प्रस्तुत उद्धरण दुर्गा सप्तशती के 'अर्गला स्त्रोत ' के 24 वें श्लोक की प्रथम पंक्ति में प्रयुक्त शब्द के प्रयोग पर आपत्ति का है। इससे पूर्व गोवा की वर्तमान राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी भी इसी शब्द पर आपत्ति उठा चुकी हैं।
* वस्तुतः इस भ्रम का कारण इन संस्कृत शब्दों का ' मर्म ' समझे बगैर सिर्फ शाब्दिक अर्थ लेने के कारण है । सिर्फ साहित्यिक दृष्टिकोण से इनके मर्म को नहीं समझा जा सकता है। इसे संस्कृत के बीज गणितीय विश्लेषण के आधार पर समझना पड़ेगा तभी मर्म तक पहुंचा जा सकेगा।
* दुर्गा सप्तशती के ही ' कुंजिका स्त्रोत 'के 5 वें श्लोक में वर्णन है :
" विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणी ' । । 5 । ।
अब यदि उदाहरण के अनुसार शाब्दिक अर्थ लेंगे तो लगेगा कि, अपने लिए 'भय ' मांगने की प्रार्थना की गई है। परंतु इसमें चाभयदा को संधि विच्छेद करके उच्चारण करना होगा जो इस प्रकार होगा ---
च+अभय +दा = और अभय दें
लेकिन पोंगा पंडित खुद भी गलत पढ़ते - बोलते हैं और न जानने के कारण सही अर्थ जनता को बताने में असमर्थ हैं। परिणाम अनर्थ के रूप में सामने आता है और वाचक या यजमान इसके दुष्परिणाम को भोगता है । जब आप प्रार्थना में 'भय' मांगेंगे तो भय ही तो मिलेगा !
* इसी प्रकार चिंता एवं रोग निवारणार्थ गणेश स्तुति को समझें :
" सर्वकामप्रदम नृणाम सर्वोपद्रवनाशनम । । "
इसमें सर्वोपद्रवनाशनम को संधि - विच्छेद करके पढ्ना चाहिए , यथा ---
सर्व + उपद्रव + नाशनम = सभी प्रकार के उपद्रवों को नष्ट करें। अब यदि ऐसा न करके सर्वोपद्रवनाशनम उच्चारण करेंगे तो उसका अर्थ होगा समस्त द्रव नष्ट कर दें।
* समस्त कामनाओं की सिद्धि हेतु गणेश स्तुति में :
" यतो बुद्धिरज्ञाननाशो मुमुक्षोर्यत:संपदोभक्त संतोषिका: स्यु:। "
अब इसमें ' बुद्धिरज्ञाननाशो ' को ज्यों का त्यों उच्चारण करेंगे तो उसका अर्थ होगा बुद्धि और ज्ञान नष्ट कर दें। इसको संधि - विच्छेद कर पढ्ना होगा :
बुद्धिर + अज्ञान + नाशो = बुद्धि के अज्ञान को नष्ट कर दें।
* अतः 'पत्नी मनोराम' का शाब्दिक अर्थ लेकर उद्वेलित होने के बजाए विद्व्जनों को इसके मर्म को समझना चाहिए। साहित्यिक काव्य - सृजन में रस, छंद, अलंकार का प्रयोग होने के कारण मात्रा आदि को संतुलित करने हेतु शब्द प्रयुक्त होते हैं। किसी किसी प्रार्थना में ' जो कोई नर गावे ' शब्द प्रयुक्त होता है तब इसका अर्थ केवल पुरुषों के लिए लेना अनर्थ है। नर या पत्नी जो भी शब्द होगा वह सभी मनुष्यों के लिए होगा सिर्फ पुरुष या महिला के लिए नहीं और उसे उसी संदर्भ में ग्रहण करना तथा समझाना चाहिए।
* अक्सर " स्त्रीं " शब्द प्रार्थना - स्तुति में आता है तब उसका साहित्यिक शाब्दिक अर्थ नारी या महिला नहीं होता है। इसको संधि - विच्छेद करें :
स + त + र + ई + अनुस्वार = दुर्गा + तारण + मुक्ति + महामाया + दुखहर्ता ।
अर्थात " स्त्रीं " शब्द का मर्म हुआ :
" दुर्गा मुक्तिदाता दुखहर्ता भवसागर तारिणी महामाया मेरे दुखों का नाश करें। "
इसी प्रकार अनेकानेक शब्द संस्कृत की स्तुतियों - प्रार्थनाओं में मिलेंगे जिनके शाब्दिक अर्थ नहीं मर्म को समझना होगा जिसके लिए पोंगा - पंडितों का आसरा छोड़ना होगा।
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पुनश्च :
वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ साहब ने एक कार्यक्रम में स्पष्ट किया है कि, वाईस चांसलर को हिन्दी में 'कुलपति ' कहा गया है तो यहाँ यह शब्द किसी महिला के पति के रूप में नहीं प्रयुक्त होता है। कुल का अर्थ परिवार से है और विश्वविद्यालय को एक परिवार माना गया है उस परिवार का पति यहाँ ' पिता ' या ' संरक्षक ' के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
विनोद जी का तर्क युक्तिसंगत है। क्योंकि देश के प्रेसिडेंट को ' राष्ट्रपति ' कहा गया है तो यहाँ भी एक राष्ट्र परिवार के पिता या संरक्षक के रूप में ही यह शब्द प्रयुक्त हुआ है।
अतः उपयुक्त यही है कि, शब्दों के ' मर्म ' पर ध्यान दिया जाये और बेवजह उद्वेलित या परेशान न हुआ जाये।
~विजय राजबली माथुर ©