वृक्ष रूप में बच्चों ने चेन्ने के एक स्कूल में बैठ कर हमको वृक्षों एवं पर्यावरण की रक्षा का अनुपम सन्देश दिया है;देखें २९ जून २०११ के हिंदुस्तान,लखनऊ-पृष्ठ १७ पर प्रकाशित इस तस्वीर की स्कैन कापी-
"येभ्यो माता ................................................................आदित्यां अनुमदा स्वस्तये " (ऋग्वेद मंडल १० /सूक्त ६३ में वर्णित इस मन्त्र के भवानी दयाल सन्यासी जी द्वारा किये काव्यानुवाद की प्रथम पंक्ति को इस लेख का शीर्षक बनाया गया है-
ऋतू अनुकूल मेंह बरसे दुखप्रद दुष्काल न आवे.
सुजला सुफला मातृ भूमि हो,मधुमय क्षीर पिलावे..
आज से १० लाख वर्ष पूर्व जब मानव की इस पृथ्वी पर सृष्टि हुई तो रचयिता (परमात्मा)ने इस प्रथ्वी का उपभोग करने हेतु मानव के लिए कुछ नियमों का निरूपण किया .पूर्व सृष्टि में मोक्ष-प्राप्त आत्माओं को इस धरती पर ऋषियों के रूप में भेज कर उनसे इन वेदों का उपदेश दिलाया गया है.जिस प्रकार किसी भी संगठन अथवा संस्था के निर्माण से पूर्व बाई-लाज या विधान बनाया जाता है उसी प्रकार इस सृष्टि में निर्वहन हेतु वेदोक्त उपदेश हैं.अपने अहंकार,अज्ञान और विदेशी भटकाव से ग्रस्त विद्वान वेदों के महत्व को नकार कर उनकी आलोचना करते हैं या कुछ उनकी गलत व्याख्या प्रस्तुत करते हैं जिसका परिणाम हम सब के समक्ष अपने वीभत्स रूप में मुंह बाये खड़ा है.
चेन्ने के स्कूली बच्चों द्वारा वृक्षों के महत्व को समझाने का प्रयास स्तुत्य एवं अनुकरणीय है.इस प्रकृति में पदार्थ तीन अवस्थाओं में हमें मिलते हैं जिनका परस्पर रूपांतरण होता रहता है और वे कभी नष्ट नहीं होते हैं.परन्तु मानव ने प्रकृति-नियमों की अवहेलना करके इन पदार्थों का कृत्रिम रूपांतरण कर दिया है जो मानव के अस्तित्व के लिए ही संकट का हेतु बन गया है.आज प्रथ्वी पर वृक्ष आदि वनस्पतियों का अंधाधुंध दोहन होने के कारण अकाल पड़ता जा रहा है और कार्बन गैसें मात्रा में बढ़ कर प्रथ्वी का तापमान बढाती जा रही हैं.पर्वतों पर ग्लेशियरों के पिघलने का खतरा उत्पन्न हो गया है ,यदि ऐसा हुआ तो समुद्र में जल बढ़ कर काफी आबादी का सफाया कर देगा और शेष मनुष्य जल एवं वर्षा के आभाव में भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर असमय मौत के कराल गाल में समाविष्ट होने को बाध्य होंगे.
19 जूलाई 2011 का समपादकीय -
चेन्ने के स्कूली बच्चों,शिक्षकों ,अभिभावकों को धन्यवाद कि,उन्होंने प्रकृति की इस गंभीर समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से उठाया है.आज का संकट अपनी वैज्ञानिक -वैदिक संस्कृति को तिलांजली देने (और अवैज्ञानिक-पौराणिक पद्धति को आत्मसात करने )के कारण उत्पन्न हुआ है.प्रकृति में संतुलन को बनाए रखने हेतु हमारे यहाँ यग्य-हवन किये जाते थे.अग्नि में डाले गए पदार्थ परमाणुओं में विभक्त हो कर वायु द्वारा प्रकृति में आनुपातिक रूप से संतुलन बनाए रखते थे.'भ'(भूमि)ग (गगन)व (वायु) ।(अनल-अग्नि)न (नीर-जल)को अपना समानुपातिक भाग प्राप्त होता रहता था.Generator,Operator ,Destroyer भी ये तत्व होने के कारण यही GOD है और किसी के द्वारा न बनाए जाने तथा खुद ही बने होने के कारण यही 'खुदा'भी है. अब भगवान् का अर्थ मनुष्य की रचना -मूर्ती,चित्र आदि से पोंगा-पंथियों के स्वार्थ में कर दिया गया है और प्राकृतिक उपादानों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है जिसका परिणाम है-सुनामी,अति-वृष्टि,अनावृष्टि,अकाल-सूखा,बाढ़ ,भू-स्खलन,परस्पर संघर्ष की भावना आदि-आदि.
