शहीद भगत सिंह, शहीद चंद्रशेखर आजाद, शहीद राम प्रसाद बिस्मिल,
शहीद राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, शहीद रोशन सिंह, शहीद अशफाकुल्ला खां अमर रहंे! अमर रहें!
काकोरी के विद्रोही शहीदों की याद में :
जीपीओ हजरतगंज लखनऊ स्थित काकोरी शहीद स्तम्भ पर कल शुक्रवार 19 दिसंबर 2014 को 3 बजे से एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन संयुक्त रूप से नागरिक परिषद, जन कलाकार परिषद, महिला परिषद, जन संस्कृित मंच, जन जागरुकता अभियान द्वारा किया गया।
प्रारम्भ में शहीदों की याद में क्रांतिकारी गीत प्रस्तुत किए गए । संचालन ओ पी सिन्हा साहब द्वारा किया गया। के के शुक्ल जी व अन्य लोगों के साथ-साथ वक्ताओं में IPTA के राकेश जी भी थे। कल्पना पांडे'दीपा' जी ने अपनी ओजस्वी कविता का पाठ किया।
वक्ताओं ने कहा कि लखनऊ जीपीओ (अग्रेंजीकाल के रिंक थियेटर) में अग्रेजों
ने अदालत लगाकार हमारे क्रांतिकारी शहीदों को सजाएं सुनाईं, उन्हें फांसी
पर चढ़ाने के लिए यहीं पर अदालती नाटक खेला गया था। इसलिए यह स्थान आजादी
के आंदोलन का स्मारक है। लखनऊ के नागरिक इस ऐतिहासिक इमारत को आजादी की
लड़ाई का स्मारक, शहीद स्मृति लाइब्रेरी, शोध केन्द्र,
सभा-सेमीनार-जनआंदोलन व सत्याग्रह केन्द्र के रुप में देखना चाहते हैं।
सभा में एक प्रस्ताव पास करके केंद्र सरकार से मांग की गई कि जी पी ओ को शहीदों की स्मृति में एक संरक्षित संग्रहालय बनाया जाये और यहाँ से जी पी ओ को अन्यत्र स्थानांतरित किया जाये और इसे खाली कर प्रदेश की जनता को सौंप कर क्रांतिकारी शाहीदों की इस पावन स्थली को जन-प्रदर्शनों के लिए आरक्षित करने की भी मांग इस प्रस्ताव द्वारा की गई।
जनता के मध्य जो पर्चा जारी किया गया वह इस प्रकार है :------
देशभक्त साथियों
आजादी की लड़ाई के अपने शहीदों को याद करने के इस मौके पर हम आपको एक बार
फिर काकोरी की घटना का इतिहास नहीं बताने जा रहे हैं। यदि हमारे भीतर थोड़ी
भी गरिमा और मनुष्यता है तो हम आजादी के इतिहास की किताबों से इसे जान
लेंगे। अपने शहीदों को जानना वास्तव में खुद को जानना है क्योंकि आज हम जो
कुछ भी हैं उन्हीं की शहादत के बदौलत हैं। शहादत, किसी के भी जीवन की सबसे
बड़ी राजनीतिक एंव मानवीय कार्रवाई है। इसके पीछे की सोच के साथ जुड़कर ही
हम उस विरासत के सच्चे वारिस बनते हैं। आज सवाल यह नहीं है कि हम उनपर
कितना फूल चढ़ाते हैं बल्कि सवाल यह है कि हमारे भीतर उनका वारिस बनने की
तमन्ना है भी या नहीं। उनका वारिस बनकर ही हम आज देश और जनता के सामने खड़ी
की गई चुनौतियों का सामना कर सकते हंै।
गैरबराबरी और अन्याय का
सीधा रिश्ता सत्ता से है, हुकूमत से है, व्यवस्था से है। हुकूमत से टकराने
का मकसद गैरबराबरी और अन्याय का खात्मा ही होना चाहिए। हुकूमत चाहे गोरे
अंग्रेजों की हो या काले अंग्रेजों की यह हमेशा आम जनता के जुल्म व शोषण की
बुनियाद पर खड़ी होती है। इसीलिए शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का कहना था कि वे
एक ऐसी समाज व्यवस्था चाहते हैं जहां पर कोई किसी पर हुकूमत नहीं करे, सब
जगह लोगों के पंचायती राज कायम हों। शहीद अशफाकउल्ला खां ने अपने अंतिम
संदेश में कहा था- ‘एक होकर देश की नौकरशाही का मुकाबला करो और अपने देश को
आजाद कराओ।’ जाहिर है कि ये ‘वीर’ मनुष्य द्वारा मनुष्य के ऊपर किसी
