Monday, January 31, 2011

महाभारत क्यों होता?

फ़ौज में कभी-कभी परेड को आदेश मिलता है कि,पीछे मुड और सारी परेड आगे चलते-चलते एकदम से पीछे लौट चलती है.पी.एस.डी.एवं एन.सी.सी.की ट्रेनिंग क़े दौरान हवलदार सा :क़े आदेश पर हम लोगों ने भी ऐसा किया है. आज अपने पुराने कागजात पलटते -पलटते १९६९ -७० क़े दौरान लिखी अपनी यह लघु तुक-बन्दी जिसे २६ .१० १९७१ को हिन्दी टाईप सीखते समय टाईप किया था नज़र आ गई ,प्रस्तुत है-

जो ये भीष्म प्रतिज्ञा न करते देवव्रत ,
 तो यह महाभारत क्यों होता?
 होते न जन्मांध धृतराष्ट्र ,
 तो यह महाभारत क्यों होता?
 इन्द्रप्रस्थ क़े राजभवन से होता न तिरस्कार कुरुराज का,
तो यह महाभारत क्यों होता?
 ध्रूत-भवन में होता न चीर -हरण द्रौपदी का,
 तो यह महाभारत क्यों होता?
 होता न यदि यह महाभारत,
 तो यह भारत,गारत क्यों होता?
 होता न यदि यह महाभारत,
 तो यह गीता का उपदेश क्यों होता?
 होता न यदि यह गीता का उपदेश,
 तो इन वीरों का क्या होता?
मिलती न यदि वीर गति इन वीरों को,
तो इस संसार में हमें गर्व क्यों होता?
*               *              *



 (इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Saturday, January 29, 2011

गाँधी जी की हत्या –साम्राज्यवादी साजिश (बलिदान दिवस ३० जनवरी पर विशेष )



१५ अगस्त,१९४७ को प्राप्त राजनीतिक आज़ादी और ३० जन.१९४८ को गाँधी जी की हत्या को सांप्रदायिक देन बताया जाता है. परन्तु भारत से बर्मा को १९३५ में अलग किये जाने के बाद नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के वक्तव्य की मीमांसा की जाये तो स्पष्ट हो जायेगा की भारत-विभाजन और गाँधी जी की हत्या दोनों ही साम्राज्यवादी साजिश के परिणामस्वरूप घटित घटनाएँ हैं.नेता जी सुभाष ने स्पष्ट कहा था कि जिस प्रकार आयेरलैंड से अलस्टर को अलग किया गया था उसी प्रकार बर्मा को भारत से अलग किया गया है और यह आने वाले समय में देश का खंडन किये जाने का संकेत है.खेद की बात है कि क्योंकि स्वयं गाँधी जी ही नेता जी के विरोधी थे;इसलिए नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की बात को गंभीरता से नहीं लिया गया. नेता जी बोस की बात को समझने के लिए इतिहास को पलट कर देखने की आवश्यकता है. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मराठों ने मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के नेतृत्व  में अंग्रेजों के छक्के छुडाये थे. रानी विक्टोरिया के अधीन शासन सँभालने के बाद पहले पहल ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपनी नीव मज़बूत करने हेतु भारत में मुस्लिमों का दमन किया और वे आर्थिक-शैक्षिक क्षेत्र में पीछे हो गए.लेकिन आज़ादी के आन्दोलनों में मुस्लिम बढ़ चढ़ कर भाग लेते रहे.१९०५ में धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन कर मुस्लिमों को अलग करने की चाल चली गयी.बंग-भंग को रद्द करने हेतु जार्ज पंचम को भारत आना पड़ा. शातिर दिमाग साम्राज्यवादियों ने १९२० में ढाका के नवाब को मोहरा बना कर मुस्लिम लीग की स्थापना करायी.साम्राज्यवादी शासकों की प्रेरणा से ही १९२५ में हिन्दू महासभा तथा आर एस.एस. का गठन किया गया और खुलकर धार्मिक वैमनस्य का खेल खेला गया .भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन भी इसी साजिश का शिकार हुआ और १९४० में पहली बार पाकिस्तान के निर्माण की बात सामने आई.दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने आई.अन.ऐ.के माध्यम से ब्रिटिश सरकार से सेन्य संघर्ष किया जिस के परिणाम स्वरुप वायु सेना व नौ सेना में भी विदेशी सरकार के प्रति छुट-पुट बगावत हुई.अतः घबरा कर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत का विखंडन कर पाकिस्तान व भारत दो स्वतंत्र देशों का निर्माण कर दिया.पाकिस्तान में तो साम्राज्यवादी अपने पसंद की सरकारें गठित करने में कामयाब हो जाते हैं,परन्तु भारत में साम्राज्यवादी पूरे कामयाब नहीं हो पाते हैं.गाँधी जी की हत्या पाकिस्तान को अनुदान दिए जाने की गाँधी जी की सिफारिश के विरोध में की गयी-ऐसा हत्यारे ने अपने मुक़दमे के दौरान कहा.आशय साफ था देश में पुनः सांप्रदायिक तनाव पैदा कर विकास को अवरुद्ध किया जाना. तमाम साम्राज्यवादी सांप्रदायिक साजिशों के भारत आज प्रगति पथ पर अग्रसर तो है,परन्तु इसका लाभ समान रूप से सभी देश वासियों को प्राप्त नहीं है.सामाजिक रूप से इंडिया और भारत में अंतर्द्वंद चल रहा है और यह साम्राज्यवादियों की साजिश का ही हिस्सा है.आज आवश्यकता है भारत-विभाजन और गाँधी जी की हत्या को साम्राज्यवादियों की साजिश का परिणाम स्वीकार कर लेने की तथा देश के आर्थिक विकास में उत्पन्न असमानता को दूर करने की ,वर्ना साम्राज्यवादी शक्तियां भारत को अन्दर से खोखला करने हेतु विद्द्वेश के बीज बोती रहेंगी और नफरत के शोले भड़कते रहेंगे और इस प्रकार का विकास बेमानी ही रहेगा.जिसका लाभ देश की अधिकांश जनता को नहीं,कुछ मुट्ठी भर लोगों को ही मिलता रहेगा.जनतंत्र में देश के विकास का लाभ जनता को दिलाना है तो साम्राज्यवादी साजिशों को विफल करना ही होगा .इसके लिए आज की पीढ़ी और नौजवानों को जागरूक करना ही होगा.




Type setting and formatting done by yashwant mathur (responsibile for all typing errors)

 (इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
***********
फेसबुक  में प्राप्त टिप्पणी :30 जनवरी 2015 




के ग्रुप CPI BEGUSARAI

Friday, January 28, 2011

"गांधी को महात्मा बनाने वाले ग्रह -नक्षत्र"



यद्यपि  महात्मा गांधी ने सरकार में कोई पद ग्रहण नहीं किया;परन्तु उन्हें राष्ट्रपिता की मानद उपाधि से विभूषित किया गया है.गांधी जी क़े जन्मांग में लग्न में बुध बैठा है और सप्तम भाव में बैठ कर गुरु पूर्ण १८० अंश से उसे देख रहा है जिस कारण रूद्र योग घटित हुआ.रूद्र योग एक राजयोग है और उसी ने उन्हें राष्ट्रपिता का खिताब दिलवाया है.गांधी जी का जन्म तुला लग्न में हुआ था जिस कारण उनके भीतर न्याय ,दया,क्षमा,शांति एवं अनुशासन क़े गुणों का विकास हुआ.पराक्रम भाव में धनु राशि ने उन्हें वीर व साहसी बनाया जिस कारण वह ब्रिटिश सरकार से अहिंसा क़े बल पर टक्कर ले सके.


गांधी जी क़े सुख भाव में उपस्थित होकर केतु ने उन्हें आश्चर्यजनक ख्याति दिलाई परन्तु इसी क़े कारण उनके जीवन क़े अंतिम वर्ष कष्टदायक व असफल रहे.(राजेन्द्र बाबू को भी ऐसे ही केतु क़े कारण अंतिम रूप से नेहरु जी से मतभेदों का सामना करना पड़ा था.)एक ओर तो गांधी जी देश का विभाजन न रुकवा सके और दूसरी ओर साम्प्रदायिक सौहार्द्र  भी स्थापित न हो सका और अन्ततः उन्हें अंध -धर्मान्धता का शिकार होना पड़ा.

गांधी जी क़े विद्या भाव में कुम्भ राशि होने क़े कारण ही वह कष्ट सहने में माहिर बने ,दूसरों की भलाई और परोपकार क़े कार्यों में लगे रहे और उन्होंने कभी भी व्यर्थ असत्य भाषण नहीं किया.गांधी जी क़े अस्त्र सत्य और शास्त्र अहिंसा थे.गांधी जी क़े सप्तमस्थ  गुरु ने ही उन्हें विद्वान व राजा क़े तुल्य राष्ट्रपिता की पदवी दिलाई.

गांधी जी क़े भाग्य भाव में मिथुन राशि है जिस कारण उनका स्वभाव सौम्य,सरस व सात्विक बना रहा.धार्मिक सहिष्णुता इसी कारण उनमें कूट -कूट कर भरी हुई थी.उन्होंने सड़ी -गली रूढ़ियों व पाखण्ड का विरोध किया अपने सदगुणों और उच्च विचारों क़े कारण अहिंसक क्रांति से देश को आज़ाद करने का लक्ष्य उन्हें इसी क़े कारण प्राप्त हो सका.गांधी जी क़े कर्म भाव में कर्क राशि की उपस्थिति ने ही उनकी आस्था श्रम,न्याय व धर्म में टिकाये रखी और इसी कारण राजनीति में रह कर भी वह पाप-कर्म से दूर रह कर गरीबों की सेवा क़े कार्य कर सके.गांधी जी का सर्वाधिक जोर दरिद्र -नारायण की सेवा पर रहता था और उसका कारण यही योग है.गांधी जी क़े एकादश भाव में सिंह राशि एवं चन्द्र ग्रह की स्थिति ने उन्हें हठवादी,सादगी पसन्द ,सूझ -बूझ व नेतृत्व की क्षमता सम्पन्न तथा विचारवान बनाया.इसी योग क़े कारण उनके विचार मौलिक एवं अछूते थे जो गांधीवाद क़े नाम से जाने जाते हैं.अस्तु गांधी जी को साधारण इन्सान से उठ कर महात्मा बनाने में उनके जन्म-कालीन ग्रह व नक्षत्रों का ही योग है.



