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Saturday, October 25, 2014

'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ' क्या हैं ? ------ विजय राजबली माथुर


  प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है ।  'कायस्थ बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा कर प्रसन्न होते रहे हैं। परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह रहा है।
 आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों मे स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था और उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ जी ने पूर्ण सहमति व्यक्त की थी। आज उनके ही शब्दों को आप सब को भेंट करता हूँ। ---

"प्रत्येक प्राणी के शरीर मे 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर मे -'चित्त'(मन)पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' मे अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः यह  पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन मे दी जाती थीं।" 

आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने मे भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना आदि ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को पहचान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। हमने तो लोक-दुनिया के प्रचलन से हट कर मात्र हवन की पद्धति को ही अपना लिया  है।


इस पर्व को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।

  पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
 'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति। 


आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-


1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था। 

ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।


 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। 





यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।
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Saturday, April 27, 2013

इन्कम टैक्स ट्रिब्यूनल धर्म और भगवान---विजय राजबली माथुर



(हिंदुस्तान,लखनऊ,दिनांक-17 मार्च,2013)



('धर्म' के संबंध मे उपरोक्त विचार 'दैनिक जागरण,आगरा,दिनांक-17 नवंबर 2001,पृष्ठ-11'पर प्रकाशित श्री रवि बिहारी माथुर साहब द्वारा विशेष रूप से चित्रगुप्त जयंती विशेषांक के लिए दिये गए थे।)

'धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य'। इनको ठुकरा कर जब 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' को धर्म का नाम दिया जाएगा और शोषकों -लुटेरों -व्यापारियों- उद्योगपतियों के दलालों को साधू-सन्यासी माना जाएगा एवं पूंजी (धन)को पूजा जाएगा तो समाज वैसा ही होगा जैसा चल रहा है। आवश्यकता है उत्पीड़नकारी व्यापारियों/उद्योगपतियों तथा उनके दलाल पुरोहितों/पुरोहित् वादियों का पर्दाफाश करके जनता को उनसे दूर रह कर वास्तविक 'धर्म' का पालन करने हेतु समझाने की।
'देवता=जो देता है और लेता नहीं है जैसे-वृक्ष,नदी,समुद्र,आकाश,मेघ-बादल,अग्नि,जल आदि' और 'भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)'चूंकि ये प्रकृति तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी ने बनाया नहीं है इसीलिए ये ही 'खुदा' हैं। इन प्रकृति तत्वों का कार्य G(जेनरेट-उत्पत्ति)+O(आपरेट-पालन)+D (डेसट्राय-संहार)। अतः झगड़ा किस बात का?यदि है तो वह व्यापारिक/आर्थिक हितों के टकराव का है अतः 'शोषण/उत्पीड़न'को समाप्त कर वास्तविक 'धर्म' के 'मर्म' को समझना और समझाना ही एकमात्र हल है।


आजकल ब्लाग और फेसबुक पर बेवजह खुराफ़ातों को धर्म का सम्बोधन देते हुये आपस मे कलह की बातें करते देखा जा सकता है या फिर प्रगतिशीलता/वैज्ञानिकता की आधारहीन बातों के आधार पर 'धर्म' और 'भगवान' की आलोचना करते। ये पढे-लिखे लोग खुद भी यथार्थ-सत्य को समझने व मानने को तैयार नहीं हैं तब जनता को कौन समझाएगा?
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Thursday, April 11, 2013

वयं स्याम पतयो रयीणाम=हम एश्वर्यों के स्वामी बनें---आचार्य प्रेम भिक्षु वानप्रस्थ

विक्रमी संवत 2070 शुभ व मंगलमय हो---

( 'तपो भूमि',मथुरा के संपादक  सिद्धान्त शास्त्री प्रेम भिक्षु जी ने 'नित्य कर्म विधि' *पुस्तक का भी सम्पादन किया है और उसकी भूमिका मे उन्होने जो कुछ लिखा है उसको ज्यों का त्यों 11 अप्रैल 2013 विक्रमी नव संवत (आर्यसमाज स्थापना दिवस)के अवसर पर यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है । 'धर्म' के संबंध मे भ्रांतियों का निवारण करने व वास्तविक धर्म को समझने मे इससे सहायता मिल सकेगी ऐसी हम उम्मीद करते हैं। ---विजय राजबली माथुर)
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कहने को आज हमारे देश मे हमारा अपना राज्य है। किन्तु वह सुख और शान्ति जिसको लक्ष्य कर भारत माँ के एक दो नहीं सैंकड़ों और हजारों लाल बलि-वेदी पर सदैव  के लिए सो गए,आज उसकी छाया भी कहीं दीखती है?उल्टे चारों ओर दुख,अशांति और निराशा की काली-2 घटाएँ घनीभूत दीख पड़ती हैं। प्रश्न है क्यों?और एक ही उत्तर है,इस प्रश्न का --पश्चिम का अंधानुकरण!अंग्रेज़ चला गया,परंतु अंग्रेज़ियत अर्थात कोरे भौतिकवाद का एक छ्त्र साम्राज्य आज पहले की अपेक्षा भी अधिक उग्र रूप मे बना हुआ है। आम लोगों ने पैसे मे ही सुख मान लिया है। पैसा साधन तो है,पर उसे आज साध्य मान लिया गया है,यही भूल है। आज प्रत्येक सच्चाई का मूल्यांकन रुपए-पैसे मे होता है। चीजों मे मिलावट करना,रिश्वत देना और लेना आदि कुकर्म साधारण बातें हो चली हैं। एक दूसरे के सुख-दुख का किसी को रञ्च मात्र भी ध्यान नहीं है,पारस्परिक प्रेम सहानुभूति एवं सद्भावनाएं सभी कुछ एक-2 करके लुप्त होते जा रहे हैं तथा उनके स्थान पर एक दूसरे के प्रति अविश्वास,राग-द्वेष ,घृणा और प्रतिहिंसा की मात्रा प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। 

कैसी भयावह स्थिति है यह!और इसके मूल मे क्या है?सच्ची और व्यावहारिक आस्तिकता (प्रभु-भक्ति)का सर्वथा अभाव!वह वास्तविकता जो मनुष्य के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को निर्मल करती हुई उनके बीच सामञ्जस्य स्थापित कर सके,वह आसतिकता जो मनुष्य के नैतिक धरातल को ऊंचा उठाने मे सहायक बन कर उसे सही अर्थों मे मनुष्य बना सके तथा वह आस्तिकता जो मनुष्य को समाज और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य पालन मे जागरूक बनाते हुये प्रभु की इस पावन विश्व-वाटिका का एक सुरभित और विकसित पुष्प बना सके,---आसतिकता का यह रूप ही उसका चिरंतन स्वरूप है। आज इसका अभाव है,इसलिए मनुष्य समाज दुखी है और इसलिए संसार का मार्ग-दर्शक भारत स्वम्य पथ -भ्रष्ट हो रहा है। 

यों कहने भर के लिए हमारे देश मे आज भी आस्तिकता संसार के सभी देशों से अधिक है। पर सच्ची और व्यावहारिक आस्तिकता की दृष्टि से हमारा देश अन्य देशों से कहीं बहुत पीछे है और सच तो यह है कि आज हमारे देश मे आसतिकता का जो विकृत रूप विद्यमान है उसे प्रच्छन्न (ढकी हुई)नास्तिकता कहना कहीं अधिक उपयुक्त होगा-हम मुंह से तो राम-2 कहें पर हमारे सारे काम राम के आदर्शों के विरुद्ध हों,हम घर पर नित्य हवन-यज्ञ करते हों किन्तु दुकान या आफिस मे बैठ कर लोगों की आँखों मे धूल झोंकने का प्रयत्न करते हों-यही प्रच्छ्न्न नास्तिकता है। आज हमारे देश मे जो प्रकट (खुले रूप मे )नास्तिकता की बाढ़ आ रही है,आज हमें जो ईश्वर -धर्म,सदाचार और संस्कृति के विरोधी नारे सुनाई पड़ रहे हैं-क्या हमने कभी सोचा है कि यह ढकी हुई नास्तिकता ही इसका मुख्य और एक मात्र कारण है?

