Wednesday, November 25, 2015

इतिहास के झरोखों से नये पदचाप को दिशा देने की तमन्ना ------ विजय राजबली माथुर





यादों के झरोखों से ------


स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )




https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/972778176117492

पाँच वर्ष पूर्व मैंने एक पोस्ट में लिखा था :

http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/10/blog-post.html
:चार वर्ष पूर्व की एक पोस्ट का अंश : 



http://vijaimathur.blogspot.in/2011/11/blog-post.html
 प्रस्तुत यह कविता दीवान सिंह जी ने मुझे 'सप्तदिवा ' के लिए दी थी किन्तु फिर जब मैं ही अलग हो गया तो न छप सकी थी।इसे अब इस ब्लाग -पोस्ट में प्रकाशित कर रहे हैं। :




'मैं गरिमा हूँ ' 

एक समय था 
जब मैं मैले-कुचैले  सुकरात की मुकुट थी 
बहुजन हिताय व बहुजन सुखाय के निकट थी। 
कंटकाकीर्ण पथ गमनकारी मेरा श्रिंगार करते थे 
त्याग तपस्या की तपन के बावजूद मेरे लिए मचलते थे। 
क्योंकि मैं गरिमा हूँ। 
        ***
लेकिन अफसोस हो रहा है 
समय के साथ मेरा निवास भी बदल रहा है 
आजकल मैं अट्टालिकाओं में बहार करती हूँ। 
सेठ-साहूकारों के पैरों में निवास करती हूँ । 
आज मैं बड़ों की बड़ाई का अस्त्र हूँ। 
क्योंकि मैं गरिमा हूँ। 

--- ( दीवान सिंह बघेल, ग्राम-बास अचलू, टर्र्म्पुर, आगरा )  
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Comments
Narendra Parihar wah sir ji ......yaado ko sametna yane naye ki padchaap ko ansuna karna hi maane ya itihaas ke jharokho se nayi padchaap ko disha dene ki tamannaSee Translation
Vijai RajBali Mathur जैसा आप मानें।

बंधु नरेंद्र जी ने जानना चाहा था कि उपरोक्त 'यादों के झरोखों से' का तात्पर्य क्या लगाया जाये अतः पुरानी ब्लाग-पोस्ट्स के जरिये उसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है। 

एक नैतिक प्रश्न सामने था कि ,


इस 'राईटर एंड जर्नलिस्ट ' फोरम से आदरणीय शेष नारायण सिंह जी ने सितंबर 2011 में सम्बद्ध तब किया था जब भड़ास में उन्होने सुब्रमनियम स्वामी वाला लेख प्रकाशित करवाया था। तब -

इन लोगों की व्याख्या से केवल और केवल ब्रहमनवाद तथा संघ के मंसूबे ही पूरे होंगे 

 http://krantiswar.blogspot.in/2015/11/blog-post_13.html

पोस्ट के जरिये उनके सुझाए लेखकों की व्याख्याओं पर संदेह करना क्या उचित था ?
ऊपर जो पुराने पोस्ट्स या अखबार की स्कैन कापी दी गई है वे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि मैं 1982 से ही राजनीतिक/धार्मिक विषयों पर दृढ़ता व स्पष्टता के साथ विचार रखता आया हूँ और किसी भी प्रकार का समझौता करके मूल चरित्र को नहीं बदला है भले ही 1991 में उस अखबार से अलग ही हो गया था। अब जब बात 'हिन्दू धर्म' पर इन लेखकों की व्याख्या की थी तब फिर स्पष्ट विचार देना ही मुनासिब समझा भले ही सिंह साहब नाराज़ हो लें। लेकिन सही बात तो सबके सामने आनी  ही चाहिए।  

~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
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