(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Tuesday, January 25, 2011

देश का दुर्भाग्य

मानव जीवन की भांति ही देश क़े जीवन में भी कभी -कभी कुछ घटनाएँ घट  जाया करती हैं.मानव जीवन की कहानी एक निरन्तर संघर्ष की कहानी है.जहाँ-जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी  वहां-वहां वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीं वह रुक गया.आज भी कई जातियां काफी पिछड़ी हुई तथा आदिम अवस्था में रहती हैं.जिस प्रकार जंगल में धुंए को देख कर हम कह सकते हैं कि कहीं ज़रूर आग लगी है.इसी प्रकार इन पिछड़ी हुई जातियों को देख कर हम यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि संसार की सभी जातियां पहले ऐसे ही रही होंगी.प्रकृति क़े साथ सतत संघर्षों क़े परिणाम स्वरूप आज वे इस अवस्था को पहुँच सकी हैं.विकसित सभ्य और सुसंस्कृत होते हुए भी मानव दुःख रहित नहीं है.उसका समस्त जीवन दुखों से घिरा पड़ा हुआ है.महात्मा बुद्ध का कथन है कि जन्म ही दुःख है ,ज़रा भी दुःख है.जब मानव जीवन दुखमय है तो उनसे बने देश या राज्य का दुःख रंजित होना ,आश्चर्य की बात नहीं है.विशेष कर हमारा भरत देश अत्यंत दुखी है और यही उसका दुर्भाग्य है.देश क़े दुर्भाग्य का रोना लेकर महात्माओं,समाजवेत्ताओं ,राजनीतिक चिंतकों ने साहित्य को इससे भर दिया है.अनेक महात्मा गण देश क़े इस दुर्भाग्य को दूर करने क़े लिये कृत-कृत उपाय  पेश कर रहे हैं.इसी सम्बन्ध में १६ फरवरी १९६९ क़े "धर्मयुग " में आचार्य रजनीश क़े उदगार प्रस्तुत किये गये थे और ०२ मार्च क़े "साप्ताहिक हिंदुस्तान"में उन्हीं क़े विचार पुनः प्रस्तुत किये गये .इनके द्वारा देश में एक नवीन-क्रांति क़े विचारों को प्रोत्साहित किया गया ,जीवन को आधुनिकता से पूर्ण करने की बात कही गई.आचार्य रजनीश जीवन में क्रांति लाकर देश क़े दुर्भाग्य को दूर करना चाहते हैं.समझ में नहीं आता कि आचार्य जी का क्रांति से क्या तात्पर्य है?उनके उद्गारों से यह पता चलता है कि वह पाश्चात्य नमूने क़े जीवन दृष्टिकोण को भरत में प्रसरित करना चाहते हैं.किन्तु यह नहीं पता कि वह क्रांति से क्या समझते हैं?

क्रांति की बात करने से पहले हमें यह सोच लेना चाहिए कि "विद्रोह"या "क्रांति"ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसका विस्फोट एकाएक होता है.बल्कि इसके अनन्तर समाज की अर्ध- जाग्रत अवस्था में अन्तर क़े तनाव को बल मिलता रहता है.मानव ह्रदय शंका और समाधान क़े विचारों क़े मध्य मंडराता रहता है और कोई छोटी सी घटना उस सजे-सजाये बारूद क़े ढेर में चिंगारी का काम करती है.बस लोग इसी को क्रांति कह देते हैं.आचार्य रजनीश जिस क्रांति की बात कहते हैं उसके अन्तराल में अन्तर क़े तनाव को बल न मिल रहा हो ऐसी कोई बात नहीं.लोग आज नहीं बहुत पहले से जीवन क़े वर्तमान दृष्टिकोण को परिवर्तित करने को उद्यत रहे हैं और समय-समय पर यह आन्दोलन तीव्र गति होता गया है जो ब्रह्म समाज,आर्य समाज,राम-कृष्ण मिशन क़े रूप में प्रस्फुटित हुआ है.परन्तु किसी भी आन्दोलनकारी ने यह नहीं कहा कि भरत का अतीत वर्तमान को निष्क्रय  बना रहा है.आचार्य रजनीश इसके विपरीत अपना अलग राग अलापते हैं ,वह कह रहे हैं कि,भरत अतीत की ओर लौट रहा है.वह प्रगति नहीं कर पा रहा है.यथार्थ में भरत का अतीत(यदि उसे वास्तविक रूप में देखा जाये)वर्तमान को वह प्रेरणा दे सकता है जो आचार्य रजनीश का पश्चात्य्वादी दृष्टिकोण स्वप्न में भी नहीं दे सकता है जो सूर्य हमेशा पूर्व में निकलता है और पश्चिम में अस्त होता है ,आचार्य रजनीश देश को पश्चिम में ले जाकर डुबाने नहीं जा रहे हैं क्या? यदि उन्हीं की विचारधारा पर चल कर देश लुढ़क पड़े तो निस्संदेह यह समूल नष्ट हो जायेगा.पश्चिम क़े अन्न ,वस्त्र और शस्त्र ने ही देश की मिट्टी पलीद कर रखी है तब तो उसका नामोनिशान ही मिट जायेगा.अभी सन १८९० ई. तक भरत परतंत्र होते हुए भी,हमारा सितारा बुलंद था.पाश्चात्य वादी  सत्याग्रह,आन्दोलन और अहिंसा ने देश क़े नौजवानों को पंगु,कायर और भीरु बना दिया है.इसी क़े कारण उसके मस्तिष्क का हनन हुआ है.स्वतंत्रता क़े बाईस वर्षों में (अब ६३ वर्ष) पश्चिम पर निर्भर रह कर देश क़े कर्णधारों ने दुर्भाग्यपूर्ण पतन की गहराई को समीप ला दिया है.यदि हवा पश्चिम से पूर्व की ओर चलती रही तो निश्चय ही प्रलय हो जायेगी.

आचार्य रजनीश ने भरत क़े अतीत को आँखें खोल कर नहीं देखा ,पश्चिम की सुरा  ने उनके मस्तिष्क को विकृत कर दिया है,और विकृत कर दिया है नौजवान मानस पटलों को.आचार्य रजनीश जी डाक्टर. मजुमदार की भांति गर्व क़े साथ कहते हैं कि भारत  ने इतिहास को कोई महत्त्व नहीं दिया.सही ह्रदय से वे यह कह सकें कि इतिहास को भारत  में पंचम-वेद का स्थान नहीं दिया गया तो उनकी बात नशीली दुनिया क़े लिये ठीक हो सकती है.आज हमारे देश का इतिहास वेदोपनिषद,पुरानों और स्मृतियों में सुरक्षित है.यह बात अलग है कि निरन्तर अवांतर घटनाओं क़े समावेश से उनका नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध तारतम्य टूट गया है.स्वामी दयानंद सरस्वती ने तो दृढ विश्वास क़े साथ नारा दिया था-'वेदों की ओर चलो'-वेद हमारे अतीत की देन नहीं हैं क्या?जो वेद हमें यह उपदेश देते हैं कि -

अभि वर्धतां पयत्वअभि राष्ट्रेण वर्धताम .
रय्यां सहस्रका से मौ स्तामनु  पक्षितौ..
                              (अथर्व वेद ६/७८ /२)
अर्थात-"ये वर वधु दूध पी कर पुष्ट हों,वे अपने राष्ट्र क़े साथ उन्नत होते रहें.वे अनेक तरह की संपत्तियों से युक्त होकर तेजस्वी बन कर कभी भी अवनत  न हों."

वे वेद पतन उन्मुख  नहीं हो सकते हैं.वे 'एकला चलो रे' की शरारत नहीं सिखाते.अतीत की देन वेद कहते हैं राष्ट्र क़े साथ चलो ,व्यक्तित्व का विकास राज्य क़े विकास में रोड़ा न बने.राष्ट्र मनुष्यों से बनता है.अर्थात वेद सिखाते हैंकि मानव-धर्म का पालन करो.वे सिखाते हैं मनुष्य को मनुष्य से मिल कर चलना.वे बताते हैं राज्य की उन्नति में -मनुष्यों को सामूहिक उन्नति में व्यक्ति की उन्नति का मार्ग.तब आचार्य रजनीश क्या सोच कर यह कहने का दम्भ करते हैं कि भारत का मनुष्य अपने विकास में 'स्व'पर केन्द्रित है और यह अतीत क़े कारण है.वह अहिंसा की जो बात कहते हैं वह भी अतीत की देन न होकर ,वह है किसी पाश्चात्य वादी  महात्मा क़े दिमाग का फितूर जो उसने 'अहिंसा'क़े माने 'नान-वायेलेंस' बतलाये.हमारे अतीत की देन वेद कभी भी नहीं कहते कि शत्रु क़े समक्ष भीरुता प्रदर्शन करो;दूसरा गाल भी चांटा खाने क़े लिये प्रस्तुत करो.वेद कहते हैं कि निर्भीकता पूर्वक शत्रु का सामना करो.अतीत अहिंसा क़े नाम पर कायर बनने की प्रेरणा नहीं देता-
आततायिनमायान्तुं हन्यदिवा विचारयन.
नाततायो वधे दोषों हन्तुर्भवती कश्चन*
                (मनुस्मृति)

अर्थात - "यदि कोई आततायी को सामने से आता हुआ देखे तो बिना किसी सोच-विचार क़े उसे मार दे.उसके वध से वध करने वाले को कोई पाप नहीं लगता."

हमारा अतीत हमें भीरु अहिंसा की सीख नहीं देता ;वह हमें 'स्व'पर केन्द्रित नहीं करता .अतीत कहता है-
'सर्वभूत हिते रतः' और कहता है-'वसुधैव कुटुम्बकम'
वस्तुतः आचार्य रजनीश आचार्यत्व क़े महत्त्व को भी घटा रहे हैं.सच तो यह है कि जिस दिन हमारा देश पश्चिम की ओर न बह कर अपने पूर्व की ओर -अतीत की ओर कदम बढ़ने लगेगा तो हमारे जीवन दृष्टिकोण में स्वतः नवीन आभा मुखरित हो उठेगी.और हमारे देश का यह कल्पित दुर्भाग्य हवा क़े महल की भांति धाह जायेगा.पश्चिम को तिलांजली देकर पूर्व में अतीत में देखें तभी देश का मनुष्यमात्र का कल्याण होगा.-
'पाछे पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत'
इसलिए देश क़े नौजवानों और महानुभावों वक्त रहते समय क़े भीतर वस्तुस्थिति को समझो ,पाश्चात्य क़े झोंके में मत उड़ो अपने पूर्व को पहचानो अतीत को देखो तभी देश क़े कल्पित दुर्भाग्य का अंत होगा.
----------------------------------------------------------------------------------------------
यह लेख सन १९७० ई. में बी.ए.की पढ़ाई क़े दौरान लिखा गया था और मुझे आज भी यह सटीक ही लगता है,इसलिए इस अप्रकाशित लेख को अब दे रहा हूँ.
* १३ जन २०११ का डा.मोनिका शर्मा का आलेख  मुझे मनुस्मृति क़े इस श्लोक क़े सन्दर्भ में पूर्ण न्यायोचित प्रतीत होता है.
(भारतीयता की भ्रामक व्याख्या प्रस्तुत करने वाली पार्टी क़े उस विधायक क़े साथ किया गया सलूक मनु महाराज की व्याख्या क़े अनुसार सही था)

राष्ट्र गान एवं राष्ट्र गीत से सभी परिचित हैं यहाँ हम आप को आज ६१ वें गणतंत्र की चला चली तथा ६२ वें गणतंत्र दिवस की पूर्व बेला पर   अपनी प्राचीन राष्ट्रीय प्रार्थना जो  यजुर्वेद अध्याय २२ क़े २२ वें मन्त्र द्वारा ऋषियों ने की है उसके भवानी दयाल संन्यासी  द्वारा किये गये भावानुवाद से परिचित करा रहे हैं-