वस्तुतः प्रच्छ्न्न (ढकी हुई)नास्तिकता ही प्रकट नास्तिकता को जन्म देती है।  कैसे?इतिहास के पन्ने उलटिए। गौतम को नास्तिक किसने बनाया?क्या आस्तिकता,ईश्वर और वेद की ओट मे गोमेध,अश्वमेध और नरमेध आदि यज्ञों के नाम पर निरपराध गायों,घोड़ों और मनुष्यों तक की अमानुषिक हत्या के वीभत्स दृश्य ने ही दयालु हृदय गौतम को ईश्वर,वेद और यज्ञ का विरोधी नहीं बनाया?क्या तत्कालीन ब्राह्मणों के मिथ्या जात्याभिमान ने ही उसके विरुद्ध झण्डा खड़ा करने वालों को प्रोत्साहित नहीं किया?स्पष्ट है कि उस समय के धर्माधिकारी लोग आस्तिकता के चोंगे मे घोर नास्तिक थे और इन्ही ढके हुये नास्तिकों ने गौतम तथा बुद्ध मत के रूप मे प्रकट नास्तिकता को जन्म दिया जिससे भारत-पतन हुआ। आज 2500 वर्ष के  बाद इतिहास ने फिर अपने को दुहराया है। प्रच्छ्न्न नास्तिकता अपनी सीमा को पहुँच चुकी है। धर्म और आस्तिकता के नाम पर जहां एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की छाया अपने शरीर पर पड़ जाना पाप समझता हो,जहां प्रभु की सर्वश्रेष्ठ रचना एक मनुष्य को इसलिए समस्त सामान्य मानवीय अधिकारों से वंचित किया जाता हो,क्योंकि उसके परिवारी चमड़े के जूते बनाते अथवा मैले आदि की सफाई करते अथवा इसी प्रकार का कोई अन्य श्रम-साध्य काम करते हैं,जहां पर बुड्ढे और दुधमुंहे बच्चों तक के विवाह धर्मविहित हों,धर्म के नाम पर जहां एक-2 वर्ष तक की हजारों बच्चियाँ वैधव्य की आग मे जलती हों,धर्म के नाम पर जहां अराष्ट्रीयता और अनैतिकता की मनोवृत्ति के जनक पाखंड और अन्ध-विश्वास का पोषण होता हो,धर्म के नाम पर जहां नारी के सतीत्व के साथ खिलवाड़ होता हो तथा राष्ट्र के ज्योति स्तम्भ राम-कृष्ण आदि महापुरुषों का स्वांग बनाया जाता हो और धर्म जहां स्वार्थपूर्ती का साधन मात्र बन कर रह गया हो,वहाँ ये बातें सुनाई पड़ना कोई आश्चर्य की बात नही कि 'धर्म और ईश्वर ढोंग तथा पाखंड है' या धर्म और ईश्वर ही हमारी सभी मुसीबतों की जड़ है। अतः देश को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए हमे धर्म,ईश्वर आदि को जल्दी से जल्दी देश निकाला दे देना चाहिए। ' हमारे देश का नौजवान आज बहुत कुछ इसी ढंग से सोचता है,जो स्व्भाविक ही है। 

प्रश्न है-क्या वास्तव मे धर्म,ईश्वर और आस्तिकता की चर्चा करना देश को रसातल मे ले जाना है?उत्तर है नहीं,कदापि नहीं। सच्ची आस्तिकता तो विश्व मे प्राणी मात्र की सुख -शान्ति का एकमात्र आधार है। प्रभु -प्राप्ति तो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। फिर यह झमेला कैसा?स्पष्ट है कि किसी भी अच्छी चीज का सदुपयोग संसार के लिए जितना कल्यांणकर उन्नति की ओर ले जाने वाला है,उसका दुरुपयोग उतना ही हानिकर तथा पतन के गड्ढे मे गिराने वाला है। तो आज आवश्यकता है आस्तिकता अथवा ईश्वर भक्ति का ठीक-ठीक अर्थ समझने की और उसे सही रूप  से व्यवहार मे लाने की। बस!यही आज की समस्याओं का एकमात्र हल है। 

आस्तिकता(ईश्वर भक्ति)का सच्चा स्वरूप  

आस्तिकता अथवा प्रभु भक्ति को ठीक-2 समझने के लिए हम उसे दो रूपों मे देख सकते हैं।  (अ)ईश्वर-विश्वास (कर्मकांड)प्रधान आस्तिकता। (ब  )आचार-प्रधान आस्तिकता।  उक्त दोनों रूपों मे से जब कभी ईश्वर-विश्वास प्रधान आस्तिकता,आचार प्रधान आस्तिकता को मार कर आगे बढ़ना चाहती है तो कालांतर मे वह अनेकों प्रकार केढोंग,पाखंड,दुराचार और अंधविश्वासों को जन्म देकर राष्ट्र को अवनति के गहरे गर्त मे धकेलने का कारण बन जाती है। ईश्वर-विश्वास प्रधान आस्तिकता के आवश्यक अंगों मे से श्रद्धा-अंधश्रद्धा मे बदल जाती है,भाग्यवाद-आलस्य का रूप ले लेता है,परलोकवाद -कल्पित किस्से कहानियों का और अध्यात्मवाद -जीवन और जगत से दूर जड़वत शून्यता का। समस्त पौराणिक काल हमारे इसी पतन की दुखभरी कहानी है। और तब उसकी प्रतिक्रिया मे आचार प्राधान आस्तिकता का युग आता है। परंतु वह भी प्रतिक्रिया के आवेश मे जब ईश्वर -विश्वास,कर्मफल,पुनर्रजन्म अध्यात्मवाद आदि को मार कर जीवित रहना चाहती है तो कालांतर मे कोरे भौतिकवाद,प्रत्यक्षवाद और शुष्क कर्मवाद की चोटों से मनुष्य की सरस भावनाओं का हनन करके उसे नरपिशाच बना देती है। 

यह सही है कि आचार प्रधान आस्तिकता ही वस्तुतः आस्तिकता का समग्र रूप है परंतु ईश्वर -विश्वास -प्रधान आस्तिकता का महत्व उससे भी कहीं अधिक इसलिए है क्योंकि पहली का आधार ही दूसरे प्रकार की आस्तिकता है। 'बौद्धमत'  ईश्वर-विश्वास प्रधान आस्तिकता के 'अतिवाद' की प्रतिक्रिया मे आचार प्रधान आस्तिकता का महत्व लेकर आया था। प्रतिक्रिया के आवेश मे बुद्ध ने ईश्वर,वेद,पुनर्जन्म आदि को उसमे स्थान नहीं दिया। परिणाम सामने है। बुद्ध के पश्चात बहुत थोड़े समय मे ही बौद्धमत मे ईश्वर के स्थान पर बुद्ध को ही ईश्वर बना देने के लिए विवश होना पड़ा। भारतीय इतिहास मे मूर्ती-पूजा तथा अवतारवाद की अवैदिक प्रथा का प्रारम्भ यहीं से होता है। 

बौद्धयुग की प्रतिक्रिया मे पौराणिक काल आया था और आज का युग पौराणिक काल की प्रतिक्रिया के रूप मे आया है। इस संसार के समस्त मतों का इतिहास आस्तिकता के एक अंग के अतिवाद के विरुद्ध दूसरे अंग की प्रतिक्रिया के अथवा सूक्ष्म और स्थूल के इस संघर्ष से भरा पड़ा है। परंतु किसी भी एक अंग को ही लेकर चलने वाली आस्तिकता एकांगी है,अपूर्ण है,लंगड़ी है,उल्टा परिणाम लाने वाली है। सच्ची आस्तिकता के लिए उक्त दोनों रूपों का समुचित समन्वय परमावश्यक है। यही वैदिक भक्तिवाद है। वैदिक भक्तिवाद मे अध्यात्मवाद एवं भौतिकवाद,प्रत्यक्ष  और परोक्ष ,लोक और परलोक,श्रद्धा तत्व एवं तर्क तत्व,भाग्यवाद एवं पुरुषार्थ तथा  त्याग और भोगवाद का समुचित साम्ञ्जस्य है। सच्ची आस्तिकता न तो आकाश की उड़ान है और न तलातल मे डुबकियाँ लगाने के समान है। वह तो पृथ्वी के ठोस धरातल पर आकाश की छाया मे पलतीहै। 
वैदिक भक्ति या सच्ची आस्तिकता न हो तो हमे यह सिखाएगी कि,'अरे बच्चा क्या है,संसार तो स्वप्न के समान है। झूठा झगड़ा है,दुनिया के सब नाते मिथ्या हैं। एक मात्र ब्रह्म ही सत्यहै इसलिए छोड़ो यह सब झमेला' और न सच्ची आस्तिकता एकमात्र संसार के इन चमकीले और लुभावने पदार्थों मे आसक्त होकर मानव जीवन के उच्चत्तम लक्ष्य को भूल जाने कहेगी वह संसार के माध्यम से संसार-पति को पाने का मार्ग है। उसमे तो एहिक और पारलौकिक उन्नत्ती के समन्वय का रूप धर्म का प्रतिपादन है। 'तेनत्यक्तेन भुञ्जीथा: ' और 'योग कर्मसु कौशलम ' इन सूक्तियों मे 'वैदिक भक्तिवाद' का रहस्य छिपा है। 

