सी.पी. भांबरी
जिस राष्ट्रवाद को लेकर स्वाधीनता संग्राम विकसित हुआ वह बहुलतावादी और बहु-सांस्कृतिक था, साथ ही वह धर्मनिरपेक्षता पर आधारित था
रक्षा समेत किसी भी मामले में सरकार के कामकाज पर सवाल खड़े करना विपक्ष की जिम्मेदारी है
राष्ट्रवाद को चुनावी मुद्दा बनाना ठीक नहीं
पुलवामा में हुए आतंकी हमले और उसके बाद बालाकोट में भारतीय वायुसेना की एयर स्ट्राइक ने पूरे देश में राष्ट्रभक्ति की एक लहर पैदा कर दी है। इसके चलते राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा सबसे ऊपर हो गया है। लेकिन चुनावी माहौल ने इसे राजनीतिक जामा भी पहना दिया है। बालाकोट में मारे गए आतंकियों की संख्या सरकारी तौर पर नहीं बताई गई थी, मगर सत्तारूढ़ दल के वरिष्ठ नेताओं ने इसे 250 और कहीं-कहीं इससे भी ऊपर पहुंचा दिया। विपक्षी दलों ने इसका प्रतिवाद करना शुरू किया और संख्या का प्रमाण मांगा। कुछ अपोजिशन पार्टियों ने इसका प्रतिवाद करते हुए सर्जिकल स्ट्राइक की असलियत पर भी प्रश्न खड़े करने शुरू कर दिए। उन्होंने पुलवामा को खुफिया तंत्र की असफलता बताते हुए इस संबंध में गवर्नमेंट से वस्तुस्थिति स्पष्ट करने की मांग की।
• संविधान का स्वरूप :
अपोजिशन की उलझन दूर करने के बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी रैलियों में पाकिस्तान और विपक्षी दलों को एक ही तराजू में तौल दिया और कांग्रेस पार्टी पर राष्ट्रीय हितों से समझौता करने का आरोप लगाया। यहां तक कहा जाने लगा कि कांग्रेस और पाकिस्तान दोनों एक ही भाषा में बात कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि सत्तारूढ़ और विपक्षी, दोनों ही राजनेता अपनी-अपनी मर्यादा भूल गए। राष्ट्रीय सुरक्षा और संकट की घड़ी में इस तरह का संवाद अशोभनीय ही कहा जा सकता है और निस्संदेह इससे सेना का मनोबल गिरता है। बालाकोट के बाद प्रधानमंत्री ने यह दावा करना शुरू किया कि देश उनके हाथों में सुरक्षित है। बीजेपी और उनके सहयोगी संगठनों ने इसे एक अतिरेक तक पहुंच दिया और ‘मोदी है तो मुमकिन है ’ का नारा देकर ऐसा माहौल बनाया कि मोदी अगर प्रधानमंत्री बने रहें तो सारे असंभव काम संभव हो जाएंगे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार और सेना ने पुलवामा के आतंकी हमले के बाद बहुत ही सफलतापूर्वक कार्य किया। आतंक के मामले में उन्होंने एक कारगर स्टैंड लिया है जिसे दुनिया भी मान रही है। इस मसले पर आज हमें वैश्विक समर्थन मिल रहा है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि विपक्ष सरकार से सवाल पूछना छोड़ दे। विपक्ष से प्रश्न पूछने का अधिकार छीनना उसके अस्तित्व पर संकट पैदा कर देगा, जो किसी भी जनतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। सरकार को नहीं भूलना चाहिए की उसे अपने हर काम को लेकर पूछे गए सवाल का जवाब विपक्ष को देना पड़ेगा। पुलवामा के आतंकी हमले के पीछे यदि कोई सुरक्षा चूक है तो सरकार को इसे बताना होगा। सवाल पूछने वालों को पाकिस्तान का हिमायती कह देने से काम नहीं चलेगा। प्रजातंत्र में उत्तरदायित्व से नहीं बचा जा सकता। यहां यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि न तो सवाल पूछने वाला विपक्ष राष्ट्रविरोधी है, न ही हिंदूराष्ट्र-वादी राष्ट्रवाद के एकमात्र संरक्षक हैं।
