Wednesday, February 2, 2011

रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना (पुनर्प्रकाशन- अंतिम किश्त )

प्रस्तुत  आलेख मूल रूप से आगरा से प्रकाशित साप्ताहिक सप्तदिवा क़े २७ अक्तूबर १९८२ एवं ३ नवम्बर १९८२ क़े अंकों में दो किश्तों में पूर्व में ही प्रकाशित हो चुका है  तथा इस ब्लॉग पर भी पहले प्रकाशित किया जा चुका है.पूर्व में प्रकाशित इस आलेख की अशुद्धियों को यथासम्भव सुधारते हुए तथा पाठकों की सुविधा क़े लिये यहाँ ४ किश्तों में पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है.

प्रस्तुत है अंतिम  किश्त (प्रथम किश्त देखने  क़े लिये यहाँ क्लिक करें व दूसरी किश्त यहाँ क्लिक करके  देख सकते हैं एवं ३ सरी किश्त यहाँ देख सकते हैं )

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जब राम लक्ष्मण के साथ मारीच का वध कर के लौटे तो सीता को न पाकर और संवाददाता से पूर्ण समाचार पाकर राम ने अपने को भावी लक्ष्य की पूर्ती में सफल समझा.अब उन्हें उपनिवेशाकांक्षी रावण  के साम्राज्यवादी समझबूझ के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का मार्ग तो मिल गया था,किन्तु जब तक बाली- रावण friendly aliance था लंका पर आक्रमण करना एक बड़ी मूर्खता थी,यद्यपि  अयोध्या में शत्रुहन के नेतृत्व  में समस्त आर्यावर्त की सेना उन की सहायता के लिए तैयार खडी  थी.अतः बाली का पतन करना अवश्यम्भावी था.उसका अनुज सुग्रीव राज्याधिकार हस्तगत करने को लालायित था.इसलिए उसने सत्ता प्राप्त करने के पश्चात् रावण  वध में सहायता करने का वचन दिया.राम ने सुग्रीव का पक्ष ले कर बाली को द्वन्द युद्ध में मार डाला क्योंकि यदि राम (अवध से सेना बुलाकर उसके राज्य पर)प्रत्यक्ष आक्रमण करते तो बाली का बल दो-गुना हो जाता.(बाली रावण friendly allaince के अनुसार केवल बाली ही नहीं,बल्कि रावण की सेना से भी भारत भू पर ही युद्ध करना पड़ता) जो किसी भी हालत में भारत के हित में न था.यह आर्यावर्त की सुरक्षा के लिए संहारक  सिद्ध होता.राम को तो साम्राज्यवादियों के घर में ही उन को नष्ट करना था.उनका उद्देश्य लंका को आर्यावर्त में मिलाना नहीं था.अपितु भारतीय राष्ट्रीयता को एकता के सूत्र में आबद्ध करने के पश्चात् राम का अभीष्ट लंका में ही लंका वालों का ऐसा मंत्रिमंडल बनाना था जो आर्यावर्त के साथ सहयोग कर सके.विभीषण तो रावण  का प्रतिद्वंदी था ही,अतः राम ने उसे अपनी ओर तोड़ेने के लिए एयर मार्शल (पवन-सूत) हनुमान को अपना दूत बनाकर गुप्त रूप से लंका भेजा.उन्हें यह निर्देश था की यदि समझौता हो जाता है तो वह रावण के सामने अपने को अवश्य प्रकट कर दें .किन्तु हनुमान की Diplomacy यह है की उन्होंने रावण दरबार में बंदी के रूप में उपस्थित होने पर स्वयं को राम का शांती दूत बताया.इसी आधार पर विभीषण ने (जो सत्ता पिपासु हो कर भाई के प्रति विश्वासघात कर रहा था) अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक नियमों की आड़ में हनुमान को मुक्त करा दिया.परन्तु रावण के निर्देशानुसार लंका की वायु सेना ने लौट ते हुए हनुमान के यान की पूँछ पर प्रहार किया.कुशलता पूर्वक अत्मरक्षित हो कर हनुमान ने लंका में अग्नि बमों (नेपाम बमों) की वर्षा कर सेना का विध्वंस किया जिससे लंका का वैभव नष्ट हो गया तथा सैन्य शक्ति जर्जर हो गयी.रावण  ने संसद ( दरबार) में विभीषण पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर मंत्रिमंडल से निष्कासित कर दिया।

