सांप्रदायिकता ---
सांप्रदायिकता का आधुनिक इतिहास 1857 की क्रांति की विफलता के बाद शुरू होता है। चूंकि 1857 की क्रांति मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के नेतृत्व मे लड़ी गई थी और इसे मराठों समेत समस्त भारतीयों की ओर से समर्थन मिला था सिवाय उन भारतीयों के जो अंग्रेजों के मित्र थे तथा जिनके बल पर यह क्रांति कुचली गई थी।ब्रिटेन ने सत्ता कंपनी से छीन कर जब अपने हाथ मे कर ली तो यहाँ की जनता को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने हेतु प्रारम्भ मे मुस्लिमों को ज़रा ज़्यादा दबाया। 19 वी शताब्दी मे सैयद अहमद शाह और शाह वली उल्लाह के नेतृत्व मे वहाबी आंदोलन के दौरान इस्लाम मे तथा प्रार्थना समाज,आर्यसमाज,राम कृष्ण मिशन और थियोसाफ़िकल समाज के नेतृत्व मे हिन्दुत्व मे सुधार आंदोलन चले जो देश की आज़ादी के आंदोलन मे भी मील के पत्थर बने। असंतोष को नियमित करने के उद्देश्य से वाइसराय के समर्थन से अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन हयूम ने कांग्रेस की स्थापना कारवाई। जब कांग्रेस का आंदोलन आज़ादी की दिशा मे बढ्ने लगा तो 1905 मे बंगाल का विभाजन कर हिन्दू-मुस्लिम मे फांक डालने का कार्य किया गया। किन्तु बंग-भंग आंदोलन को जनता की ज़बरदस्त एकता के आगे 1911 मे इस विभाजन को रद्द करना पड़ा। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन एवं सर आगा खाँ को आगे करके मुस्लिमों को हिंदुओं से अलग करने का उपक्रम किया जिसके फल स्वरूप 1906 मे मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और 1920 मे हिन्दू महासभा की स्थापना मदन मोहन मालवीय को आगे करके करवाई गई जिसके सफल न हो पाने के कारण 1925 मे RSS की स्थापना कारवाई गई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना था । मुस्लिम लीग भी साम्राज्यवाद का ही संरक्षण कर रही थी जैसा कि,एडवर्ड थाम्पसन ने 'एनलिस्ट इंडिया फार फ़्रीडम के पृष्ठ 50 पर लिखा है-"मुस्लिम संप्रदाय वादियों और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों मे गोलमेज़ सम्मेलन के दौरान अपवित्र गठबंधन रहा। "
वस्तुतः मेरे विचार मे सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद सहोदरी ही हैं। इसी लिए भारत को आज़ादी देते वक्त भी ब्रिटश साम्राज्यवाद ने पाकिस्तान और भारत दो देश बना दिये। पाकिस्तान तो सीधा-सीधा वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना अमेरिका के इशारे पर चला जबकि अब भारत की सरकार भी अमेरिकी हितों का संरक्षण कर रही है। भारत मे चल रही सभी आतंकी गतिविधियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन अमेरिका का रहता है। हाल के दिनों मे जब बढ़ती मंहगाई ,डीजल,पेट्रोल,गैस के दामों मे बढ़ौतरी और वाल मार्ट को सुविधा देने के प्रस्ताव से जन-असंतोष व्यापक था अमेरिकी एजेंसियों के समर्थन से सांप्रदायिक शक्तियों ने दंगे भड़का दिये। इस प्रकार जनता को आपस मे लड़ा देने से मूल समस्याओं से ध्यान हट गया तथा सरकार को साम्राज्यवादी हितों का संरक्षण सुगमता से करने का अवसर प्राप्त हो गया।
धर्म निरपेक्षता---