कौन कहता है?ऐश्वर्य,धन(अर्थ)हेय है,वह साधना मार्ग मे बाधक है। हम तो प्रतिदिन दो बार साँय प्रातः प्रार्थना करते हैं'वयं स्याम पतयो रयीणाम('हम एश्वर्यों के स्वामी बनें' 'भूखे भजन न होय गुपाला' वाली कहावत बहुत कुछ सारपूर्ण है। उसकी सत्यता को कोरे अध्यात्मवाद के नारों से झुठलाया नहीं जा सकता। परंतु रुको,ठहरो,ज़रा भी बहे कि समाप्त!(तभी तो धर्म-पथ को 'क्षु रस्य धारा' कहा है। )हमे ठीक इसी समय यह भी ध्यान रखना है कि कहीं हम सांसारिक ऐश्वर्यों का समर्थन करते-2 उसी को तो सब कुछ नहीं मान बैठे हैं। 'धन साधन है साध्य नहीं' तथा संसार के ऐश्वर्यों के ढक्कन के पीछे सत्य छिपा है,इस तथ्य को एक क्षण के लिए भी भूलने का अर्थ है वैदिक भक्तिवाद के स्वरूप को भूल कर आध्यात्मिक मृत्यु को प्राप्त हो जाना,जिस स्थिति मे आज हम हैं। इस संबंध मे हमे 'धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष'इस फल चतुष्टय को समझ लेना अधिक उपयोगी होगा। 'अर्थ' अर्थात धनोपार्जन और 'काम' अर्थात उसका उपभोग दोनों ही आवश्यक हैं किन्तु मूल मे 'धर्म' हो और उनका लक्ष्य हो 'मोक्ष'प्राप्ति। यह विशुद्ध वैदिक भक्ति मार्ग है। 

वैदिक भक्ति हमे सिखाती है कि समष्टि रूप मे ब्राह्मण ज्ञान-शक्ति से राष्ट्र के अज्ञान को,क्षत्रिय अपनी क्षात्र -शक्ति से राष्ट्र मे अथवा राष्ट्र पर होने वाले अन्याय को,वैश्य अपनी धनोपार्जन कला से राष्ट्र के अभाव को चुनौती देकर और शूद्र उक्त तीनों को अपना पावन सहयोग देकर कर्तव्य -भाव से अपने-अपने राष्ट्र धर्म का पालन करें और उनमे से प्रत्येक अपने-2 कर्तव्य कर्मों के द्वारा समान रूप से आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति कर सकें। इसी प्रकार व्यष्टि रूप मे एक मानव ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ,वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रमों की सफल साधना द्वारा अपने व्यक्तिगत जीवन को समुज्ज्वल बनाते हुये उसे राष्ट्र -जीवन के साथ जोड़ सके तो वह सच्चा आस्तिक होगा। अपने-अपने परिवार ,समाज,राष्ट्र एवं अखिल विश्व के प्राणिमात्र के प्रति अपने-अपने आश्रम और वर्ण की मर्यादानुसार सम्यक रूपेण कर्तव्य -पालन करना ही ईश्वर भक्ति है। 

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ईश्वर के प्रति कर्तव्य-पालन का जहां तक संबंध है उसके रिझाने के लिये किसी पृथक कर्तव्य या अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं। वह खुशामद पसंद नहीं है। ईश्वर के दरबार में ब्लैक और रिश्वत नहीं चलती। वहाँ तो उपर्युक्त आश्रम और मर्यादानुसार यम -नियमों की दिव्य साधना ही काम आती है। अज्ञान और अविद्या के कारण अथवा ईश्वर -विश्वास प्रधान भक्ति के 'अतिवाद' के कारण आज हमारे देश में फल-फरक-भक्ति प्रचलित है। मंदिरों में हम भोग प्रसाद आदि इसलिए रखते हैं अथवा देवी पर बकरा इसलिए काटते और कटवाते अथवा कीर्तन,तीर्थ यातर,व्रतोपवास इसीलिए करते हैं कि ऐसा कराने  से हमें धन की या संतान की प्राप्ति हो या फिर किसी मुकदमे में ही जीत हो जावे। कई विद्यार्थी भी इसलिए भोग प्रसाद आदि रखते देखे गए हैं क्योंकि वे बिना परिश्रम किए ही परीक्षा मे उत्तीर्ण हो जाना चाहते हैं। कैसी विचित्र भक्ति है!गंगा यमुना का स्नान,तीर्थ यात्रा,काशीमरण आदि से मोक्ष प्राप्ति रूप अनेकों,मिथ्या,माहात्स्य इसी फलपरक भक्ति के ही नमूने हैं। इनसे संसार में घोर पाप और आलस्य ही बढ़ा है और बढ़ रहा है। वस्तुतः यह सब खुशामद ईश्वर के निकट कोई महत्व नहीं रखती। वहाँ तो ‘अवश्यमेव भोक्त-व्यं कृतं कर्म शुभाsशुभम’ का सिद्धांत ही चलता है। माफी मुल्तबी का कोई प्रश्न ही नहीं। शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य मिलेगा ही। जब ऐसा है तो प्रश्न उठता है कि फिर हम ईश्वर-भक्ति क्यों करें ? ईश्वर-भक्ति से क्या लाभ ?
    वस्तुतः उक्त प्रश्न भक्ति क्या है और उसका ठीक रूप क्या है,यह न समझने के कारण ही उठता है। यदि हम यह समझ सकें कि केवल प्राणिमात्र के प्रति अपने कर्तव्य-कर्मों का सम्यक पालन ही [न कि कोई अन्य विशेष अनुष्ठान] सच्ची प्रभु भक्ति है,तो यह प्रश्न ही नहीं पैदा होता। तब तो हम विचारेंगे कि मानव पूजा ही सच्ची ईश्वर पूजा है। मंदिर के भीतर स्थापित कल्पित ईश्वर की मूर्ति की अपेक्षा मंदिर की बाहर की चौखट से प्रताड़ित मानव मूर्ति [अछूत] की उपासना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। दरिद्र दुख भजन आर्त मानवता की सेवा तथा व्यवहार की शुद्धता और सात्विकता ही सच्चा यजन,भजन और पूजन है। काश! हमारा देश आस्तिकता के इस आचार प्रधान रूप को ठीक-ठीक समझ सकता!

