Friday, December 5, 2014

साम्राज्यवाद हितैषी सांप्रदायिकता पर इस तरह फतह कैसे हासिल करेंगे? --- विजय राजबली माथुर

वास्तविकता तो यह है कि 'आर्य ' न तो कोई जाति है न ही नस्ल या धर्म। आर्य शब्द 'आर्ष' का पर्यायवाची है जिसका अर्थ है-'श्रेष्ठ' अर्थात 'श्रेष्ठ कर्म' करने वाले सभी मनुष्य आर्य हैं चाहें वे जिस भी क्षेत्र के हों ,नस्ल के हों या मजहब/संप्रदाय/रिलीजन को मानते हों। यह तो पाश्चात्य साम्राज्यवादियो का षड्यंत्र है कि आर्य को एक नस्ल या जाति और मध्य यूरोप का वासी तथा भारत पर आक्रांता घोषित कर दिया और इसी धारणा को ही सही मानते हुये ' मूलनिवासी आंदोलन' चल पड़ा है। कंवल भारती जी का यह निष्कर्ष सही है कि सभी मनुष्य एक ही जैसे हैं।





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फिरकापरस्तों के हवाले वतन साथियो
(कँवल भारती)
मुरादाबाद के कांठ में जनता और पुलिस के संघर्ष से बचा जा सकता था. किन्तु, जिला प्रशासन ने मुजफ्फरनगर के दंगों से भी कोई सबक नहीं लिया और सरकार की मंशा के अनुरूप एक गुट को खुश करने के लिए दूसरे गुट के खिलाफ कार्यवाही करके पूरी फिजा बिगाड़ दी. प्रशासन को तब तो और भी सावधानी बरतनी चाहिए थी, जब उसे पता था कि हिन्दू-मुस्लिम की दृष्टि से मुरादाबाद एक संवेदनशील जिला है, जहाँ पहले भी कई सांप्रदायिक संघर्ष हो चुके हैं. क्या जरूरत थी जिला प्रशासन को अकबरपुर चैदरी गाँव में मन्दिर से लाउडस्पीकर उतारने की? क्या लाउडस्पीकर उतारने का यह काम पुलिस ने मुस्लिम गुट को खुश करने के लिए नहीं किया था? प्रशासन के इसी कारनामे ने कांठ में भाजपा के नेतृत्व वाले हिन्दू संगठनों को उत्तेजित-आन्दोलित करने का काम किया. जब संविधान ने सेकुलरिज्म के अंतर्गत हर धर्म के समुदाय को अपनी आस्था के अनुसार पूजा-उपासना करने का अधिकार दिया है, तो प्रशासन इसके खिलाफ क्यों गया? चैदरी गाँव में मन्दिर पर लगाया लाउडस्पीकर कोई अनोखी घटना नहीं थी, बल्कि यह बहुप्रचलित परम्परा है. भारत में कौन सा धार्मिक स्थल ऐसा है, जिस पर लाउडस्पीकर न लगा हो? यह वह देश है, जहाँ लाउडस्पीकर के बिना न मन्दिर में आरती होती है, न मस्जिद में अजान और न गुरूद्वारे में पाठ. रात-रात भर चलने वाले देवी-जागरण और मजलिशों पर क्या लाउडस्पीकर की पाबन्दी आयद होती है? क्या ये लाउडस्पीकर दूसरे गुटों के लिए परेशानी पैदा नहीं करते हैं? लेकिन न कोई शिकायत करता है और न प्रशासन उन्हें उतारता है, क्योंकि मामला धर्म से जुड़ा होता है और संवेदनशील होता है. पर जिस तरह जिला प्रशासन ने अकबरपुर चैदरी गाँव में मन्दिर से लाउडस्पीकर उतारने में दिलचस्पी दिखाई, वह मुझे कहीं से भी प्रशासनिक कार्यवाही नहीं लगती. उसके पीछे जरूर कोई सियासी मकसद नजर आता है. कहा जा रहा है कि इसके पीछे सपा विधायक का दलित-द्वेष था. वह दलितों का मन्दिर था, जिससे लाउडस्पीकर उतारा गया था. और सुना है कि चैदरी गाँव के दलित लोकसभा के चुनावों में सपा के पक्ष में नहीं थे. सपा विधायक ने सोचा होगा कि दलितों में कहाँ इतनी हिम्मत है कि वे सपा-सरकार से टक्कर लेंगे, सो उन्होंने अपने दबाव से दलित-मन्दिर से लाउडस्पीकर उतरवा दिया. पर वे यह भूल गये कि ऐसे ही मामलों में भाजपा की हिन्दू-अस्मिता जागृत हो जाती है. जो दलित उसके सामाजिक अजेंडे में नहीं होते, वे उसके राजनीतिक अजेंडे में सबसे ऊपर होते हैं. इसलिए यह समझने की जरूरत है कि भले ही सपा-सरकार में दलितों की लड़ने की हिम्मत नहीं है, पर जिस तरह धर्म के सवाल पर हिन्दू संगठनों ने उन्हें हिन्दू चेतना से जोड़ने में जरा भी देर नहीं लगायी, उससे यह जरूर साबित हो गया है कि दलित हिंदुत्व के नाम पर भाजपा के साथ खड़े हो गये हैं. अत: कहना न होगा कि प्रशासन की एक गलती से एक ही झटके में दो काम हो गये—(1) भाजपा की हिन्दू राजनीति को दलितों का साथ मिल गया और (2) भाजपा यह सन्देश देने में कामयाब हो गयी कि सपा-सरकार हिन्दू-विरोधी है, जो मुसलमानों को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. क्या मुरादाबाद का सपा-नेतृत्व भी यही चाहता था कि राजनीति हिन्दू-मुस्लिम के बीच (दूसरे शब्दों में फिरकापरस्त ताकतों के बीच) में विभाजित हो जाये, ताकि सपा को लाभ मिले? इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोकसभा के नतीजों के बाद सपा हाई कमान को मुसलमानों का ही एकमात्र सहारा रह गया है, हिन्दू वोट तो उससे अलग हो ही गया है, उसका अपना पिछड़ा वोट भी खिसक गया है.
आज सपा और भाजपा भले ही कांठ के संघर्ष में अपने राजनीतिक फायदे देख रही हों, पर यह लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है कि मुरादाबाद में फिरकापरस्त ताकतें फिर से जिंदा हो रही हैं.
(5 जुलाई 2014)
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 वस्तुतः 'शिव धनुष' वह मिसाईल था जो कि धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर आधारित था और इसीलिए कोई भी उसे बिना चुम्बकीय चाबी (मेग्नेटिक रिंग) के हिला तक नहीं सकता था जिसे ऋषियों ने सिर्फ सीता को ही सौंपा था और उसे सीता ने 'पुष्प वाटिका' में राम को हस्तांतरित कर दिया था जिसके जरिये राम ने उस शिव-धनुष अर्थात मेग्नेटिक मिसाईल को उठा कर डिफ्यूज - निष्क्रिय कर दिया था। ढ़ोंगी-पाखंडी-पोंगापंथियों ने विदेशी शासकों को खुश करने के लिए सीता द्वारा झाड़ू लगाने की मनगढ़ंत बात लिख दी तो क्या हमें मान लेना चाहिए कि एक राजकुमारी झाड़ू लगाती थी? हम 'मनुष्य ' हैं अतः 'मनन' द्वारा हमें सच्चाई ज्ञात करके सबको बताना ही चाहिए। लेकिन हो क्या रहा है:
04 Dec. 2014 :


