Wednesday, December 25, 2013

भारत के राजनीतिक दल (भाग-3 - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी )---विजय राजबली माथुर

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  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी :

इस दल की स्थापना तो 1924 ई में विदेश में हुई थी। किन्तु 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर में एक सम्मेलन बुलाया गया था जिसके स्वागताध्यक्ष  गणेश शंकर विद्यार्थी जी थे। 26 दिसंबर 1925 ई  को एक प्रस्ताव पास करके  'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की विधिवत घोषणा की गई थी। 1931 ई में इसके संविधान का प्रारूप तैयार किया गया था किन्तु उसे 1943 ई में पार्टी कांग्रेस के खुले अधिवेन्शन में स्वीकार किया जा सका क्योंकि तब तक ब्रिटिश सरकार ने इसे 'अवैध'घोषित कर रखा था और इसके कार्यकर्ता 'कांग्रेस' में रह कर अपनी गतिविधियेँ चलाते थे। 

वस्तुतः क्रांतिकारी कांग्रेसी ही इस दल के संस्थापक थे। 1857 ई की क्रांति के विफल होने व निर्ममता पूर्वक कुचल दिये जाने के बाद स्वाधीनता संघर्ष चलाने हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती (जो उस क्रांति में सक्रिय भाग ले चुके थे)ने 07 अप्रैल 1875 ई (चैत्र शुक्ल  प्रतिपदा-नव संवत्सर)को 'आर्यसमाज' की स्थापना की थी। इसकी शाखाएँ शुरू-शुरू में ब्रिटिश छावनी वाले शहरों में ही खोली गईं थीं। ब्रिटिश सरकार उनको क्रांतिकारी सन्यासी (REVOLUTIONARY SAINT) मानती थी। उनके आंदोलन को विफल करने हेतु वाईस राय लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से एक रिटायर्ड ICS एलेन आकटावियन (A.O.)हयूम ने 1885 ई में वोमेश चंद (W.C.) बैनर्जी की अध्यक्षता में 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना करवाई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा करना था। दादा भाई नैरोजी तब कहा करते थे -''हम नस-नस में राज-भक्त हैं''। 

स्वामी दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गए और उसे स्वाधीनता संघर्ष की ओर मोड दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' में डॉ पट्टाभि सीता रमइय्या ने लिखा है कि गांधी जी के सत्याग्रह में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1906 में 'मुस्लिम लीग'फिर 1916 में 'हिंदूमहासभा' का गठन भारत में सांप्रदायिक विभाजन कराने हेतु करवाया। किन्तु आर्यसमाजियों व गांधी जी के प्रभाव से सफलता नहीं मिल सकी। तदुपरान्त कांग्रेसी डॉ हेद्गेवार तथा क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने अपनी ओर मिला कर RSS की स्थापना करवाई जो मुस्लिम लीग के समानान्तर सांप्रदायिक वैमनस्य भड़काने में सफल रहा। 

इन परिस्थितियों में कांग्रेस  में रह कर क्रांतिकारी आंदोलन चलाने वालों को एक क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना की आवश्यकता महसूस हुई जिसका प्रतिफल 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी'के रूप में सामने आया। ब्रिटिश दासता के काल में इस दल के कुछ कार्यकर्ता पार्टी के निर्देश पर  कांग्रेस में रह कर स्वाधीनता संघर्ष में सक्रिय भाग लेते थे तो कुछ क्रांतिकारी गतिविधियों में भी संलग्न रहे। उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश को मुक्त कराना था। किन्तु 1951-52 के आम निर्वाचनों से पूर्व इस दल ने संसदीय लोकतन्त्र की व्यवस्था को अपना लिया था। इन चुनावों में 04.4 प्रतिशत मत पा कर इसने लोकसभा में 23 स्थान प्राप्त किए और मुख्य विपक्षी दल बना। दूसरे आम चुनावों में 1957 में केरल में बहुमत प्राप्त करके इसने सरकार बनाई और विश्व की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनाने का गौरव प्राप्त किया। 1957 व 1962 में लोकसभा में साम्यवादी दल के 27 सदस्य थे। 

दल का संगठन :

*लोकतंत्रात्मक केन्द्रीकरण (Democratic Centralism)-ऊपर से नीचे तक इस सिद्धान्त के अनुसार सभी समितियों के चुनाव होते हैं और निर्णय बहुमत से होता है,किन्तु सभी नीचे के स्तरों की समितियां अपने ऊपर की समितियों के निर्देशों व आदेशों का पालन करने को बाध्य हैं। 
*इसका संगठन एक पिरामिड के समान है। सबसे नीचे के धरातल पर दल के छोटे-छोटे केंद्र (Cells)हैं,जो किसी भी क्षेत्र, कारखाने आदि में कार्यकर्ताओं से मिल कर बनते हैं। 
*सबसे ऊपर अखिल भारतीय दलीय कांग्रेस है,जिसके सदस्यों को प्रदेश समितियां चुनती हैं। 
*प्रदेश समितियों के नीचे क्षेत्रीय अथवा ज़िला समितियां होती हैं। ज़िला समितियों के नीचे मध्यवर्ती समितियां भी आवश्यकतानुसार गठित की जाती हैं। 
*दल का प्रमुख 'महासचिव'कहलाता है उसके सहयोग के लिए अन्य सचिव तथा एक कार्यकारिणी समिति भी होती है। 

आलोचना :

डॉ  परमात्मा शरण (पूर्व अध्यक्ष,राजनीतिशास्त्र विभाग एवं प्राचार्य,मेरठ कालेज,मेरठ) ने अपनी पुस्तक में जवाहर लाल नेहरू के एक भाषण के हवाले से इस दल की निम्न वत आलोचना की है---

*साधारण व्यक्तियों के लिए इसके सिद्धांतों को समझना कठिन है तथा दल ने अपनी नीति का निर्धारण देश की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं किया है।  