लंका को जर्जर और खोखला बनाकर राम ने जब आक्रमण किया तो इसकी घोषणा सुनते ही मौके पर विभीषण अपने समर्थकों सहित राम की शरण में चला आया.राम ने उसी समय उसे रावण का उत्तराधिकारी घोषित किया और राज्याभिषेक भी कर दिया.इस प्रकार पारस्परिक द्वेष के कारण  वैभवशाली एवं सम्रद्ध लंका साम्राज्य का पतन और रावण का अंत हुआ.लंका में विभीषण की सरकार स्थापित हुई जिसने आर्यावर्त की अधीनता तथा राम को कर देना विवशता पूर्वक स्वीकार किया.लंका को आर्यावर्त के अधीन करदाता राज्य बनाकर राम ने किसी साम्राज्य की स्थापना नहीं की बल्कि उन्होंने राष्ट्रवाद की स्थापना कर आर्यावर्त में अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता की सुद्र्ण  नींव डाली.


सीता लंका से मुक्त हो कर स्वदेश लौटीं.इस प्रकार रावण वध का एकमात्र कारण  सीता हरण नहीं कहा जा सकता,बल्कि 'रावण  वध’भारतीय ऋषियों द्वारा नियोजित एवं पूर्व निर्धारित योजना थी;उसका सञ्चालन राष्ट्र के योग्य,कर्मठ एवं राजनीती निपुण कर्णधारों के हाथ में था जिसकी बागडोर कौशल-नरेश राम ने संभाली.राम के असीम त्याग,राष्ट्र-भक्ति और उच्चादर्शों के कारन ही आज हम उनका गुण गान करते हैं-मानो ईश्वर  इस देश की रक्षा के लिए स्वयं ही अवतरित हुए थे।

(समाप्त)
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 एक निवेदन-"रावण वध एक पूर्व-निर्धारित योजना" तथा शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा  "सीता का विद्रोह" दोनों लेख मेरी कपोल-कल्पना नहीं हैं.मूल रूप से संत श्याम जी पराशर क़े १९६७ -१९६८ में सुने हुये प्रवचनों (जैसाकि 'विद्रोही स्व स्वर' में जिसके सम्बन्ध में आज क़े 'हिंदुस्तान' में रवीश कुमार जी द्वारा ज़िक्र किया गया है में पहले ही  वर्णन किया है कि नानाजी तथा उनके भतीजे क़े साथ जाते थे) तथा उन्ही की लिखित पुस्तक -'रामायण का ऐतिहासिक महत्त्व' का अध्ययन एवं १९७० -७१ में  बी. ए.में पढी डा. रघुवीर शरण मित्र की पुस्तक 'भूमिजा' से अर्जित ज्ञान का सार्वजानिक हित में सहयोग है.

