अपने 'विद्रोही स्व-स्वर में' तो पहले ही स्पष्ट कर चूका हूँ कि,मैंने ब्लॉग लेखन सर्वजन-हिताय और स्वान्तः सुखाय प्रारम्भ किया था.'कलम और कुदाल' पर स्पष्ट रूप से अंकित है कि ,पहले 'क्रान्ति स्वर'और 'विद्रोही स्वर'दो अखबार निकालने का विचार था जो धनाभाव आदि कारणों से संभव न हो सका ,अब उन्हीं नामों से ब्लाग -लेखन चल रहा है.१९७३ ई. से मेरठ सर्विस के दौरान से मैं अखबारों में लिखने लगा था.उन सब अखबारों और विभिन्न मेग्जींस में छपे मेरे लेख-विचार आदि तथा जो मेरी पसंद के दुसरे लेख हैं उनकी स्कैन कापियां 'कलम और कुदाल'में निकलवाता जा रहा हूँ.'विद्रोही स्व-स्वर में'निजी संघर्षों का वर्णन है .'क्रांति स्वर'में पूर्व प्रकाशित एवं आज की परिस्थितियों में हुआ नया लेखन दोनों ही देता जा रहा हूँ.बात बहुत साफ़ है 'सर्वजन हिताय'का मतलब अपने खुद के अलावा दुसरे अन्य अनेकों लोगों से है (शत-प्रतिशत तो हो ही नहीं सकता).मैंने अपने प्रोफाईल (Interests) में भी स्पष्ट घोषणा की हुयी है कि मेरा लेखन-राजनीति,धर्म,अध्यात्म और ज्योतिष के क्षेत्र में है. चारों क्षेत्रों में विवाद हो सकता है परन्तु यह भी सत्य है कि सत्य केवल एक ही होता है,अनेक नहीं.कुछ लोग अपने संकीर्ण एवं क्षुद्र स्वार्थों के कारण ढोंग एवं पाखण्ड को पोसते और बढ़ावा देते हैं जबकि मैं ढोंग और पाखण्ड से बचने के लिए लोगों को आगाह करता हूँ.ऐसे में स्वभाविक है कि प्रतिगामी लोगों को मेरा लेखन अखरता है और वे यत्र-तत्र-सर्वत्र मेरे विरुद्ध अनर्गल आग उगलते रहते हैं. यदि उनका माकूल जवाब न दिया जाए तो मेरे मूल लेखन का उद्देश्य ही नष्ट हो जाए.
रेलवे की सरकारी नौकरी में रहते हुए और संविधान विरोधी घोषणा का डंका बजाते हुए एक साम्राज्यवादी-पृष्ठपोषक ने मेरे ब्लाग के आलावा अन्य दो और ब्लॉगों पर मेरे विरुद्ध निकृष्ट टिप्पणियाँ कीं और मैंने उनका स्पष्टीकरण अपने ब्लाग पर किया तो उस अमीर आतंकवादी के पक्ष में मुझे चुप रहने की सलाह दी गयी. मैंने चाहे असहमत हूँ या सहमत कभी भी अभद्र और अनर्गल टिप्पणी कहीं नहीं की है जबकि रेल मंत्री से शह प्राप्त वह सर्जन प्रधान मंत्री, पुलिस,इंटेलीजेंस सब की बखिया उधेड़ता रहता है ;लेकिन न तो उसका विभागीय विजिलेंस, न ही इंटेलीजेंस न एस्टेब्लिश्मेंट विभाग उसके विरुद्ध कोई कारवाई करने की हिम्मत जुटा पाता है न ही कोई विद्व-ब्लॉगर ,बल्कि मेरा मुंह और बंद रखने की सीख मिल गयी.
मैंने स्पष्ट घोषणा कर रखी है कि यह ब्लाग सहमती और असहमति पर निर्भर नहीं है.टिप्पणियों का भी मोहताज यह ब्लाग नहीं है.ढोंग-पाखण्ड के प्रचारकों से रक्षा हेतु ही माडरेशन भी लगाना पड़ा है.यदि मैं दी गयी सलाहों को मानता हूँ तो उसका अर्थ हुआ कि मैं अपने ब्लाग पर टिप्पणी बाक्स बंद कर दूँ और दुसरे ब्लागों पर भी मैं कहीं कोई टिप्पणी न दूं क्योंकि दुसरे ब्लॉगों पर ही तो उन खर-दूषण (एवं विदेश स्थित उनकी सूपनखा ने अपने ब्लाग पर) ने बवंडर मचाया था.मुझे इसमें भी कोई आपत्ति नहीं है ;मैं ऐसा कर सकता हूँ.