 (इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Sunday, January 23, 2011

स्वतंत्रता दिलाने में नेताजी का योगदान-(जन्म दिवस पर एक स्मरण)



'नेताजी' का मतलब सुभाष चन्द्र बोस से होता था.(आज तो लल्लू-पंजू ,टुटपूंजियों क़े गली-कूंचे क़े दलाल भी खुद को नेताजी कहला रहे हैं) स्वतन्त्रता -आन्दोलन में भाग ले रहे महान नेताओं को छोड़ कर केवल सुभाष -बाबू को ही यह खिताब दिया गया था और वह इसके सच्चे अधिकारी भी थे.जनता सुभाष बाबू की तकरीरें सुनने क़े लिये बेकरार रहती थी.उनका एक-एक शब्द गूढ़ अर्थ लिये होता था.जब उन्होंने कहा "तुम मुझे खून दो ,मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा" तब साधारण जनता की तो बात ही नहीं ब्रिटिश फ़ौज में अपने परिवार का पालन करने हेतु शामिल हुए वीर सैनिकों ने भी उनके आह्वान  पर सरकारी फ़ौज छोड़ कर नेताजी का साथ दिया था. जिस समय सुभाष चन्द्र बोस ने लन्दन जाकर I .C .S .की परीक्षा पास की ,वह युवा थे और चाहते तो नौकरी में बने रह कर नाम और दाम कमाँ  सकते थे.किन्तु उन्होंने देश-बन्धु चितरंजन दास क़े कहने पर आई.सी.एस.से इस्तीफा  दे दिया तथा स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े.  जब चितरंजन दास कलकत्ता नगर निगम क़े मेयर बने तो उन्होंने सुभाष बाबू को उसका E .O .(कार्यपालक अधिकारी )नियुक्त किया था और उन्होंने पूरे कौशल से कलकत्ता नगर निगम की व्यवस्था सम्हाली थी.

वैचारिक दृष्टि से सुभाष बाबू वामपंथी थे.उन पर रूस की साम्यवादी क्रांति का व्यापक प्रभाव था. वह आज़ादी क़े बाद भारत में समता मूलक समाज की स्थापना क़े पक्षधर थे.१९३६ में लखनऊ में जब आल इण्डिया स्टुडेंट्स फेडरशन की स्थापना हुई तो जवाहर लाल नेहरु क़े साथ ही सुभाष बाबू भी इसमें शामिल हुये थे.१९२५ में गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उस समय कांग्रेस क़े भीतर रह कर अपना कार्य करती थी.नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ,जवाहर लाल नेहरु तथा जय प्रकाश नारायण मिल कर कांग्रेस को सामाजिक  सुधार तथा धर्म-निरपेक्षता की ओर ले जाना चाहते थे.१९३८ में कांग्रेस क़े अध्यक्षीय चुनाव में वामपंथियों ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को खड़ा किया था और गांधी जी ने उनके विरुद्ध पट्टाभि सीतारमय्या को चुनाव लड़ाया था. नेताजी की जीत को गांधी जी ने अपनी हार बताया था और उनकी कार्यकारिणी का बहिष्कार करने को कहा था.तेज बुखार से तप रहे नेताजी का साथ उस समय जवाहर लाल नेहरु ने भी नहीं दिया.अंत में भारी बहुमत से जीते हुये (बोस को १५७५ मत मिले थे एवं सीतारमय्या को केवल १३२५ )नेताजी ने पद एवं कांग्रेस से त्याग पत्र दे दिया और अग्र-गामी दल
(फॉरवर्ड ब्लाक) का गठन कर लिया.ब्रिटिश सरकार ने नेताजी को नज़रबंद कर दिया.क्रांतिवीर विनायक दामोदर सावरकर क़े कहने पर नेताजी ने गुप-चुप देश छोड़ दिया और काबुल होते हुये जर्मनी पहुंचे जहाँ एडोल्फ हिटलर ने उन्हें पूर्ण समर्थन दिया. विश्वयुद्ध क़े दौरान दिस.१९४२ में जब नाजियों ने सोवियत यूनियन पर चर्चिल क़े कुचक्र में फंस कर आक्रमण कर दिया तो "हिटलर-स्टालिन "समझौता टूट गया.भारतीय कम्युनिस्टों ने इस समय एक गलत कदम उठाया नेताजी का विरोध करके ;हालांकि अब उन्होंने स्वीकार कर लिया है कि यह भारी गलती थी और आज उन्होंने नेताताजी क़े योगदान को महत्त्व देना शुरू कर दिया है.हिटलर की पराजय क़े बाद नेताजी एक सुरक्षित पनडुब्बी से जापान पहुंचे एवं उनके सहयोग से रास बिहारी बोस द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद फ़ौज (I .N .A .) का नेतृत्व सम्हाल लिया.कैप्टन लक्ष्मी सहगल को रानी लक्ष्मी बाई रेजीमेंट का कमांडर बनाया गया था. कैप्टन ढिल्लों एवं कैप्टन शाहनवाज़ नेताजी क़े अन्य विश्वस्त सहयोगी थे.

नेताजी ने बर्मा पर कब्ज़ा कर लिया था.आसाम में चटगांव क़े पास तक उनकी फौजें पहुँच गईं थीं."तुम मुझे खून दो,मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा"नारा इसी समय नेताजी ने दिया था. नेताजी की अपील पर देश की महिलाओं ने सहर्ष अपने गहने आई.एन.ए.को दान दे दिये थे,जिससे नेताजी हथियार खरीद सकें.नेताजी की फौजें ब्रिटिश फ़ौज में अपने देशवासियों पर बम क़े गोले नहीं तोपों से पर्चे फेंक्तीं थीं जिनमें देशभक्ति की बातें लिखी होती थीं और उनका आह्वान  करती थीं कि वे भी नेताजी की फ़ौज में शामिल हो जाएँ.इस का व्यापक असर पड़ा और तमाम भारतीय फौजियों ने ब्रिटिश हुकूमत से बगावत करके आई .एन .ए.की तरफ से लडाई लड़ी.एयर फ़ोर्स तथा नेवी में भी बगावत हुई.ब्रिटिश साम्राज्यवाद  हिल गया और उसे सन १८५७ की भयावह स्मृति हो आई.अन्दर ही अन्दर विदेशी हुकूमत ने भारत छोड़ने का निश्चय कर लिया किन्तु दुर्भाग्य से जापान की पराजय हो गई और नेताजी को जापान छोड़ना पड़ा.जैसा कहा जाता है प्लेन क्रैश में उनकी मृत्यु हो गई जिसे अभी भी संदेहास्पद माना जाता है. (यहाँ उस विवाद पर चर्चा नहीं करना चाहता ).

मूल बात यह है कि,१९४७ में प्राप्त हमारी आज़ादी केवल गांधी जी क़े अहिंसक आन्दोलन से ही नहीं वरन नेताजी की "आज़ाद हिंद फ़ौज " की कुर्बानियों,एयर फ़ोर्स तथा नेवी में उसके प्रभाव से बगावत क़े कारण मिल सकी है और अफ़सोस यह है कि इसका सही मूल्यांकन नहीं किया गया है.आज़ादी क़े बाद जापान सरकार ने नेताजी द्वारा एकत्रित स्वर्णाभूषण भारत लौटा दिये थे;ए.आई.सी.सी.सदस्य रहे सुमंगल प्रकाश ने धर्मयुग में लिखे अपने एक लेख में रहस्योदघाटन किया था कि वे जेवरात कलकत्ता बंदरगाह पर उतरने तक की खबर सबको है ,वहां से आनंद भवन कब और कैसे पहुंचे कोई नहीं जानता.आज आज़ादी की लडाई में दी गई नेताजी की कुर्बानी एवं योगदान को विस्मृत कर दिया गया है.क्या आज क़े नौजवान नेताजी का पुनर्मूल्यांकन करवा सकेंगे?उस समय नेताजी तथा अन्य बलिदानी क्रांतिकारी सभी नौजवान ही थे.यदि हाँ तभी प्रतिवर्ष २३ जनवरी को उनका जन्म-दिन मनाने की सार्थकता है,अन्यथा थोथी रस्म अदायगी का क्या फायदा ?
.

Type setting and formating done by yashwant mathur (responsible for all typing errors)

(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
**************************************
फेसबुक पर प्राप्त कमेन्ट :



 

Thursday, January 20, 2011

रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना (पुनर्प्रकाशन भाग-3)


प्रस्तुत  आलेख मूल रूप से आगरा से प्रकाशित साप्ताहिक सप्तदिवा क़े २७ अक्तूबर १९८२ एवं ३ नवम्बर १९८२ क़े अंकों में दो किश्तों में पूर्व में ही प्रकाशित हो चुका है  तथा इस ब्लॉग पर भी पहले प्रकाशित किया जा चुका है.पूर्व में प्रकाशित इस आलेख की अशुद्धियों को यथासम्भव सुधारते हुए तथा पाठकों की सुविधा क़े लिये यहाँ ४ किश्तों में पुनर्प्रकाशित किया जायेगा.

प्रस्तुत है ३  सरी किश्त (प्रथम किश्त देखने  क़े लिये यहाँ क्लिक करें व दूसरी किश्त यहाँ क्लिक करके  देख सकते हैं)