    परंतु इसे ठीक-ठीक समझने पर भी सत्यता से निभा सकने के लिए सजग ईश्वर विश्वास,अनंत आत्म-बल,आत्म-निरीक्षण,दृढ़ पुरुषार्थ,विनम्रता,निर्भयता सब प्राणियों में स्वात्मवत भावना आदि गुण अपेक्षित हैं। उक्त गुणों को प्राप्त  कर सकने ,कुसंस्कारों के मल को धो कर सुसंस्कारों को जागृत करने तथा पापों के कारण रूप अभिमान और अवमान की भावना को मिटाने के लिए यह परम आवश्यक है कि मनुष्य अपना संबंध शक्ति के महान स्त्रोत प्रभु से स्थापित करे। यही भक्ति का ईश्वर विश्वास प्रधान रूप है। भक्ति का यह रूप जिससे साधक में उक्त गुणों का विकास हो कर वह लोक-संग्रह कार्य में प्रवृत्त होता है,भक्ति का चिंतन,शाश्वत,और सार्वभौम स्वरूप है।

    वैदिक भक्तिवाद में पंच महायज्ञों का विधान विशेषतः इसी उद्देश्य से किया गया है। 1-ब्रह्मयज्ञ[संध्या] 2-देवयज्ञ[हवन] 3-पितृयज्ञ[जीवित माता-पिता एवं गुरुजनों की सेवा] 4-अतिथियज्ञ [आप्त विद्वानों,निष्काम देश भक्तों की सेवा] 5-भूतयज्ञ[प्राणिमात्र के प्रति सदभावना] यही पंच महायज्ञ हैं। इनमें से संध्या-आस्तिकता के ईश्वर-विश्वास प्रधान रूप से संबन्धित है तथा शेष महायज्ञ आचार प्रधान रूप से। संध्या से साधक अपने प्यारे प्रभु की गोद में बैठा हुआ आत्म-निरीक्षण करते हुए मानव जीवन के उद्देश्य पर विचार करता है और उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने,समाज तथा प्रभु के प्रति जो उसका कर्तव्य है। उसके पालन करने के लिए वह कृतसंकल्प होता है। संध्या के मंत्रों द्वारा प्रभु की स्तुति,प्रार्थना और उपासना **करते हुए साधक उन मंत्रों में गुंथे हुए दिव्य संदेश को अपने क्रियात्मक जीवन में ढालने के लिए संकल्पशील होता है। प्रातः सायं संध्या में बैठा हुआ साधक मानो सुरक्षित किले में बैठे हुए उस सिपाही के समान है जो निश्चिंत भाव से अपने दिन भर के संघर्ष क्षेत्र का चित्र तैयार करता है,पिछले दिन की भूलों के प्रति सावधानी बर्तने का निश्चय करता है और कर्म क्षेत्र में उतर पड़ता है। सायंकाल पुनः किले में वापिस आकर अपने कर्तव्य कर्मों की समीक्षा करता है।  इस क्रम से साधक नित्यशः अपने लक्ष्य के समीपतर होता जाता है। संध्या के 19 मंत्रों को केवल मात्र दुहरा लेने वाले सज्जन संध्या के इस रहस्य और मंत्रों में सन्निहित अलौकिक आनंद को कहाँ समझ सकते हैं ?

    देवयज्ञ द्वारा जहां साधक व्यक्तिगत हितों को राष्ट्र हित के लिए आहूत कर देने का महान संदेश प्राप्त करता है,वहाँ वह अपने शरीर द्वारा फैलाई हुई दुर्गंध को दूर करने के लिए किसी अंश में वायुमण्डल को सुगंधित कर अपने मनुष्यपन रूप धर्म का पालन भी करता है। इसी प्रकार पितृयज्ञ,अतिथियज्ञ और भूतयज्ञ द्वारा अपने “स्व” का उत्तरोत्तर विकास करता हुआ वह ‘आत्मवत सर्वभूतेषु.’ के आदर्श को अपने जीवन में चरितार्थ करता है अर्थात उसका जीवन ‘यशमय’ हो जाता है। संसार से कम से कम लेकर अधिक से अधिक देने की पवित्र भावना उसके जीवन का एक आवश्यक अंग बन जाती है। ऐसा कर्मशील मनुष्य जीवन-मुक्त हो कर अपने समस्त व्यवहारों को अनासक्त भाव से एवं ‘वसुधैवकुटुम्बकम’ के आदर्श अनुप्राणित होकर करता है। यही ‘गुर’ विश्वशांति का मूल है।

    पंच महायज्ञ ही ईश्वर भक्ति या आस्तिकता का सर्वांगीण स्वरूप हैं। आस्तिकता के दोनों रूपों  का सम्यक समन्वय इनमें मिलता है। अतः पंच महायज्ञों का श्रद्धापूर्वक पालन करना एक आर्य [श्रेष्ठ मनुष्य] का नित्यकर्म है। भगवान मनु ने इसके विषय में कहा है-

    ब्रह्मयज्ञम,देवयज्ञम,पितृयज्ञम च सर्वदा।
    नृयज्ञम अतिथियज्ञम च यथाशक्तिं न हाषयेत॥

    जो मनुष्य (स्त्री-पुरुष) इनके व्यावहारिक रूप को समझ कर इन्हें अपने जीवन (दिनचर्या) में स्थान देते हैं वही सच्चे अर्थों में ईश्वर भक्त हैं। भारत को आज ऐसे ही ईश्वर भक्तों की आवश्यकता है। इसी भावना से प्रेरित हो यह लघु प्रयास ईश्वर भक्तों के चरणों में सादर समर्पित है।        
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*नित्य कर्म विधि
 लेखक-आचार्य प्रेम भिक्षु वानप्रस्थ
प्रकाशक-
सत्य प्रकाशन
वृन्दावन मार्ग,मथुरा,उत्तर प्रदेश
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 ईश्वर स्तुति,स्वस्ति वाचन और शांति प्रकरण के 'भवानी दयाल सन्यासी'जी द्वारा किए भावानुवाद दिये गए लिंक्स पर सुने जा सकते हैं-
ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-- http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.in/2011/10/blog-post_28.html

स्वसतीवाचनम-- http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.in/2011/11/blog-post.html

शांति प्रकरणम-- http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.in/2011/11/blog-post_06.html



इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Tuesday, March 5, 2013

धर्म और कर्म




ज़्यादातर लोग धर्म का मतलब किसी मंदिर,मस्जिद/मजार ,चर्च या गुरुद्वारा अथवा ऐसे ही दूसरे स्थानों  पर जाकर  उपासना करने से लेते हैं। इसी लिए इसके एंटी थीसिस वाले लोग 'धर्म' को अफीम और शोषण का उपक्रम घोषित करके विरोध करते हैं । दोनों दृष्टिकोण अज्ञान पर आधारित हैं। 'धर्म' है क्या? इसे समझने और बताने की ज़रूरत कोई नहीं समझता।


 ·01 मार्च,2013 
'धर्म'=धारण करने वाला। जो शरीर व समाज को धारण  करने हेतु आवश्यक है वही धर्म है बाकी सब कुछ अधर्म है उसे धर्म की संज्ञा देना ही अज्ञान को बढ़ावा देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। कृपया ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा न दें।
  • Ori Prasad Verma आपने मेरे मन की बात कही.


उपरोक्त बात अक्सर ब्लाग एवं फेसबुक के माध्यम से कहता रहा हूँ परंतु खेद इस बात का रहा है कि,विद्वजन भी ढोंग को ही धर्म मानते व उसके पक्ष मे कुतर्क पेश करते रहे हैं। नवगठित फेसबुक ग्रुप 'सोश्यिओलोजिस्ट-फार सोशल पैथोलॉजी'मे भी जब मैंने यही बात कही--- 'धर्म' और ढोंग दो विपरीत तत्व हैं। आजकल लोग (शोषक भी और प्रगतिशील भी)ढोंग को ही धर्म की संज्ञा देते हैं और समस्या यहीं से शुरू होती है। .........................  प्रगीतिशीलता/वैज्ञानिकता की आड़ मे जब धर्म को अफीम कह कर ठुकरा दिया जाये और ढोंग को धर्म माना जाये तो क्या हो सकता है?यदि हम जनता को बेधड़क समझाये कि धर्म ये सद्गुण हैं वे ढोंग नहीं जिंनका प्रवचन उतपीडकों के प्रतिनिधि देते फिरते हैं तब हमारी बात का सकारात्मक प्रभाव अवश्य ही होगा।'

इसके उत्तर मे ग्रुप एडमिन अनीता राठी जी ने कहा--'आप ठीक कहते है विजय जी लेकिन हमारे देश की आबादी को जो की या तो अन्धानुकारन करने लगती है, या फिर कोरी किताबी बातें , या तो पत्थर को दूध पिलाने लगती है या फिर सेधान्तिक हो जाती है।संतुलन नहीं है समझ में।'

इस पर मैंने उनको सूचित किया कि,-'  जी हाँ उसी के लिए मैं अपने ब्लाग-के माध्यम से व्यक्तिगत स्तर पर लगातार संघर्ष कर रहा हूँ।'



Anita Rathi -आपके इस नेक काम के लिए बधाई, इंसान होने का फ़र्ज़ अदा कर रहे है आप,


पहली बार किसी विद्वान द्वारा मेरे तर्क  को सही मानने का कारण (अनीता राठी जी  M.A. English / Anthropology / Sociology हैं)उनकी अपनी योग्यता है।वैसे ऊपर कुछ साम्यवादी विद्वानों द्वारा भी  यह तर्क पसंद किया गया है। 