19 जूलाई 2011 का समपादकीय -
('हिंदुस्तान'-लखनऊ-19/07/2011) |
चेन्ने के स्कूली बच्चों,शिक्षकों ,अभिभावकों को धन्यवाद कि,उन्होंने प्रकृति की इस गंभीर समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से उठाया है.आज का संकट अपनी वैज्ञानिक -वैदिक संस्कृति को तिलांजली देने (और अवैज्ञानिक-पौराणिक पद्धति को आत्मसात करने )के कारण उत्पन्न हुआ है.प्रकृति में संतुलन को बनाए रखने हेतु हमारे यहाँ यग्य-हवन किये जाते थे.अग्नि में डाले गए पदार्थ परमाणुओं में विभक्त हो कर वायु द्वारा प्रकृति में आनुपातिक रूप से संतुलन बनाए रखते थे.'भ'(भूमि)ग (गगन)व (वायु) ।(अनल-अग्नि)न (नीर-जल)को अपना समानुपातिक भाग प्राप्त होता रहता था.Generator,Operator ,Destroyer भी ये तत्व होने के कारण यही GOD है और किसी के द्वारा न बनाए जाने तथा खुद ही बने होने के कारण यही 'खुदा'भी है. अब भगवान् का अर्थ मनुष्य की रचना -मूर्ती,चित्र आदि से पोंगा-पंथियों के स्वार्थ में कर दिया गया है और प्राकृतिक उपादानों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है जिसका परिणाम है-सुनामी,अति-वृष्टि,अनावृष्टि,अकाल-सूखा,बाढ़ ,भू-स्खलन,परस्पर संघर्ष की भावना आदि-आदि.
एक विद्वान की इस प्रार्थना पर थोडा गौर करें -
ईश हमें देते हैं सब कुछ ,हम भी तो कुछ देना सीखें.
जो कुछ हमें मिला है प्रभु से,वितरण उसका करना सीखें..१ ..
हवा प्रकाश हमें मिलता है,मेघों से मिलता है पानी.
यदि बदले में कुछ नहीं देते,इसे कहेंगे बेईमानी..
इसी लिए दुःख भोग रहे हैं,दुःख को दूर भगाना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..२ ..
तपती धरती पर पथिकों को,पेड़ सदा देता है छाया.
अपना फल भी स्वंय न खाकर,जीवन उसने सफल बनाया..
सेवा पहले प्रभु को देकर,बाकी स्वंय बरतना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..३..
मानव जीवन दुर्लभ है हम,इसको मल से रहित बनायें.
खिले फूल खुशबू देते हैं,वैसे ही हम भी बन जाएँ..
जप-तप और सेवा से जीवन,प्रभु को अर्पित करना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..४..
असत नहीं यह प्रभुमय दुनिया,और नहीं है यह दुखदाई.
दिल-दिमाग को सही दिशा दें,तो बन सकती है सुखदाई ..
'जन'को प्रभु देते हैं सब कुछ,लेकिन 'जन'तो बनना सीखें.
ईश हमें देते हैं सब कुछ,हम भी तो कुछ देना सीखें..५..
शीशे की तरह चमकता हुआ साफ़ है कि वैदिक संस्कृति हमें जन पर आधारित अर्थात समष्टिवादी बना रही है जबकि आज हमारे यहाँ व्यष्टिवाद हावी है जो पश्चिम के साम्राज्यवाद की देन है. दलालों के माध्यम से मूर्ती पूजा करना कहीं से भी समष्टिवाद को सार्थक नहीं करता है.जबकि वैदिक हवन सामूहिक जन-कल्याण की भावना पर आधारित है.
ऋग्वेद के मंडल ५/सूक्त ५१ /मन्त्र १३ को देखें-
विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये.
देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्व्हंससः ..
(जनता की कल्याण -कामना से यह यग्य रचाया.