**इसके सिद्धांतों व कार्यकर्ताओं के विचारों में 'धर्म' का कोई महत्व नहीं है,किन्तु अभी तक अधिकांश भारतवासी धर्म को महत्व देते हैं। 
***इसके तरीके भारतीयों को अधिक पसंद नहीं हैं क्योंकि यह हिंसात्मक व विनाशकारी कार्यों में विश्वास रखता है। 
****चीन की आपत्तीजनक कार्यवाहियों के कारण साम्यवादी दल की लोकप्रियता को बड़ा धक्का लगा है। 
*****1964 में वामपंथी,साम्यवादी दल से अलग हो गए हैं, उनका रुख भारत-चीन विवाद के संबंध में राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कहा जा सकता है। लेकिन जनता इस दल और उस दल में विभेद नहीं कर पाती है। 

 दल का कार्यक्रम :

प्रथम आम चुनावों के अवसर पर दल के घोषणा-पत्र में कहा गया था :
कांग्रेस नेताओं ने हमारी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं की है,उसने हमारे स्वातंत्र्य संघर्ष को धोखा दिया है और उसने विदेशियों व प्रतिगामी सन्निहित हितों (Vested intrests) को पूर्ववत जनता को लूटने खसोटने का अवसर दिया है। कांग्रेसी स्वयं लूट-खसोट में सम्मिलित हो गए हैं। कांग्रेस सरकार ने राष्ट्र को धोखा दिया है। यह तो जमींदारों,एकाधिकार प्राप्त व्यक्तियों की सरकार है और भ्रष्टाचार व घूसख़ोरी कांग्रेस शासन के मुख्य चिह्न हो गए हैं। सरकार ने लाठियों और गोलियों व दमनकारी क़ानूनों का प्रयोग किया है। सरकार की नीति शांति की नहीं वरन 'आंग्ल -अमरीकी साम्राज्यवादियों' का समर्थन करने वाली रही है। 

*नेहरू सरकार हटा कर देश में लोकतंत्रात्मक शासन स्थापित किया जाएगा। किसानों और मजदूरों के प्रतिनिधियों का शासन स्थापित किया जाएगा। 
*दल ब्रिटिश साम्राज्य से संबंध-विच्छेद करेगा,किसानों को ऋण भार से मुक्त करेगा,सभी भूमि और कृषि साधनों को किसानों को बिना प्रतिकर दिलाएगा। 
*यह राष्ट्रीयकृत पूंजी द्वारा देश के उद्योगों का विकास करेगा,जिसमें वह निजी पूँजीपतियों को उचित लाभ और मजदूरों को जीवन वेतन का आश्वासन देकर उनका सहयोग प्राप्त करेगा। 
*दल देश में एक राष्ट्रीय सेना की रचना करेगा और पुलिस के स्थान पर जनता का नैतिक दल संगठित करेगा। 
*प्रान्तों के पुनर्गठन व रियासतों के निर्मूलन द्वारा राष्ट्रीय राज्यों का निर्माण,
*अल्प-संख्यकों के हितों और अधिकारों का संरक्षण,
*सभी सामाजिक और आर्थिक अयोग्यताओं का अंत,नि:शुल्क और अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा,  
*सभी देशों से व्यापारिक और आर्थिक सम्बन्धों की स्थापना,
*विश्व की सभी बड़ी शक्तियों में शांति के लिए समझौता कराना आदि  बातें इसके कार्यक्रम में सम्मिलित थी।   

1958 ई में अमृतसर में साम्यवादी दल की असाधारण कांग्रेस हुई थी उसमें प्रमुख रूप से ये प्रस्ताव पास हुये थे:
*विश्व में शांति चाहने वाली शक्तियों-राष्ट्रीय स्वाधीनता व समाजवाद की प्रगति हो रही है;
*देश में लोकतंत्रात्मक आंदोलन की प्रगति हुई है,जैसा कि केरल तथा अनेक औद्योगिक निर्वाचन क्षेत्रों में हुये चुनावों के परिणामों से स्पष्ट है,कई राज्यों में कांग्रेस कमजोर पड़ी है;
*योजना की पूर्ती में बड़े व्यवसाय संयुक्त राज्य अमरीका पर अधिक निर्भर होते जा रहे हैं,जिसे दल उचित नहीं मानता;
*दल साम्यवाद के आदर्शों के प्रचार और शिक्षा प्रसार को अधिक मानता है (Importance of sustained,systematic and all sided ideological struggle by the Communist Party,a struggle conducted on the basis of the principles of Marxism,Leninism and proletarian internationalism)
*इन उद्देश्यों की पूर्ती के लिए साम्यवादी दल के संगठन में सर्वसाधारण जनता अधिक से अधिक भाग ले इस हेतु दल को कार्य करना चाहिए (communist Party as a mass political force,a party which will unite and rally the popular masses by its initiatve in every sphere of national life);
*दल दो वर्ष पूर्व हुई कांग्रेस के कार्यक्रम को फिर से दोहराता है,किन्तु इन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर तत्काल राष्ट्रीय अभियानों (National Champaigns) की आवश्यकता पर बल देता है---

(अ)अमरीकी पूंजी का भारत में लगाए जाने का विरोध,
(इ)बड़े बैंकों,खाद्यानों में थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण,राजकीय व्यापार का विस्तार,
(ई )भूमि और किसानों संबंधी नीति में महत्वपूर्ण सुधार,
(उ )लोकतंत्रात्मक अधिकारों व नागरिक स्वतंत्रताओं  की रक्षा और विस्तार ,
(ऊ )भ्रष्टाचार का विरोध,
(ए )जातिवाद,संप्रदायवाद और अस्पृश्यता का विरोध इत्यादि। 

इन उद्देश्यों की पूर्ती के लिए दल को किसान सभाएं कायम करनी चाहिए और संयुक्त मोर्चे (United Front) को सुदृढ़ करना चाहिए। 

