार बनाया गया या दो धार्मिक दृष्टिकोण और राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से लिखी गयी हैं। वे लेखक का परिचय लिखते समय जाति का उल्लेख जरुर करते हैं लेकिन लेखक को जाति के नजरिए से न देखकर मनुष्य के रुप में देखते हैं, लेखक के रुप में देखते हैं। उन्होंने अपने इतिहास ग्रंथ में धर्म, जाति या वर्ण को साहित्य से जोडकर नहीं देखा अपितु मनुष्य और उसके सामाजिक अन्तर्विरोधों को साहित्य और समाज के अन्तस्संबंध के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा है। इसके अलावा वे 'वर्ग' और ' वर्गसंघर्ष' के आधार पर भी साहित्य को नहीं देखते।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की मूल समस्या है धर्म और अध्यात्मवाद के साथ साहित्य, कला , राजनीति , इतिहास आदि को जोडकर देखना । जबकि यह वह नजरिया है जिसके आधार पर साहित्य और कलाओं को सही ढंग से समझा ही नहीं जा सकता। इससे भी बडी बात यह कि धर्म या नस्ल के आधार पर साहित्य और कलाओं की भूमिका को सही रुप में परिभाषित ही नहीं कर सकते। इसका प्रधान कारण है साहित्य और धर्म की प्रकृति का मूल अंतर । धर्म में मनुष्य को आगे की दिशा में बदलने की क्षमता ही नहीं है, जबकि साहित्य और कलाओं में मनुष्य में सांस्कृतिक तौर पर प्रगतिशील मूल्य पैदा करने की क्षमता है। धर्म में निजी संरचना में सतही परिवर्तन करने की क्षमता है लेकिन मूलगामी परिवर्तन की इच्छाशक्ति नहीं है।
' सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की वैचारिक संरचनात्मक विशेषता है कला और राजनीति के अन्तस्संबंध का अस्वीकार। विचारधारा का निषेध। साहित्य और विचारधारा के संबंध का निषेध।संरचनात्मक तौर पर साहित्य में परिवर्तन का निषेध। शाश्वत साहित्य की धारणा पर जोर। लेकिन साहित्य और कलाएं राजनीति से संबंध काटकर अपना विकास नहीं कर सकतीं। खासकर सामयिक समाज और सामयिक राजनीतिक आंदोलनों से साहित्य का गहरा संबंध है। यही वजह है साहित्य को विभिन्न राजनीतिक आंदोलनों के संदर्भ में विभिन्न किस्म की भूमिकाओं में देख सकते हैं । ये लोग हमेशा 'धर्म के लिए साहित्य', 'धार्मिकता के लिए साहित्य' पर जोर देते हैं। भक्ति साहित्य को साहित्य न मानकर धार्मिक साहित्य के रुप में देखते हैं। उनके लिए रामचरित मानस एक धार्मिक कृति है।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' जातीयता की धारणा का निषेध करता है। भाषावार राज्यों के गठन को गलत मानता है। वैसी अवस्था में जातीयभाषा, जातीय साहित्य, भारतीय साहित्य और विश्व साहित्य की अवधारणाएं एकसिरे से अप्रासंगिक हो जाएंगी।
असंभव विनिमय -
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' असंभव सामाजिक- सांस्कृतिक -राजनीतिक विनिमय है। उनके यहाँ हर चीज संभव से आरंभ होती है लेकिन असंभव और अनिश्चितता में रुपान्तरित हो जाती है। इसके कारण इसमें वर्णित किसी भी विचार या व्यवहार का विनिमय नहीं कर सकते। फलत:इसका तथ्यों , आचार-विचार,परंपरा, संस्कृति , राजनीति आदि के साथ किसी भी किस्म का विनिमय नहीं कर सकते ।साथ ही यथार्थ के साथ भी विनिमय नहीं कर सकते। बल्कि यह कहें तो ज्यादा सही होगा कि 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 'में तो हर चीज अनिश्चित और जड है। इसमें वर्तमान जगत के लिए तो कोई जगह ही नहीं है इसलिए इसकी वैधता की किसी भी रुप में पुष्टि नहीं कर सकते। वह ऐसे यथार्थ को पेश करता है जिसको पुष्ट करना संभव नहीं है। वह ऐसी धारणा है जिस पर बहस नहीं हो सकती , आप इसे मानें या खारिज करें।
' सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 'ऐसी अवधारणा है जिसके बदले में विनिमय करके आप कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। इस तरह की अनेक धारणाएँ प्रचलन में हैं उनका विनिमय करना मुश्किल है। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' की हिमायत में जो लोग बोल रहे हैं उनसे सवाल करें कि जीवन या समाज पर किसका शासन होगा ? धर्म का शासन होगा या विज्ञान का शासन होगा ? इसी तरह कलाओं पर किसका असर होगा धर्म का असर होगा या विज्ञान का असर होगा? यह भी ध्यान रखें कि चंद प्रतीकों और चिह्नों के ज़रिए भी 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 'का विनिमय नहीं कर सकते।
कोई भी सिस्टम अपना विकास तब ही कर पाता है जब वह समानता के आधार पर अपना विनिमय करे और उसके अपने मूल्य हों। इस तरह के सिस्टम के तदर्थ और स्थायी मक़सद भी होते हैं। जिसके कारण उनका तयशुदा विलोम या विरोध भी होता है। जैसे अच्छा -बुरा,सत्य-असत्य ,सब्जेक्ट -ऑब्जेक्ट आदि। लेकिन 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के पास कोई सुचिंतित धारणा या सिस्टम की समझ नहीं है।
' सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' वस्तुत: आधारहीन विभाजक विचारधारा है।इसके पास सामाजिक यथार्थ और अंतर्विरोधों को देखने की क्षमता नहीं है। लेकिन वह यथार्थ को विभ्रम में बदलने की क्षमता जरुर रखता है। यह मूलत: डिसरप्टिव व्यवस्था तोडक विचारधारा है।अराजकता इसकी मूल आत्मा है। इसमें कोई चीज स्थिर नहीं रह सकती। भिन्नता और वैविध्य के साथ इसका वैचारिक अन्तर्विरोध है। मुश्किल यह है कि यह जनता के जिस हिस्से पर टिकी है वह जनता अनालोचनात्मक है।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के तर्क हमेशा यथार्थ के किसी न किसी कोण से शुरु होते हैं , उसके आधार पर यह आभास पैदा करने की कोशिश करता है कि वह वैध अवधारणा है लेकिन वे यह भूल जाते हैं इस अवधारणा के आधार पर विनिमय नहीं हो सकता,आधुनिक समाज नहीं बनाया जा सकता। कोई भी नई चीज या संरचना बना नहीं सकते। क्योंकि इस धारणा का विनिमय मूल्य नहीं है। यह नपुंसक धारणा है। यह धारणा कृत्रिम रुप से बंधक यथार्थ के तहत ही अपनी वैधता का ढोल बजाती है।
' सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के मौजूदा प्रचार अभियान ने बडे पैमाने पर 'अनक्रिटिकल जनता 'तैयार की है। ' क्रिटिकल जनता 'घटी है। ख़ासकर सूचनावर्षा ने सूचना का बेतहाशा कचरा समाज में फेंका है। यही सूचना कचरा बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने इस्तेमाल किया है। सूचना कचरे के रुप के तौर पर जो विषय सामने आए हैं वे हैं -मुस्लिम तुष्टीकरण, भ्रष्टाचार, नैतिक - अनैतिक , सामान्य -असामान्य , छद्म धर्मनिरपेक्षता , हिन्दुत्व, आरक्षण , जाति द्वेष , बीफ या गोमांस आदि । यही वह कचरा है जिसने 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 'का परिवेश निर्मित किया है।फलत: 'सूचना क्रांति 'और 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' में हम गहरा याराना भी देखते हैं, मीडिया के साथ गहरी मित्रता भी देखते हैं।
' सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' ने 'अन्य' या हाशिए के लोगों प्रति शत्रुता या बदले की भावना को नई बुलंदियों तक पहुँचाया है। बहुलतावाद पर हमले किए गए हैं। अकल्पनीय सामाजिक अव्यवस्था और अशांति की नींव रखी है। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की मूल विशेषता है कि इसके पास मित्र कम और अपने निजी शत्रु ज्यादा हैं। इसके आधार पर वे सामाजिक व्यवस्था को ही नहीं बल्कि राजनीतिक व्यवस्था और बायलॉजिकल व्यवस्था को भी प्रभावित कर रहे हैं।
दार्शनिक तौर पर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' आइने में अपनी इमेज का गुलाम है। जिस व्यक्ति की इमेज को वे देखते हैं वे उससे भिन्न इमेज स्वीकार नहीं करते।। वे आइने में हिन्दू देखते हैं या फिर धार्मिक पहचान को देखते हैं और उसी को पीटते हैं। इस क्रम में सद्भाव की इमेज का लोप हो जाता है। वे असल में आइने में हिन्दू इमेज देखते हैं तो उसी को दोहराते हैं। वे यही चाहते हैं कि आइने में जिस तरह के व्यक्ति की इमेज वे देखते हैं तो बाद में उसी इमेज को समाज में देखना चाहते हैं। यही अवस्था उनके सपने या यूटोपिया की है वे आइने में अपना जो सपना देखते हैं वही समाज में दोहराते हैं।
"अन्य " या "अदर " के ख़िलाफ़ जंग -
" अन्य "को बड़े कौशल के साथ हमने सार्वजनिक विमर्श से ग़ायब किया है। अन्य या हाशिए के सवाल कहने को चर्चा में हैं लेकिन अर्थहीन और निष्प्रभावी होकर रह हए हैं। हमने आरक्षण , दलित साहित्य , स्त्री साहित्य आदि के बहाने हाशिए के लोगों के जीवन के सारवान रुप को ग़ायब ही कर दिया है। अब हाशिए के लोग हैं उनके सवाल भी हैं लेकिन सब सारहीन हैं। हाशिए के आदमी का विध्वंस कैसे हुआ ? वह ग़ायब कैसे हुआ ?यह कोई नहीं जानता। आज स्थिति यह है कि दलित अरबपति हैं, करोड़पति हैं, लेकिन परिदृश्य से दलित ग़ायब है कहीं पर कोई विॹुअल तक नज़र नहीं आता। चारों ओर औरतें ही औरतें हैं लेकिन उनके सवाल ग़ायब हैं, औरत की यथार्थ अनुभूति ग़ायब है। अब दलित, औरत, मुसलमान, आदिवासी लाक्षणिक रुप से ही बचे रह गए हैं। वास्तव रुप में हम उनको कहीं पर नहीं देख रहे। यथार्थ में उनका चारों ओर संकुचन हुआ है।
19वीं शताब्दी में हम जब आधुनिकता के दौर में दाख़िल हुए थे तो उस समय "अन्य" यानी स्त्री -दलित के सवालों पर व्यापक चर्चा हुई, आधुनिक स्त्री निर्मित की गयी, आधुनिक दलित निर्मित किया गया। उस समय "अन्य" की हत्या करने का लक्ष्य नहीं था। बल्कि 'अन्य' को उद्घाटित करने का लक्ष्य था। उस समय यही कहा गया कि "अन्य "को पहले प्रस्तुत करो, बाद में उससे प्यार या घृणा करो।
यह भी देखा गया कि व्यक्तिगत मूल्यों और व्यक्तिवादिता का जितना प्रचार-प्रसार हुआ "अन्य" ग़ायब होता चला गया।व्यक्तिवादिता के विकास के फलस्वरूप अन्य का लोप हो सकता है यह हमने कभी सोचा ही नहीं। फलत:आधुनिककाल में "अन्य" का स्पेस सीमित होता चला गया। अब "अन्य" है लेकिन भगवान भरोसे है! "अन्य" है लेकिन भिन्नता और विशिष्टता के साथ। क्रमश: "अन्य" अमूर्त और वायवीय होता चला गया। अब 'अन्य' को 'भिन्नता' के रुप में विश्लेषित करने की परंपरा चल निकली जिससे वह क्रमश: वायवीय बना है। खासकर 1975-76 के बाद से स्त्री और दलित के बारे में जितना साहित्य लिखा गया है वह 'भिन्नता 'के पैराडाइम के आधार पर लिखा गया है।इससे स्त्री और दलित की सामाजिक इमेज और अवस्था क्षतिग्रस्त हुई है।