प्रकार की हुकूमत के विरोधी थे ताकि समाज की हर बुराई और जुल्म का अंत किया
जा सके। इसी सिलसिले में शहीद भगत सिंह का कहना था- ’ज्यों-ज्यों कानून
सख्त होते हैं त्यों-त्यों भ्रष्टाचार भी बढ़ता है।’ इसी मसले पर गांधी जी
ने कहा था- ‘जिन्हें अपनी सत्ता कायम रखनी है, वे अदालतों के जरिए लोगों को
वश में रखते हैं। जब लोग खुद मार-पीट करके या
रिश्तेदारों को पंच बनाकर अपना झगड़ा निपटा लेते थे तब वे बहादुर थे।
अदालतें आईं और वे कायर बन गए।’
अंग्रेजों की गुलामी के दौर में
यदि सभी सरकारी महकमें हम गुलामों पर हुकूमत करने के लिए बने थे तो बात समझ
में आती है, लेकिन आजादी मिलने के बाद भी इन महकमों का अफसरशाही और
न्यायपालिका का चरित्र हुक्मरानों, शहंशाहों सा क्यों बना रहा? पुलिस
प्रशासन, न्यायपालिका आदि में से आज कोई भी ऐसी संस्था नहीं है जिसका
व्यावहारिक रूप हुक्मरानों अंग्रेज शासकों जैसा न हो और जो आम नागरिक को,
करदाता के साथ दुश्मनों सा सुलूक न करती हो। यही नहीं जिस भी अफसर के पास
थोड़ा सरकारी-कानूनी अधिकार हो वह आम आदमी को अपनी दया पर पलने वाली रियाया
से अधिक नहीं समझता। वास्तव में हमारी हुकूमतों की यही प्रकृति है।
वर्तमान ढांचे में हुकूमत का काम है- मेहनतकश जनता की कमाई से कानून बनाकर
संगठित तरीके से वसूली करना और सरकारी खजाने का आपस में बटवारा कर लेना।
कानूनी-गैरकानूनी, नैतिक-अनैतिक दोनों तरीकों से।
यही हुकूमतें
यादव सिंह, नीरा यादव, एपी सिंह, प्रदीप शुक्ला जैसे हजारों ‘जादूगरों’ और
‘कलाकारों’ को पैदा करती है, पालती-पोसती है। इन्हीं अपराधियों के बल पर ही
ये देश पर अपना राज चलाते हैं। ऐसे ‘कारीगर’ और ‘जादूगर’ हर सरकारी दफ्तर
में, हर शहर और हर गली में मिल जाएंगे। कभी-कभार आपसी बटवारे के झगड़े में
एक-दो का भांडा फूट जाता है। लेकिन पूरी हुकूमत ऐसे ही लोगों की जमात है।
ये आपस में कुर्सी बदलते रहते हैं। इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के समय भी
उनका राज चलाया और मौज किया, क्रांतिकारियों पर संगीनें चलवाईं और अब आजादी
के बाद आज भी इनके वारिस पूरी विलासिता के साथ जी रहे हैं और
लोकतंत्र-लोकशाही की बात करने वालों को यही न्यायाधीश बनकर देशद्रोही और
आतंकी बता रहे हैं। आज भी यही कानून बनाते हैं और यही लागू करते हैं। हमारी
संसद तो सिर्फ इनके किए पर, इनके इरादों पर अपनी मुहर लगाती रहती हैं।
इनसे दुश्मनी मोल लेने की हिम्मत किसी जन-प्रतिनिधि, सांसद-विधायक में नहीं
है। वास्तव में कानूनी तौर पर हमारे सांसदों-विधायकों की स्थिति एक दारोगा
से भी नीचे होती है।
आज हमारे देश में ढेरों ऐसे कानून और नियम बने
हैं जिनका मकसद आम लोगों को परेशान करना, उनकी राजनीतिक सक्रियता और
स्वतंत्रता को बाधित करना है। यह सब इसलिए, ताकि लोग इसी में उलझे रहें, और
लूट की व्यवस्था बदस्तूर जारी रहे।
आजादी के 66 वर्षों में भी
हमें न तो गरीबी से आजादी मिली, न बेरोजगारी से, न महगाई से, न अशिक्षा से
आम नागरिक आज भी न्याय और मानवीय गरिमा से वंचित है। हम अभी तक देश की पूरी
आबादी को जीवन की न्यूनतम बुनियादी सुविधायें भी नहीं दिला पाये। हमने
अपने श्रम से बेहिसाब दौलत पैदा की, लेकिन यह दौलत किसकी पेट में गयी, सबको
मालूम है। जहां तक न्याय का सवाल है, तो हमारी पूरी कानून-न्यायिक
प्रक्रिया एक चक्रव्यूह है, जहां पर अंत में अभिमन्यु ही मारा जाता है।
हूकूमत या सत्ता के किसी न किसी रुप में बने रहते हम सच्ची आजादी और सच्चे