1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से ब्रिटिश सरकार हिल गई थी अतः उसकी चालों के परिणाम स्वरूप 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' की स्थापना डॉ राम मनोहर लोहिया,आचार्य नरेंद्र देव आदि द्वारा की गई। इस दल का उद्देश्य भाकपा की गतिविधियों को बाधित करना तथा जनता को इससे दूर करना था। इस दल ने धर्म का विरोधी,तानाशाही आदि का समर्थक कह कर जनता को दिग्भ्रमित किया। जयप्रकाश नारायण ने तो एक खुले पत्र द्वारा  'हंगरी' के प्रश्न पर साम्यवादी नेताओं से जवाब भी मांगा था  जिसके उत्तर में तत्कालीन महामंत्री कामरेड अजय घोष ने कहा था कि वे स्वतन्त्रता को अधिक पसंद करते हैं किन्तु उन्होने विश्व समाजवाद के हित में सोवियत संघ की कार्यवाही को उचित बताया। 

  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

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Monday, December 23, 2013

सांप्रदायिक एकता के लिए स्वामी श्रद्धानन्द का बलिदान ---विजय राजबली माथुर







 पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी लाला नानकचन्द जी के पुत्र मुंशीराम जी का जन्म फाल्गुन की कृष्ण पक्ष त्रियोदशी, संवत 1913 विक्रमी अर्थात सन 1854 ई को हुआ था। बचपन में अत्यधिक लाड़-प्यार-दुलार एवं अङ्ग्रेज़ी शिक्षा-संस्कृति से बिगड़ कर वह निरंकुश हो गए थे एवं मांस,शराब,जुआ,शतरंज,हुक्का व दुराचार आदि व्यसनों में लिप्त हो गए थे। परंतु 1879 ई में बरेली में स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रवचन सुन कर 'नास्तिक' से 'आस्तिक' बन गए । 

बरेली के कमिश्नर ने 1880 ई में उनको नायाब तहसीलदार के पद पर नियुक्त कर लिया था। एक दिन वह कमिश्नर से मिलने गए हुये थे और चपरासी ने उनको प्रतीक्षा में बैठा रखा था लेकिन उनके ही सामने बाद में आए  अंग्रेज़ सौदागर को तुरंत कमिश्नर से मिलने भेज दिया। मुंशीराम जी ने तत्काल नायब तहसीलदारी से त्याग-पत्र दे दिया। फिर वकालत करने के विचार से पढ़ने 1881 ई में लाहौर पहुंचे और ज़रूरी मुखत्यारी करके मुखत्यारी परीक्षा पास की। जालंधर में उन्होने वकालत शुरू की जो खूब चली। 2 कन्याएँ और 2 पुत्र रत्न उनको प्राप्त हुये। जब छोटा पुत्र मात्र दो साल का ही था तभी उनकी पत्नी का निधन हो गया। दोबारा उन्होने विवाह नहीं किया और समाजसेवा हेतु आर्य प्रतिनिधिसभा के प्रधान बन गए। अंततः मित्रों,हितैषियों के सभी दूरदर्शितापूर्ण परामर्शों को ठुकराते हुये वकालत को तिलांजली देकर आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार में लग गए। 

प्रारम्भ में उन्होने स्वामी दयानन्द की स्मृति में  लाहौर में स्थापित डी.ए.वी.कालेज की संचालन व्यवस्था में सहयोग दिया। मार्च 1902 ई में गंगा किनारे 'काँगड़ी'ग्राम में गुरुकुल प्रारम्भ किया। अपने पुत्रों को भी गुरुकुल में ही शिक्षा दी  तथा अपनी जालंधर की कोठी भी गुरुकुल को सौंप दी। उन्होने जाति-बंधन तोड़ कर अपनी पुत्री का विवाह किया। उनके पिताश्री भी उनके प्रयास से ही आर्यसमाजी बने थे। 

देश की आज़ादी के आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी थी।  अनेक स्थानों पर देश की जनता का नेतृत्व किया। कांग्रेस के अमृतसर अधिवेन्शन में हिन्दी में अपना स्वागत भाषण देकर हिन्दी को राष्ट्र-भाषा बनाए जाने का संदेश दिया था। गुरु का नामक ---सिखों के सत्याग्रह में भी उन्होने नेतृत्व किया था। दिल्ली के चाँदनी चौक में "चलाओ गोली पहले मेरे पर उसके बाद दूसरे लोगों पर चलाना" की सिंह गर्जना करके उन्होने अंग्रेज़ सिपाहियों को भी काँपते कदमों से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था।23 दिसंबर 1926 को  'जामा मस्जिद' से हिन्दू-मुस्लिम एकता का आह्वान करने एवं संस्कृत श्लोकों का पाठ करने वाले वह पहले आर्य सन्यासी थे। किन्तु इससे ब्रिटिश साम्राज्यवाद को आघात पहुंचता  और उस आघात से बचने के लिए एक पुलिस अधिकारी ने उनको निशाना बना कर गोली चला दी जिससे उनका प्राणान्त हो गया एवं सांप्रदायिक एकता के लिए यह असहनीय झटका साबित हुआ। 

('निष्काम परिवर्तन पत्रिका',दिसंबर 2001 ई वर्ष:12,अंक:12 में प्रकाशित 'यशबाला गुप्ता'जी एवं 'सोमदेव शास्त्री'जी के विचारों पर आधारित संकलन  एवं श्रद्धानंद जी के बलिदान पर विभिन्न विभूतियों की श्रद्धांजालियाँ):

महात्मा गांधी-स्वामी श्रद्धानंद जी एक सुधारक थे। कर्मवीर थे,वाक शूर नहीं। उनका जीवित-जागृत विश्वास था। इसके लिए उन्होने अनेक कष्ट उठाए थे। वे संकट आने पर कभी घबराये नहीं थे। वे एक वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग-शय्या पर नहीं,किन्तु रनांगण में मरना पसंद करता है।-----


  

