Friday, February 25, 2011

इन्सान आज केन्ने जा रहल बा


श्रीमती पूनम माथुर

मार भईय्या जब रेल से घरे आवत रहलन तब ट्रेन में उनकर साथी लोगन कहलन कि हमनी के त बहुत तरक्की कर ले ले बानी सन.आज हमनी के देश त आजादी के बाद बहुत प्रगतिशील हो गइल बा.पहिले के जमाना में त घोडा गाडी ,बैल गाडी में लोग सफर करत रहलन लेकिन अब त पूरा महीना दिन में समूचा देश विदेश घूम के लोग घरे लौटी आवेला   .आजकल त This,That,Hi,Hello के जमाना बा. कोई पूछे ला कि how are you ?त जवाब मिले ला fine sir /madam कह दिहल जाला .कपड़ा ,लत्ता ,घर द्वार गाडी-घोडा फैशन हर जगह लोगन में त हमही हम सवार बा. आज त तरक्की के भर-मार बा.पर अपना पन से दूर-दराज बा.कोई कहे ला हमार फलनवा नेता बाडन त कोई कहे ला अधिकारी बाडन कोई प्राब्लम बा त हमरा से कहअ तुरन्ते सालव हो जाईल तनी चाय पानी के खर्चा लागी.बाकी त हमार फलनवा बडले बाडन निश्चिन्त रहअ  .खुश रहअ ,मस्त  रहअ  मंत्री,नेता अधिकारी बस जौन कहअ सब हमरे हाथे में बाडन .बात के सिलसिला अउर आगे बढित तब तक स्टेशन आ गईल .सब के गंतव्य आ गईल .अब के बतीआवेला सबे भागम्भागी में घरे जाय के तैयारी करत रहे अब बिहान मिलब सन .भाईबा त बात आगे बढ़ी आउर बतिआवल जाई सब कोई आपन आपन रास्ता नाप ले ले.रात हो गईल रहे सवारी मिले में  दिक्कत रहे हमार भइया धीरे धीरे पैदल घरे के ओरे बढ़त रहलन त देखलन  कि आर ब्लाक पर एगो गठरी-मोटरी बुझाई.औरु आगे बढ़लन त देखलन कि एगो आदमी गारबेज  के  पास बईठलबा थोडा औरु आगे उत्सुकता वश बढले त देखले कि ऊ आदमी त कूड़ा में से खाना बीन के खाता बेचारा भूख के मारल .अब त हमार भयीआ के आंखि में से लोर चुए लागल भारी मन से धीरे धीरे घरे पहुचलन दरवाजा हमार भौजी खोलली घर में चुपचाप बइठ गइला थोड़े देरे के बाद हाथ मुंह धो कर के कहलन की" आज खाना खाने का जी नही कर रहा है. आफिस में नास्ता ज्यादा हो गया है ,तुम खाना खा लो कल वही नास्ता कर लेंगे.भाभी ने पूछा बासी ,हाँ तो क्या हुआ कितनों को तो ऐसा खाना भी नसीब नहीं होता.हम तो सोने जा रहे हैं बहुत नींद आ रही है."
परन्तु बात त भुलाव्ते ना रहे कि आज तरक्की परस्त देश में भी लोगन के झूठन खाये के पड़ता आज हमार देश केतना तरक्की कइले बा .फिर एक सवाल अपने आप   में जेहन में उठे लागल कि भ्रष्टाचार ,बलात्कार,कालाबाजारी,अन्याय-अत्याचार ,चोरी-चकारी में इन्सान के 'मैं वाद' में पनप रहल बा .ई देश के नागरिक केतना आगे बढलबा अपने पूर्वज लोगन से?
भोरे-भोरे जब बच्चा लोगन उठल   अउर नास्ता के टेबुल पर बइठल  त कहे लागल "ये नहीं खायंगे वो नहीं खायेंगे"त ब हमार भइया रात के अंखियन देखल विरतांत कहलन  त लड़कन बच्चन सब के दिमाग में बात ऐसन बइठ गईल अउर सब सुबके लगलन सन .जे खाना मिले ओकरा प्रेम से खाई के चाही न नुकर ना करे के चाही .प्रेम से खाना निमको रोटी में भी अमृत बन जा ला.अब त लडकन सब के ऐसन आदत पडी गईल बा .चुप-चाप खा लेवेला अगर बच्चन सब के ऐसन आदत पड़जाई त वक्त-बे वक्त हर परिस्थिति के आज के नौजवान पीढी सामना कर सकेला .जरूरत बाटे आज सब के आँख खोले के मन के अमीर सब से बड़ा अमीर होला.तब ही देश तरक्की करी.इ पैसा -कौड़ी सब इहे रह जाई
एगो गीत बाटे -"कहाँ जा रहा है तू जाने वाले ,अपने अन्दर मन का दिया तो जला ले."
आज के इ  तरक्की के नया दौर में हमनी के संकल्प लिहीं कि पहिले हमनी के इन्सान बनब.-वैष्णव जन तो तेने कहिये .................................................................के चरितार्थ करब ..................................................................