दिसंबर २०१० में डॉ. दराल सा :ने किसी ख़ास विषय पर लिखने को कहा मैंने उस पर नव-वर्ष की पहली पोस्ट में मात्र २३ दिनों में अमल कर दिया था.उनका अब भी पूर्ण सम्मान करता हूँ जिसके वह वास्तविक हकदार भी हैं.उनसे कोई शिकवा भी नहीं है.प्रो.महेंद्र वर्मा जी के आग्रह पर पौराणिक ग्रंथों की जो व्याख्या वैज्ञानिक तथ्यों पर प्रस्तुत की थी उसका सृजक मैं नहीं वरन विद्वान योग-प्रशिक्षक हैं जिनका उल्लेख भी किया था.उनकी वैज्ञानिक व्याख्या तथ्यगत थी और मैं उससे सहमत था. वैसे मैं तो पुराण -विरोधी हूँ. उनमें वर्णित ढोंग-पाखण्ड वाली व्याख्याओं जिनका समर्थन वह रेलवे सर्जन करता है और जनता को गुमराह करती हैं उनका विरोध करता रहूँगा. भोजन करना हो या जल पीना ऊर्जा सभी कार्यों में लगती है.फिर सत्य को सामने लाने हेतु व्यय ऊर्जा व्यर्थ तो नहीं है.सभी को ऐसा करना चाहिए. अगर और लोग डरते हैं तो दुसरे को तो नहीं रोकना चाहिए.
सलिल जी की विशेष जानकारी हेतु-
कायस्थ वह नहीं होता जैसा पोंगा-पंथी बताते हैं.न ही चित्रगुप्त ब्रह्मा जी की काया से उत्पन्न कोई प्राणी है.हमारे भौतिक शरीर के साथ और कारण तथा सूक्ष्म शरीर भी होते है जो मृत्यु के बाद भी 'आत्मा'के साथ -साथ तब तक चलते हैं जब तक मोक्ष न मिल जाए .हम जो भी सद -कर्म,अकर्म और दुष्कर्म करते हैं उनका लेखा-जोखा सूक्ष्म रूप से 'चित्त'पर 'गुप्त 'रूप से अंकित होता रहता है-इसी को 'चित्रगुप्त 'कहते हैं और यह प्रत्येक आत्मा के साथ होता है.इसी के अनुरूप संचित कर्मानुसार आगामी प्रारब्ध या भाग्य निर्धारित होता है जिसका जन्म-पत्र के आधार पर विश्लेषण करके भविष्यफल बताया जाता है.पोंगा-पंथी इसमें घपला करते है जिस कारण इस विज्ञानं का ही विरोध किया जाता है ,परन्तु पोंगा-पंथियों का नहीं.
अस्पतालों में आज भी मेडिसिन डिपार्टमेंट को 'काय चिकित्सा विभाग' कहते हैं यदि नहीं तो बताईये क्या कहते हैं?मतलब यह हुआ कि मानव काया से सम्बंधित जो ज्ञान प्रारंभ में देते थे उन्हें ही 'कायस्थ' कहा जाता था.धीरे-धीरे आबादी के विस्तार के साथ-साथ 'श्रम विभाजन'के अंतर्गत इस शिक्षा को चार वर्गों में बाँट दिया गया.१ .ब्रह्म विद्या से सम्बंधित ज्ञान देने वाले शिक्षक 'ब्राह्मण',२ .अस्त्र-शस्त्र से सम्बंधित क्षात्र कर्तव्य की शिक्षा देने वाले 'क्षत्रिय',३ .व्यापार-वाणिज्य से सम्बंधित शिक्षा देने वाले 'बनिक या वैश्य',४ .अन्य सेवा (सर्विस)की शिक्षा देने वाले 'शूद्र'. जो -जो लोग जिस विषय में उत्तीर्ण होते थे उन्हें वही उपाधी (डिग्री)मिल जाती थी और वे उसी प्रकार का कर्म करते थे. यह ज्ञान था ,पोंगापंथियों द्वारा प्रचारित जन्मगत जाति-व्यवस्था नहीं.
क्या डॉ. का बेटा बिना डाक्टरी पास किये डॉ. कहलाता है?या इंजीनियर का बेटा बिना इंजीनियरिंग किये इंजीनियर कहलाता है?तो क्यों बिना ज्ञान -शिक्षा-डिग्री के ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण हुआ?पोंगा पंथी तो अपने धंधे के कारण सच्चाई का विरोध करते हैं. उनके पिट्ठू उनकी चापलूसी में .जीत हमेशा कलम की हुई है तलवार की नहीं.फिर मेरा लेखन तो आज से ५० -६० वर्ष आगे आने वाली पीढियां ही समझ सकेंगी आज-कल की नहीं यह तो मैं जानता और मानता ही हूँ.क्या आप आने वाली पीढ़ियों का हित नहीं सोचते?