"भिन्नता" ने औरत , दलित और मुसलमान की नई इमेज की सृष्टि की है। यह इमेज सतह पर गतिशील है लेकिन सामाजिक मर्म के स्तर पर यह मध्यवर्गीय परजीवी की इमेज से मिलती जुलती है। मसलन्, १९वीं सदी में मर्दों में स्त्री को लेकर एक ख़ास क़िस्म का प्रचंड आवेग नज़र आता है। जिसे रैनेसां के नाम से जाना जाता है। वे परंपरागत औरत की जगह नए क़िस्म की आधुनिक औरत चाहते हैं, ऐसी औरत चाहते हैं जिसकी साज-श्रृंगार में पश्चिमी स्त्री से तुलना की जा सके। इसका शरीर कैसा होगा, सौंदर्य कैसा होगा , वह किस तरह सजेगी , किस तरह चलेगी और किस तरह रहेगी , यह सब पश्चिम से प्रेरणा लेकर मर्दों ने तय किया। इसके गर्भ से ही आधुनिक आदर्श स्त्री इमेज का जन्म हुआ । अब वह स्त्री केन्द्र में नहीं थी जिसे दरबारी सभ्यता या श्रृंगार साहित्य या रीतिकालीन कवियों ने रचा था । श्रृंगारी स्त्री अपने शारीरिक सौंदर्य के आधार पर ही मर्दों को सम्मोहित करती थी लेकिन नई आधुनिक औरत का गठन कुछ इस तरह किया गया जिससे वह अपने यथार्थ को हासिल कर सके। इसमें उसके आदर्शशरीर और यथार्थशरीर का विलक्षण सम्मिश्रण था। अब स्त्री - पुरुष का भेद कहने को तो था लेकिन असल में वे एक दूसरे के आईने में देख रहे थे। वे भिन्न थे लेकिन आईने के रुप में।
आधुनिक काल के आने के साथ यह कहा गया कि रीतिकाल और श्रृंगार रस की विदाई हो गयी है, लेकिन २०वीं सदी के तीसरे दशक के बाद से नए सिरे रीतिकाल लौट आया। लेकिन इसबार वह नए रुप में लौटा। मसलन् पहले रीतिकालीन नायिका - नायकभेद (अन्य) का संबंध दरबारी (विलक्षण) लोगों तक सीमित था वे ही उसके भोक्ता थे,यह संबंध ' विलक्षण 'और 'अन्य ' के बीच के संबंध के रुप में जाना जाता है।
लेकिन आधुनिकता के साथ नए नायक -नायिका का जो रुप सामने आया उसमें 'विलक्षण 'और 'अन्य' के संबंध की बजाय दोनों में 'समानता 'और 'एक जैसी पसंद 'पर ज़ोर है। रीतिकाल में स्त्री 'सुपरफ्लुअस ' थी लेकिन आधुनिककाल में वह पुरुष की पूरक है । फलत: औरत वास्तव अर्थ में ग़ायब हो गयी। कायिकतौर पर वह मौजूद थी लेकिन कला और साहित्य के क्षेत्र से वह ग़ायब हो गयी, आप साहित्य को उठाकर देखें कि हिन्दी में आधुनिककाल में स्त्री, अल्पसंख्यक और आदिवासी कब मुख्यधारा के केन्द्र में आते हैं। भारतेन्दु काल से लेकर आपातकाल के समापन तक औरत, दलित और मुसलमान ग़ायब हैं। इनके सवाल ग़ायब हैं। इस क्रम में पहले औरत 'श्रमशक्ति रिपोर्ट 'के ज़रिए केन्द्र में आती है , फिर मंडल कमीशन रिपोर्ट के ज़रिए अन्य पिछड़े लोग केन्द्र में आते हैं और उसके बाद सच्चर कमीशन की रिपोर्ट के ज़रिए मुसलमान सामने आते हैं। जबकि संविधान में इन तीनों के बारे में तमाम क़िस्म की पवित्र घोषणाएँ की गयी थीं लेकिन वे सभी घोषणाएँ खोखला साबित हुईं, इस बीच में बड़े पैमाने पर औरत, दलित और मुस्लिम मध्यवर्ग का उदय होता है। इससे इन समूहों में विशेष क़िस्म की सक्रियता नज़र आती है।
यही स्थिति पुरुष की भी है। पुरुष की जो इमेज आधुनिककाल के पहले थी वही इमेज आधुनिककाल आने के बाद नहीं रही। स्त्री की बदलती इमेज की संगति में पुरुष की इमेज का भी तेज़ी से रूपान्तरण हुआ है। जिस तरह रीयल औरत ग़ायब हुई है वैसे ही रीयल पुरुष भी ग़ायब हुआ है। अब मर्द सिर्फ़ एक इमेज मात्र बनकर रह गया है। यह ऐसी इमेज है जिसका सिर्फ़ अनुमान कर सकते हैं, ठीक -ठीक कहना संभव ही नहीं है कि आख़िरकार पुरुष कैसा होता है ! अब सलमान -शाहरुख़-आमिर का जो आख्यान है वह मात्र कायिक आख्यान है। यही हाल स्त्री के आख्यान का है। वहाँ पर शरीर चर्चा , रुपचर्चा महत्वपूर्ण होकर रह गयी है। इस तरह के रुपों की अंतहीन कहानियाँ हमारे बीच प्रचलन में हैं, प्रसारित होती रहती हैं। दोनों के रुप, शरीर, सौंदर्य प्रसाधन आदि को लेकर ही चर्चाएँ होती रही हैं। इसने शरीर का राजनीतिक अर्थशास्त्र पैदा किया है। इसका साइड इफ़ेक्ट यह हुआ है कि लिंग के सवाल और समस्याएँ साहित्य और मीडिया के बाहर चले गए हैं।