जय भारत !!


Hindustan-lucknow27/02/2011



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14 comments:

रंजना said...

बहुत सही कहा आपने...प्रेरणादायक आलेख के लिए आपका आभार...

आज तरक्की का माप तौल आँख से किया जाने लगा है....आँख से भौतिक तरक्की भर का आकलन किया जा सकता है...यदि हम एक अच्छे मनुष्य न हुए तो वस्तुओं की भीड़ बढाकर भी क्या हासिल होगा....

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सचमुच मौजूदा दौर में तरक्की के मायने भौतिक संसाधन जुटाने भर से लिए जाने लगा है..... मनुष्यता का मान कहीं खो रहा है..... तरक्की के मापदंड ऐसे ही हो चले हैं....सुंदर लेख

krati bajpai said...

vakt ke sath har cheez ko ankane ke paipane badal jate hain, shayad isiliye ye kalyug hai, kyunki yahan par to ab insaniyat ko ankane ka paimana bhi badal gaya hai. lekin kahin na kahin aaj bhi neev mai koi tabdili nahi hui hai, shayad isi liye aaj bhi aapke aur mere jese log zinda hain.
nisandeh hi ye ek umda prastuti hai.

वीना श्रीवास्तव said...

बहुत ही अच्छा आलेख और सच भी है...मुझे पढ़ने में बड़ा मजा आया बोलनी नहीं आती पर अच्छी लगती है...और आपने जो हकीकत बयां की है उसे पढ़कर और जानकर भी दुख जरूर होता है...मगर यही बदलाव आज की आधुनिकता है...

वीना श्रीवास्तव said...

बहुत ही अच्छा आलेख और सच भी है...मुझे पढ़ने में बड़ा मजा आया बोलनी नहीं आती पर अच्छी लगती है...और आपने जो हकीकत बयां की है उसे पढ़कर और जानकर भी दुख जरूर होता है...मगर यही बदलाव आज की आधुनिकता है...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

"ई देश के नागरिक केतना आगे बढलबा अपने पूर्वज लोगन से?"
सही कहा आपने, ये काफी प्रगति कर गए !

Er. सत्यम शिवम said...

आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (26.02.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.uchcharan.com/
चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

चरन स्पर्स के बाद कहs तानि कि राऊर एकएक बतिया साँच बाटे... हमनी के बच्चे से ईहे ट्रेनिंग मिलल बा!! जऊन खाए के भेटाता ऊ भगवान के परसाद समझ के खाए के चाहिं.. अऊर एगो बतिया बुझाता कि रऊआ लिखल भुला गईनीं.. खाना ओतने लेवे के चाहिं जेतना खाएल जाओ.. जुट्ठा छोड़ल ठीक नईखे! जुट्ठा छोड़के हमनीं जेतना खाना बरबाद करेनीं, ओतनो खाना केहु के नसीब नईखे..

vijai Rajbali Mathur said...

सलिल भईया के ढेरे सा आसीस.
ई बतिया हमरा से लिखे बेरी छूट गईर रहे.ध्यान दिलावे खातिर धन्यवाद.

-पूनम

मनोज कुमार said...

चरन स्पर्स। बहुते सही कहले बानी।
ई त एक दमे सही बात बा कि खाना बिलकुले बरबान ना करे के चाही।
लेख के आखिर में जे बात कहनी ह “आज के इ तरक्की के नया दौर में हमनी के संकल्प लिहीं कि पहिले हमनी के इन्सान बनब” से सौ फीसदी सही बा। हम तो रोजे भगबान के आगे गुहराबे ली
बस मौला ज्‍यादा नहीं, कर इतनी औकात,
सर उँचा कर कह सकूं, मैं मानुष की जात

vijai Rajbali Mathur said...

मनोज भइया के बहुते आसीस
मनुष्य बने खातिर जे कविता रऊरा लिखले बानी उ त हर इंसान के समझे बूझे के चाहीं ई बतिया त हमनी के आगे आवे वाला बाल-बच्चन ,पीढी दर पीढी के बतावे के चाहीं. तभी त दुनिया बदली.
---पूनम

Dr (Miss) Sharad Singh said...

आज के इ तरक्की के नया दौर में हमनी के संकल्प लिहीं कि पहिले हमनी के इन्सान बनब.....

सटीक बात...सुंदर विचार। गहन चिन्तन के लिए बधाई।

Dr Varsha Singh said...

सकारात्मक , अच्छी प्रस्तुति।

महेन्‍द्र वर्मा said...

सार्थक और सामयिक आलेख।

आज आवश्यकता है अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखने की।