(अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानंद) |
यहाँ हम अथर्व वेद क़े आधार पर परमात्मा क़े विराट स्वरूप पर प्रकाश डालना चाहते हैं,जिन तथ्यों का उल्लेख आप को बाईबल में भी अपने तरीके से मिल जायेगा.हमारी यह पृथ्वी परमात्मा क़े चरण हैं,सूर्य और चन्द्र परमात्मा की आँखें हैं,अंतरिक्ष परमात्मा का उदर है,द्विलोक परमात्मा का मस्तिष्क है और अग्नि परमात्मा का मुख है.सर्वत्र व्याप्त वायु परमात्मा का प्राण है.लेकिन आप ऐसे परमात्मा का चित्र या मूर्ती नहीं बना सकते-न वह कभी नस -नाडी क़े बंधन में बंधता है और न ही अवतरित होता है क्योंकि पृथ्वी तो उसका चरण है ही.वह तो ब्रह्माण्ड में स्थित है तथा वहीं से सम्पूर्ण सृष्टी का सञ्चालन कर रहा है.हमारे मनुष्य शरीर में भी मस्तिष्क द्विलोक है,आँखों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध सूर्य क़े प्रकाश से है.यदि सूर्य का प्रकाश न मिले तो मनुष्य की आँखें काम नहीं कर सकतीं.चंद्रमा मानव मस्तिष्क का प्रमुख सूत्रधार है.इसका प्रमाण हमारे ज्योतिष विज्ञान से मिलता है.ज्योतिष में हम चंद्रमा की गति से ही जन्मांग बनाते हैं,राशिफल निकालते हैं और पाखंडियों की कुधारणा क़े विपरीत परमात्मा क़े जिस विराट स्वरूप की व्याख्या करते हैं वह सर्वथा ज्योतिष-सम्मत है.आर्य समाज समेत जिन मतों क़े प्रचारक ज्योतिष की आलोचना करते हैं उन्हें सबक मिलता है- महर्षि दयानंद की श्रेष्ठ पुस्तक 'संस्कार विधि'से जिसमें उन्हों ने प्रत्येक तिथि और उस तिथि के देवता हेतु आहुतियाँ देने का विधान बताया है.नक्षत्रों और उनके देवता हेतु भी आहुतियाँ देने का विधान है.महर्षि द्वारा बताई तिथियों एवं नक्षत्रों की गणना केवल और केवल ज्योतिष -विज्ञान द्वारा ही संभव है.संसार में प्रचलित कोई भी अन्य पूजा-पद्धति परमात्मा तक लगाया गया भोग पहुँचाने में समर्थ नहीं है.केवल और केवल हवन(यज्ञ) ही वह वैज्ञानिक पद्धति है जिसमें दी गई आहुतियाँ अग्नि (अर्थात परमात्मा का मुख)द्वारा सम्पूर्ण अंतरिक्ष व ब्रहमांड में फ़ैल कर सभी ग्रह-नक्षत्रों और देवताओं तक पहुंचतीं हैं.चूंकि परमात्मा क़े चरण ही यह धरती है और हमारे चरण सदा धरती पर ही टिके रहते हैं -इस प्रकार परमात्मा क़े चरणों में ही हमारा अस्तित्व टिका है.हम जब नींद या विश्राम क़े लिए लेटते हैं हमारा मस्तिष्क अदा हो जाता है और तब उसका सम्बन्ध परमात्मा क़े द्विलोक से विच्छेद हो जाता है.इसलिए पढने और साधना करने क़े लिए बैठने का विधान है ताकि हमारे मस्तिष्क का सम्बन्ध परमात्मा क़े मस्तिष्क से बना रहे और हम अधिकत्तम ज्ञानार्जन कर सकें.डा.लोग (चिकित्सक गण )भी बैठ कर पढने को ही उचित बताते हैं.