मान्यवर कायस्थ चारों वर्णों से ऊपर हुआ उसी ने चारों वर्णों का सृजन अपनी सहायता हेतु किया था.लेकिन आज पोंगा-पंथ के तहत कायस्थ को क्या बताया जाता है?यदि मैंने वास्तविक कायस्थ धर्म का पालन कर दिया तो उस पर रोक लगाने का मतलब क्या ?
गोदियाल सा :का विशेष आभार
धन्यवाद और बहुत-बहुत आभार गोदियाल सा :को जिन्होंने रेलवे के संविधान विरोधी सर्जन के बचाव में इतनी लामबंदी सफलतापूर्वक कर ली.इसका खामियाजा उन ब्लागर्स को भुगतना होगा जिनको स्तुति-प्रार्थना उपलब्ध होता और वे उसका लाभ उठा सकते थे जिससे वंचित हो गए..खुद गोदियाल जी ने यदि मेरे द्वारा प्रेषित स्तुति पाठ ठीक से किया होगा और उन्हें कोई लाभ मिला होगा तो वह खुद उसकी अहमियत समझते होंगे.मेरा विचार वे तमाम स्तुतियाँ उन विधियों समेत ब्लॉग पर देने का था जिनके पालन से आर्थिक,स्वास्थ्य ,व्यवसायिक क्षेत्रों में समस्या समाधान सहज हो सकता था.आज से कोई एक शताब्दी पूर्व पटना मेडिकल कालेज के चिकित्सकों ने एक स्तुति को मरीज के तीमारदारों से मांग कर सहेज कर रख लिया था,जिसके द्वारा ३६ घंटों तक चिकित्सकों के प्रयास विफल रहने पर मरीज को होश आ गया था और अंततः वह स्वस्थ हो गया था. इस स्तुति के वाचन में १५ मि.का समय लगता है उसे मैं आवाज में रिकार्ड करा कर ब्लाग में देने वाला था.१०० वर्ष पूर्व के चिकित्सक मानवीय आधार वाले थे आज के रेलवे सर्जन की भाँती अमानवीय ,आतंकवादी और संविधान विरोधी न थे.उस समय न तो यह रेलवे सर्जन जन्मा था न ही इसका आका आर.एस.एस.,तब तक बुद्धि की मान्यता थी.अब तो चापलूसी,अमीरी और ढोंग-पाखण्ड पूजे जा रहे हैं.
सन २००८ ई.में का.मो.शफीक खाँ सा :के भतीज दामाद सर गंगाराम अस्पताल,दिल्ली में भरती थे उनकी दोनों किडनियां फेल हो गयीं थीं रु.२५०००० रोजाना खर्च के बावजूद डाक्टरों ने जवाब दे रखा था.खाँ सा :के अनुरोध पर मैंने स्तुतियाँ रोमन में लिख कर दीं उन्होंने अस्पताल में पाठ किया (मुस्लिम तथा कम्यूनिस्ट होते हुए भी ) और उनके वह दामाद स्वस्थ होकर आगरा लौटे तथा अपना जूते का कारोबार पूर्ववत सम्हाल लिया.मुझे अपनी सफलता पर प्रसनत्ता हुई.
अभी २२ मार्च २०११ को जैन मत के अनुयायी एक बैंक आफीसर(जिनका बेटा १८ त़ा.से के.जी.एम्.यूं..,लखनऊ में भरती था और डाक्टरों के अनुसार उसके बचने के आसार कुल ५० प्रतिशत थे और बचने पर डा. उसके दिमाग को ८० प्रतिशत विकृत होने की बात कर रहे थे) को मैंने कुछ मन्त्र और स्तुतियाँ दीं जिनका पाठ उस बच्चे की दादी जी ने किया नतीजा यह है कि,बच्चा पूर्ण स्वस्थ हो कर अपने घर पर है और पढाई बदस्तूर जारी है.ये मन्त्र और स्तुतियाँ उसकी जन्म-पत्री बना कर उन ग्रहों के आधार पर दिए जो कष्टप्रद थे और मेडिकली अन्क्योर थे उनका निराकरण मैंने स्तुति-मन्त्र से करा दिया.
०५ दिसंबर को मैंने निवाज गंज ,लखनऊ स्थित अपने एक भाई सा :को भी स्तुति-मन्त्र दिए थे जो उन्होंने नहीं किये न ही उनके किसी परिवारीजन ने किये ;वे लोग पोंगापंथ और डाक्टरी इलाज में फंसे रहे.हजारों रु.फुक गए और अंततः वह भी २८ मार्च को यह दुनिया छोड़ गए,२९ त़ा. को उनके अंतिम संस्कार तथा ३१ त़ा. को शुद्धि हवन में शामिल रहा;परन्तु दुःख यह रहा कि अपने होकर भी उन्होंने अपनी जिद में मेरी बात न मानी.यदि यह भी मान लें -उनकी आयु ही इतनी थी तो मन्त्र-स्तुति का सहारा लेने पर उनका खर्च और तकलीफ तो बच ही सकता था.