__________________________________________________



राम के विवाह के दो वर्ष पश्चात् प्रधानमंत्री वशिष्ठ ने दरबार (संसद) में राजा को उनकी वृद्धावस्था का आभास कराया और राम को उत्तराधिकार सौपकर अवकाश प्राप्त करने की  ओर संकेत दिया.राजा ने संसद के इस प्रस्ताव का स्वागत किया;सहर्ष ही दो दिवस की अल्पावधि में पद त्याग करने की  घोषणा की .एक ओर तो राम के राज्याभिषेक (शपथ ग्रहण समारोह) की  जोर शोर से तैय्यारियाँ आरंभ हो गयीं तो दूसरी ओर प्रधान मंत्री ने राम को सत्ता से पृथक  रखने की  साजिश शुरू की.मन्थरा को माध्यम बना कर कैकयी को आस्थगित वरदानों में इस अवसर पर प्रथम तो भरत के लिए राज्यद्वितीय राम के लिए वनवास १४ वर्ष की  अवधि के लिए,दिलाने के लिए भड़काया,जिसमे उन्हें सफलता मिल गयी.इस प्रकार दशरथ की मौन स्वीकृति  दिलाकर राज्य की अंतिम मोहर दे कर राम-वनवास का घोषणा पत्र  राम को भेंट किया.राम,सीता  और लक्ष्मण को गंगा  पर (राज्य कि सीमा तक) छोड़ने  मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य सुमंत (विदेश मंत्री) को भेजा गया. अब राम के राष्ट्रीय कार्य-कलापों का श्री गणेश हुआ.सर्वप्रथम तो आर्यावर्त के प्रथम डिफेंस सेण्टर प्रयाग में भरद्वाज ऋषि के आश्रम पर राम ने उस राष्ट्रीय योजना का अध्ययन किया जिसके अनुसार उन्हें रावण  का वध करना था.भरद्वाज ऋषि ने राम को कूटनीति  की प्रबल शिक्षा दी.क्रमशः अग्रिम डिफेंस सेंटरों (विभिन्न ऋषियों के आश्रमों) का निरीक्षण  करते हुए राम ने पंचवटी में अपना दूसरा शिविर डाला जो आर्यावर्त से बाहर वा-नर प्रदेश में था जिस पर रावण के मित्र बाली का प्रभाव था.चित्रकूट में राम को अंतिम सेल्यूट  दे कर पुनीत कार्य के लिए विदा दे दी गयी थी.अतः अब राम ने अस्त्र (शस्त्र भी) धारण कर लिया था .पंचवटी में रहकर उन का कार्य प्रतिपक्षी को युद्ध के लिए विवश करना था.यहाँ रहकर उन्होंने लंका के विभिन्न गुप्तचरों तथा एजेंटों का वध किया.इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर राष्ट्रद्रोही जयंत का गर्व चूर किया खर-दूषण नामक  रावण  के दो बंधुओं का सर्वनाश किया.सतत अपमान के समाचारों को प्राप्त करते-करते रावण का खून खुलने  लगा उसने अपने मामा को (जो भांजे के प्रति भक्ति न रखकर स्वार्थान्धता वश  विदेशियों के प्रति लोभ पूर्ण  आस्था रखता था) राम के पास जाने का आदेश दिया और स्वयं वायुयान द्वारा गुप्तरूप से पहुँच गया.राम को मारीच की लोभ-लोलुपता तथा षड्यंत्र की सूचना लंका स्थित उनके गुप्तचर ने बे-तार के तार से दे दी थी अतः उन्होंने मारीच को दंड देने का निश्चय किया.वह उन्हें युद्ध में काफी दूर ले गया तथा छल से लक्ष्मण को भी संग्राम में भाग लेने को विवश किया.अब रावण ने भिक्षुक  के रूप में जा कर सीता को लक्ष्मण द्वारा की गयी इलेक्ट्रिक वायरिंग (लक्ष्मण रेखा) से बाहर  आकर दान देने के लिए विवश किया और उनका अपहरण कर विमान द्वारा लंका ले गया.


जारी ...


4 था और अंतिम भाग पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें  




Type setting and formatting done by yashwant mathur (responsibile for all typing errors)

 

(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Monday, January 17, 2011

सुख और दुःख ज्योतिष क़े आईने में

सुख और दुःख परस्पर विरोधी अवस्थाओं का भान कराने वाले शब्द हैं.वैसे यदि दुःख न हो तो सुख की अनुभूति या उसे प्राप्त करने की इच्छा भी नहीं हो सकती.मर्यादा पुरुषोत्तम राम व जानकी माता तथा योगीराज श्री कृष्ण को भी दुखों का सामना करना ही पड़ा था.यहाँ एक ऐसे शख्स का उल्लेख कर रहे हैं,जिन्हें एक ही ग्रह मंगल ने सुख और दुःख दोनों अलग-अलग प्रकार से प्रदान किये.ऐसा न केवल उनके जन्म-कालीन ग्रहों क़े आधार पर हुआ बल्कि,गोचर-कालीन मंगल की कुद्रष्टि ने भी उन्हें पीड़ित किया.

उनके जन्मांग में चतुर्थ भावस्थ मंगल उनको भूमि व वाहन लाभ दिलाने में पूर्ण समर्थ रहा है,उनके कई अपने निजी मकान हैं और कई उत्तम वाहनों क़े भी वह स्वामी हैं;जहाँ इतनी सुख-सुविधाएं उन्हें मंगल ग्रह क़े कारण मिल रही हैं-वहीं यही मंगल उन्हें पीड़ा देने में भी अग्रणी है.पत्नी भाव का स्वामी होकर सुख भाव में प्रबल शत्रु-ग्रह शुक्र क़े साथ मंगल की उपस्थिति ही उनकी पत्नी क़े स्वास्थ्य को क्षीण करने का कारण बनी है.विवाह क़े बाद लगातार उनकी पत्नी कुछ न कुछ रुग्ण रही हैं और लगभग ७ वर्ष पूर्व उन्हें बड़ा आपरेशन कराना पड़ा है.ऐसा मंगल क़े गोचर-कालीन प्रभाव और जातक क़े जन्मांग में स्थिति  दोनों क़े फलस्वरूप घटित हुआ है.जातक को स्वंय २० जूलाई २००३ को दुर्घटना का शिकार होना पड़ा-पटना में रात्री पौने आठ क़े उपरान्त उनको बदमाशों ने किसी दूसरे क़े धोखे में गोली मार दी जो उनके पेट में घुस कर पीछे कमर से निकल गई.जातक को आपरेशन कराना पड़ा और लम्बे समय तक चिकित्सा-अवकाश पर रहना पड़ा.जातक क़े जन्मांग तथा गोचर काल में जब गोली दोनों स्थितियों में शनि उनके शत्रुओं क़े लिये संहारक स्थिति में था.शनि मंगल का प्रबल शत्रु भी है,अतः स्पष्ट है कि,शनि ने मंगल क़े आघात से जातक की प्राण-रक्षा की है,परन्तु ऊँची दुकान फींका पकवान वाले पं.जी ने जातक को शनि ग्रह घातक बताया था और गोली लगने का हेतु भी शनि को बताया था.जबकि अध्ययन काल में भी जातक वाहन दुर्घटना का शिकार मंगल क़े प्रकोप से हो चुके थे और तब भी उन्हें शनि गृह ने ही बचाया था.अन्ततः जातक ने मुझसे संपर्क किया और तब मैंने उन्हें समझाया कि उन्हें मंगल गृह की शांति करानी चाहिए तथा जो रत्न उन पं.जी ने पहनाया है उन्हें उतार देना चाहिए .जातक ने मेरे बताये अनुसार वैसा ही किया और राहत प्राप[त की.उनके घर का माहौल भी पहले की अपेछा ठीक हो गया.जातक क़े जन्मांग में सिर्फ मंगल का ही कोप नहीं था,वरन जहाँ वह तब निवास कर रहे थे उस सरकारी मकान में ईशान में रसोई-घर बना हुआ था.जातक और उनकी पत्नी दोनों ही ब्लड प्रेशर से ग्रसित थे और इस वस्तु-दोष ने भी उन्हें दुर्घटना का शिकार बनाया .उन्हें वास्तु-दोष क़े निराकरण हेतु भी सुझाव व उपाय दिये जिन्हें उन्होंने स्वीकार व अंगीकार किया तथा उसका लाभ भी उन्हें मिला और जो भय व कष्ट उन्हें सता रहे थे उनसे राहत मिल गई.यह जातक रसायन शास्त्र(केमिस्ट्री)में पी. एच.डी.हैं.अतः इन्हें हवन की वैज्ञानिक पद्धति से उपचार की बात तर्क सांगत लगी और उन्होंने उसका सहारा लेकर लाभ भी प्राप्त किया.परन्तु ऐसे इंजीनियर परिवारों से भी साबका पड़ा जिन्हें विज्ञान-सम्मत तर्क समझ में नहीं आते और वे उन उपायों को करने की बजाये पोंगा-पंडितों क़े बताये उल-जलूल उपायों को ही अपनाते हैं.एक इं.सा :अपने घर क़े वास्तु-दोष क़े कारण अपनी बाईपास सर्जरी करा चुके थे. उनके पहले किरायेदार की मौत इसी दोष क़े कारण हो गई,तीसरे किरायेदार क़े बड़े पुत्र का दुर्घटना में दुखांत हो गया,उनके दूसरे और चौथे किरायेदार दिवालिया हो गये.पांचवां किरायेदार एक फ्राड था जो कुछ दिन रह कर भाग गया.लेकिन इंजीनियरी क़े नशे में उन साहब को अपने मकान क़े वास्तु-दोषों का निराकरण करने की आवश्यकता नहीं है.एक और परिवार में तीन सदस्य इंजीनियर हैं यह भी एक आधुनिक परिवार है इनके ईशान में शौचालय और उत्तर में रसोई बनी हुई है.तमाम वास्तु दोष इन्हें परेशान तो कर रहे हैं परन्तु ये लोग इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.वैज्ञानिक विधि क़े उपायों का भी उनकी निगाह में कोई महत्त्व नहीं है.इं दोषों का ही परिणाम था कि परिवार क़े मुखिया को हार्ट प्राब्लम का भी सामना करना पड़ा था और इसी परिवार में रहने वाले बालक को दो बार एक ही कक्षा में रुकना पड़ा और तीसरी बार प्रयास करना पड़ा.इस बालक को मेरे द्वारा जो उपाए बताये गये थे उन्हें इन लोगों ने नहीं माना और न ही अमल किया गया .इस बालक को भी मंगल ग्रह की शांति करने को कहा गया था,परन्तु साईंसदा परिवार ने वैज्ञानिक उपायों को ठुकरा दिया और इस प्रकार अपना ही अहित कर डाला.इस बुद्धि विपर्याय का कारण भी इस परिवार का वास्तु-दोष को ठुकरा कर उनका परिष्कार न करना ही है.जब ईशान में शौचालय होते हैं तो सबसे पहले बुद्धि ही भ्रष्ट होती है,उसके बाद धीरे-धीरे अन्य विकार जन्म लेते जाते है. वैसे ग्रहों ने धन-सम्पदा भी प्रदान की है जिसका वे दुरूपयोग ही करते हैं.एक अन्य परिवार जो धन-संपत्ति की दृष्टि से सम्पन्न है ऐसे निवास में रह रहा है जिसके नैरित्य(South West) में रसोई है और आग्नेय (South East) में शौचालय .इस परिवार क़े बच्चे व गृहणी रुग्ण चलते रहते हैं.परिवार क़े मुखिया उच्च शिक्षित ,उच्चाधिकारी और ठाकुर परिवार से सम्बंधित हैं.उन्होंने हमसे संपर्क किया ,उन्हें भी वैज्ञानिक विधि क़े उपाए बताये.उन्होंने सहर्ष समझा और स्वीकार ही नहीं किया वरन उन पर अमल भी शुरू कर दिया.वास्तु-दोष का निवारण तथा हवन-विधि से ग्रहों को शान्त कराया.स्वभाविक रूप से वैज्ञानिक उपायों क़े महत्त्व को समझा और सबसे पहले वास्तु-दोष का निरावरण कराया और लाभ उठाया.उनके विपरीत इंजीनियर सदस्यों वाले ठाकुर परिवार में वैज्ञानिक उपायों को दकियानूसी व बेकार का समझा गया,जिस कारण वे उनका लाभ उठाने से वंचित रहे.परिणाम स्वरूप बुद्धि-विभ्रम भी नहीं समझ सके-यही है ग्रहों का वैज्ञानिक खेल जो सुख और दुःख दोनों प्रदान कर रहा है.


सुख और दुःख -स्वास्थ्य क़े पैमाने से -
                 
              सुख की इच्छा करने से ,सुख न पावे कोय.
                 तन की रक्षा करने से,दुःख भी सुखमय होय..