वास्तविकता यही है कि ,मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।

ऋग्वेद के इस मंत्र को देखें-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया :
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद दु : ख भाग भवेत। ।
इस मंत्र मे क्या कहा गया है उसे इसके भावार्थ से समझ सकते हैं- --

सबका भला करो भगवान ,सब पर दया करो भगवान।
सब पर कृपा करो भगवान,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों ,कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवान,धन धान्य के भण्डारी। ।
सब भद्र भाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे,सृष्टि मे प्राण धारी । ।
ऋग्वेद का यह संदेश न केवल संसार के सभी मानवों अपितु सभी जीव धारियों के कल्याण की बात करता है।

 भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
 क्या इन तत्वों की भूमिका को मानव जीवन मे नकारा जा सकता है?और ये ही पाँच तत्व सृष्टि,पालन और संहार करते हैं जिस कारण इन्ही को GOD कहते हैं  ...
GOD=G(generator)+O(operator)+D(destroyer)। खुदा=और चूंकि ये तत्व' खुद ' ही बने हैं इन्हे किसी प्राणी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 'भगवान=GOD=खुदा' - मानव ही नहीं जीव -मात्र के कल्याण के तत्व हैं न कि किसी जाति या वर्ग-विशेष के।  

आज सर्वत्र पोंगा-पंथी,ढ़ोंगी और संकीर्णतावादी  तत्व (विज्ञान और प्रगतिशीलता के नाम पर) 'धर्म' और 'भगवान' की आलोचना करके तथा पुरोहितवादी 'धर्म' और 'भगवान' की गलत व्याख्या करके मानव द्वारा मानव के शोषण को मजबूत कर रहे हैं।

'मनुष्य' मात्र के लिए सृष्टि के प्रारम्भ मे 'धर्म,अर्थ,काम एवं मोक्ष' हेतु कार्य करने का निर्देश विद्वानों द्वारा दिया गया था। किन्तु आज 'धर्म' का तो कोई पालन करना ही नहीं चाहता और ढोंग -पाखंड-आडंबर को 'पूंजी' ने 'पूजा' अपने शोषण-उत्पीड़न को मजबूत करने हेतु बना दिया है तथा उत्पीड़ित गरीब-मजदूर/किसान इन पूँजीपतियों के दलालों द्वारा दिये गए खुराफाती वचनों को प्रवचन मान कर भटकता व अपना शोषण खुशी-खुशी कराता रहता है। 

'काम'=समस्त मानवीय कामनाए होता है किन्तु आज काम को वासना-सेक्स के अर्थ मे प्रयुक्त किया जा रहा है यह भी पूँजीपतियों/व्यापारियों की ही तिकड़म का नतीजा है जो निरंतर 'संस्कृति' का क्षरण कर रहा है। समाज मे व्याप्त सर्वत्र त्राही इसी निर्लज्ज  पूंजीवादी सड़ांध के कारण है। 

'मोक्ष' की बात तो अब कोई करता ही नहीं है। कभी विज्ञान के नाम पर तो कभी नास्तिकता के नाम पर जन्म-जन्मांतर को नकार दिया जाता है। या फिर अंधकार मे  अबोध जनता को भटका दिया जाता है और वह मोक्ष प्राप्ति की कामना के नाम पर कभी गया मे 'पिंड दान' के नाम पर लूटी जाती है तो कभी अतीत मे 'काशी करवट'मे अपनी ज़िंदगी कुर्बान करती रही है। यह सारा का सारा अधर्म किया गया है धर्म का नाम लेकर और इसे अंजाम दिया है व्यापारियों और पुरोहितों ने मिल कर। सत्ता ने भी इन लुटेरों का ही साथ पहले भी दिया था और आज भी दे रही है। 

'अर्थ' का स्थान 'धर्म' के बाद था किन्तु आज तो-"इस अर्थ पर 'अर्थ' के बिना जीवन का क्या अर्थ "सूत्र सर्वत्र चल रहा है । इसी कारण मार-काट,शोषण-उत्पीड़न,युद्ध-संहार चलता रहता है। हर किसी को धनवान बनने की होड लगी है कोई भी गुणवान बनना नहीं चाहता। सद्गुणों की बात करने पर उपहास उड़ाया जाता है और भेड़चाल का हिस्सा न बनने पर प्रताड़ित किया जाता है। अर्थतन्त्र केवल धनिकों/पूँजीपतियों के संरक्षण की बात करता है उसमे साधारण 'मानव' को कोई स्थान नहीं दिया गया है। 'मानवता'की स्थापना हेतु 'कर्मवाद' पर चलना होगा तभी विश्व का कल्याण हो सकता है।  

'कर्म' तीन प्रकार के होते हैं-1)सदकर्म,2)दुष्कर्म और 3) 'अकर्म'पहले दो कर्मों के बारे मे सभी जानते हैं लेकिन फिर भी अपने दुष्कर्म को सदकर्म सभी दुष्कर्मी बताते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है 'अकर्म'अर्थात वह कर्म=फर्ज़=दायित्व जो किया जाना चाहिए था लेकिन किया नहीं गया। भले ही सीधे-सीधे इसमे किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया गया है किन्तु जो नुकसान किसी का बचाया जा सकता था वह बचाया नहीं गया है जो कि,'प्रकृति' की नज़र मे अपराध है और वह इसके लिए उस मनुष्य को दंडित अवश्य ही करती है। 'भगवान'='खुदा'=GOD तत्व सर्वत्र व्यापक हैं और उनको किसी दलाल/बिचौलिये की सहायता की आवश्यकता नहीं है। यह दंड के लिए किसी भी माध्यम का चयन स्वतः कर लेते हैं। अतः ठेकेदार/बिचौलिये/पूरिहितों के झांसे मे आए बगैर प्रत्येक 'मनुष्य' को 'सदकर्म' का पालन और दुष्कर्म व  'अकर्म'से बचना चाहिए तभी हम धरती पर 'सुख' व 'शांति' स्थापित कर सकते हैं अन्यथा यों ही भटकते हुये रोते-गाते अपना मनुष्य जीवन व्यर्थ गँवाते जाएँगे। 

Tuesday, February 12, 2013

धर्म का मर्म ---विजय राजबली माथुर

भारत को धर्म-प्राण देश कहा जाता है और सर्वाधिक अधर्म यहीं पर देखा जाता है। वस्तुतः व्यापारियों/उद्योगपतियों ने सामंतकालीन सत्ताधारी और शोषकों ने जिस प्रकार पुरोहितों/ब्राह्मणों को खरीद कर धर्म की अधार्मिक व्याख्या करवाई थी उसे ही मजबूत करने का उपक्रम कर रखा है जिस कारण समय-समय पर गरीब और निरीह जनता अकाल मौत का शिकार होती रहती है। 1954 के बाद इस बार फिर माघ की मौनी अमावस्या पर प्रयाग/अलाहाबाद मे भगदड़ से बेगुनाहों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। चंड  मार्तण्डपंचांग के पृष्ठ-50 पर 28 जनवरी 2013 से 25 फरवरी 2013 के काल खंड हेतु स्पष्ट किया गया है-
'नायक नेता आपदा आतंक द्वंद विस्तार। चौर्य कर्म रचना विपुल,हरण-कारण प्रस्तार। ।  रक्षा विषयक न्यूनता,लोक विश्व अभिसार।। 
 गति वक्र शनि देव की संज्ञा तुला विधान।चिंतन मुद्रा अर्थ की,गणना विश्व प्रधान। । '

04 जनवरी 2013 को शुक्र के धनु राशि मे प्रवेश से उसका वृष राशि के गुरु से 180 डिग्री का संबंध बना जिसके फल स्वरूप सीमा पर विवाद-गोली चालन,सैनिकों की हत्या आदि घटनाएँ घटित हुईं। 28 जनवरी को शुक्र ग्रह मकर राशि मे सूर्य के साथ आया था जो आज 12 फरवरी तक साथ रहेगा तब उसके परिणाम स्वरूप शीत  लहरें चली,हिम प्रपात,नभ-गर्जना  ओला-वृष्टि के योग घटित हुये। जन-धन की क्षति हुई और 'कुम्भ मेला'का हादसा भी इन ग्रह-योगों का ही परिणाम है क्योंकि तदनुरूप बचाव व राहत के उपाए नहीं किए गए थे।  12 फरवरी से 03 मार्च 2013 तक सूर्य और मंगल कुम्भ राशि मे एक साथ होंगे जिसके परिणाम स्वरूप पूरी दुनिया मे भू-क्रंदन और आपदा के योग रहेंगे।