आज कुछ लोगों को यह प्रयास हास्यास्पद इसलिए लग सकता है क्योंकि आम धारणा है कि हमारा देश जाहिलों का देश था और हमें विज्ञान से विदेशियों ने परिचित कराया है.जबकि यह कोरा भ्रम ही है.वस्तुतः हमारा प्राचीन विज्ञान जितना  आगे था उसके किसी भी कोने तक आधुनिक विज्ञान पहुंचा ही नहीं है.हमारे पोंगा-पंथियों की मेहरबानी से हमारा समस्त विज्ञान विदेशी अपहृत कर ले गये और हम उनके परमुखापेक्षी बन गये ,इसीलिये मेरा उद्देश्य "अपने सुप्त ज्ञान को जनता जाग्रत करे" ऐसे आलेख प्रस्तुत करना है.मैं प्रयास ही कर सकता हूँ ,किसी को भी मानने या स्वीकार करने क़े लिये बाध्य नहीं कर सकता न ही कोई विवाद खड़ा करना चाहता हूँ .हाँ देश-हित और जन-कल्याण की भावना में ऐसे प्रयास जारी ज़रूर रखूंगा. 
मैं देश-भक्त जनता से यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि,हमारी परम्परा में देश-हित,राष्ट्र-हित सर्वोपरी रहे हैं "राष्ट्रवादी कैकेयी" तथा "सीता की कूट नीति का कमाल"  में भी आप आगे पढेंगे,उपरोक्त लेखों में भी आपने देखा ही है.तो क्यों न आज अपने देश-राष्ट्र हित में साम्राज्यवादियों व उनके प्रष्ट पोषकों का हम सब मिल कर सामाजिक ,आर्थिक बहिष्कार करते जैसा कि गांधीजी क़े आव्हान पर स्वतंत्रता आन्दोलन क़े दौरान किया था?

 मेरे निष्कर्षों एवं दृष्टिकोण का लोगों द्वारा मखौल बनाने पर मैंने अपने माता-पिता से कहा था--एक दिन लोग इन पर डाक्टरेट हासिल करेंगें.मेरी छोटी बहन श्रीमती शोभा माथुर(पत्नी श्री कमलेश बिहारी माथुर,अवकाश-प्राप्त फोरमैन,बी.एच.ई.एल.,झाँसी) ने अपनी संस्कृत क़े राम विषयक नाटक की थीसिस में मेरे 'रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना 'को उधृत किया है.इस प्रकार माता-पिता क़े  जीवन काल में ही मेरे लेखों को आगरा विश्वविद्यालय से  डाक्टरेट हासिल करने में बहन ने प्रयोग कर लिया और मेरा अनुमान सही निकला.

सत्य,सत्य होता है और इसे अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता.एक न एक दिन लोगों को सत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा तथा ढोंग एवं पाखण्ड का भांडा फूटेगा ही फूटेगा.राम और कृष्ण को पूजनीय बना कर उनके अनुकरणीय आचरण से बचने का जो स्वांग ढोंगियों तथा पाखंडियों ने रच रखा है उस पर प्रहार करने का यह मेरा छोटा सा प्रयास था.








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(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

7 comments:

Learn By Watch said...

आपने अच्छा लिखा है,

नजर नजर का फेर है, जिस नजर से किसी घटना को देखेंगे वो वैसी ही दिखाई देगी

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

गुरुदेव! आप यह न सोचें कि कौन क्या सोचता है.. दुनिया में सिर्फ संकुचित सोच वाले लोग ही नहीं, वृहत् विचार वाले लोग भी हैं.. आपकी व्याख्या सर्वथा अकाट्य है!! आभार!!

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

bilkul naye dhang se vyakhya ki hai aapne
wah bhi tarkon aur pramano ke saath...
prashasniy..

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

आपका विवेचन पढकर अभिभूत हूं।

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ध्‍यान का विज्ञान।
मधुबाला के सौन्‍दर्य को निरखने का अवसर।

महेन्‍द्र वर्मा said...

वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हुए रावण वध की व्याख्या प्रशंसनीय है।
आपसे आग्रह है कि अन्य पौराणिक कथाओं की भी इसी तरह व्याख्या प्रस्तुत करें।

vijai Rajbali Mathur said...

महेंद्र जी,
धन्यवाद आपके सुझाव के लिए निश्चय ही मैं उस पर अमल करूँगा.

ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

आद. विजय जी,
मैंने इस लेख के पहले दो भाग भी पढ़े हैं ! जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ आप कथा की विवेचना करते हैं उससे हर शंका का समाधान होता जाता है
और इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि भारत ने दुनियाँ को विज्ञान दिया ! भारत को विश्व गुरु का दर्ज़ा यूँ ही तो नहीं मिला था !