Monday, April 1, 2013

श्रद्धांजली कैंसर ग्रसित एक कामरेड को ---विजय राजबली माथुर


का. शालिनी
('जनचेतना' पुस्‍तक प्रतिष्‍ठान की सोसायटी की अध्‍यक्ष, 'अनुराग ट्रस्‍ट' के न्‍यासी मण्‍डल की सदस्‍य, 'राहुल फ़ाउण्‍डेशन' की कार्यकारिणी सदस्‍य और परिकल्‍पना प्रकाशन की निदेशक का. शालिनी का 29 मार्च की रात निधन हो गया। शालिनी पिछले तीन महीनों से कैंसर से लड़ रही थीं। 27 मार्च की शाम उन्‍हें दिल्‍ली के धर्मशिला अस्‍पताल में भरती किया गया था जहां पिछले जनवरी से उनका इलाज चल रहा था। 28 मार्च की सुबह ब्‍लडप्रेशर बहुत कम हो जाने के कारण उन्‍हें आईसीयू में ले जाया गया था जहां 29 मार्च की रात लगभग 11.15 बजे उन्‍होंने अंतिम सांस ली।)



 कल जब उपरोक्त समाचार पढ़ा तो नितांत दुख व अफसोस हुआ कि एक जुझारू एवं योग्य-कर्मठ कामरेड असमय ही काल के कराल गाल मे समा गया। जिस कामरेड ने पीड़ित जनता के दुख-दर्द को दूर करने के लिए अपने जनक पिता तक से संघर्ष किया और उनसे इसी मुद्दे पर संपर्क-संबंध समाप्त किया उसका जीवन बहुत मूल्यवान था और भौतिक रूप से हर संभव प्रयास उन कामरेड के साथियों द्वारा उसे बचाने के लिए किया भी गया किन्तु सफलता न मिल सकी। 
यहाँ पर एक प्रश्न मन को उद्वेलित करता है कि तमाम गुणों से सम्पन्न होने के बावजूद हमारे विद्वान कामरेड्स जीवन के इस यथार्थ को क्यों अनदेखा करते हैं कि मात्र आर्थिक सुधार ही पर्याप्त नहीं हैं जब तक कि सामाजिक रूप से जनता को जाग्रत नहीं किया जाएगा इन आर्थिक सुधारों/व्यवस्था परिवर्तन से भी जन-कल्याण न हो सकेगा जैसा कि रूस मे इसे उलट दिया गया। संकीर्ण-पोंगापंथी ज़िद्द को हमारे कामरेड्स को छोड़ देना चाहिए और 'धर्म' के वास्तविक अर्थ को समझ कर साधारण जनता को समझाना चाहिए। हम लोगों के ऐसा न करने से ही शोषणकारी -लुटेरी शक्तियाँ जनता को 'भ्रम' मे उलझा कर उसे धर्म बता देती हैं और हमारे कामरेड्स भी उससे दूर रहने का उपदेश देकर एक प्रकार से 'भ्रम' को ही 'धर्म' की मान्यता दे देते हैं। 

'धर्म'=धारण करने वाला। जो शरीर व समाज को धारण  करने हेतु आवश्यक है वही धर्म है बाकी सब कुछ अधर्म है उसे धर्म की संज्ञा देना ही अज्ञान को बढ़ावा देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। कृपया ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा न दें।
 वास्तविकता यही है कि ,मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।

ऋग्वेद के इस मंत्र को देखें-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया :
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद दु : ख भाग भवेत। ।
इस मंत्र मे क्या कहा गया है उसे इसके भावार्थ से समझ सकते हैं- --

सबका भला करो भगवान ,सब पर दया करो भगवान।
सब पर कृपा करो भगवान,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों ,कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवान,धन धान्य के भण्डारी। ।
सब भद्र भाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे,सृष्टि मे प्राण धारी । ।
ऋग्वेद का यह संदेश न केवल संसार के सभी मानवों अपितु सभी जीव धारियों के कल्याण की बात करता है।

 भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
 क्या इन तत्वों की भूमिका को मानव जीवन मे नकारा जा सकता है?और ये ही पाँच तत्व सृष्टि,पालन और संहार करते हैं जिस कारण इन्ही को GOD कहते हैं  ...
GOD=G(generator)+O(operator)+D(destroyer)। खुदा=और चूंकि ये तत्व' खुद ' ही बने हैं इन्हे किसी प्राणी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 'भगवान=GOD=खुदा' - मानव ही नहीं जीव -मात्र के कल्याण के तत्व हैं न कि किसी जाति या वर्ग-विशेष के।  