A  Healthy Mind In a Healthy Body
विद्वानों क़े ये कथन निरर्थक नहीं हैं .हमारे यहाँ पहले एक प्रार्थना प्रचलित थी 'जीवेम शरदः शतम' जो अब विलुप्त प्राय हो गई है और यही कारण है कि अब हमारे यहाँ स्वस्थ मनुष्य नहीं हैं.किसी को कुछ तो किसी को कुछ समस्या परेशान किये हुये है.तेज जिन्दगी में खां-पान की ओर किसी का ध्यान नहीं है और अधिकाँश रोग उदर संबंधी हैं जिनसे फिर और नयी-नयी बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं.एक प्रमुख समस्या है गैस बनने की जो घुटनों ,कमर,रीढ़ और यहाँ तक कि सिर दर्द का कारण भी बनती है. भोजन क़े उपरान्त ढाई- तीन मिनट की यदि कसरत कर ली जाये तो नियमित करने पर गैस रोग से मुक्ति मिल जाती है और गठिया रोग भी दूर भाग जाता है.इसमें भोजन क़े बाद और भोजन क़े मध्य जल न पीयें.भोजनोपरान्त घुटनों क़े बल इस प्रकार बैठें कि पंजों पर कूल्हे तिक जाएँ,कमर सीधी रखें दोनों हथेलियों को दोनों घुटनों पर उन्हें ढकते हुये  टिकाएं .पानी भोजन क़े आधे घंटे बाद ही पियें.ऐसा करने पर जेलोसिल,गैसेक्स और गैस पिल्स सेवन करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.

अक्सर काम की अधिकता या अधिक बैठे रहने क़े कारण कमर में दर्द हो जाता है .कमर दर्द की कभी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए.इसके लिये छोटी सी कसरत दिन में कभी भी जब भोजन न किये हों अथवा भोजन किये हुये तीन -चार घंटे व्यतीत हो चुके हों तब ही करनी चाहिए .कमर सीधी करके दोनों पैर विपरीत दिशाओं में फैला लें.अब दायाँ हाथ फैला कर बायीं ओर तथा इसी प्रकार बयान हाथ फैला कर दायीं ओर ले जाएँ.
पांच -सात मिनट तक इस प्रक्रिया को दोहरायें.नियमित यह कसरत करने से कमर का दर्द स्वतः ठीक हो जाता है.शरीर में चुस्ती रहती है और आलस्य दूर होता है.परन्तु आवश्यकता है अपने शरीर पर ध्यान देने की,यह शरीर परमात्मा की अनुपम भेंट है और इसकी रक्षा करना भी परमात्मा की सेवा करने का ही अंग है.अतः तन की रक्षा करके दुःख को भी सुखमय बनाने का प्रयास करना चाहिए.

-----------------------------------------------------------------------------------------

Tye setting and formatting by yashwant mathur (responsibile for all typing errors)
-----------------------------------------------------------------------------------------
 (इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
-----------------------------------------------------------------------------------------

Saturday, January 15, 2011

रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना (पुनर्प्रकाशन भाग-२)

प्रस्तुत आलेख मूल रूप से आगरा से प्रकाशित साप्ताहिक सप्तदिवा क़े २७ अक्तूबर १९८२ एवं ३ नवम्बर १९८२ क़े अंकों में दो किश्तों में पूर्व में ही प्रकाशित हो चुका है  तथा इस ब्लॉग पर भी पहले प्रकाशित किया जा चुका है.पूर्व में प्रकाशित इस आलेख की अशुद्धियों को यथासम्भव सुधारते हुए तथा पाठकों की सुविधा क़े लिये यहाँ ४ किश्तों में पुनर्प्रकाशित किया जायेगा.
प्रस्तुत है २ सरी किश्त (प्रथम किश्त यहाँ क्लिक कर क़े देख सकते हैं
)
__________________________________________________
पश्चिम की ओर  हिन्दुकुश पर्वतमाला को पार कर आर्य जाति  आर्य नगर (ऐर्यान-ईरान) में प्रविष्ट हुई.कालांतर में यहाँ के प्रवासी आर्य,अ-सुर (सुरा न पीने के कारण) कहलाये.दुर्गम मार्ग की कठिनाइयों के कारण  इनका अपनी मातृ भूमि  आर्यावर्त से संचार –संपर्क टूट सा गया,यही हाल धुर-पश्चिम -जर्मनी आदि में गए प्रवासी आर्यों का हुआ.एतदर्थ प्रभुसत्ता को लेकर निकटवर्ती  प्रवासी-अ-सुर आर्यों से गंगा-सिन्धु के मूल आर्यों का दीर्घकालीन भीषण देवासुर संग्राम हुआ.हिन्दुकुश से सिन्धु तक भारतीय आर्यों के नेतृत्व  एक कुशल सेनानी इंद्र कर रहा था.यह विद्युत्  शास्त्र का प्रकांड विद्वान और हाईड्रोजन  बम का अविष्कारक था.इसके पास बर्फीली गैसें थीं.इसने युद्ध में सिन्धु-क्षेत्र  में असुरों को परास्त  किया,नदियों के बांध तोड़ दिए,निरीह गाँव में आग लगा दी और समस्त प्रदेश को पुरंदर (लूट) लिया.यद्यपि इस युद्ध में अंतिम विजय मूल भारतीय आर्यों की ही हुई और सभी प्रवासी(अ-सुर) आर्य परंग्मुख हुए.परन्तु सिन्धु घटी के आर्यों को भी भीषण नुकसान हुआ।


आर्यों ने दक्षिण और सुदूर दक्षिण पूर्व की अनार्य जातियों में भी संस्कृतिक प्रसार किया.आस्ट्रेलिया (मूल द्रविड़ प्रदेश) में जाने वाले संस्कृतिक दल का नेतृत्व  पुलस्त्य मुनि कर रहे थे.उन्होंने आस्ट्रेलिया में एक राज्य की स्थापना की (आस्ट्रेलिया की मूल जाति  द्रविड़ उखड कर पश्चिम की और अग्रसर हुई तथा भारत के दक्षिणी -समुद्र तटीय निर्जन भाग पर बस गयी.समुद्र तटीय जाति  होने के कारण ये-निषाद जल मार्ग से व्यापार  करने लगे,पश्चिम के सिन्धी आर्यों से इनके घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध हो गए.) तथा लंका आदि द्वीपों से अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए उनकी मृत्यु के पश्चात् राजा  बनने  पर उन के पुत्र विश्र्व मुनि की गिद्ध दृष्टि लंका के वैभव की ओर गयी.उसने लंका पर आक्रमण किया और राजा  सोमाली को हराकर भगा दिया(सोमाली भागकर आस्ट्रेलिया के निकट एक द्वीप पोस्ट नेक्स्ट इन कोन्तिनुएद बे उसी के नाम पर सोमालिया कहलाता है.)इस साम्राज्यवादी लंकेश्वर के तीन पुत्र थे-कुबेर,रावण,और विभीषण -ये तीनों परस्पर सौतेले भाई थे.पिता की म्रत्यु के पश्चात् तीनों में गद्दी के लिए संघर्ष हुआ.अंत में रावण को सफलता मिली.(आर्यावर्त से परे दक्षिण के ये आर्य स्वयं को रक्षस - राक्षस अथार्त आर्यावर्त और आर्य संस्कृति की रक्षा करने वाले ,कहते थे;परन्तु रावण मूल आर्यों की भांति सुरा न पीकर मदिरा का सेवन करता था इसलिए  वह भी अ-सुर अथार्त सुरा  न पीने वाला कहलाया) विभीषण ने धैर्य पूर्वक रावण की प्रभुसत्ता को स्वीकार किया तथा उस का विदेश मंत्री बना और कुबेर अपने पुष्पक विमान द्वारा भागकर आर्यावर्त चला आया.प्रयाग के भरद्वाज मुनि उसके नाना थे.उनकी सहायता से वह स्वर्गलोक (वर्तमान हिमांचल प्रदेश) में एक राज्य स्थापित करने में सफल हुआ.किन्तु रावण ने चैन की साँस न ली,वह कुबेर के पीछे हाथ धो कर पड़ गया था.उसने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया अनेक छोटे छोटे राजाओं को परस्त करता हुआ वह बाली क़े राज्य में घुस आया. बाली ने ६ माह तक उसकी सेना को घेरे रखा अंत में दोनों क़े मध्य यह फ्रेंडली एलायंस हो गया कि यदि रावण और बाली की ताकतों पर कोई तीसरी ताकत आक्रमण करे तो  वे एक दूसरे की मदद करेंगे.,अब रावण ने स्वर्ग लोक तक सीढी बनवाने अथार्त सब आर्य राजाओं को क्रमानुसार विजय करने का निश्चय किया.उस समय आर्यावर्त में कैकय,वज्जि,काशी,कोशल,मिथिला आदि १६ प्रमुख जनपद थे.कहा जाता है कि  एक बार रावण ईरान,कंधार आदि को जीतता हुआ कैकय राज्य  वर्तमान गंधार प्रदेश (रावलपिंडी के निकट जो अब पाकिस्तान में है) तक पहुँच  गया.यही राज्य स्वर्गलोक (हिमाचल प्रदेश) अंतिम सीढ़ी (आर्य राज्य) था.किन्तु रावण इस सीढ़ी को बनवा (जीत) न सका.कैकेय राज्य को सभी शक्तिशाली राज्यों से सहायता मिल रही थी.उधर पश्चिम क़े  प्रवासी अ-सुर आर्यों से आर्यावर्त के आर्यों का संघर्ष चल ही रहा था अतः रावण को उनका समर्थन प्राप्त होना सहज और स्वाभाविक था.अतः कैकेय भू पर ही खूब जम कर देवासुर संग्राम हुआ.इस संघर्ष में कोशल नरेश दशरथ ने अमिट योगदान  दिया.उन्हीं क़े  असीम शौर्य पराक्रम से कैकेय राज्य की स्वतंत्रता स्थिर रही और रावण  को वापस लौटना पड़ा जिसका उसे मृत्यु  पर्यंत खेद रहा. कैकेय क़े राजा ने दशरथ से प्रसन्न होकर अपनी पुत्री कैकयी का विवाह कर दिया;तत्कालीन प्रथा क़े अनुसार विवाह क़े अवसर पर दिये जाने वाले दो वरदानों में से दशरथ ने कैकयी से फिर मांग लेने को कहा.