आर्यसमाज,बल्केश्वर-कमलानगर,आगरा में विभिन्न अवसरों पर सुने प्रवचनों से स्वामी श्रद्धानंद जी के व्यक्तित्व व कृतित्व की अनेकों बातें अब भी याद हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं---

जब  सेवक जगन्नाथ द्वारा दिये  काँच एवं विष मिश्रित दूध पीने से दीपावली के दिन स्वामी दयानन्द का प्राणोत्सर्ग हो गया तब आर्य जगत में 'नैराश्य' छा गया था और विभिन्न विद्वान किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गए थे तब लग रहा था कि क्या आर्यसमाज भी समाप्त हो जाएगा? उस समय महात्मा मुंशी राम ने आगे बढ़ कर आर्यसमाज का नेतृत्व सम्हाल लिया और कुशलतापूर्वक संगठन को न केवल बल प्रदान किया बल्कि विस्तार भी दिया। शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है। उन्होने 'कन्या-शिक्षा' का भी प्रबंध किया। 'आर्य कन्या पाठशालाएं' स्थापित करके उन्होने स्त्री-स्वातंत्र्य का झण्डा बुलंद  किया। आर्यसमाज द्वारा देश भर में संचालित शिक्षा-संस्थाओं का आंकड़ा कुल सरकारी शिक्षा-संस्थाओं के बाद दूसरे नंबर पर आता है। 

महाभारत काल के बाद जब वैदिक संस्कृति का पतन प्रारम्भ हुआ तो ब्राह्मणों ने 'पुराणों' की रचना करके 'कुमंत्रों' का प्रसार एवं वर्णाश्रम -व्यवस्था के स्थान पर  जाति-प्रथा की जकड़न करके स्त्रियों  व समाज में निम्न वर्ग के लोगों को गुलाम बना डाला था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी ब्रहमनवाद और पाखंड पर प्रहार किया था। 'कायस्थ' कुल में जन्में मुंशीराम जी अर्थात स्वामी श्रद्धानंद जी ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाया और जाति-पांति का खंडन किया। जहां आर्यसमाज के विलुप्त होने का भय आन खड़ा हुआ था वहीं श्रद्धानंद जी ने उसे न केवल बचाए-बनाए रखा वरन और मजबूत बनाया तथा फैलाव किया। परंतु खेद की बात है कि स्वामी श्रद्धानंद जी के बाद आर्यसमाज पर RSS हावी होता चला गया और श्रीराम शर्मा के नेतृत्व में पोंगा-पंथी ब्रहमनवाद ने एक अलग संगठन बना कर आर्यसमाज को अपार क्षति पहुंचाई। स्वामी दयानन्द ने 'आर्यसमाज' की स्थापना 07 अप्रैल,1875 ई में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत को आज़ादी दिलाने के हेतु की थी किन्तु RSS को ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने यहीं के नेताओं को खरीद कर ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा हेतु करवाई थी।

स्वामी श्रद्धानंद जी को सच्ची श्रद्धांजली तभी होगी जब आर एस एस के शिकंजे से निकाल कर स्वामी दयानन्द व उनके आदर्शों पर पुनः आर्यसमाज को संगठित किया जा सकेगा।
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Sunday, December 22, 2013

भारत के राजनीतिक दल (भाग-2 )---विजय राजबली माथुर

भारत के राजनीतिक दल (भाग-1)--पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करें:
http://krantiswar.blogspot.in/2013/09/1.html 

मुस्लिम लीग :

 साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार ने भारत का  सांप्रदायिक विभाजन करने के उद्देश्य से बंगाल को हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर पूर्वी और पश्चिमी भागों में  1905 में बाँट दिया था। 1906 में ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन वाईसराय की प्रेरणा से उनसे मुस्लिम मांगों को लेकर मिले जो मुस्लिम लीग के गठन का आधार बना। 1940 में इसने पाकिस्तान की मांग रखी और ब्रिटिश सरकार ने इसकी मांग को 1947 में पूरा कर दिया। 

अब दक्षिण भारत के मालाबार क्षेत्र में ही इसका प्रभाव शेष है और इसके प्रायः सभी नेता कांग्रेस में समा गए थे।

  हिन्दू महासभा :

इस दल की स्थापना मदन मोहन मालवीय,लाला लाजपत राय,विनायक दामोदर सावरकर,श्यामा प्रसाद मुखर्जी  द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से दिग्भ्रमित होकर मुस्लिम  लीग के प्रतिक्रिया स्वरूप 1916 में की गई थी।मुसलमानों के लिए जो मांगें मुस्लिम लीग की थीं वैसी ही हिंदुओं के लिए इस दल की थीं। इसका दृष्टिकोण वही था जो आगे जा कर जनसंघ का बना। इसका 49वां अधिवेशन अप्रैल 1965 में पटना में हुआ था । पाकिस्तान से जनता की अदला-बदली तथा भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की मांगें इस अधिवेन्शन में की गई थीं। 18 जूलाई 1965 को इसने कच्छ एवार्ड के विरोध में विरोध दिवस का आयोजन किया था। यद्यपि आज भी यह दल है किन्तु भाजपा की छत्र-छाया में चल रहा है। 


 अखिल भारतीय जनसंघ :

नेहरू मंत्रीमंडल में उद्योग -बाणिज्य मंत्री रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में 21 अक्तूबर 1951 ई में इस दल की स्थापना इसलिए की गई क्योंकि RSS ने खुद को सांस्कृतिक संगठन घोषित कर दिया था और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ती हेतु एक राजनीतिक दल की आवश्यकता थी। प्रथम आम चुनावों में सफलता के बाद इस दल का संगठन बढ़ गया। 