'धर्म' के सम्बन्ध मे निरन्तर लोग लिखते और अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं परंतु मतैक्य नहीं है। ज़्यादातर लोग धर्म का मतलब किसी मंदिर,मस्जिद/मजार ,चर्च या गुरुद्वारा अथवा ऐसे ही दूसरे स्थानों  पर जाकर  उपासना करने से लेते हैं। इसी लिए इसके एंटी थीसिस वाले लोग 'धर्म' को अफीम और शोषण का उपक्रम घोषित करके विरोध करते हैं । दोनों दृष्टिकोण अज्ञान पर आधारित हैं। 'धर्म' है क्या? इसे समझने और बताने की ज़रूरत कोई नहीं समझता।
धर्म=शरीर को धारण करने के लिए जो आवश्यक है वह 'धर्म' है। यह व्यक्ति सापेक्ष है और सभी को हर समय एक ही तरीके से नहीं चलाया जा सकता। उदाहरणार्थ 'दही' जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है किसी सर्दी-जुकाम वाले व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। ऐसे ही स्वास्थ्यवर्धक मूली भी ऐसे रोगी को नहीं दी जा सकती। क्योंकि यदि सर्दी-जुकाम वाले व्यक्ति को मूली और दही खिलाएँगे तो उसे निमोनिया हो जाएगा अतः उसके लिए सर्दी-जुकाम रहने तक दही और मूली का सेवन 'अधर्म' है। परंतु यही एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए 'धर्म' है।
मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।
ऋग्वेद के इस मंत्र को देखें-
सर्वे भवनतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया :
सर्वे भद्राणि पशयनतु मा कश्चिद दु : ख भाग भवेत। ।

इस मंत्र मे क्या कहा गया है उसे इसके भावार्थ से समझ सकते हैं-

सबका भला करो भगवान ,सब पर दया करो भगवान।
सब पर कृपा करो भगवान,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों ,कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवान,धन धान्य के भण्डारी। ।
सब भद्र भाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे,सृष्टि मे प्राण धारी । ।

ऋग्वेद का यह संदेश न केवल संसार के सभी मानवों अपितु सभी जीव धारियों के कल्याण की बात करता है। क्या यह 'धर्म' नहीं है? इसकी आलोचना करके किसी वर्ग विशेष के हितसाधन की बात नहीं सोची जा रही है। जिन पुरोहितों ने धर्म की गलत व्याख्या प्रस्तुत की है उनकी आलोचना और विरोध करने के बजाये धर्म की आलोचना करके शोषित-उत्पीड़ित मानवों की उपेक्षा करने वालों (शोषकों ,उत्पीड़को) को ही लाभ पहुंचाने का उपक्रम है।
भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
 क्या इन तत्वों की भूमिका को मानव जीवन मे नकारा जा सकता है?और ये ही पाँच तत्व सृष्टि,पालन और संहार करते हैं जिस कारण इनही को GOD कहते हैं  ...

GOD=G(generator)+O(operator)+D(destroyer)।
खुदा=और चूंकि ये तत्व' खुद ' ही बने हैं इन्हे किसी प्राणी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 'भगवान=GOD=खुदा' - मानव ही नहीं जीव -मात्र के कल्याण के तत्व हैं न कि किसी जाति या वर्ग-विशेष के।
पोंगा-पंथी,ढ़ोंगी और संकीर्णतावादी  तत्व (विज्ञान और प्रगतिशीलता के नाम पर) 'धर्म' और 'भगवान' की आलोचना करके तथा पुरोहितवादी 'धर्म' और 'भगवान' की गलत व्याख्या करके मानव द्वारा मानव के शोषण को मजबूत कर रहे हैं।
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Monday, October 15, 2012

उठो जागो और महान बनो(पुनर्प्रकाशन)



बृहस्पतिवार, 14 अक्तूबर 2010


उठो जागो और महान बनो

प्रस्तुत शीर्षक स्वामी विवेकानंद द्वारा युवा शक्ति से किया गया आह्वान है .आज   देश के हालात कुछ  वैसे हैं :-मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों -२ दवा की .करम खोटे हैं तो ईश्वर  के गुण गाने से क्या होगा ,किया  परहेज़ न कभी  तो दवा खाने से क्या होगा.. आज की युवा शक्ति को तो मानो सांप   सूंघ  गया है वह कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं है और हो भी क्यों ? जिधर देखो उधर ओसामा बिन लादेन बिखरे पड़े हैं, चाहें वह ब्लॉग जगत ही क्यों न हो जो हमारी युवा शक्ति को गुलामी की प्रवृत्तियों से चिपकाये रख कर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ती करते रहते हैं.अफगानिस्तान हो ,कश्मीर हो ,देश भर में फैले नक्सलवादी हों या किसी भी तोड़ -फोड़ को अंजाम देने वाले आतंकवादी हों सब के पीछे कुत्सित मानसिकता वाले बुर्जुआ लोग ही हैं .वैसे तो वे बड़े सुधारवादी ,समन्वय वादी बने फिरते हैं,किन्तु यदि उनके ड्रामा को सच समझ कर उनसे मार्ग दर्शन माँगा जाये तो वे गुमनामी में चले जाते हैं,लेकिन चुप न बैठ कर युवा चेहरे को मोहरा बना कर अपनी खीझ उतार डालते हैं .
ऐसा नहीं है कि यह सब आज हो रहा है.गोस्वामी तुलसीदास ,कबीर ,रैदास ,नानक ,स्वामी दयानंद ,स्वामी विवेकानंद जैसे महान विचारकों को अपने -२ समय में भारी विरोध का सामना करना पड़ा था .१३ अप्रैल २००८ के हिंदुस्तान ,आगरा के अंक में नवरात्र की देवियों के सम्बन्ध में किशोर चंद चौबे साहब का शोधपरक लेख प्रकाशित हुआ था ,आपकी सुविधा के लिए उसकी स्केन प्रस्तुत कर रहे हैं :




 बड़े सरल शब्दों में चौबेजी ने समझाया है कि ये नौ देवियाँ वस्तुतः नौ औषधियां  हैं जिनके प्राकृतिक संरक्षण तथा चिकित्सकीय प्रयोग हेतु ये नौ दिन निर्धारित किये गए हैं जो सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायन रहते दो बार सार्वजानिक रूप से पर्व या उत्सव के रूप में मनाये जाते हैं लेकिन हम देखते हैं कि ये पर्व अपनी उपादेयता खो चुके हैं क्योकि इन्हें मनाने के तौर -तरीके आज बिगड़ चुके हैं .दान ,गान ,शो ,दिखावा ,तड़क -भड़क ,कान -फोडू रात्रि जागरण यही सब हो रहा है जो नवरात्र पर्व के मूल उद्देश्य से हट कर है .पिछले एक पोस्ट में मधु गर्ग जी के आह्वान  का उल्लेख किया था जिस पर तालिबान स्टाइल युवा चेहरे की ओर से असहमति प्रकट की गयी है



'क्रन्तिस्वर' में प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है .डा .राम मनोहर लोहिया स्त्री -स्वातंत्र्य  के प्रबल पक्षधर  थे ,राजा राम मोहन राय ने अंग्रेजों पर दबाव डाल कर विधवा -पुनर्विवाह का कानून बनवाया था .स्वामी दयानंद ने कोई १३५ वर्ष पूर्व मातृ - शक्ति को ऊपर उठाने का अभियान चलाया था :-

झूठी रस्मों को जिस दिन नीलाम कराया जायेगा .....वीर शहीदों के जिस दिन कुर्बानी की पूजा होगी ......

