Tuesday, September 22, 2015

विद्रोही व्यक्तित्व के साहित्यकार कांमतानाथ :81 वें जन्मदिवस पर स्मरण --- विजय राजबली माथुर




आज दिनांक 22 सितंबर 2015 को सांयकाल जयशंकर प्रसाद सभागार, उमानाथबली प्रेक्षागृह , क़ैसर बाग, लखनऊ में महान कथाकार व उपन्यासकार कांमतानाथ जी का 81 वां जन्मदिवस इप्टा व प्रलेस की ओर से उनके परिवारीजनों की उपस्थिती में विद्वजनों के  द्वारा श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुये मनाया गया। इस स्मरण समारोह सभा की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध साहित्यकार शेखर जोशी जी द्वारा की गई। उनके साथ मंच पर उर्दू साहित्यकार आबिद सुहैल व हिन्दी साहित्यकार गिरिराज किशोर जी भी आसीन थे। सभा का सफल संचालन राकेश जी द्वारा किया गया। 

प्रारम्भिक परिचय देते हुये राकेश जी ने बताया कि कांमतानाथ जी 1980 में उत्तर प्रदेश प्रलेस के महासचिव बने और अधिवेशन में पूर्व राष्ट्रीय महासचिव के रूप में भीष्म साहनी जी भी शामिल हुये थे। प्रथम वक्ता के रूप में राकेश जी ने गिरिराज किशोर जी को आमंत्रित किया जो कांमतानाथ जी के साहित्यिक मित्र व साथी भी रहे हैं। 

 * गिरिराज किशोर जी ने अपने उद्बोधन में बताया कि वह कामतनाथ जी के संपर्क में 1960 में आए थे और उनसे सतत संबंध बने रहे। उनका लेखन व चिंतन सामाजिक परिप्रेक्ष्य में था और भाषा आम-जन की थी। नामवर सिंह व राजेन्द्र यादव ने कांमतानाथ जी के लेखन का विरोध किया था जिसका प्रतिवाद गिरिराज किशोर जी ने किया था। उन्होने बताया कि रचनाकार का लेखन उसके अपने जीवन के बाद के लिए होता है उसकी आस्था दृढ़ होती है। कामतानाथ जी इसके ज्वलंत प्रतीक रहे हैं। उपेक्षा से बल मिलता है, प्रेरणा मिलती है। अपनी उपेक्षा का सम्मान करना चाहिए जैसा कि कामतानाथ जी ने किया। 
** शकील अहमद सिद्दीकी ने बताया कि कामतानाथ जी ने 150 कहानियाँ लिखी हैं जिनमें से 135 का संकलन भी दो खंडों में प्रकाशित हुआ है। उनका मानना था कि जो लेखक अन्याय के विरुद्ध खड़ा नहीं हो सकता वह बड़ा लेखक नहीं बन सकता है। निम्न मध्यम वर्गीय सम्बन्धों की हृदय स्पर्शी रचनाएँ उन्होने सृजित की हैं। 'रिश्ते -नाते' देश विभाजन के पलायन के दौर में आर्थिक संकट से जूझते लोगों की अंतर्कथा है। उनकी विभिन्न पीढ़ियों के मनोविज्ञान पर अच्छी पकड़ थी। स्वभाविक भाषा में 'कहानी' व 'कहानियत' को बचाए रखने के कारण हिन्दी साहित्य में उनका अपार महत्व है। 

***मसूद साहब  ने उनके रचित उपन्यासों का ज़िक्र करते हुये बताया कि ' काल कथा ' लिखने में उनको 30 वर्ष लगे। 1998 में दो अंश आ चुके थे और 2008 में यह पूर्ण हुआ। इसमें राजनीतिक विमर्श और जनता का इतिहास भी मिल जाएगा। 1919 से 1947 तक के विभिन्न आंदोलनों का वर्णन इसमें है और प्रांतीय सरकारों के गठन का भी। सुभाष बोस की INA व CPI के गठन आदि का अच्छा उल्लेख इस उपन्यास में है । आज नहीं है तो अगले 50-100 वर्षों बाद इसे श्रेष्ठ उपन्यास अवश्य ही माना जाएगा। 

****साहित्यकार प्रकाश साहब ने भी  कहा कि 'काल कथा' में सामाजिक इतिहास का अवलोकन होता है। इसकी तुलना दूसरी रचनाओं से की गई है जो लेखक के साथ ज्यादती है। उनका 'पिघलेगी बर्फ' उपन्यास तिब्बत की भौगोलिक सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि पर आधारित है। INA के बहुत से लोग भटक कर तिब्बत पहुँच गए थे उनमें से ही एक को नायक बना कर यह उपन्यास लिखा गया है। इसमें दिवतीय विश्व युद्ध का काल समाहित है। चीन के हमले के बाद तिब्बत का सांस्कृतिक अपहरण भी इसमें मिल जाएगा। विभाजन का वर्णन करते हुये ज़िक्र किया गया है कि विश्व इतिहास में राजा तो बदलते रहे हैं लेकिन भारत विभाजन के बाद विश्व में पहली बार जनता भी बदली गई है। 