जनसंघ का ध्येय हिन्दू  धर्म राज्य की स्थापना था । 1965 के विजयवाड़ा अधिवेन्शन में 8000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिक तत्वों को बढ़ावा देना इसकी कार्य प्रणाली की विशेषताएँ थीं। 1967 में उत्तर-प्रदेश की संविद सरकार में इसके प्रतिनिधि के रूप में पांडे जी,कल्याण सिंह आदि मंत्री बने थे। 1974 में नानाजी देशमुख के नेतृत्व में यह दल जे पी के पीछे लग गया और 1977 में जनता पार्टी में विलीन हो गया था। तब केंद्र सरकार में अटल बिहारी बाजपेयी,एल के आडवाणी,मुरली मनोहर जोशी आदि मंत्री बने थे।

भाजपा :

 1980 में इन  पूर्व जनसंघी लोगों ने जनता पार्टी से निकल कर भारतीय जनता पार्टी का गठन कर लिया था। 1991 में कई प्रदेशों में इसकी सरकारें बनी थीं आज भी कई प्रदेशों में यह सत्तारूढ़ है। 1998 से 2004 तक बाजपेयी के नेतृत्व में यह केंद्र में भी सत्तारूढ़ रहा। इस दौरान केंद्रीय सुरक्षा बलों,सेना तथा खुफिया संगठनों में भी RSS कार्यकर्ताओं की घुसपैठ कराने में यह दल सफल रहा है। 

रामराज्य परिषद :

प्रथम आम चुनावों के अवसर पर श्री करपात्री जी द्वारा इसकी स्थापना की गई थी और एक-दो राज्यों की विधानसभाओं में 4-5 स्थान इसने प्राप्त किए थे अन्य स्थानों पर इसने जनसंघ व हिंदूमहासभा उम्मीदवारों का समर्थन किया था। अब यह संगठन मृतप्राय है। 

दलित वर्ग सङ्घ:

हिन्दू धर्म के अछूत कहे जाने वाले भाइयों को संगठित करके डॉ भीमराव अंबेडकर ने इसकी स्थापना की थी। बाद में यह रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया बना और अब नगण्य है। 

शिरोमणि अकाली दल :

मुस्लिम लीग की तर्ज पर सिखों के लिए अकाली सत्याग्रह के माध्यम से इस दल का आविर्भाव हुआ था। प्रथम आम चुनावों में इसके उम्मीदवार कांग्रेस से बुरी तरह हार गए। बाद में जनसंघ से मिल कर इसने पंजाब में सरकार भी बनाई और आज भी भाजपा के साथ पंजाब में इसकी गठबंधन सरकार है। 

द्रविण मुनेत्र कडगम:

यह ब्राह्मण-विरोधी जातियों को मिला कर बनाया गया दल है जो मूलतः स्वतंत्र तमिल राज्य स्थापित करना चाहता था। 1967 में सी एन अन्नादुराई के नेतृत्व में इसने सरकार बनाई थी। उनके निधन के बाद एम करुणानिधि के विरुद्ध एम जी रामचंद्रन ने अन्ना द्रविण मुनेत्र कडगम की स्थापना की। आजकल जयललिता के नेतृत्व में इसी गुट की सरकार चल रही है। अदल-बदल कर दोनों गुटों की सरकारें बनती रहती हैं। 

बसपा : 

डी एस -4 के रूप में पहले कांशीराम ने दलित वर्ग संघ की तर्ज पर एक संगठन बनाया फिर उसे एक राजनीतिक दल के रूप में परिवर्तित कर दिया। 1992 के चुनावों में सपा के साथ यह दल सरकार में शामिल हुआ फिर भाजपा से मिल कर कई बार सरकारें बनाईं। 2007 में मायावती के नेतृत्व में इसकी प्रथम स्वतंत्र सरकार बनी। इस समय उत्तर प्रदेश में प्रमुख विपक्षी दल है। 

बांगला कांग्रेस,संमाँजवादी कांग्रेस,आदि कितने ही छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल बने और समाप्त हो गए। जनता दल-यू,राष्ट्रीय जनता दल,बीजू जनता दल,नेशनल कान्फरेंस,एकता दल,अपना दल,जस्टिस पार्टी आदि अनेकों छोटे-छोटे दल आज भी अस्तित्व में हैं और चुनावों में भाग लेते हैं।
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Tuesday, December 17, 2013

शाने तारीख :एक प्रशासक द्वारा एक ऐतिहासिक प्रशासक की कर्म - गाथा ---विजय राजबली माथुर



 17 दिसंबर 2013 (59 वें जन्मदिवस पर )

(डॉ सुधाकर अदीब साहब सपरिवार  -1993 में फैजाबाद में सिटी मेजिस्ट्रेट रहने के दौरान)

श्रद्धा के हैं   सुमन     भावना का   चन्दन।
हम सब बंधु करते हैं आपका अभिनंदन। ।

'शाने तारीख' डॉ सुधाकर अदीब साहब का नवीनतम उपन्यास है जिसे उन्होने शहनशाह  'शेर शाह सूरी'की गौरव गाथा के रूप में प्रस्तुत किया है। अपने अल्पज्ञान से जितना मैं समझ सका इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि अपने प्रशासनिक अनुभवों एवं जनता के दुख-दर्दों को देख सुन कर लेखक ने अपने मनोभावों को शेर शाह सूरी की इस मर्म स्पर्शी गौरव गाथा के माध्यम से प्रस्तुत किया है। जैसे-प्रस्तावना में(पृष्ठ -12)पर वह कहते हैं:"प्रजा की भलाई और विकास के कार्य ही राज्य की स्थिरता की वास्तविक कुंजी हैं"।
पृष्ठ 52 और 56 पर 'लौट आओ फ़रज़ंद' शीर्षक अध्याय  के अंतर्गत फरीद उर्फ शेरशाह के गुरु मौलाना वहीद के मुख से उसे शिक्षा देते हुये कहलाते हैं-"हो सके तो उन गरीब किसानों के बारे में कुछ करना। लगान वसूलते समय गाँव के सबसे गरीब इंसान का चेहरा जब तुम अपनी निगाहो के सामने रखोगे तभी तुम अपनी जागीर की बेहबूदी के साथ-साथ रिआया के साथ भी सच्चा इंसाफ कर सकोगे। "
इसी अध्याय में आगे पृष्ठ 62 पर ठोस विचार प्रस्तुत किया गया है-"किसान ही आर्थिक विकास की जड़ हैं । जब तक किसान के जीवन-स्तर में  सुधार नहीं होगा,खेती और पैदावार में सुधार न हो पाएगा। "

ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने अपने लंबे प्रशासनिक  अनुभवों में खेती और किसान की वर्तमान दुर्दशा को ध्यान में रखते हुये शेरशाह सूरी को नायक बना कर उसके समाधान का मार्ग प्रस्तुत किया है। खुद डॉ साहब ने पिछली 23 अक्तूबर को जब उन्होने अपने दो उपन्यासों-'मम  अरण्य' एवं 'शाने तारीख' की प्रतियाँ मुझे भेंट की थीं नितांत  व्यक्तिगत वार्ता में कहा था कि उन्होने अपने कार्य और जीवन में प्रत्येक व्यक्ति से चाहे वह कारीगर हो,मजदूर हो या कलाकार कुछ न कुछ सीखा और हासिल किया है। यह  कथन डॉ अदीब साहब की  विशाल हृदयता का परिचायक है।
 इसका उल्लेख पृष्ठ-44-45 पर इन शब्दों में भी मिलता है-"केवल किताबी ज्ञान ही सब कुछ नहीं है। आम लोगों की जुबान से सदियों से चले आ रहे खलां में गूँजते तराने भी बहुत कुछ सच्चाइयाँ बयान करते हैं। " और इसी व्यावहारिक ज्ञान द्वारा  इस ऐतिहासिक उपन्यास में डॉ अदीब जीवंतता लाने में कामयाब रहे हैं।

एक घर सिर्फ ईंट-गारे,सीमेंट और लोहे से बना हुआ मकान नहीं होता है । इस संबंध में उपन्यासकार ने पृष्ठ-30 पर 'एक घायल मन फरीद'अध्याय में स्पष्ट कहा है-"जिस घर में सिर्फ खाना-कपड़ा-रहना ही अपना हो मगर जहां प्यार -दुलार-मान-सम्मान -अपनापन और खून के रिश्तों की गर्माहट न हो वह घर अपना कहाँ?" इस कथन के माध्यम से वर्तमान काल में परिवारों में आई स्वार्थपरकता एवं दरारों को भी रेखांकित किया गया है साथ ही साथ उसका समाधान भी इसी में अंतर्निहित है। आज की आपाधापी तथा छल-छ्द्यं के युग में जब मानवीय संवेगों का कोई महत्व नहीं रह गया है तो उससे पार पाने  हेतु लेखक ने पृष्ठ-49 पर 'लौट आओ फरजंद' अध्याय में यह हकीकत बयानी की है-"यह दुनिया एक सराय है और ज़िंदा रहने की मुद्दत का दूसरा नाम है आजमाइश। इस आजमाइश के दौरान इंसान को अपनी राह खुद चुननी पड़ती है और कामयाबी की कोई -न -कोई मंजिल भी खुद ही तय करनी पड़ती है।"

पृष्ठ-122 पर 'चंद कदम बाबर के संग' अध्याय में लिखा है "सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होने वाले शहजादों को आमजन के दुखों और संघर्षों से मिलने वाले दर्दों का एहसास नहीं होता है । वह ऊपर से भले ही स्वम्य को जनसाधारण का कितना ही हितैषी क्यों न दर्शाएँ भीतर से वह सुविधाभोगी और स्वार्थी ही होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति जमाने की ठोकरें खा कर और राहों की धूल फांक कर एक दिन किसी लायक बनता है उसके मन में आम इंसान के दुख दर्द और तकलीफ़ों का एहसास भीतर-ही-भीतर स्वतः बना रहता है। इसी लिए ऐसा व्यक्ति बहुत जल्द ही निश्चिंत नहीं हो जाता और अपने अतीत को कभी नहीं भूलता है। "
यद्यपि ये बातें लेखक ने शेरशाह सूरी के संदर्भ में कहीं  हैं किन्तु इनका इशारा वर्तमान राजनीतिक वातावरण की ओर भी अवश्य ही प्रतीत होता है। आज जो हम कुछ उच्च स्तरीय नेताओं द्वारा जनता के साथ  स्वांग करते देखते हैं शायद उसी को ऐतिहासिक संदर्भ से उभारा गया है।

पृष्ठ-296 पर 'बर्फ और अंगारे' अध्याय में लेखक कहते हैं "शेरशाह सूरी महज एक बादशाह नहीं 'शान-ए-तारीख'था। वह अपने समय का एक ऐसा व्यक्ति था जो किसी राज-वंश में नहीं जन्मा था। एकदम धूल से उठा एक ऐसा व्यक्ति था जो संघर्ष की आंधियों में तप कर मध्यकालीन भारत के राजनैतिक आकाश पर एक तूफान की तरह छा गया। एक ऐसा अभूतपूर्व तूफान जो सिर्फ पाँच बरस चला ,मगर जो अपना असर सदियों तक के लिए इस धरती पर छोड़ गया। "
यह कथन भी वर्तमान राजनीति की इस विडम्बना जिसमें यह माना जाता है कि आज कोई भी ईमानदार व्यक्ति राजनीति में सफल नहीं हो सकता को झकझोरने वाला है तथा कर्मठ एवं ईमानदार लोगों को राजनीति में आगे आने की प्रेरणा देने वाला है।
पृष्ठ-233 पर अध्याय'शाहे हिन्द शेरशाह' में लेखक ने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि शेरशाह के सिंहासनारूढ़ होने के समय  गोचर में बली चंद्रमा की स्थिति में मध्यान्ह 'अभिजीत'मुहूर्त था। यहाँ ज्योतिष के विरोधी आशंका व्यक्त कर सकते हैं कि फिर तब शेरशाह को निरंतर संघर्षों एवं कष्टों का सामना क्यों करना पड़ा और युद्धों में अपने एक पुत्र व एक पौत्री से हाथ क्यों धोना पड़ा और खुद भी युद्ध में घायल होकर ही मृत्यु को क्यों प्राप्त होना पड़ा?इस विषय में मैं उन ज्योतिष विरोधियों से यह कहना चाहूँगा कि सिर्फ गोचर ही नहीं व्यक्ति के जन्मकालीन ग्रहों एवं महादशा-अंतर्दशा का भी जीवन में प्रभाव पड़ता है और जो कुछ शेरशाह सूरी के साथ घटित हुआ उस पर इनका व्यापक प्रभाव पड़ा होगा।
लेकिन पृष्ठ 96 पर 'और बना वह शेर'अध्याय के अंतर्गत लेखक ने गोपी चंद के मुख से जो यह कहलाया है-"काशी की मान्यता यह है कि यहाँ आकर प्राण छोडने से मनुष्य आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते हैं। "