मथुरा के आर्य भजनोपदेशक विजय सिंह जी के ओजपूर्ण बोलों का अवलोकन करें ---

हमें उन वीर माओं की कहानी याद  आती है .
मरी जो धर्म की खातिर कहानी याद आती है ..
बरस चौदह रही वन में पति के संग सीताजी .
पतिव्रत धर्म मर्यादा निभानी याद आती है ..
कहा सरदार ने रानी निशानी चाहिए मुझको .
दिया सिर काट रानी ने निशानी याद आती है ..
हजारों जल गयीं चित्तोड़ में व्रत  धर्म का लेकर .
चिता पद्मावती तेरी सजानी याद आती है ..
कमर में बांध कर बेटा लड़ी अंग्रेजों से डट कर .
हमें वह शेरनी झाँसी की रानी याद आती है ..


आज के 'हिंदुस्तान' में टी .वी .पत्रकार विजय विद्रोही  जी ने "आँगन से निकलीं मार लिया मैदान" शीर्षक से लेख की शुरुआत इस प्रकार की है --"दिल्ली में कामन वेल्थ खेलों का प्रतीक शेरा था ,लेकिन ये खेल उन शेरनियों के लिए याद किये जायेंगे जिन्होंने मेडल पर मेडल जीते".उन्होंने इस क्रम में नासिक की कविता ,हैदराबाद की पुशूषा मलायीकल ,रांची की दीपिका  ,राजस्थान में ब्याही हिसार की कृष्णा पूनिया ,हरवंत कौर ,सीमा अंतिल ,भिवानी की गीता ,बबीता और अनीता बहनों का विशेष नामोल्लेख  किया है जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों  से संघर्ष  करके देश का नाम रोशन किया है .  


 इन नवरात्रों में नारी -शक्ति के लिए सड़ी -गली गलत (अवैज्ञानिक )मान्यताओं को ठुकरा कर वैज्ञानिक रूप से मनाने हेतु विद्वानों के विचार संकलित कर प्रस्तुत किये हैं .लाभ उठाना अथवा वंचित रहना पूरी तरह मातृ-शक्ति पर निर्भर करता है . 


5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर सारगर्वित प्रस्तुति....आभार

  2. .

    सुन्दर प्रस्तुति....आभार !!!

  3. बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति.....

  4. आपने तो बहुत सुंदर बातें कहीं ...

    नवरात्री की शुभकामनायें .... जय माता की

  5. बेहद सुन्दर गौरवशाली परंपरा को अभिव्यक्त करता अति सुन्दर आलेख ..सादर !!

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Wednesday, October 10, 2012

संसार का मूलाधार है---त्रैतवाद ------ विजय राजबली माथुर

 इस संसार ,इस सृष्टि का नियंता और संचालक परम पिता परमात्मा है। परमात्मा के संबंध मे हमारे देश मे अनेकों मत और धारणाये प्रचलित हैं। इनमे से प्रमुख इस प्रकार हैं---

अद्वैतवादी- सिर्फ परमात्मा को मानते हैं और प्रकृति तथा आत्मा को उसका अंश मानते हैं जो कि गलत तथ्य है क्योंकि यदि आत्मा,परमात्मा का ही अंश होता तो बुरे कर्म नहीं करता और प्रकृति भी चेतन होती जड़ नही।

द्वैतवादी -परमात्मा (चेतन)और प्रकृति (जड़)तो मानते हैं परंतु ये भी आत्मा को परमात्मा का ही अंश मानने की भूल करते हैं;इसलिए ये भी मनुष्य को भटका देते हैं।

त्रैतवादी-परमात्मा,आत्मा और प्रकृति तीनों का स्वतंत्र अस्तित्व मानना यही 'त्रैतवाद 'है और 'वेदों' मे इसी का वर्णन है। अन्य किसी तथ्य का नहीं।

वेद आदि ग्रंथ हैं---प्रारम्भ मे ये श्रुति व स्मृति पर आधारित थे अब ग्रंथाकार उपलब्ध हैं। अब से लगभग दो अरब वर्ष पूर्व जब हमारी यह पृथ्वी 'सूर्य' से अलग हुई तो यह भी आग का एक गोला ही थी। धीरे-धीरे करोड़ों वर्षों मे यह पृथ्वी ठंडी हुई और गैसों के मिलने के प्रभाव से यहाँ वर्षा हुई तब जाकर 'जल'(H-2 O)की उत्पत्ति हुई। पृथ्वी के उस भाग मे जो आज 'अफ्रीका' कहलाता है ,उस भाग मे भी जो 'मध्य एशिया' और 'यूरोप'के समीप है तथा तीसरे उस स्थान पर जो 'त्रिवृष्टि'(तिब्बत)कहलाता है परमात्मा ने 'युवा-पुरुष' व 'युवा-स्त्री' रूपी मनुष्यों की उत्पत्ति की और आज की यह सम्पूर्ण मानवता उन्ही तीनों  पर उत्पन्न मनुष्यों की संतति हैं।

त्रिवृष्टि मे उत्पन्न मनुष्य अधिक विवेकशील  हुआ और कालांतर मे दक्षिण स्थित 'आर्यावर्त'की ओर प्रस्थान कर गया। 'आर्यावर्त'मे ही वेदों की रचना हुई। वेद सृष्टि=इस संसार के संचालन हेतु 'विधान' प्रस्तुत करते हैं। वेदों के अनुसार ---(1 )परमात्मा,(2 )आत्मा और (3 )प्रकृति इन तीन तत्वों पर आधारित इस संसार मे प्रकृति 'जड़' है और स्वयं कुछ नहीं कर सकती जो तीन तत्वों के मेल से बनी है---(1 )सत्व,(2 )रज और (3 )तम। ये तीनों जब 'सम' अवस्था मे होते हैं तो कुछ नहीं होता है और वह 'प्रलय' के बाद की अवस्था होती है। आत्मा -सत्य है और अमर है यह अनादि और अनंत है। 'परमात्मा' ='सत्य' और 'चित्त'के अतिरिक्त 'आनंदमय' भी है---सर्व शक्तिमान है,सर्वज्ञ है और अपने गुण तथा स्वभाव के कारण आत्माओं के लिए प्रकृति से 'सृष्टि' करता है ,उसका पालन करता है तथा उसका संहार कर प्रलय की स्थिति ला देता है,पुनः फिर सृष्टि करता है और आत्माओं को पुनः प्रकृति के 'संयोजन'से 'संसार' मे भेज देता है=G(जेनरेट)+O(आपरेट)+D(डेसट्राय)। ये सब कार्य वह खुद ही करता (खुदा ) है।

'सृष्टि' के नित्य ही 'संसर्ग' करने अर्थात 'गतिमान' रहने के कारण ही इसे 'संसार' कहा गया है। 'आत्मा' ,'परमात्मा' का अंश नहीं है उसका स्वतंत्र अस्तित्व है और वह भी 'प्रकृति' तथा 'परमात्मा' की भांति ही कभी भी 'नष्ट नहीं होता है'। विभिन्न कालों मे विभिन्न रूपों मे (योनियों मे )'आत्मा' आता-जाता रहता है और ऐसा उसके 'कर्मफल' के परिणामस्वरूप होता है।
'मनुष्य'=जो मनन कर सकता है उसे मनुष्य कहते हैं। 'परमात्मा' ने 'मानव जीवात्मा' को इस संसार मे 'कार्य-क्षेत्र' मे स्वतन्त्रता दी है अर्थात वह जैसे चाहे कार्य करे परंतु परिणाम परमात्मा उसके कार्यों के अनुसार ही देता है अन्य योनियों मे आत्मा 'कर्मों के फल भोगने' हेतु ही जाता है। यह उसी प्रकार है जैसे 'परीक्षार्थी' परीक्षा भवन मे कुछ भी लिखने को स्वतंत्र है परंतु परिणाम उसके लिखे अनुसार ही मिलता है जिस पर परीक्षार्थी का नियंत्रण नहीं होता। इस भौतिक शरीर के साथ आत्मा को सूक्ष्म शरीर घेरे रहता है और भौतिक शरीर की मृत्यु के बाद भी वह 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ ही चला जाता है। मनुष्य ने अछे या बुरे जो भी 'कर्म' किए होते हैं वे सभी 'गुप्त' रूप से 'सूक्ष्म शरीर' के 'चित्त' मे अंकित रहते हैं और उन्ही के अनुरूप 'परमात्मा' आगामी फल प्रदान करता है---इसी को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है।