*****शिवमूर्ती जी ने अपने संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित उद्बोधन में बताया कि 'काल कथा' प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से सामान्यजन की मनोदशा का वर्णन करता है जो कि अप्रतिम है। 

****** कामतानाथ जी के पुत्र आलोक ने बताया कि उनके पिताजी लेखन कार्य रात में किया करते थे उनको पढ़ने की आदत उन्होने शिक्षा ग्रहण करने से पूर्व ही डाल दी थी।आजकल पढ़ने की आदत कम होती जा रही है। आज शिक्षा को 'रोजगार' से जोड़ दिया गया है। पढ़ने में कमी के कारण शिक्षा में गिरावट आ गई है। आलोक जी ने खुद 'काल कथा' को 15 दिन में पढ़ लिया था। उस उपन्यास के आधार पर आज़ादी के बाद भी गुलामी जैसी ही 'विषमताएं' पाई जाती हैं। फिर कभी जनता को शासकों से वैसा ही 'संघर्ष' करना पड़ सकता है। 

******* आबिद सुहैल साहब ने बताया कि कामतानाथ जी की एक कहानी में दूसरों के गम बांटने की प्रेरणा मिलती है। उनकी   कथनी व करनी  में कोई फर्क नहीं होता था इसका एक छोटा सा उदाहरण देते हुये उन्होने  बताया   कि रात में जब वह उनको द्वार तक छोडने आए तो उतनी देर के लिए कमरे की लाईट बंद कर दी क्योंकि वह बरबादी के खिलाफ थे। वह जो कहते थे उसी पर खुद भी अमल करते थे। 

अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में सुप्रसिद्ध साहित्यकार शेखर जोशी ने बताया कि 'यशपाल' व 'अमृतलाल नागर' की परंपरा को उन्होने कायम रखा। उनका जैसा 'विद्रोही व्यक्तित्व' था उनके साहित्य में उसकी पूरी छाप है। 'काम का पहिया' कहानी में पीड़ित अपनी आस्था पर टिका है। स्वाधीनता आंदोलन विशेषकर उत्तर प्रदेश में सवर्णों के नेतृत्व में रहा है इसी लिए आज भी देश की दुर्दशा है। यदि नेतृत्व 'सर्वहारा ' के हाथों में होता तो दृश्य दूसरा ही होता। 

प्रलेस की सचिव किरण सिंह जी ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुये आगंतुकों व कामता नाथ जी के परिवारी जनों के प्रति कार्यक्रम को सफल कराने हेतु आभार व्यक्त किया। 

संचालक राकेश जी ने कामतानाथ जी के जीवन से जुड़ी तमाम बातों का उल्लेख बीच-बीच में किया। उन्होने बताया कि कामतानाथ जी एक श्रेष्ठ मजदूर नेता और श्रेष्ठ साहित्यकार दोनों ही थे। वे सभी दायित्वों का सम्यक निर्वहन करते थे। रिज़र्व बैंक ,कानपुर के एक घटना क्रम का उल्लेख करते हुये उन्होने बताया कि एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के अधिकारों की रक्षा के लिए उनको एक सीनियर मेनेजर को थप्पड़ भी मारना पड़ा लेकिन यूनियन और मेनेजमेंट के टकराव के चलते जनता को होने वाले नुकसान का आंकलन करते हुये उन्होने मेनेजर से क्षमा मांग कर टकराव का पटाक्षेप भी कर दिया था।यह घटना उनके सामाजिक सरोकारों व विशाल हृदयता का प्रतीक है।  

सभा समारोह में अन्य लोगों के अलावा शिव मूर्ती ,अखिलेश,वीरेंद्र यादव,रमेश दीक्षित,राम किशोर,ओ पी सिन्हा,डॉ सुधाकर अदीब,डॉ अमिता दुबे,वीर विनोद छाबड़ा,किरण सिंह, कामरेड मुख्तार , ओ पी अवस्थी,फूलचंद यादव,राजीव यादव,महेश देवा,प्रदीप घोष, विजय राजबली माथुर,कांमतानाथ जी के सुपुत्र आलोक एवं उनकी पुत्रियाँ- रश्मि व इरा आदि की उपस्थिती उल्लेखनीय है। 

 ~विजय राजबली माथुर ©
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