Saturday, April 20, 2019

मध्य वर्ग का वैचारिक अंधकार और मीडिया के नैतिक पतन की पराकाष्ठा मोदी युग की देन ------ हेमंत कुमार झा

 विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की इस स्वीकारोक्ति पर कि..."बालाकोट हमले में न कोई पाकिस्तानी सैनिक मरा, न कोई नागरिक"...अमित शाह को कोई शर्म महसूस नहीं होगी न उन चैनलों को कोई लाज आने वाली है जो 350 को मारने की खबरों के शोर से आसमान सिर पर उठाए थे।


Hemant Kumar Jha
3 hrs
लग तो नहीं रहा कि नरेंद्र मोदी फिर से सत्ता में आ पाएंगे लेकिन यहां प्रासंगिक यह नहीं है कि वे जीत कर फिर से सत्ता में आएं या हार कर इतिहास के पन्नों में सिमट जाएं, बल्कि प्रासंगिक यह है कि उनके दौर ने कुछ ऐसी परतों को उधेड़ कर रख दिया है जिनसे भविष्य के अध्येताओं को भारतीय समाज और राजनीति के अंतर्विरोधों को समझने में आसानी होगी।

इस दौर के अध्येताओं के सामने भारतीय शहरी मध्य वर्ग और हिन्दी पट्टी के ग्रामीण सवर्णों के उस आत्मघाती मनोविज्ञान पर विशेष अध्याय होंगे जिनमें यह समझने का प्रयास होगा कि आखिर कैसे और क्यों वे जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे और मन ही मन आश्वस्त हो रहे थे कि वे उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक विकल्प को मजबूती दे रहे हैं...कि यही वह विकल्प है जो उनके वर्त्तमान को बेहतर बनाएगा और उनके बच्चों के भविष्य को बेहतर उम्मीदों का आधार देगा।

भारतीय मीडिया का नैतिक पतन इस दौर के इतिहास का वह अगला अध्याय होगा जिसमें लोग यह जानने-समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर क्यों लाखों का पैकेज पाने वाला/वाली कोई एंकर सार्वजनिक रूप से टीवी के पर्दे पर भांड की भूमिका निभाने में बिल्कुल शर्म महसूस नहीं करता था। पतन का आखिर वह कैसा मनोविज्ञान था जिसमें मीडिया अपनी विश्वसनीयता, जो उसके अस्तित्व का आधार है, को ही दांव पर लगा कर किसी नेता या पार्टी का अघोषित दलाल बन गया था।

आर्थिक उदारीकरण ने शहरी मध्यवर्ग का विस्तार भी किया और उसे समृद्धि भी दी, लेकिन, इसके साथ ही उसे आत्मकेंद्रित और खुदगर्ज भी बनाया। उसी तरह, उदारीकरण ने मीडिया को सत्ता-संरचना के एक प्रभावी कम्पोनेंट के रूप में विकसित और शक्तिशाली बनाया, किन्तु इसी क्रम में सत्ता ने मीडिया को अपना प्रवक्ता भी बना लिया और उसने बिना किसी शर्मिंदगी के अपने इस विकृत रूप को स्वीकार भी कर लिया।

तो...मध्य वर्ग का वैचारिक अंधकार और मीडिया के नैतिक पतन की पराकाष्ठा मोदी युग के अध्ययन में दो महत्वपूर्ण अध्याय होंगे जिन्होंने इस दौर में पूरी दुनिया के विचारकों का न केवल ध्यान आकृष्ट किया है, बल्कि चौंकाया भी है। यह मध्य वर्ग और मीडिया का भारतीय संस्करण है जिनकी कोई और मिसाल दुनिया के किसी भी अन्य जीवंत समाज में शायद ही मिले।

खुदगर्जी एक बात है लेकिन वैचारिक रूप से आत्मघाती होना बिल्कुल दूसरी बात है। मध्यवर्ग को पता है कि उसकी निरन्तर बढ़ती समृद्धि में निम्न वर्ग के शोषण की बड़ी भूमिका है। इसलिये, यह स्वाभाविक है कि वंचित समुदायों के मुद्दों और संघर्षों से मध्य वर्ग अपने को न केवल निरपेक्ष बनाता गया, बल्कि शोषण की इस प्रक्रिया में सहभागी भी बनता गया।