बस यहीं से रावण के वध के निमित्त योजना तैयार की जाने लगी.कुबेर के नाना भरद्वाज ऋषि ने आर्यावर्त के समस्त ऋषियों की एक आपातकालीन बैठक प्रयाग में बुलाई.दशरथ के प्रधान मंत्री  वशिष्ठ मुनि भी विशेष आमंत्रण से इस सभा में भाग लेने गए थे.ऋषियों ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया जिसके अनुसार दशरथ का जो प्रथम पुत्र उत्पन्न हो, उसका नामकरण‘राम’ हो तथा उसे राष्ट्र रक्षा के लिए १४ वर्ष का वनवास करके रावण के साम्राज्यवादी इरादों को नेस्तनाबूत करना था.इस योजना को आदिकवि  वाल्मीकि ने जो इस सभा क़े अध्यक्ष थे,संस्कृत साहित्य में काव्यमयी भाषा में अलंकृत किया.अवकाशप्राप्त रघुवंशी राजा और रॉकेट क़े आविष्कारक विश्वामित्र ने दशरथ क़े पुत्रों का गुरु बनने और उनके पथ प्रदर्शक क़े रूप में काम करने का भार ग्रहण किया.वशिष्ठ ने किसी भी कीमत पर राम को रावण वध से पूर्व शासन  संचालन न करने देने की शपथ खाई.इस योजना को अत्यंत गुप्त रखा गया.आर्यावर्त क़े चुनिन्दा सेनापतियों तथा कुशल वैज्ञानिकों (वायु-नारों या वानरों) को रावण वध में सहायता करने हेतु दक्षिण प्रदेश में निवास करने की आज्ञा मिली.  सौभाग्यवश दशरथ के चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः राम,भारत,लक्ष्मण,शत्रुहन ऋषियों की योजना के अनुरूप ही वशिष्ठ ने रखे.राम और लक्ष्मण को कुछ बड़े होने पर युद्ध,दर्शन,और राष्ट्रवादी धार्मिकता की की दीक्षा देने  के लिए विश्वामित्र अपने आश्रम ले गए.उन्होंने राम को उन के निमित्त तैयार ऋषियों की राष्ट्रीय  योजना का परिज्ञान कराया तथा युद्ध एवं दर्शन की शिक्षा दी.आर्यावर्त की यौर्वात्य और पाश्चात्य दो महान शक्तियों में चली आ रही कुलगत  शत्रुता का अंत करने के उद्देश्य से विश्वमित्र राम और लक्ष्मण को अपने साथ जनक की पुत्री सीता  के स्वयंवर में मिथिला ले गए.उन्होंने राम को ऋषि योजनानुकूल  जनक का धनुष तोड़ने  की प्रतिज्ञा  का परिज्ञान कराकर उसे तोड़ने  की तकनीकी  कला समझा दी.इस प्रकार राम-सीता के विवाह द्वारा समस्त  आर्यावर्त एकता के सूत्र में आबद्ध हो गया।




जारी........


Type setting & formatting done by- yashwant mathur (responsible for all kind of typing errors)


3रा  भाग पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें 


(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Wednesday, January 12, 2011

स्वामी विवेकानंद का अपहरण ------ विजय राजबली माथुर



आज १२ जनवरी है स्वामी विवेकानंद का जन्म-दिन और आप चौंक गये होंगे उनके अपहरण की बात से.दरअसल मेरा आशय उनके विचारों क़े अपहरण से है.विवेकानंद जी एक क्रांतिकारी संत थे और उन्होंने अपने देश क़े युवकों का आह्वान  किया था-उठो,जागो और महान बनो.उन्होंने कहा है-नास्तिक वह व्यक्ति है जिसका अपने पर विश्वास नहीं है.विश्व का इतिहास उन गिने चुने व्यक्तियों का इतिहास है जिनको अपने ऊपर विश्वास एवं आस्था थी.इस महान शक्ति क़े बल पर संसार का कोई भी कार्य किया जा सकता है .अपने ऊपर आस्था एवं विश्वास खोने पर किसी भी राष्ट्र का जीवन मृतप्राय हो जाता है.कभी अपने को असहाय असमर्थ मत समझो .तुम्हारी शक्ति असीम है ,संसार में कोई भी कार्य करना तुम्हारे सामर्थ्य में है.
स्वामी विवेकानंद ने युवकों से स्पष्ट कहा था-"धनी कहलाने वाले लोगों का विश्वास मत करो."दुखीजनों से सहानुभूति रख कर प्रभु से सहायता मांगो अवश्य मिलेगी.उनका लक्ष्य युवजनों क़े हृदयों में दरिद्रों,अज्ञानियों  एवं दलितों क़े लिये सहानुभूति एवं संघर्षशील वृति  उत्त्पन्न करना था.लेकिन आज हम देखते हैं कि,"विवेकानंद विचार मंच" बना कर उद्योगपतियों,पूंजीपतियों तथा सरमायेदारों क़े दलालों ने रियुमर स्पिचुयेटेड सोसाईटी की पालिसी क़े तहत स्वामी विवेकानंद क़े मूल विचारों क़े विपरीत मनगढ़ंत बातों को उनके नाम से परोस कर समाज में विषमता ,वैमनस्य और विद्वेष फ़ैलाने का ही काम किया है.महात्मा बुद्ध ने वैदिक हवन पद्धति में आई विकृतियों  का तीव्र विरोध किया था ,अवतारवाद की आलोचना की थी. किन्तु उनके बाद ढोंगियों-पाखंडियों ने उन्हें ही दशावतारों में शामिल करके उनकी ही मूर्तियाँ गढ़ क़े उनके  मूल उपदेशों को ध्वस्त कर दिया .इसी प्रकार स्वामी विवेकानंद जो चाहते थे उस भावना को समाप्त करने हेतु उनके दर्शन को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है.१९७२ में मेरठ विश्वविद्यालय द्वारा कन्वोकेशन क़े अवसर पर प्रदत्त पुस्तक "भारत क़े नवयुवकों से" स्वामी विवेकानंद क़े विचार उद्घृत करके मैं यह बताना चाहता हूँ कि,उनके नाम पर संगठन बना कर उनके मूल विचारों को नष्ट करने का जो अभियान चलाया जा रहा है उससे कम से कम युवकों को तो बचने की आवश्यकता है ही.

स्वामी विवेकानंद युवकों से कहते हैं-"अपनी दुर्बलताओं पर बार-बार मत सोचो,शक्ति का ध्यान करो,शक्ति की साधना करो............समस्त वेदों एवं वेदान्त का सार यही है-अभयम-शक्ति,सामर्थ्य....मेरे युवा मित्रों!शक्तिवान बनो.यही मेरा तुम्हें परामर्श है.फ़ुटबाल क़े खेल द्वारा बलवान हो कर तुम प्रभु क़े निकट शीघ्र आ सकते हो-निर्बल रह कर गीता अध्ययन से तुम्हें ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हो सकेगी.यह मैं तुमसे पूरी निष्ठां से कह रहा हूँ क्योंकि मेरा तुम पर स्नेह है.मुझे तुम्हारी तीव्र जिज्ञासा का ज्ञान है.शारीरिक बल ,सामर्थ्य एवं शक्ति क़े द्वारा गीता का ज्ञान सरल,सुलभ एवं सहज हो जाता है."

"समझ लो ,सत्य की साधना ही शक्ति देती है और शक्ति ही संसार क़े सब रोगों-क्लेशों की दवा है.यह एक महान तथ्य है कि,शक्ति ही जीवन है;शक्तिहीनता ही मृत्यु.शक्ति क़े द्वारा ही सुख,समृद्धि एवं जीवन की अमरता प्राप्त होती है.दुर्बलता से अशान्ति,कष्ट,क्लेश जन्म लेते हैं.यह दुर्बलता ही तो मृत्यु है."

"चारों ओर से पुकार है 'मनुष्य चाहिये मनुष्य',फिर सब कुछ प्राप्त हो जायेगा.पर कैसे मनुष्य?ऐसे मनुष्य जो दृढ संकल्प -शक्ति क़े धनी हों-गहरी अटूट आस्था वाले हों-ऐसे मनुष्य केवल एक सौ भी हों तो सारे विश्व में क्रांति की लहर दौड़ जायेगी."उन्होंने वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था क़े सम्बन्ध में कहा है कि,इसके परिणामस्वरूप हमारी संकल्प शक्ति,पीढी दर पीढी हुए तीव्र आक्रमणों क़े कारण ,आज बिलकुल निर्जीव एवं मृतप्राय हो गई है.जिसके कारण नये विचार ही नहीं वरन पुराने विचार भी लुप्त होते जा रहे हैं.कठोर ब्रहमचर्य  की साधना से समस्त ज्ञान को ग्रहण करना थोड़े समय में ही सम्भव हो जायेगा.केवल एक बार का सुना हुआ और ग्रहण किया हुआ ज्ञान सर्वदा स्मृति में बना रहता है.इस ब्रह्मचर्य  क़े व्रत की साधना क़े अभाव में सारा देश नष्ट-भ्रष्ट हो रहा है.

धर्म क्या है?-"हम मानव समाज को उस स्थल पर ले जाना चाहते हैं जहाँ न वेद हों,न बाईबिल,न कुरआन ,परन्तु यह बाईबिल एवं कुरान का परस्पर समन्वय प्रस्थापित करके कर सकते हैं.मनुष्यों को केवल यह बताना होगा कि,नाना प्रकार क़े धर्म केवल एक महान धर्म क़े विभिन्न रूप ही हैं और यह महान धर्म है ,एकात्मकता जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी वृत्ति और रूचि क़े अनुसार अपना मार्ग चुन सके."यह तो हुई स्वामी विवेक नन्द की बात .अब जरा देखिये कि,उनके विचारों का अपहरण करने वाले उनके नाम क़े संगठन क़े अनुयायी क्या करते हैं.पादरियों पर हमले ,मस्जिदों पर हमले,विध्वंस और दुष्प्रचार.
स्वामी जी का प्रश्न है-शरीर में शक्ति नहीं ,ह्रदय में उत्साह नहीं ,मस्तिष्क में कोई मौलिकता नहीं.फिर ऐसे मट्टी क़े लौंदे मानव क्या कर पायेंगे?संख्या बल प्रभावी नहीं होता,न संपत्ति,न दरिद्रता ;मुट्ठी भर लोग  सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते है यदि  वे लोग मनसा -वाचा-कर्मणा संगठित हों -इस निश्चित विश्वास को कभी मत भूलो जितना ही अधिक विरोध होगा,उतना ही अच्छा है.क्या बाधाओं को पार किये बिना सरिता वेग ग्रहण कर सकती है?जितनी नवीन और उत्तम एक वस्तु होगी उतना ही प्रारम्भ में उसे अधिक विरोध सहना होगा.विरोध क़े आधार पर ही तो सफलता की भविष्यवाणी होती है.समाज को ही सत्य की उपासना करनी होगी अथवा यह समाप्त हो जायेगा.वह समाज श्रेष्ठतम है जहाँ उच्चतम सत्य व्यवहार में प्रकट होते हैं.और यदि समाज उच्चतम सत्य को ग्रहण करने को तत्पर नहीं है तो हमें उसे इसके लिये उद्यत करना होगा और यह कार्य जितना जल्दी हो जाये उतना ही अच्छा है.निकृष्टत्तम वस्तु का भी सुधार सम्भव है.जीवन का सम्पूर्ण रहस्य समन्वय है;इसी समन्वय क़े द्वारा जीवन का सम्पूर्ण विकास होता है.दमनकारी वाह्य शक्तियों क़े विरुद्ध स्वंय क़े संघर्ष का परिणाम ही समन्वय है.यह समन्वय जितना प्रभावशाली होगा,जीवन उतना ही दीर्घायु हो जायेगा.