धन्य हैं गोदियाल जी और सलिल वर्मा जी जिन्होंने रेलवे के सर्जन का समर्थन करके ब्लाग जगत को स्तुतियों की प्राप्ति से वंचित कर दिया. अब उस विचार का परित्याग यों कर दिया कि जब ब्लॉग जगत के समृद्ध विद्वान एक गुलाम मानसिकता के अहंकारी के पीछे लामबंद हैं तो उन्हें बिन मांगे उपाए क्यों उपलब्ध कराये जाएँ जबकि वह अहंकारी मुझे अधार्मिक,अज्ञानी,बेपर की उड़ान वाला आदि-आदि प्रचारित कर रहा है.विद्वानों को मैं मूर्ख क्या अक्ल सिखा सकता हूँ?
समय रहते चेता देने के लिए गोदियाल जी का बहुत आभारी हूँ.
मैं नहीं समझता कि भावी पीढ़ियों के हितार्थ मुझे लेखन नहीं करना चाहिए. अपनी समकालीन पीढी से मुझे भी अब सहानुभूति नहीं है वे क्या कहें और लिखें वे जानें.आने वाली पीढ़ियों के हित में मैं उनकी बातों को नहीं स्वीकार कर सकता.गोदियाल जी और सलिल जी की लामबंदी के चलते ०४ अप्रैल से शुरू होने वाले नये सम्वत की शुभकामनाएं प्रेषित नहीं करने की इच्छा थी परन्तु फिर भी अपना फर्ज समझते हुए आप सब हेतु नव-संवत की मंगलकामनाएं कर रहा हूँ. इन नवरात्रों में कोई विचार ,स्तुति आदि सार्वजनिक नहीं कर रहा हूँ.ढोंग-पाखंड पसंद करने वालों को मानव-हित से क्या सरोकार?
Hindustan-31/03/2011-Lucknow |
7 comments:
आपके वैचारिक आलेख सदा विशिष्ट होते हैं...
मन्त्रों की शक्ति से इनकार नहीं किया जा सकता !अगर संभव हो तो लोगों के हितार्थ वह स्तुति प्रकाशित करके आप एक बड़े पुण्य का काम करेंगे !
आपका लेख नई जानकारियों से भरा होता है !पढ़ना अच्छा लगता है !
आभार !
माथुर साहब, क्षमा चाहता हूँ अगर मैंने कही आपके मन को ठेस पहुन्चाई हो तो , मगर सत्यनिष्ठा से कहता हूँ कि उद्देश्य वह कदापि नहीं था !
माथुर साहब , अभी अभी-- सी एम् प्रशाद जी का एक लेख पढ़कर आ रहा हूँ । डॉ.सुभाष मुखर्जी- Dr. Subhas मुखेर्जी @ कलम ।
किसी की भी आलोचना से विचलित नहीं होना चाहिए ।
आप भी यह लेख पढ़ें , अच्छा लगेगा ।
@डा.दराल सा :अवश्य ही वह लेख खोज कर पढूंगा.आलोचना,विरोध,असहमति से विचलित,उत्तेजित या क्रोधित होने का मेरे पास कोई प्रश्न नहीं है.मूल बात यह है किउन महोदय ने अपने अहंकार के कारण मेरे साथ-साथ अन्य विद्व ब्लागर्स पर भी लांछन लगा दिए.सर्व श्री शेष नारायण सिंह एवं राजेन्द्र सिंह स्वर्णकार के बारे में बेहद अभद्र भाषा में अनर्गल लिख डाला.खुद दूसरों का चरित्र हनन करने के साथ-साथ जिन्हें देवता के रूप में पूजते हैं उनकी तरफ पीठ करके अपनी पत्नी एवं बेटा के साथ दांत निपोरते हुए फोटो खिंचवाते हैं.यह कौन सा धर्म या सभ्यता है?१९७१ में बांगला देश की मान्यता के विरोध में बोलने पर सभी साथी क्षात्रों तथा अध्यापकों ने मेरी आलोचना भाषण की तो की परन्तु सराहना साहस की की.यह शख्स निजी दुश्मनी के तौर पर और सभी का मखौल उड़ाता है.अतः क्षमा अथवा सहानुभूति का पात्र नहीं है.यदि उसका विरोध न किया जाए तो मानवता विरोधी कार्य होगा.जन-हित में उसका ,उसके साथियों का हमेशा ही विरोध करना होगा.
नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएँ| धन्यवाद|
आपके सार्थक सटीक और वैचारिक विवेचन ...हमेशा कुछ नया सामने रखते हैं...नवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएँ...
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