आज सर्वत्र पोंगा-पंथी,ढ़ोंगी और संकीर्णतावादी  तत्व (विज्ञान और प्रगतिशीलता के नाम पर) 'धर्म' और 'भगवान' की आलोचना करके तथा पुरोहितवादी 'धर्म' और 'भगवान' की गलत व्याख्या करके मानव द्वारा मानव के शोषण को मजबूत कर रहे हैं।
'मनुष्य' मात्र के लिए सृष्टि के प्रारम्भ मे 'धर्म,अर्थ,काम एवं मोक्ष' हेतु कार्य करने का निर्देश विद्वानों द्वारा दिया गया था। किन्तु आज 'धर्म' का तो कोई पालन करना ही नहीं चाहता और ढोंग -पाखंड-आडंबर को 'पूंजी' ने 'पूजा' अपने शोषण-उत्पीड़न को मजबूत करने हेतु बना दिया है तथा उत्पीड़ित गरीब-मजदूर/किसान इन पूँजीपतियों के दलालों द्वारा दिये गए खुराफाती वचनों को प्रवचन मान कर भटकता व अपना शोषण खुशी-खुशी कराता रहता है। 

'काम'=समस्त मानवीय कामनाए होता है किन्तु आज काम को वासना-सेक्स के अर्थ मे प्रयुक्त किया जा रहा है यह भी पूँजीपतियों/व्यापारियों की ही तिकड़म का नतीजा है जो निरंतर 'संस्कृति' का क्षरण कर रहा है। समाज मे व्याप्त सर्वत्र त्राही इसी निर्लज्ज  पूंजीवादी सड़ांध के कारण है। 

'मोक्ष' की बात तो अब कोई करता ही नहीं है। कभी विज्ञान के नाम पर तो कभी नास्तिकता के नाम पर जन्म-जन्मांतर को नकार दिया जाता है। या फिर अंधकार मे  अबोध जनता को भटका दिया जाता है और वह मोक्ष प्राप्ति की कामना के नाम पर कभी गया मे 'पिंड दान' के नाम पर लूटी जाती है तो कभी अतीत मे 'काशी करवट'मे अपनी ज़िंदगी कुर्बान करती रही है। यह सारा का सारा अधर्म किया गया है धर्म का नाम लेकर और इसे अंजाम दिया है व्यापारियों और पुरोहितों ने मिल कर। सत्ता ने भी इन लुटेरों का ही साथ पहले भी दिया था और आज भी दे रही है। 

'अर्थ' का स्थान 'धर्म' के बाद था किन्तु आज तो-"इस अर्थ पर 'अर्थ' के बिना जीवन का क्या अर्थ "सूत्र सर्वत्र चल रहा है । इसी कारण मार-काट,शोषण-उत्पीड़न,युद्ध-संहार चलता रहता है। हर किसी को धनवान बनने की होड लगी है कोई भी गुणवान बनना नहीं चाहता। सद्गुणों की बात करने पर उपहास उड़ाया जाता है और भेड़चाल का हिस्सा न बनने पर प्रताड़ित किया जाता है। अर्थतन्त्र केवल धनिकों/पूँजीपतियों के संरक्षण की बात करता है उसमे साधारण 'मानव' को कोई स्थान नहीं दिया गया है। 'मानवता'की स्थापना हेतु 'कर्मवाद' पर चलना होगा तभी विश्व का कल्याण हो सकता है।   
आज से दस लाख वर्ष पूर्व जब मानव इस रूप मे आया जैसा कि आज है तब मानव जीवन को प्रकृति के अनुरूप सुचारू रूप से संचालित करने हेतु कुछ नियमों को निरूपित किया गया जिंनका संकलन 'वेद' हैं। 'अथर्व वेद' मानव के स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान को उद्घाटित करता है। 13 अप्रैल,2008 को हिंदुस्तान,आगरा के अंक मे प्रकाशित एक लेख मे किशोर चंद चौबे जी ने इसी अथर्व वेद से विकसित 'मार्कन्डेय चिकित्सा पद्धति' का विवेचन किया है। उसमे उन्होने सिद्ध किया है-
रक्तबीज-कैंसर ---
 "मार्कन्डेय चिकित्सा पद्धति मे 'रक्तबीज' कैंसर का कारक है जिसके दो रूप हैं 'चंड'और 'मुंड'।चंड रक्त कैंसर का रूप है तथा मुंड शरीर मे बनने वाले गांठों वाले कैंसर का। मुंड का तात्पर्य भी गांठ से है जो रक्त की श्वेत कणिकाओं के जमाव से बनती है। कैंसर प्रोटीन कोशिकाओं का तेजी से विभाजन है जिसके कारक रक्तबीज नामक विषाणु हैं। स्पृका,मूर्वा,बंध्याकर्कोटी,असारक,शतवार,माचिका,कमल और गिलोय जिन्हे देवी,अंबिका,नारायणी,पद्यमिनी कहते हैं।"
कालक-AIDS---
"मार्कन्डेय चिकित्सा पद्धति मे एड्स कालक (माइक)रोग है। एड्स जो जीवन लीला को क्षीण कर निसंदेह मौत दे देता है वह कालक है। इसके कारण शरीर मे स्थित रोग रक्षक प्रोटीन कण अपनी रोग रक्षण शक्ति खो बैठते है और रोगी मौत का ग्रास बन जाता है। 
जिनको एड्स हो चुका है या जिनको इसकी शंका है उन्हे दुर्गा कवच मे वर्णित सभी दवाओं का प्रयोग क्रमशः अवश्य करना चाहिए। इन दवाओं के साथ शहद मे मिला कर आंवले का रस पीना चाहिए।"
चैत्र प्रतिपदा से विक्रमी संवत का प्रारम्भ होता है (जो इस वर्ष 11 अप्रैल 2013 है)जिसके प्रारम्भ के नौ दिनों को 'नवरात्र'कहते हैं और इनमे विभिन्न औषद्धियों का सेवन करने का प्रविधान था जिसको 'भ्रमित' लोगों ने अपने लूट तंत्र को मजबूत करने हेतु अधार्मिक तरीके से विकृत कर दिया और जनता को नाच तमाशे मे उलझा दिया जिससे जनता का नितांत अहित होता है। परंतु दुर्भाग्य यह है कि साम्यवादी कामरेड्स जनता को जाग्रत करने के स्थान पर 'भ्रम=अधर्म'को 'धर्म'कह कर 'धर्म' से दूर रहने को कहते अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से पोंगा-पंथ को ही 'धर्म' की मान्यता दे देते हैं और खुद भी भटकते हैं तथा जन-कल्याण भी न हो पाता है। कितने ही मूल्यवान कामरेड्स अपने जीवन को जीवन का यथार्थ न समझ पाने के ही कारण असमय गंवा देते हैं। 
प्रस्तुत चार्ट मे दी गई औषद्धियों का सेवन करने से रोगों का बचाव हो सकता है किन्तु पोंगापंथी तो भटकाते ही हैं हमारे अपने साथी भी यथार्थ सत्य को उद्घाटित होने से रोक कर अपने सिद्धांतों पर ही कुठाराघात कर लेते हैं जो कि दुखद स्थिति है। 