किसी भी व्यक्ति अथवा राष्ट्र की उन्नत्ति क़े लिये तीन बातों की आवश्यकता है:-
१ .अच्छाई की शक्तियों में आस्था.
२ .द्वेष एवं संदेह रहित होना.
३ .उन सब की सहायता करना जो अच्छा बनना एवं अच्छे कर्म करने का प्रयास कर रहे हैं.

स्वामी विवेकानंद का दृढ मत था -जब तक निर्धन की झोंपड़ी में दीपक नहीं जलेगा ,कोई भूँखा  नहीं सोयेगा तब तक देश की स्वाधीनता का कोई अर्थ नहीं होगा.अब आप ही तय करें क्या हम स्वामी विवेकनन्द क़े बताये मार्ग पर चल सकते हैं?या उनके विचारों का यों ही अपहरण होता रहेगा?

सम्पादन समन्वय -यशवन्त माथुर 
 (इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
*****************************************************************************
Blogg Comments :


Facebook Comments :
12 Jan.2016 
12-01-2017 
12-01-2017 

12-01-2017 

Monday, January 10, 2011

शास्त्री जी प्रधान मंत्री कैसे बने ?-पुण्य तिथि (११ जनवरी) पर स्मरण ------ विजय राजबली माथुर



एक उच्च कोटि क़े विद्वान् का कथन है कि,मनुष्य और पशु क़े बीच विभाजन रेखा उसका विवेक है.जहाँ यह विवेक छूता है ,वहां मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं रह जाता है.१९६५ क़े भारत-पाक संघर्ष क़े दौरान जब लिंडन जॉन्सन ने शास्त्री जी को पाकिस्तानी क्षेत्र में न बढ़ने की चेतावनी दी तो शास्त्री जी ने अमेरिकी पी.एल.४८० को ठुकरा दिया था और जनता से सप्ताह में एक दिन सोमवार को सायंकाल क़े समय उपवास रखने का आह्वान  किया था ;जनता ने सहर्ष शास्त्री जी की बात को शिरोधार्य कर क़े उस पर अमल किया था.यह दृष्टांत शास्त्री जी की लोकप्रियता को ही दर्शाता है और यह शास्त्री जी क़े स्वाभिमान का भी प्रतीक है.

सब की सुनने वाले - शास्त्री जी जितने दबंग थे और गलत बात को कभी भी किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करते थे ,उतने ही विनम्र और सब की सुनने वाले भी थे.जब शास्त्री जी उ.प्र.क़े गृह मंत्री थे तो क्रिकेट मैच क़े दौरान पुलिस ने स्टेडियम में छात्रों पर लाठी चार्ज कर दिया था.उस समय पुलिस की टोपी लाल रंग की हुआ करती थी.लखनऊ विश्वविद्यालय क़े छात्र संघ क़े अध्यक्ष क़े नेतृत्व में छात्रों का एक प्रतिनिधिमंडल शास्त्री जी से मिला और पुलिस  को हटाने क़े सम्बन्ध में आग्रह किया और कहा -मंत्री जी कल से लाल टोपी खेल क़े मैदान में नहीं दिखाई देनी चाहिए.शास्त्री जी ने नम्र भाव से उत्तर दिया ठीक है ऐसा ही होगा.शास्त्री जी ने लखनऊ क़े सारे दर्जियों को लगा कर रात भर में खाकी टोपियाँ सिलवा  दीं और जब अगले दिन छात्र पुनः शिकवा लेकर शास्त्री जी से मिले तो शास्त्री जी ने सहज भाव से कहा -तुम लोगों ने लाल टोपी न दिखने की बात कही थी,हमने उन्हें हटा कर खाकी टोपियाँ सिलवा दीं हैं.
 
नितांत गरीबी व अभावों में पल-बढ़ कर शास्त्री जी इतने बुलंद कैसे हुए और ऊपर कैसे उठते गये ,आईए जाने उनके ग्रह  -नक्षत्रों से. शास्त्री जी की हथेली में मणिबंध से प्रारम्भ और शनि तथा बृहस्पति पर द्विविभाजित भाग्य रेखा ने लाल बहादुर शास्त्री जी को उच्च पद पर पहुँचाया और निर्भीक, साहसी,लोकप्रिय व देशभक्त बनाया,जिसकी पुष्टि उनके जन्मांग से स्पष्टतःहो जाती है.

 शास्त्री जी की कुंडली में बुध अपनी राशी में राज्य-भाव में बैठा है और भद्र-योग निर्मित कर रहा है.इस योग का फल यह होता है कि,इसमें उत्त्पन्न मनुष्य सिंह क़े समान पराक्रमी और शत्रुओं का विनाश करने वाला होता है .शास्त्री जी ने सन१९६५ ई.क़े युद्ध में पहली बार शत्रु की धरती पर धावा बोला और पाकिस्तान से सरगोधा व सियालकोट छीन लिये थे तथा लाहौर में प्रवेश करने ही वाले थे जब रूस क़े अनुरोध पर युद्ध -विराम करना पड़ा.भद्र-योग रखने वाला व्यक्ति पेचीदा से पेचीदा कार्य भी सहजता से कर डालता है.यह शास्त्री जी की ही सूझ-बूझ का परिणाम था कि,विश्व-व्यापी विरोध क़े बावजूद भारत शत्रु क़े पांव बांध सका.बुध क़े द्वारा निर्मित भद्र-योग क़े कारण ही शास्त्री जी -प्रधान मंत्री  पद जितना ऊंचा उठ सके तभी तो कन्हैय्या  लाल मंत को गाना पड़ा :-


दहल उठे इस छोटे कद से बड़े-बड़े कद्दावर भी,
ठहर उठे रण-हुंकारों से बड़े-बड़े हमलावर भी.
दुश्मन ने समझा,भारत की मिट्टी में गर्मायी है,
सत्य,अहिंसा क़े हामी ने भी तलवार उठाई है..


(२८ सितम्बर,१९६९ ई. ,दैनिक हिंदुस्तान में छपी कविता से ये पंक्तियाँ उद्धृत हैं.)



 (इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

******************************************



Facebook Comments :

Thursday, January 6, 2011

रावण वध एक पूर्वनिर्धारित योजना.- (पुनर्प्रकाशन)-1


 प्रस्तुत आलेख मूल रूप से आगरा से प्रकाशित साप्ताहिक सप्तदिवा क़े २७ अक्तूबर १९८२ एवं ३ नवम्बर १९८२ क़े अंकों में दो किश्तों में पूर्व में ही प्रकाशित हो चुका है  तथा इस ब्लॉग पर भी पहले प्रकाशित किया जा चुका है.पूर्व में प्रकाशित इस आलेख की अशुद्धियों को यथासम्भव सुधारते हुए तथा पाठकों की सुविधा क़े लिये यहाँ ४ किश्तों में पुनर्प्रकाशित किया जायेगा.
__________________________________________________

ज से दो अरब वर्ष पूर्व हमारी पृथ्वी और सूर्य एक थे.अस्त्रोनोमिक युग में सर्पिल,निहारिका,एवं नक्षत्रों का सूर्य से पृथक विकास हुआ.इस विकास से सूर्य के ऊपर उनका आकर्षण बल आने लगा .नक्षत्र और सूर्य अपने अपने कक्षों में रहते थे तथा ग्रह एवं नक्षत्र सूर्य की परिक्रमा किया करते थे.एक बार पुछल तारा अपने कक्ष से सरक गया और सूर्य के आकर्षण बल से उससे टकरा गया,परिणामतः सूर्य के और दो टुकड़े चंद्रमा और पृथ्वी उससे अलग हो गए और सूर्य  की परिक्रमा करने लगे.यह सब हुआ कास्मिक युग में.ऐजोइक युग में वाह्य सतह पिघली अवस्था में,पृथ्वी का ठोस और गोला रूप विकसित होने लगा,किन्तु उसकी बहरी सतह अर्ध ठोस थी.अब भरी वायु –मंडल बना अतः पृथ्वी की आंच –ताप कम हुई और राख जम गयी.जिससे पृथ्वी के पपडे  का निर्माण हुआ.महासमुद्रों व महाद्वीपों  की तलहटी का निर्माण तथा पर्वतों का विकास हुआ,ज्वालामुखी के विस्फोट हुए और उससे ओक्सिजन निकल कर वायुमंडल में HYDROGEN से प्रतिकृत हुई जिससे करोड़ों वर्षों तक पर्वतीय चट्टानों पर वर्षा हुई तथा जल का उदभव हुआ;जल समुद्रों व झीलों के गड्ढों में भर गया.उस समय दक्षिण भारत एक द्वीप  था तथा अरब सागर –मालाबार तट तक विस्तृत समुद्र उत्तरी भारत को ढके हुए था;लंका एक पृथक द्वीप था.किन्तु जब नागराज हिमालय पर्वत की सृष्टि हुई तब इयोजोइक युग में वर्षा के वेग के कारण  उससे अपर मिटटी पिघली बर्फ के साथ समुद्र तल  में एकत्र हुई और उसे पीछे हट जाना पड़ा तथा उत्तरी भारत का विकास हुआ.इसी युग में अब से लगभग तीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय  वनस्पतियों व बीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय  का उदभव हुआ.एक कोशिकाएं ही भ्रूण विकास के साथ समय प्रत्येक जंतु विकास की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं.सबसे प्राचीन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाए जाते,अस्तु उस समय लार्वा थे,जीवोत्पत्ति नहीं हुई थी.उसके बाद वाली चट्टानों में (लगभग बीस करोड़ वर्ष पूर्व)प्रत्जीवों (protojoa) के अवशेष मिलते हैं अथार्त सर्व प्रथम जंतु ये ही हैं.जंतु आकस्मिक ढंग से कूद कर(ईश्वरीय प्रेरणा के कारण ) बड़े जंतु नहीं हो गए,बल्कि सरलतम रूपों का प्रादुर्भाव हुआ है जिन के मध्य हजारों माध्यमिक तिरोहित कड़ियाँ हैं.मछलियों से उभय जीवी (AMFIBIAN) उभय जीवी से सर्पक (reptile) तथा सर्पकों से पक्षी (birds) और स्तनधारी (mamals) धीरे-धीरे विकास कर सके हैं.तब कहीं जा कर सैकोजोइक युग में मानव उत्पत्ति हुई।(यह गणना आधुनिक विज्ञान क़े आधार पर है,परतु अब से दस लाख वर्ष पूर्व मानव की उत्पत्ति तिब्बत ,मध्य एशिया और अफ्रीका में एक साथ युवा पुरुष -महिला क़े रूप में हुई)

अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था.इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था.कोई किसी की समपत्ति (asset) न थी,समूहों का नेत्रत्व मातृसत्तात्मक  (mother oriented) था.इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाषाण काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है.परिवार के सम्बन्ध में यह ‘अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मातृ सत्तामक समूह रहे हों).इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था.मानव के ह्रास –विकास की कहानी सतत संघर्षों को कहानी है.malthas के अनुसार उत्पन्न संतानों में आहार ,आवास,तथा प्रजनन के अवसरों के लिए –‘जीवन के लिए संघर्ष’ हुआ करता है जिसमे लेमार्क के अनुसार ‘व्यवहार तथा अव्यवहार’ के सिद्दंतानुसार ‘योग्यता ही जीवित रहती है’.अथार्त जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी वहीँ वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया.कालांतर में तेज बुद्धि मनुष्य ने पत्थर और काष्ठ के उपकरणों तथा शस्त्रों का अविष्कार किया तथा जीवन पद्धति को और सरल बना लिया.इसे ‘उत्तर पाषाण काल’ की संज्ञा दी गयी.पत्थारों के घर्षण से अग्नि का अविष्कार हुआ और मांस को भून कर खाया जाने लगा.धीरे धीरे मनुष्य ने देखा की फल खा कर फेके गए बीज किस प्रकार अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का आकर ग्रहण कर लेते हैं.एतदर्थ उपयोगी पशुओं को अपना दास बनाकर मनुष्य कृषि करने लगा.यहाँ विशेष स्मरणीय तथ्य यह है की जहाँ कृषि उपयोगी सुविधाओं का आभाव रहा वहां का जीवन पूर्ववत ही था.इस दृष्टि से गंगा-यमुना का दोआबा विशेष लाभदायक रहा और यहाँ उच्च कोटि की सभ्यता का विकास हुआ जो आर्य सभ्यता कहलाती है और यह क्षेत्र आर्यावर्त.कालांतर में यह जाती सभ्य,सुसंगठित व सुशिक्षित होती गयी.व्यापर कला-कौशल और दर्शन में भी यह जाति  सभ्य थी.इसकी सभ्यता और संस्कृति तथा नागरिक जीवन एक उच्च कोटि के आदर्श थे.भारतीय इतिहास में यह काल ‘त्रेता युग’ कें नाम से जाना जाता है और इस का समय ६५०० इ. पू. आँका गया है(यह गणना आधुनिक गणकों की है,परन्तु अब से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व राम का काल आंका गया है तो त्रेता युग  भी उतना ही पुराना होगा) .आर्यजन काफी विद्वान थे.उन्होंने अपनी आर्य सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रसार किया.इस प्रकार आर्य जाति  और भारतीय सभ्यता संस्कृति गंगा-सरस्वती के तट से पश्चिम की और फैली.लगभग चार हजार वर्ष पश्चात् २५०० इ.पू.आर्यों ने सिन्धु नदी की घटी में एक सुद्रण एवं सुगठित सभ्यता का विकास किया.यही नहीं आर्य भूमि से स्वाहा और स्वधा के मन्त्र पूर्व की और भी फैले तथा आर्यों के संस्कृतिक प्रभाव से ही इसी समय नील और हवांग हो की घाटियों में भी समरूप सभ्यताओं का विकास हो सका.भारत से आर्यों की एक शाखा पूर्व में कोहिमा के मार्ग से चीन,जापान होते हुए अलास्का के रास्ते  राकी पर्वत श्रेणियों में पहुच कर पाताल लोक(वर्तमान अमेरिका महाद्वीपों में अपनी संस्कृति एवं साम्राज्य बनाने में समर्थ हुई.माय ऋषि के नेत्रतव में मायाक्षिको (मेक्सिको) तथा तक्षक ऋषि के नेत्रत्व में तक्शाज़ (टेक्सास) के आर्य उपनिवेश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं कालांतर में कोलंबस द्वारा नयी दुनिया की खोज के बाद इन के वंशजों को red indians कहकर निर्ममता से नष्ट किया गया.

जारी.......




(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Monday, January 3, 2011

कुल क्रूर कुरीति तोड़ेंगे,सब दुष्कर्मों को छोड़ेंगे

डा .टी.एस.दराल सा : ने मेरे लेख "परमात्मा क़े विराट स्वरूप क़े दर्शन करें" पर टिप्पणी में मुझे यह सुझाव दिया था :-


 नव -वर्ष २०११ में डा.सा :क़े परामर्शानुसार मैं यह प्रथम लेख आप सब की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ.इस लेख का शीर्षक मथुरावासी आर्य -भजनोपदेशक श्री विजय सिंह जी क़े भजन से उद्धृत किया गया है,जिसे इसी लेख में आगे आप पढेंगे.अभी एक अन्य विद्वान क़े इस गीत का अवलोकन करें-

जियत पिता से दंगम दंगा,
मरे पिता पहुँचायें गंगा.
जियत पिता को न पूँछी बात,
 मरे पिता को खीर और भात..
जियत पिता को घूंसे लात,
मरे पिता को श्राद्ध करात..
जियत पिता को डंडा,लठिया,
मरे पिता को तोसक तकिया..
जियत पिता को कछू न मान,
मरत पिता को पिंडा दान..


विद्वान कवि का यह कोई व्यंग्य नहीं है,आप समाज में ऐसे वाक्ये नित्य देखते होंगे.हमारे देश समाज में जिसके विश्व -गुरु होने का हम दम्भ भरते हैं ऐसी तमाम घटनाएं आम बात हैं.यह कुछ नहीं,सिर्फ कुरीतियों का बोल-बाला है.इन्हीं कुरीतियों ने हमारे देश-समाज को खोखला कर डाला है.आईये इस नव-वर्ष में हम-सब मिल-जुल कर संकल्प लें कि,इस वर्ष से हम-सब पाखण्ड-ढोंग,कुरीतियों से दूर रह कर समाज व देश क़े हित में कार्य करेंगें.हमारे ऋषियों ने जो मार्ग हमें दिखाया है;जैसाकि विजय सिंह जी ने सुन्दर वर्णन किया है:-

सुखदाई  सत युग लाना है.
 कलि काल कलंक मिटाना है.
नित प्रातः प्रभु गुण गायेंगे.
सिर मात-पिता को नायेंगे
शुचि संध्या यज्ञ रचाएंगे.सुन्दर  सुगन्ध फैलायेंगे.
                                 दुर्गुण दुर्गन्ध मिटाना है..१ ..

कुल क्रूर कुरीति तोड़ेंगे,पापों का भन्दा फोड़ेंगे.
सब दुष्कर्मों को छोड़ेंगे,सत कर्म से नाता जोड़ेंगे.
                              सब को यह पाठ पढ़ाना है..२..

कभी मदिरा मांस न खायेंगे,फल फूल अन्न ही पायेंगे.
भूले भी कुसंग न जायेंगे,मिल मेल मिलाप बढ़ाएंगे.
                                 सत प्रेम की गंग बहाना है..३..

जो निर्बल निर्धन भाई हैं,हरिजन मुस्लिम ईसाई हैं.
इस देश क़े सभी सिपाही हैं,सब एक राह क़े राही हैं.
                                   समता का सूर्य उगाना है..४..

वेदों को पढ़ें पढ़ायेंगे,यज्ञों को करें करायेंगे.
ताप दान शील अपनाएंगे,ऋषियों क़े नियम निभायेंगे.
                                 बन 'विजय' वीर दिखलाना है..५


वैदिक-विधान में सभी कार्यों हेतु हवन-यज्ञ का उल्लेख है,यहाँ तक कि-अंतिम संस्कार में भी हवन का ही प्राविधान है.उस समय आबादी कम और वन अधिक थे.आज जनसँख्या-विस्फोट हो रहा है और वनों का क्षरण तीव्रता से हो रहा है.ऎसी सूरत में हम लकीर क़े फ़कीर बन कर नहीं रह सकते.आज मानवता संकट में है,पृथ्वी का अस्तित्व संकट में है. हम आज यज्ञों-हवन आदि को करते हुये भी उसी प्रकार वन-लकड़ी का उपभोग नहीं कर सकते.डा. सा :ने ठीक प्रश्न उठाया है कि,दाह-संस्कार में ४ या ५ क्विंटल लकड़ी फूंकना आज मानव-अस्तित्व को ही मिटा देने का प्रयास है.आज इस संकट का सामना करने हेतु हम को कई प्रयास करने होंगे.यथा-

१ .-दाह संस्कार हेतु इलेक्टिक (विद्युत्)शव-दाह ग्रहों का प्रयोग करना चाहिए,जिससे न तो प्रदूषण होगा न ही ईंधन का अनावश्यक प्रयोग होगा.उसके बाद घर पर छोटा सा हवन -थोड़ी समिधाओं का उपयोग कर,कर  सकते हैं.इस प्रकार हवन की मूल -भावना का निर्वाह भी होगा और लकड़ी का दुरूपयोग भी थमेगा.इस हेतु महर्षि दयानंद सरस्वती ने ७ विशेष आहुतियाँ बतायी हैं जिनसे मृतक की आत्मा की शांति हो जाती है.यह भी ध्यान रखने की बात है कि,रोने-धोने से मृतक की आत्मा को पीड़ा होती है,इसलिए रोना नहीं चाहिए;बल्कि यथा सम्भव मौन धारण कर शोक व्यक्त करना चाहिए.

२ .-एक और विशेष तथ्य यह है कि, देह-दान को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.इस प्रकार तमाम ज़रुरत मंदों को प्रत्यारोपण हेतु आवश्यक मानव अंग सहजता से उपलब्ध हो सकेंगे,साथ-साथ चिकित्सा छात्रों  को व्यवहारिक ज्ञान प्राप्ति में भी ये मानव-शरीर उपयोगी रहेंगे.इस विषय में कानूनी और चिकित्सकीय जानकारी तो डा. दराल सा :ही अच्छी तरह दे पायेंगे.ज्यादातर मेडिकल कॉलेजेस  में ऐसी व्यवस्था होती है और वहां से आवश्यक फार्म भी मिल जाते हैं.चूंकि यह कार्य मृतक क़े आश्रितों को करना है,इसलिए उन्हें भी पहले से ही ऐसा करने क़े लिये तैयार रखना चाहिए.इस व्यवस्था में ढोंग-पाखण्ड से बचाव,लकड़ी की अनावश्यक बर्बादी का बचाव,बिला वजह होने वाले प्रदूषण से बचाव तो होता ही है.बहुत से जीवित लोगों का भला भी होता है.यदि इस व्यवस्था को अपना लें तो मानव अंगों की तस्करी तथा गरीब लोगों का शोषण भी समाप्त हो सकेगा.इस व्यवस्था में भी बाद में घर पर मृतक की आत्मा की शांति हेतु हवन वैदिक पद्धति से किया जा सकता है.

बुद्धीजीवियों,विचारकों,देश-भक्तों और मानवता क़े हितैषियों का यह दायित्व है कि, वे हर-सम्भव प्रयास कर क़े विद्युत्-शव दाह प्रक्रिया तथा देह-दान दोनों का समर्थन व प्रचार करें एवं अपने देश,समाज और सबसे बढ़ कर मानवता क़े प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करें.डा.टी.एस.दराल साहेब को साधुवाद देना चाहूँगा कि,उन्होंने इस ज्वलंत समस्या की ओर ध्यानाकर्षण करके अपने कर्त्तव्य का सम्यक निर्वाह किया.हम सब को भी उनसे प्रेरणा लेकर अपने -अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए.


सम्पादन समन्वय -यशवन्त माथुर


(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)