विश्वदेव के चरणों में अपना सर्वस्व चढ़ाया..)
जो लोग धर्म की वास्तविक व्याख्या को न समझ कर गलत उपासना-पद्धतियों को ही धर्म मान कर चलते हैं वे अपनी इसी नासमझ के कारण ही धर्म की आलोचना करते और खुद को प्रगतिशील समझते हैं जबकि वस्तुतः वे खुद भी उतने ही अन्धविश्वासी हुए जितने कि पोंगा-पंथी अधार्मिक होते हैं.
ऋग्वेद के मंडल ७/सूक्त ३५/मन्त्र १ में कहा गया है-
शं न इन्द्राग्नी भवतामवोभिः शन्न इन्द्रावरुणा रातहव्या डे
शमिन्द्रासोमा सुविताय शंयो :शन्न इन्द्रा पूष्णा वाजसात..
(सूर्य,चन्द्र,विद्युत्,जल सारे सुख सौभाग्य बढावें.
रोग-शोक-भय-त्रास हमारे पास कदापि न आवें..)
वेदों में किसी व्यक्ति,जाति,क्षेत्र,सम्प्रदाय,देश-विशेष की बात नहीं कही गयी है.वेद सम्पूर्ण मानव -सृष्टि की रक्षा की बात करते हैं.इन्हीं तत्वों को जब मैक्समूलर साहब जर्मन ले गए तो वहां के विचारकों ने अपनी -अपनी पसंद के क्षेत्रों में उनसे ग्रहण सामग्री के आधार पर नई -नई खोजें प्रस्तुत कीं हैं.जैसे डा.हेनीमेन ने 'होम्योपैथी',डा.एस.एच.शुस्लर ने 'बायोकेमिक' भौतिकी के वैज्ञानिकों ने 'परमाणु बम'एवं महर्षि कार्ल मार्क्स ने 'वैज्ञानिक समाजवाद'या 'साम्यवाद'की खोज की.
दुर्भाग्य से महर्षि कार्ल मार्क्स ने भी अन्य विचारकों की भाँती ही गलत उपासना-पद्धतियों (ईसाइयत,इस्लाम और हिन्दू ) को ही धर्म मानते हुए धर्म की कड़ी आलोचना की है ,उन्होंने कहा है-"मैंन हैज क्रियेटेड द गाड फार हिज मेंटल सिक्योरिटी ओनली".आज भी उनके अनुयाई एक अन्धविश्वासी की भांति इसे ब्रह्म-वाक्य मान कर यथावत चल रहे हैं.जबकि आवश्यकता है उनके कथन को गलत अधर्म के लिए कहा गया मानने की.'धर्म'तो वह है जो 'धारण'करता है ,उसे कैसे छोड़ कर जीवित रहा जा सकता है.कोई भी वैज्ञानिक या दूसरा विद्वान यह दावा नहीं कर सकता कि वह-भूमि,गगन,वायु,अनल और नीर (भगवान्,GODया खुदा जो ये पाँच-तत्व ही हैं )के बिना जीवित रह सकता है.हाँ ढोंग और पाखण्ड तथा पोंगा-पंथ का प्रबल विरोध करने की आवश्यकता मानव-मात्र के अस्तित्व की रक्षा हेतु जबरदस्त रूप से है.
यदि हम चेन्ने के स्कूली बच्चों द्वारा बताए संदेश पर चल कर अपने वृक्षों और पर्यावरण की रक्षा हेतु आगे बढ़ें तो मानवता की सच्ची सेवाऔर रक्षा दोनों होगी.
6 comments:
सही कहा है आपने। पर्यावरण की रक्षा सर्वोपरि है।
पर्यावरण की रक्षा जीवन रक्षा का पर्याय है. सारगर्भित लेख.
बहुत सही सन्देश दिया है बच्चों ने .
शुभकामनायें .
saarthak sandesh deti posT thanx .aaj hindi tool nahin chal raha.is liye mafi chahati hoon.
ज्ञानवर्धक पोस्ट, आभार.
पश्चिम के साम्राज्यवाद ने जिस तरह हमारी संस्कृति पर चोट की है.इसका परिणाम भी हम सभी देर -सवेर भुगतेंगे.
प्रकृति की सुरक्षा भी एक तप है ,सभी इस बात को आज समझ लेंगे तो आने वाली पीढियाँ भी इस धरती पर सुखी रह सकेंगी.
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