न्याय की कल्पना ही नहीं कर सकते। दोनों का अस्तित्व एक साथ नहीं रह सकता।
सच्चे लोकतंत्र का अर्थ ही यह है कि उसमें तंत्र लगातार कमजोर पड़ता जाए और
लोक ताकतवर। आजादी के बाद से लगातार इसका उल्टा हुआ है। आज तंत्र इतना
ताकतवर हो चुका है उसकी गिरफ्त में पूरे देश की सांस घुट रही है। तंत्र के
मालिकान न्याय की राह में सबसे बड़ी रुकावट बन गए हैं। श्रमिक, किसान,
व्यापारी, छोटे कारखानेदार, डाक्टर, इंजीनियर, कलाकार महिलायें अर्थात समाज
का हर वर्ग समूह इनसे त्रस्त है। हमारे लोकतंत्र को इन्होंने अपाहिज और
बंधक बना रखा है।
पूरी आजादी की लड़ाई के दौरान इस बात पर हमेशा जोर
था, आम सहमति थी कि, आजादी मिलने पर ‘पूरा तंत्र’ बदल दिया जाएगा विशेष तौर
पर क्रांतिकारियों और शहीदों का यह मत था। आजादी मिलते ही जिस तरह कुछ
बड़े नेताओं ने तंत्र और नौकरशाही का पक्ष लिया, उससे देश की आम जनता के
हाथ से राजनीति की बागडोर छूट गई, और आज उसे पूरी तरह एक वोट बैंक में
तब्दील करके राजनीतिक रुप से शून्य व निष्क्रिय कर दिया गया है। आजादी के
बाद की इस ऐतिहासिक गलती का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। लुटेरे
अग्रेजों की हुकूमत की जगह ऐसे देशी लुटेरों की हूकूमत कायम हुई, जो
अग्रेंजों की तरह ही आज हमारे देश और पूरी दुनिया में लूट का कारोबार करते
हैं और इन्हीं की तरह पूरी दुनिया पर हुकूमत करने का ख्वाब देखते हैं। देश
के सस्ते श्रम और प्राकृतिक संपदा खेती-किसानी की लूट के बल पर ये दुनिया
के सबसे अमीर जमात में शामिल होते जा रहे हैं। जबकि हमारे देश की आधे से
अधिक आबादी दुनिया के सबसे दरिद्र अभावग्रस्त लोगों में शामिल है। इसी
विरोधाभास का मूर्त रुप है देश की हुकूमत, चाहे वह विकास की माला जपे, चाहे
सामाजिक न्याय की धर्म निरपेक्षता की या सांप्रदायिकता की माला जपती रहे।
सांप्रदायिकता या सामाजिक-धार्मिक विद्वेष, जिसके खिलाफ हमारे शहीद दृढ़ता
से खड़े हुए, आजादी की लड़ाई के वास्तविक नेता जिसके खिलाफ लड़े,
विवेकानन्द सहित तमाम समाज सुधारकों ने जिसका विरोध किया और कभी भी जो
भारतीय चिंतन परंपरा व जनसंस्कृति का हिस्सा नहीं रहा आज इन्हीं के नाम पर
इस नफरत को नए सिरे से फैलाया जा रहा है, ताकि आम जनता के अंसतोष को गलत
दिशा देकर अपना उल्लू सीधा किया जा सके। केन्द्र में बैठे भारतीय संस्कृति
के तथाकथित लंबरदार पूरे भारतीय समाज की एकता की जड़े खोद रहे हैं। आजादी
की विरासत को मिटाकर उसे एक सांप्रदायिक रुप देने की कोशिश कर रहे हैं। ये
एक तरफ काले धन को सफेद बनाने की सरकारी योजनाएं ला रहे हैं तो दूसरी तरफ
ट्रैफिक सुरक्षा, वाहन-सड़क सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा, नागरिक सुरक्षा के
नाम पर ऐसे कानून ला रहे हैं, जिससे आम जनता से इनकी वसूली बढ़ जाएगी। आम
आदमी का जीना मुहाल हो जाएगा, सड़क पर चलने वाला हर एक वाहन चालक, वाहन
मालिक, कानून की नजर में अपराधी बन गया है और इनकी अगुवाई में पुलिस-कचहरी
का नियंत्रण लोगों पर और बढ़ता जाएगा। हमारा लोकतंत्र धीरे-धीरे अघोषित
तानाशाही की ओर बढ़ रहा है। अग्रेंजी हुकूमत से भी खतरनाक तानाशाही की ओर।
इनकी लूट और लालच से पैदा हुए आर्थिक संकटों का इस हूकूमत के पास एक ही
इलाज है- तानाशाही।
काकोरी दिवस के शहीदों को याद करते हुए हमें
एक सच्चे लोकतंत्र के लिए नए सिरे से एकजुट होकर संघर्ष का संकल्प करना है।