धर्म निरपेक्षता एक गड़बड़ शब्द है। इसे मजहब या उपासना पद्धतियों के संदर्भ मे प्रयोग किया जाता है । संविधान मे भी इसका उल्लेख इसी संदर्भ मे है । इसका अभिप्राय यह था कि,राज्य किसी भी उपासना पद्धति या मजहब को संरक्षण नही देगा। जबकि व्यवहार मे केंद्र व राज्य सरकारें कुम्भ आदि मेलों के आयोजन मे भी योगदान देती हैं और हज -सबसीडी के रूप मे भी। वास्तविकता यह है कि ये कर्म धर्म नहीं हैं। धर्म का अर्थ है जो मानव शरीर और मानव सभ्यता को धारण करने के लिए आवश्यक हो। जैसे -सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। धर्म निपेक्षता की आड़ मे इन सद्गुणों का तो परित्याग कर दिया गया है और ढोंग-पाखण्ड-आडंबर को विभिन्न सरकारें खुद भी प्रश्रय देती हैं और उन संस्थाओं को भी बढ़ावा देती हैं जो ऐसे पाखंड फैलाने मे मददगार हों। इन पाखंडों से किसी भी आम जनता का भला नहीं होता है किन्तु व्यापारी/उद्योगपति वर्ग को भारी आर्थिक लाभ होता है। अतः कारपोरेट घरानों के अखबार और चेनल्स पाखंडों का प्रचार व प्रसार खूब ज़ोर-शोर से करते हैं।
एक ओर धर्म निरपेक्षता की दुहाई दी जाती है और दूसरी ओर पाखंडों को धर्म के नाम पर फैलाया जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि धर्म को उसके वास्तविक रूप मे समझ-समझा कर उस पर अमल किया जाए और ढोंग-पाखंड चाहे वह किसी भी मजहब का हो उसका प्रतिकार किया जाये। पहले प्रबुद्ध-जनों को समझना व खुद को सुधारना होगा फिर जनता व सरकार को समझाना होगा तभी उदेश्य साकार हो सकता है। वरना तो धर्म निरपेक्षता के नाम पर सद्गुणों को ठुकराना और सभी मजहबों मे ढोंग-पाखंड को बढ़ाना जारी रहेगा और इसका पूरा-पूरा लाभ शोषक-उत्पीड़क वर्ग को मिलता रहेगा। जनता आपस मे सांप्रदायिकता के भंवर जाल मे फंस कर लुटती-पिसती रहेगी।
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
सांप्रदायिकता का आधुनिक इतिहास 1857 की क्रांति की विफलता के बाद शुरू होता है। चूंकि 1857 की क्रांति मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के नेतृत्व मे लड़ी गई थी और इसे मराठों समेत समस्त भारतीयों की ओर से समर्थन मिला था सिवाय उन भारतीयों के जो अंग्रेजों के मित्र थे तथा जिनके बल पर यह क्रांति कुचली गई थी।ब्रिटेन ने सत्ता कंपनी से छीन कर जब अपने हाथ मे कर ली तो यहाँ की जनता को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने हेतु प्रारम्भ मे मुस्लिमों को ज़रा ज़्यादा दबाया। 19 वी शताब्दी मे सैयद अहमद शाह और शाह वली उल्लाह के नेतृत्व मे वहाबी आंदोलन के दौरान इस्लाम मे तथा प्रार्थना समाज,आर्यसमाज,राम कृष्ण मिशन और थियोसाफ़िकल समाज के नेतृत्व मे हिन्दुत्व मे सुधार आंदोलन चले जो देश की आज़ादी के आंदोलन मे भी मील के पत्थर बने। असंतोष को नियमित करने के उद्देश्य से वाइसराय के समर्थन से अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन हयूम ने कांग्रेस की स्थापना कारवाई। जब कांग्रेस का आंदोलन आज़ादी की दिशा मे बढ्ने लगा तो 1905 मे बंगाल का विभाजन कर हिन्दू-मुस्लिम मे फांक डालने का कार्य किया गया। किन्तु बंग-भंग आंदोलन को जनता की ज़बरदस्त एकता के आगे 1911 मे इस विभाजन को रद्द करना पड़ा। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन एवं सर आगा खाँ को आगे करके मुस्लिमों को हिंदुओं से अलग करने का उपक्रम किया जिसके फल स्वरूप 1906 मे मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और 1920 मे हिन्दू महासभा की स्थापना मदन मोहन मालवीय को आगे करके करवाई गई जिसके सफल न हो पाने के कारण 1925 मे RSS की स्थापना कारवाई गई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना था । मुस्लिम लीग भी साम्राज्यवाद का ही संरक्षण कर रही थी जैसा कि,एडवर्ड थाम्पसन ने 'एनलिस्ट इंडिया फार फ़्रीडम के पृष्ठ 50 पर लिखा है-"मुस्लिम संप्रदाय वादियों और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों मे गोलमेज़ सम्मेलन के दौरान अपवित्र गठबंधन रहा। "