कैंसर (cancer) और ज्योतिष---
हिन्दी मे इसे अर्बुद कहते हैं।इस रोग का संबंध शनि व मंगल ग्रहों से है। शनि का संबंध प्रथम भाव व अष्टम भाव से हो और साथ ही मंगल ग्रह से  शनि का संबंध हो तो कैंसर रोग होता है। लग्न भाव स्वास्थ्य  का परिचायक है तथा अष्टम भाव मृत्यु का। कैंसर होने पर अधिकांश व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। शनि व मंगल दोनों कैंसर रोग के सूचक हैं। अतः प्रथम भाव व अष्टम भाव से शनि का संबंध होने पर व मंगल से शनि का संबंध होने पर कैंसर रोग होता है।
हम मनुष्य=मननशील प्राणी हैं अतः हमारे मनीषियों ने 'ज्योतिष' मे इसका समाधान 'शनि' व 'मंगल'ग्रहों की शांति द्वारा बताया है। 'ॐ अं अंगरकाय नमः' का दस हज़ार जाप एवं 'ॐ शम शनेश्चराय नमः' का तेईस हज़ार जाप पश्चिम दिशा की ओर मुंख करके व धरती से इंसुलेशन बना कर करना चाहिए। एक-एक ग्रह का जाप समाप्त होने पर उसके दशमांश अर्थात मंगल के लिए एक हज़ार व शनि के लिए तेईस सौ बार हवन करना चाहिए। हवन हेतु 'नमः' के स्थान पर 'स्वाः'का उच्चारण करना चाहिए।

खेद की बात यह है कि हमारे कामरेड्स बंधु भी ज्योतिष की आलोचना करते हैं और विभिन्न अधार्मिक संगठन जिनको शोषण वादी और साम्यवादी दोनों ही नाहक धार्मिक संगठन कहते हैं भी ज्योतिष की आलोचना करते हैं। साम्यवादी तो गलत ज़िद्द के कारण किन्तु पूंजीवादी अधार्मिक संगठन और उनके दलाल अपनी लूट को पुख्ता बनाए रखने के कारण ज्योतिष की आलोचना करते हैं। 

काश साम्यवादी कामरेड्स युवा क्रांतिकारी कामरेड शालिनी को श्रद्धांजली हेतु यथार्थ-सत्य को अंगीकार कर लें तो मानव-कल्याण का हमारा मार्ग सुगम व साकार हो सकता है।