पिछले वर्षों देश में जो जनआंदोलन पैदा हुए, उसे और संगठित करते हुए आगे
बढ़ने का सकल्प करना है। यह लोक के राज को मिटाने में लग गए हैं, हमे इनके
तंत्र के राज को मिटाकर एक सच्ची पंचायती व्यवस्था और अवामी राज बनाने में
लग जाना चाहिए। इस पंचायती राज की शुरुआत हमें अपने मुहल्ले और गांव से
करनी है। इसी पंचायती व्यवस्था का सपना राम प्रसाद बिस्मिल समेत हमारे सभी
विद्रोही देशभक्त शहीदों ने देखा था।
हमारे आंदोलन के शुरुआती मुद्दे-
1- लखनऊ जीपीओ (अग्रेंजीकाल के रिंक थियेटर) में अग्रेजों ने अदालत लगाकार
हमारे क्रांतिकारी शहीदों को सजाएं सुनाईं, उन्हें फांसी पर चढ़ाने के लिए
यहीं पर अदालती नाटक खेला गया था। इसलिए यह स्थान आजादी के आंदोलन का
स्मारक है। लखनऊ के नागरिक इस ऐतिहासिक इमारत को आजादी की लड़ाई का स्मारक,
शहीद स्मृति लाइब्रेरी, शोध केन्द्र, सभा-सेमीनार-जनआंदोलन व सत्याग्रह
केन्द्र के रुप में देखना चाहते हैं। इसलिए हम मांग करते हैं कि केन्द्र
सरकार इसे जल्द से जल्द खाली करवाते हुए इस इमारत को आजादी की लड़ाई का
स्मारक घोषित करते हुए खाली कर इसे प्रदेश की जनता को सौंप दे।
2- देश में एक एकीकृत श्रम कानून, जो पूरी श्रमिक आबादी पर एक जैसा लागू हो
और इसे श्रमिकों की निर्वाचित कमेटियों को लागू करने का अधिकार दिया जाए।
ठेका-संविदा मजदूरी का खात्मा।
3- नगरपालिकाओं और ग्राम पंचायतों
को अपने क्षेत्र की विकास योजनाएं बनाने का पूरा अधिकार, पूरा वित्तीय
अधिकार एवं उस क्षेत्र की पुलिस न्यायालय, प्रशासन को इसके अधीन लाया जाए।
4- हर महिला का प्रसूति के समय एक साल तक भरण पोषण की पूरी जिम्मेदारी सरकार एवं समाज की।
5- दोहरी शिक्षा एवं चिकित्सा प्रणाली का अंत एवं इसे हर स्तर पर लोगों को निःशुल्क उपलब्ध कराया जाय।
6- खेती-किसानी के लिए आवश्यक सभी चीजों को पूरी तरह कर मुक्त किया जाए
एवं किसान सहकारी समितियों का पुर्नगठन कर उन्हें किसानों की हित में
नीतियां बनाने का अधिकार दिया जाए।
7- व्यापारियों एवं छोटे उद्यमियों को आसानी से ऋण उपलब्ध कराकर उन्हें परेशान करने वाले अधिकारियों को दंडित किया जाए।
8- देश के अपराध कानून में जमानत लेने के लिए धन-संपत्ति के आधार पर जमानत
की बाध्यता समाप्त करके सिर्फ नागरिक पहचानपत्र के आधार पर लोगों को जमानत
देने का कानून बनाया जाए।
9- सरकारी कर्ज को भूमि लगान की तरह
वसूलने का कानून समाप्त किया जाए, यह कानून ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में
सन् 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने आम किसानों, नागरिकों को लूटने के लिए
बनाया था।
10- हर गांव, कस्बे और शहर में निर्वाचित न्याय
पंचायतों का आम निर्वाचन द्वारा गठन करके लोगों के आपसी विवाद एवं संपत्ति
विवाद को हल करने के लिए इसे सौंपा जाए।
11- बच्चों एवं बुजर्गों के अच्छे जीवन के लिए विशेष योजनाएं बनाईं जाएं।
मुद्दे और भी हो सकते हैं, लेकिन हमें अभी इन्हीं से शुरुआत करनी है, और
धीरे-धीरे उन सवालों को उठाते हुए आगे बढ़ना है, जिससे हुकूमत की पकड़ आम
जनता पर लगातार ढीली पड़ती जाय और आम नागरिक की पकड़ हुकूमत/नौकरशाही पर
मजबूत हो ताकि लोकतंत्र वास्तविकता बने।
साभार :
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~विजय राजबली माथुर ©
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