वस्तुतः मेरे विचार मे सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद सहोदरी ही हैं। इसी लिए भारत को आज़ादी देते वक्त भी ब्रिटश साम्राज्यवाद ने पाकिस्तान और भारत दो देश बना दिये। पाकिस्तान तो सीधा-सीधा वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना अमेरिका के इशारे पर चला जबकि अब भारत की सरकार भी अमेरिकी हितों का संरक्षण कर रही है। भारत मे चल रही सभी आतंकी गतिविधियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन अमेरिका का रहता है। हाल के दिनों मे जब बढ़ती मंहगाई ,डीजल,पेट्रोल,गैस के दामों मे बढ़ौतरी और वाल मार्ट को सुविधा देने के प्रस्ताव से जन-असंतोष व्यापक था अमेरिकी एजेंसियों के समर्थन से सांप्रदायिक शक्तियों ने दंगे भड़का दिये। इस प्रकार जनता को आपस मे लड़ा देने से मूल समस्याओं से ध्यान हट गया तथा सरकार को साम्राज्यवादी हितों का संरक्षण सुगमता से करने का अवसर प्राप्त हो गया।
धर्म निरपेक्षता---
धर्म निरपेक्षता एक गड़बड़ शब्द है। इसे मजहब या उपासना पद्धतियों के संदर्भ मे प्रयोग किया जाता है । संविधान मे भी इसका उल्लेख इसी संदर्भ मे है । इसका अभिप्राय यह था कि,राज्य किसी भी उपासना पद्धति या मजहब को संरक्षण नही देगा। जबकि व्यवहार मे केंद्र व राज्य सरकारें कुम्भ आदि मेलों के आयोजन मे भी योगदान देती हैं और हज -सबसीडी के रूप मे भी। वास्तविकता यह है कि ये कर्म धर्म नहीं हैं। धर्म का अर्थ है जो मानव शरीर और मानव सभ्यता को धारण करने के लिए आवश्यक हो। जैसे -सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। धर्म निपेक्षता की आड़ मे इन सद्गुणों का तो परित्याग कर दिया गया है और ढोंग-पाखण्ड-आडंबर को विभिन्न सरकारें खुद भी प्रश्रय देती हैं और उन संस्थाओं को भी बढ़ावा देती हैं जो ऐसे पाखंड फैलाने मे मददगार हों। इन पाखंडों से किसी भी आम जनता का भला नहीं होता है किन्तु व्यापारी/उद्योगपति वर्ग को भारी आर्थिक लाभ होता है। अतः कारपोरेट घरानों के अखबार और चेनल्स पाखंडों का प्रचार व प्रसार खूब ज़ोर-शोर से करते हैं।
एक ओर धर्म निरपेक्षता की दुहाई दी जाती है और दूसरी ओर पाखंडों को धर्म के नाम पर फैलाया जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि धर्म को उसके वास्तविक रूप मे समझ-समझा कर उस पर अमल किया जाए और ढोंग-पाखंड चाहे वह किसी भी मजहब का हो उसका प्रतिकार किया जाये। पहले प्रबुद्ध-जनों को समझना व खुद को सुधारना होगा फिर जनता व सरकार को समझाना होगा तभी उदेश्य साकार हो सकता है। वरना तो धर्म निरपेक्षता के नाम पर सद्गुणों को ठुकराना और सभी मजहबों मे ढोंग-पाखंड को बढ़ाना जारी रहेगा और इसका पूरा-पूरा लाभ शोषक-उत्पीड़क वर्ग को मिलता रहेगा। जनता आपस मे सांप्रदायिकता के भंवर जाल मे फंस कर लुटती-पिसती रहेगी।
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
मैं बेक़रार हूं आवाज़ में असर के लिए...
जानिए कि परम धर्म क्या है ?
जो इंसान ख़ामोश चीज़ों तक की जबान जानता हो, वह इतना बहरा कैसे हो जाता है कि धर्म की उन हज़ारों ठीक बातों को वह कभी सुनता ही नहीं, जिनका चर्चा दुनिया के हरेक धर्म-मत के ग्रंथ में मिलता है लेकिन अपना सारा ज़ोर उन बातों पर लगा देता है जिन पर सारी दुनिया तो क्या ख़ुद उस धर्म-मत के मानने वाले भी एक मत नहीं हैं।
यह कैसा अन्याय है ?
यह कैसा अंधापन है ?
कैसे मूर्ख हैं वे, जो इन अंधों को अपना साथी और अपना गुरू बनाते हैं ?
अपने अंधेपन को ये जानते तक नहीं हैं और कोई बताए तो मानते भी नहीं हैं।
जो आंख वाले हैं, उनकी नैतिक जिम्मेदारी है कि वे अंधों को मार्ग दिखाएं।
अंधों को मार्ग दिखाना परोपकार है, धर्म है बल्कि परम धर्म है।
कौन है जो इस धर्म की आलोचना कर सके ?
शुभकामनायें !