मनुष्य को उसके कर्मों का जो फल उसी जीवन मे नहीं मिल पाता है वह संचित रहता है और यही आगामी जीवन पर 'प्रारब्ध (भाग्य )'बन जाता है। परंतु 'जीवन' मे 'मनुष्य' 'मनन' द्वारा अच्छे कर्मों को सम्पन्न कर 'संचित प्रारब्ध' के बुरे कर्मों के फलों को 'सहन' करने की 'शक्ति' अर्जित कर लेता है। जो मनुष्य नहीं समझ पाता वही इस 'संसार' मे दुखी होता है और जो समझ लेता है वह 'सुख-दुख' को एक समान समझता है और विचलित नहीं होता है तथा 'शुभ कर्मों' मे ही लगा रहता है। प्रायः यह दीखता है कि 'बुरे कर्म' करने वाला 'आनंद' मे है और 'अच्छे कर्म' वाला 'कष्ट' मे है ऐसा 'पूर्व कर्मफल ' के अनुसार ही है। परमात्मा अच्छी के अच्छे व बुरे के बुरे फल प्रदान करता है। इस जन्म के बुरे कर्म देख कर परमात्मा पूर्व जन्म के अच्छे फल नहीं रोकता;परंतु इस जन्म के बुरे कर्म उस मनुष्य के आगामी जीवन का 'प्रारब्ध' निर्धारित कर देते हैं। परंतु अज्ञानी मनुष्य समझता है कि परमात्मा बुरे का साथी है ,या तो वह भी बुरे कार्यों मे लीन होकर अपना आगामी प्रारब्ध बिगाड़ लेता है या व्यर्थ ही परमात्मा को कोसता   रहता है। परंतु बुद्धिमान मनुष्य अब्दुर्रहीम खानखाना की इस उक्ति पर चलता है---

"रहिमन चुप हुवे  बैठिए,देख दिनन के फेर। 
जब नीके दिन आईहैं,बनात न लागि है-बेर। । "

जो बुद्धिहीन मनुष्य यह समझते हैं कि अच्छा या बुरा सब परमात्मा की मर्ज़ी से होता है ,वे अपनी गलती को छिपाने हेतु ही ऐसा कहते हैं। आत्मा के साथ परमात्मा का भी वास रहता है क्योंकि वह सर्वव्यापक है। परंतु आत्मा -परमात्मा का अंश नहीं है जैसा कु भ्रम लोग फैला देते हैं। जल का परमाणु अलग करेंगे तो उसमे जल के ,अग्नि का अलग करेंगे तो उसमे अग्नि के गुण मिलेंगे। जल की एक बूंद भी शीतल होगी तथा अग्नि की एक चिंगारी भी दग्ध करने मे सक्षम होगी। यदि आत्मा,परमात्मा का ही अंश होता तो वह भी सचिदानंद अर्थात सत +चित्त +आनंद होता। जबकि आत्मा सत और चित्त तो है पर आनंद युक्त नहीं है और इस आनंद की प्राप्ति के लिए ही उसे मानव शरीर से परमात्मा का ध्यान करना होता है। जो मनुष्य संसार के इस त्रैतवादी रहस्य को समझ कर कर्म करते हैं वे इस संसार मे भी आनंद उठाते हैं और आगामी जन्मों का भी प्रारब्ध 'आनंदमय' बना लेते हैं। आनंद परमात्मा के सान्निध्य मे है ---सांसारिक सुखों मे नहीं। संसार का मूलाधार है त्रैतवाद अर्थात परमात्मा,प्रकृति और आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करना तथा तदनुरूप कर्म-व्यवहार करना।       

Tuesday, July 31, 2012

जन-क्रान्ति

'विद्रोह' या 'क्रांति' कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि,जिसका फिस्फोट एकाएक -अचानक होता है बल्कि इसके अनन्तर 'अन्तर' के तनाव को बल मिलता रहता है। 'क्रांतिस्वर' ब्लाग का प्रारम्भ 02 जून 2010 को किया गया किन्तु इसमे प्रकाशित अधिकांश लेख पूर्व मे ही विभिन्न साप्ताहिक ,पाक्षिक और त्रैमासिक पत्र-पत्रिकाओं मे छ्प चुके थे जिंनका पुनर्प्रकाशन ब्लाग पर किया गया। 'सामाजिक' 'राजनीतिक,' 'आध्यात्मिक ' और 'ज्योतिष' सम्बन्धी विचारों का संकलन इस ब्लाग मे उपलब्ध है। फेसबुक पर विभिन्न ग्रुप्स मे उनके प्रवर्तकों ने मुझे भी शामिल किया हुआ है। इनमे से एक 'लाल झण्डा यूनिटी सेंटर' भी है। इसके प्रवर्तक ने मुझे भी एक एडमिन बनाया था और कुछ और लोगों को भी। एक अहंकारी एडमिन ने अकारण मेरे विरुद्ध ग्रुप मे पहले तो लिखा फिर मुझे ग्रुप से हटा दिया।  उस पर मैंने यह टिप्पणी दी थी-

''22 जूलाई 2012 ,"
"पोस्टको बिना पढे बिना समझे टिप्पणी करने वाले या अलग से उसके विपरीत पोस्ट लिखने वाले चरित्र मे कितने दोहरे हैं यदि सार्वजनिक रूप से खुलासा कर दिया जाये तो मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। पंडित जी अपने जाति-वर्ग के हितोंके संरक्षण हेतु यह तिकड़म कर रहे हैं। जो निष्कर्ष मैंने दिया है उसे मानने से तमाम मंदिरों मे राम की पूजा व्यर्थ हो जाएगी। अयोध्या विवाद का सवाल ही नहीं रहेगा तो पंडितों का रोजगार कैसे चलेगा? अतः साम्यवादी का चोला ओढे RSS के पंडित जी गुमराह कर रहे हैं उनको यह भी खटकता है कि एक गैर-ब्राह्मण क्यों और कैसे ज्योतिषी बन गया और क्यों और कैसे जनवादी-निष्कर्ष दे रहा है? उनको अपने व्यापारी,उद्योगपतियों के शोषण और लूट पर चोट महसूस हो रही है।"

कल जब 'लाल झण्डा यूनिटी सेंटर'मे यह पोस्ट दी थी तब उसके जवाब मे उन पंडित जी ने ग्रुप से मुझे एडमिन के नाते हटा दिया जबकि उसी ग्रुप मे मैं भी एडमिन था और उनकी असभ्य,अश्लील भाषा पर मैं भी उनको हटा सकता था किन्तु मैं लोकतान्त्रिक स्वतन्त्रता का पक्षधर हूँ और ऐसा नहीं किया। वह अब भी लोगों को गुमराह कर रहे हैं और उनके हितैषी ही मुझे सूचित कर रहे हैं उनकी गतिविधियां।


परंतु प्रश्न यह है कि,'राम' की तुलना 'ओबामा'से किया जाना तो पंडित जी का साम्यवाद है और उसके प्रतिवाद मे 'राम' को 'साम्राज्यवादी रावण' का ध्वंसकरता बताना उन पंडित जी की निगाह मे गैर कम्युनिस्ट आचरण है। एक ओर भाकपा ने भारतीय विद्वानों और समाज-सुधारकों के माध्यम से जनता के बीच स्थिति मजबूत बनाने का मसौदा जारी किया है तो दूसरी ओर इन्टरनेट जगत मे RSS के घुसपैठिया तथाकथित साम्यवादी विद्वान 'लाल झण्डा यूनिटी सेंटर ' को संकुचित घोंघे मे तब्दील करने पर आमादा हैं। कल 'दोहरा चरित्र' शीर्षक से नोट मे उनके द्वारा मुझसे अपना ज्योतिषीय विवरण मांगने का ब्यौरा सार्वजनिक किया जा चुका है।"
· · · Sunday at 9:16am



    • Rajyashree Tripathi Aap vaise Group se bahara hain... yahi achchh hai. Aapaki pratibha aur nirpekshita ka jahan samman ho, aap unhi ke saath sakriya hon, yah aagraha hai.
      वे क्या पोस्ट्स थीं जिनके कारण 'पोंगा साम्यवादी पंडित जी' ने मुझे ग्रुप से हटाया है उनको संग्रहीत करके ई-बुक के रूप मे प्रकाशित किया जा रहा है। यह पुस्तक 'प्रगतिशील लेखक संघ' के संस्थापक अध्यक्ष और प्रख्यात साहित्यकार 'मुंशी प्रेमचंद' जी के जन्मदिन पर उनको श्रद्धांजली स्वरूप समर्पित है।