ऐतिहासिक संदर्भों में हो सकता है लेखक को यह वर्णन मिला हो या उनकी खुद की यह सोच हो किन्तु यह धारणा पोंगा-पंडितवाद द्वारा लूट एवं शोषण के संरक्षण हेतु फैलाई गई है। जन्म-जन्मांतर के संचित सदकर्मों  एवं अवशिष्ट दुष्कर्मों तथा अकर्मों के न रहने की दशा में 'आत्मा' को कुछ समय के लिए नस व नाड़ी के बंधन से मुक्ति मिल जाती है उसी को 'मोक्ष' की अवस्था कहते हैं परंतु यह स्थाई व्यवस्था नहीं है और कुछ अंतराल के बाद उस आत्मा को पुनः शरीर प्राप्त हो जाता है।

इसी अध्याय में पृष्ठ-98 पर लेखक ने शेरशाह से कहलवाया है-"हुकूमतें आखिर मुसाफिरों की आसाइशों की ओर तवज्जो क्यों नहीं देतीं?क्या सारा फर्ज आम आदमी का ही हुकूमत के वास्ते होता है ?हुकूमत का आम आदमी के लिए क्या कोई फर्ज नहीं?"

वहीं पृष्ठ-177 अध्याय :'दौलत और हुस्न'में वर्णन मिलता है-"वह अपनी क्षेत्रीय जनता का विश्वास और समर्थन अर्जित करने का हर संभव प्रयत्न कर रहा था। इसके लिए जन  कल्याणकारी कार्यों और यातायात के साधनों व सूचना तंत्र को विकसित करने पर वह बहुत ध्यान देता था। कोई कर्मचारी सैनिक या सरदार जनसाधारण से धर्म जाति या व्यवसाय के नाम पर कोई जुल्म,ज्यादती न करने पाये । कर वसूली के नाम पर  भी किसी के साथ रगा या अन्याय न हो। चोरी,लूट-पाट,डकैती का निवारण करना स्थानीय हाकिमों का सीधा उत्तरदायित्व था। वह हिन्दू-मुस्लिम जनता में विभेद करने के बिलकुल खिलाफ था। किसानों का वह सबसे बड़ा हितैषी था। अपनी इस प्रकार की सजग,न्यायपूर्ण और धर्म निरपेक्ष नीति के कारण उसने बहुत जल्द जनसाधारण में अपने प्रति सच्ची आस्था अर्जित कर ली थी। यह शेर खाँ की सबसे बड़ी शक्ति थी। "
इन संदर्भों के द्वारा लेखक ने शासित के प्रति शासक के कर्तव्यों का उल्लेख करके एक आदर्श शासन-व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को निरूपित किया है। इन नीतियों पर चल कर वर्तमान समस्याओं का समाधान भी सुचारू रूप से किया जा सकता है जिस ओर आजकल शासकों का ध्यान आमतौर पर नहीं है।

शेरशाह सूरी के व्यक्तित्व और शासन व्यवस्था की अच्छाइयों का वर्णन करने के साथ-साथ लेखक ने निष्पक्षतापूर्वक उसकी एक भारी भूल या गलती को भी इंगित किया है जिसका उल्लेख पृष्ठ-284 पर अध्याय'वे धधकते साल'में है-"शेरशाह के गौरवमय जीवन में एक यही ऐसा एकमात्र काला अध्याय है जब वह धर्मांध दरिंदों के प्रतिशोधपूर्ण क्रूर कृत्यों के समक्ष गूंगा,बहरा और तटस्थ बना रहा । ऐसा करके नाहक ही उस महान व्यक्ति ने अपने उज्ज्वल मस्तक पर एक कलंक का टीका लगवा लिया। "

यह वर्णन भी वर्तमान समय की ज्वलंत 'सांप्रदायिक समस्या' का निदान करने मे काफी सहायक सिद्ध हो सकता है। जिस प्रकार गोस्वामी तुलसी दास ने उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों के मद्दे नज़र अपने 'रामचरितमानस' द्वारा जनता से विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने और राम सरीखी शासन व्यवस्था लाने का आव्हान किया था;उसी प्रकार 'शाने तारीख' के माध्यम से डॉ सुधाकर अदीब साहब ने शेरशाह सूरी की आदर्श और जनोन्मुखी शासन व्यवस्था को आज के संदर्भ में व्यवहार में अपनाए जाने की राजनेताओं से अपेक्षा व जनता से तदनुरूप कदम उठाने का आह्वान किया है। जनता इससे कितना लाभ उठा सकती है या राजनीतिज्ञों का इससे कितना परिष्कार होता है यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इस उपन्यास का जनता में किस प्रकार प्रचार होता है। वैसे यह उपन्यास एक फिल्म की भी पृष्ठ भूमि तैयार करता है।

धन्यवाद दें किन शब्दों में प्रकट करें आभार। 
लेखनी आपकी चलती रहे यूं ही सदाबहार। ।

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Saturday, December 7, 2013

विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिकता का प्रचार :यही है प्रगतिशीलता?---विजय राजबली माथुर