अब हम प्रतिकृतियों के युग में आ गए हैं। प्रतिकृतियों के रुपों पर इंकार बहस कर रहे हैं। इस क्रम में लिंगभेद और जातिभेद के सवालों को हमने आरक्षण के ज़रिए अपदस्थ कर दिया है। अव जब भी बहस होती है आरक्षण पर होती है लिंगभेद या जातिप्रथा पर बहस नहीं होती। तात्कालिक समाधानों पर बहस होती है दीर्घकालिक समाधानों पर बहस नहीं होती। इस तरह की बहसों से सामाजिकचेतना निर्मित नहीं होती, वायवीय सचेतनता पैदा होती है जो अंतत अचेत रखती है। मसलन् , स्त्री ,मुसलमान और दलित के पक्षधर अधिकांश लेखक अंतत: वही बने रहते हैं जो वे हैं। वे यथास्थिति बनाए रखते हैं। यही वजह है कि बडे पैमाने पर स्त्री और दलित साहित्य प्रकाशित हुआ है लेकिन सामाजिक स्थिति में मूलगामी बदलाव नहीं हुआ है। यह ऐसा साहित्य है जो स्त्री - दलित चेतना तो देता है लेकिन मनुष्य का समग्र भावाबोध पैदा नहीं करता। इस अर्थ में यह अनुत्पादक साहित्य है। अब स्त्री - पुरुष के शरीर को लिंग ( जेण्डर) ने अपदस्थ कर दिया है। इसे कामुक भूमिका के प्रगतिशील रुप के तौर पर व्याख्यायित किया जा रहा है। यह असल में लिंगक्षय है। यह लिंग के सवालों का अंत है। यह स्त्री -पुरुष की समानता का अंत है। इन दोनों के भेद अब अ-भेद में रुपान्तरित हो गए हैं। अब दोनों ही लिंग या हाशिए के लोग आत्म- प्रसिद्धि में लगे हैं , इसने लिंगभेद या सामाजिक भेद के रुपों को अप्रासंगिक बना दिया है। अब लोग कह रहे हैं लिंगभेद, जातिभेद , धर्मभेद को भूल जाओ और सिर्फ़ विकास की बात करो। विकास होगा तो सभी क़िस्म के भेद ख़त्म हो जाएँगे। यह असल में स्त्री,पुरुष,दलित,मुसलमान आदि को वायवीय बना देने का मार्ग है जिस पर हम सब आरक्षण , विशिष्ट साहित्य रुप और भिन्न यथार्थ के नाम पर चल निकले हैं।
स्त्री- पुरुष दोनों एक दूसरे की आँखों में आँखें डालकर देख रहे हैं। यह सामान्य भाव है। इसके ज़रिए हमारे सामयिक नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य अभिव्यक्त हो रहे हैं। हम सच्ची आँखों से छद्म को देख रहे हैं, सुंदर आँखों से गंदी या घटिया चीज को देख रहे हैं,सुंदर आँखों से शैतान या गुंडे को देख रहे हैं। यह वाइस वर्सा भी हो सकता है। वे एक दूसरे को देख रहे हैं। इस प्रक्रिया में 'अन्य'भिन्न किस्म से चीज़ें ग्रहण कर रहा है। दोनों के साथ भेदभाव हो रहा है और दोनों ही 'शॉर्टकट 'मार रहे हैं। वे संचार जहाज़ की तरह कम्युनिकेट कर रहे हैं। यह संचार का वह रुप है जो हम फेसबुक, चैटिंग, एसएमएस आदि के रुप में नज़र आता है। यह वह कम्युनिकेशन है जिसने लिंगभेद और जातिभेद के सवालों पर बहस का अंत कर दिया है। अंतर्क्रिया और विनिमय की संभावनाएँ नष्ट कर दी हैं। यही वह बृहत्तर प्रक्रिया है जो हमें अनक्रिटिकल जनता बना रही है और हमें 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का सहज निशाना भी बना रही है।
( वर्द्धमान विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दी साहित्य"विषय पर २९सितम्बर २०१५ को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में दिया गया वक्तव्य)
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