'शास्त्रों' से यदि अभिप्राय 'पुराणों ' से है तो वे शोषकों/उतपीडकों के हित मे सत्ताधीशों द्वारा विद्वानों को खरीद कर लिखवाये गए हैं अतः उन में जन-विरोधी बातें होना स्वभाविक है। उन पर विश्वास करना घातक है। साम्राज्यवाद हितैषी सांप्रदायिकता पर इस तरीके से फतह नहीं हासिल हो पाएगी। उसके लिए विषद विवेचन व अध्यन का आश्रय लेकर ही मुक़ाबला किया जा सकता है 'हास्य तीरों' से नहीं। ढोंगवाद से जनता को 'मुक्त' करने के लिए जनता को समझाना होगा कि लुटेरे पोंगा-पंडित जनता को गुमराह कर रहे हैं और जनता को 'रामायण पाठ',भागवत पाठ,देवी जागरण आदि में भाग न लेने के लिए तैयार करना होगा जिसके लिए वैज्ञानिक व्याख्या समझाना होगा । 'व्यंग्य' का सहारा लेकर  अथवा विवेक हीन  विरोध कर आप जनता को अपने पीछे लामबंद नहीं कर सकते।

'एकला चलो रे' के सिद्धान्त पर मैंने पूर्व लेखों द्वारा वैज्ञानिक विश्लेषण उपलब्ध कराये हैं जिनको विद्वजन इसलिए नहीं स्वीकार कर सकते क्योंकि मैं कोई मशहूर हस्ती नहीं हूँ।  

Monday, August 20, 2012

वैज्ञानिक परम्पराएँ-वेद और हवन

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  ~विजय राजबली माथुर ©
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