प्रिंस डी लेमार्क और डार्विन सरीखे जीव विज्ञानियों के 'विकास' एवं  'व्यवहार और अव्यवहार' सिद्धान्त के विपरीत यूजीन मैकार्थी द्वारा सूअर और चिम्पाजी को मानव का पूर्वज घोषित किया जाना 'विज्ञान' को हास्यास्पद ही बना रहा है। 'विज्ञान' सिर्फ वह ही नहीं है जिसे किसी प्रयोगशाला में बीकर और रसायनों के विश्लेषणात्मक अध्यन से समझा जा सकता है। मेरठ कालेज,मेरठ में 1970 में 'एवरी डे केमिस्ट्री' की कक्षा में प्रो.तारा चंद माथुर साहब  के प्रश्न के उत्तर में मैंने उनको विज्ञान की सर्वसम्मत परिभाषा सुना दी थी-"विज्ञान किसी भी विषय के नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्यन को कहा जाता है" और उन्होने इस जवाब को सही बताया था।

वैज्ञानिकों के मध्य ही यह विवाद चलता रहा है कि 'पहले मुर्गी या पहले अंडा?' इस संबंध में मैं आप सब का ध्यान इस बात की ओर खींचना चाहता हूँ कि, पृथ्वी की सतह ठंडी होने पर पहले वनस्पतियाँ और फिर जीवों की उत्पत्ति के क्रम में सम्पूर्ण विश्व में एक साथ युवा नर एवं मादा जीवों की उत्पति स्वम्य  परमात्मा ने प्रकृति से 'सृष्टि' रूप में की और बाद में प्रत्येक की वंश -वृद्धि होती रही। डार्विन द्वारा प्रतिपादित 'survival of the fittest'सिद्धान्त के अनुसार जो प्रजातियाँ न ठहर सकीं वे विलुप्त हो गईं;जैसे डायनासोर आदि। अर्थात  उदाहरणार्थ पहले परमात्मा द्वारा युवा मुर्गा व युवा मुर्गी की सृष्टि की गई फिर आगे अंडों द्वारा उनकी वंश-वृद्धि होती रही। इसी प्रकार हर पक्षी और फिर पशुओं में क्रम चलता रहा। डार्विन की रिसर्च पूरी तरह से 'सृष्टि' नियम को सही ठहराती है।   

मानव की उत्पति के विषय में सही जानकारी 'समाज विज्ञान' द्वारा ही मिलती है। समाज विज्ञान के अनुसार जिस प्रकार 'धुएँ'को देख कर यह अनुमान लगाया जाता है कि 'आग' लगी है और 'गर्भिणी'को देख कर अनुमान लगाया जाता है कि 'संभोग'हुआ है उसी प्रकार समाज विज्ञान की इन कड़ियों के सहारे 'आर्य' वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि अब से लगभग दस लाख वर्ष पूर्व मानव की उत्पति -'युवा पुरुष' और 'युवा स्त्री' के रूप में एक साथ विश्व के तीन विभिन्न क्षेत्रों -अफ्रीका,मध्य यूरोप और त्रिवृष्टि=तिब्बत में हुई थी और आज के मानव उनकी ही सन्तानें हैं।  प्रकृति के प्रारम्भिक रहस्य की सत्यता की  पुष्टि अब तक के वैज्ञानिक दृष्टिकोणों से ही होती है।

आज से नौ लाख वर्ष पूर्व 'विश्वमित्र 'जी ने अपनी प्रयोगशाला में 'गोरैया'-चिड़िया-चिरौंटा,नारियल वृक्ष और 'सीता' जी की उत्पति टेस्ट ट्यूब द्वारा की थी। 'त्रिशंकू'सेटेलाईट उनके द्वारा ही अन्तरिक्ष में प्रस्थापित किया गया था जो आज भी सुरक्षित परिभ्रमण कर रहा है।  

वस्तुतः आज का विज्ञान अभी तक उस स्तर तक पहुंचा ही नहीं है जहां तक कि अब से नौ लाख वर्ष पूर्व पहुँच चुका था। उस समय के महान वैज्ञानिक और उत्तरी ध्रुव-क्षेत्र(वर्तमान-साईबेरिया)के शासक 'कुंभकर्ण'ने तभी यह सिद्ध कर दिया था कि 'मंगल'ग्रह 'राख़' और 'चट्टानों'का ढेर है लेकिन आज के वैज्ञानिक मंगल ग्रह पर 'जल' होने की निर्मूल संभावनाएं व्यक्त कर रहे हैं और वहाँ मानव बस्तियाँ बसाने की निरर्थक कोशिशों में लगे हुये हैं। इस होड़ा-हाड़ी में अब हमारा देश भी 'मंगलयान' के माध्यम से शामिल हो चुका है। सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के उत्थान-पतन के साथ-साथ वह विज्ञान और उसकी खोजें नष्ट हो चुकी हैं मात्र उनके संदर्भ स्मृति(संस्मरण) और किस्से-कहानियों के रूप में संरक्षित रह गए हैं। आज की वैज्ञानिक खोजों के मुताबिक 'ब्रह्मांड' का केवल 4 (चार)प्रतिशत ही ज्ञात है बाकी 96 प्रतिशत अभी तक अज्ञात है-DARK MATTER-अतः केवल 4 प्रतिशत ज्ञान के आधार पर मानव जाति को सूअर और चिम्पाजी  का वर्ण -संकर बताना विज्ञान की खिल्ली उड़ाना ही है प्रगतिशीलता नहीं।विज्ञान का तर्क-संगत एवं व्यावहारिक पक्ष यही है कि युवा नर और युवा नारी के रूप में ही परमात्मा-ऊर्जा-ENERGY द्वारा मनुष्यों की भी उत्पति हुई है और आज का मानव उन आदि मानवों की ही संतान है न कि सूअर और चिम्पाजी का वर्ण-संकर अथवा 'मतस्य'से विकसित प्राणी।


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