पहले तो यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या हिंदू महासभा की भूमिका बहुत खास नहीं थी। इस स्थिति में उन्हें भारतीय राष्ट्रवादी तो कतई नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह कि जिस अर्थ में भारतीय राष्ट्रवाद स्वाधीनता आंदोलन के दौर में विकसित हुआ, वही हमारे संविधान का आधार बना। संविधान की प्रस्तावना से यह साफ हो जाता है। परंतु संघ का राष्ट्रवाद इससे अलग था। अर्थात जिस राष्ट्रवाद को लेकर स्वाधीनता संग्राम विकसित हुआ वह बहुलतावादी था, बहु-सांस्कृतिक था, साथ ही धर्मनिरपेक्षता पर आधारित था। उसमें किसी भी प्रकार के धार्मिक, सांप्रदायिक, क्षेत्रवादी आग्रह की कोई जगह नहीं थी। संघ की विचारधारा इससे अलग है। इसे केवल संयोग नहीं कहा जा सकता है कि उसके लिए पाकिस्तान का विरोध राष्ट्रवाद की मूल संकल्पना का अंग है। पर क्या शत्रु राष्ट्र और देशवासियों के बीच कभी कोई तुलना की जा सकती है /
यदि ऐसा नहीं है तो सवाल पूछने वाले विपक्ष की तुलना पाकिस्तान से हरगिज नहीं की जानी चाहिए। इतना ही नहीं, भारत में सेना हमेशा राजनीति निरपेक्ष रही है। यह इस देश के मजबूत प्रजातंत्र की देन है। लेकिन हाल के घटनाक्रम में सेना को भी घसीटने का काम हो रहा है। यहां सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों ही कठघरे में खड़े दिखते हैं। सर्जिकल स्ट्राइक्स पहले भी हुई हैं पर सरकारों ने यह कार्य सेना पर छोड़ दिया था। अब सरकारें इसका श्रेय लेने लगी हैं। यह कोई अच्छी बात नहीं कही जा सकती। नरेंद्र मोदी सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनाव प्रचार करते हुए जिस राष्ट्रवाद की बात कर रहे हैं, वह संघ परिवार का राष्ट्रवाद है। इसमें भावनात्मक आग्रह तो है ही, भावुकता का विशेष स्थान भी है। सबको साथ लेकर चलना इसकी प्रवृत्ति में नहीं है। विरोधियों को सम्मान देते हुए उन्हें साथ लेकर चलने का भाव इसमें नहीं है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राष्ट्रवाद के भीतर जो भी भावुकता थी, वह स्वाधीनता के साथ ही राजनीतिक सहयोग की शक्ल लेने लगी थी। मगर आज का राष्ट्रवादी मुहावरा भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रवाद के सदियों में अर्जित रूप से पलायन है। कई अर्थों में यह पीछे की ओर ले जाने वाला कदम है।
• निशाने पर विपक्ष :
राष्ट्रीय संकट की घड़ी में अब तक के सभी प्रधानमंत्रियों ने विपक्ष को साथ रखकर कार्य किया है। आम सहमति बनाने की कोशिशें की हैं। 1965 के पाकिस्तान युद्ध के समय लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान ’ का नारा बुलंद कर देश को अपने साथ खड़ा किया था। लेकिन आज पहली बार विपक्ष की तुलना भारत के मुख्य विरोधी देश के साथ की जा रही है। राष्ट्रवाद के मुद्दे पर देश को विभाजित किया जा रहा है। जैसा कि कहा जा चुका है, इसके लिए विपक्ष की कुछ बातें भी कम जिम्मेदार नहीं हैं, लेकिन सरकार उनकी अनदेखी कर सकती थी।
~विजय राजबली माथुर ©
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