खेद एवं नितांत वेदना की बात है कि,मनुष्य ने व्यर्थ स्वार्थवश पहाड़ों को काट डाला,वनों को उजाड़ दिया और विश्व क़े पर्यावरण क़े संतुलन को बिगाड़ दिया है.चंद अमीरों क़े प्रासादों को संगमरमर से धवल करने हेतु,उनके ड्राईंग -रूमों की शोभा बढ़ने हेतु सोफासेट व बेड निर्माण हेतु पर्वतों व वनों को नेस्तनाबूद कर दिया गया है.(अफ़सोस है कि,आगरा से आने पर मजबूरी में हमें जो मकान खरीदना पड़ा वह ऐसे संगमरमरी फर्श का ही है,जिसमें हम असहज महसूस करते हैं).यह पृथ्वी केवल मनुष्यों क़े आज क़े उपभोग क़े लिए ही नहीं है.यह प्राणी -मात्र क़े लिए है और हमारी आने वाली संतानों क़े भोग क़े लिए भी है.आज चंद मनुष्यों क़े सतही सुख क़े लिए पर्यावरण से की गई छेड़-छाड़ आने वाली पीढ़ियों को दंश देती रहेगी और हमारी आत्माएँ इस पाप का फल भोगती रहेंगीं.
तुलसी,पीपल और आंवला क़े वृक्ष दिन और रात आक्सीजन ही छोड़ते हैं जो प्राणी -मात्र क़े जीवन क़े लिए आवश्यक है;अतः प्रत्येक मनुष्य को इंका संरक्षण व संवर्धन करना चाहिए.इसी प्रकार हम आम की समिधा का प्रयोग हवन में करते हैं जो हमारे पूर्वजों द्वारा लगाये गये वृक्षों से हमें प्राप्त होती है ,अतः हमें भी आने वाली पीढ़ियों क़े प्रयोग हेतु समिधा प्रदान करने क़े वास्ते कम से कम जीवन में एक आम का पौधा अवश्य लगाना चाहिये ,अन्यथा हम यज्ञ -विध्वंस क़े भागीदार होकर उस पाप का फल भोगने को बाध्य होंगें.(हम आगरा का मकान छोड़ते समय ३ -४ आम क़े पौधे ,दर्जन भर या अधिक तुलसी क़े पौधे,नीम क़े ३ पौधे ,बेल-पत्र का एक फलदार -वृक्ष,फल लगे दो अनार क़े पेड़ ,फलदार ३ पपीते क़े पेड़ वहां छोड़ कर आये हैं ,परन्तु यहाँ मुट्ठी भर भी कच्ची जमीन न मिलने क़े कारण गमले में तुलसी व एलोवेरा ही रख सके हैं.)
यदि हमें मानवता की रक्षा करनी है तो हवन को दिनचर्या का अंग बनाना ही होगा तभी परमात्मा क़े प्राण-वायु की रक्षा होगी जो जो मानव सहित प्राणी-मात्र क़े जीवन का मूलाधार है.पृथ्वी की रक्षा करना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है.इस वर्ष की चला-चली में आज स्वामी श्रधानंद जी क़े बलिदान दिवस पर उन्हें श्रधान्जली स्वरूप - आने वाले वर्ष से वनों की रक्षा व हवन पद्धति अपनाने का संकल्प लिया जा सकता है.
(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
3 comments:
बहुत अच्छा लगा यह लेख और परमात्मा का विराट स्वरुप भी ।
पर्यावरण के बारे में आपने बहुत सही विचार प्रकट किये हैं ।
कभी कभी लगता है कि मृत शरीर के क्रियाक्रम में खर्च की जाने वाली ४-५ क्विंटल लकड़ी को भी बचाया जा सकता है ।
इस पर भी कृपया एक लेख लिखें ।
उच्च कोटि का आलेख प्रस्तुत किया है आपने।
सचमुच, परमात्मा सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है, यही उसकी विराटता है।
परमात्मा के चरणरूपी इस धरती की रक्षा के लिए हमें हरसंभव उपाय करना चाहिए, तभी मानव शेष रहेगा और मानवता भी।
सारगर्भित पोस्ट सोचने को मजबूर करती हमक्या करते है कहाँ है
Post a Comment