किन्तु, मध्य वर्ग ने इस तथ्य को समझने से इन्कार कर दिया कि निम्न वर्ग के संघर्षों से आंखें मूंद कर वह जिस सत्ता-संरचना को मजबूती दे रहा है वह अंततः उसके ऊपर भी अभिशाप बन कर टूटेगा। क्योंकि, यह सारा खेल अंततः कारपोरेट हितों से संचालित है और जब बात कारपोरेट के हितों की आएगी तो मध्य वर्ग को बलि का बकरा बनाने में सत्ता को कोई संकोच नहीं होगा।

हितों और संघर्षों के अलग-अलग बनते द्वीपों ने सत्ता को मनमानियां करने की असीमित शक्ति से लैस कर दिया। शहरी मध्य वर्ग इस खुशफहमी में पॉपकार्न चबाते, कोल्ड ड्रिंक के घूंट लेते मल्टीप्लेक्स में टांगें पसार फूहड़ फिल्मों के मजे लेता रहा कि दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी...कि नए उभरते भारत में उसकी समृद्धि और बढ़ेगी क्योंकि देश की विकास दर ऊंची है...कि भले ही निम्न वर्गीय श्रमिकों में रोजगार की निरंतरता को लेकर असुरक्षा भाव बढ़ता जा रहा हो, लेकिन उसकी सेवा-सुरक्षा को कोई खतरा नहीं...क्योंकि वह उच्च/तकनीकी शिक्षा प्राप्त विशेषज्ञ कर्मी है...कि तमाम बैंक, रेलवे, एयरवेज, विश्वविद्यालय, निजी या सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े-बड़े उपक्रम उसी की विशेषज्ञता और मेहनत के भरोसे चल रहे हैं।

निराधार मिथ टूटने के लिये ही होते हैं। जेट एयरवेज का धराशायी होना और चिकने चेहरों का सड़कों पर बिलखता हुजूम इन्हीं खुशफहमियों के बिखरने का एक उदाहरण है। अधिक दिन नहीं गुजरे, जब इसी तरह किंगफिशर एयरलाइंस के कर्मियों की सांसें अपने भविष्य की आशंकाओं को लेकर अटकी हुई थीं।

नहीं...न माल्या डूबा था न नरेश गोयल डूबा है। डूबी हैं वे कंपनियां, जिनके वे मालिक थे, डूबे हैं वे कर्मचारी जिनकी मेहनत से कम्पनियां चलती थीं।

यह नए दौर का अर्थशास्त्र है जिसमें कंपनियां दिवालिया घोषित हो जाती हैं, डूब जाती हैं लेकिन मालिकान की शानो-शौकत कायम रहती है, उनका राजनीतिक रसूख और सामाजिक जलवा कायम रहता है। आम लोग समझ नहीं पाते कि पूंजी कहां से आई थी और कहां चली गई। कम्पनी बीमार हुई या सोच समझ कर बीमार कर दी गई और पूंजी वहां से निकल कर कहीं और स्थानांतरित हो गई...'गीता' में उदधृत 'आत्मा' की तरह...जो मरती नहीं, बल्कि देह के जीर्ण हो जाने की सूरत में किसी अन्य देह के जन्म के साथ उसमें स्थानांतरित हो जाती है।

यह उत्तर औद्योगिक दौर का 'फाइनांशियलाइज्ड' सिस्टम है जिसमें पूंजी का प्रवाह रहस्यमय तरीके से अपनी दिशा बदल लेता है। कम्पनियां जन्म लेती हैं, मरती हैं और फिर नए रूप में, नई जमीन पर जन्म ले लेती हैं। अक्सर कई कम्पनियां तो कागज पर ही जन्म लेती हैं, कागज पर ही मर जाती हैं और हजारों करोड़ का वारा-न्यारा हो जाता है। इस खेल में राजनीति और कारपोरेट के खिलाड़ियों की आपसी जुगलबंदी आम लोगों की समझ से परे होती है।

ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी के आने के बाद यह सब शुरू हुआ। यह तो आर्थिक उदारीकरण का एक आयाम है जो 1990 के दशक में ही परवान चढ़ने लगा था। लेकिन, मोदी युग में यह खेल खुल कर खेला जाने लगा क्योंकि सत्ता और शर्म में जो दूरी इस दौर में बढ़ी, सत्ता का जो जनविरोधी रूप इस दौर में सामने आया, वह अतीत के किसी भी ऐसे उदाहरण को बौना साबित कर देता है।

जेट एयरवेज की परिणति महज एक पड़ाव है। बीएसएनएल और एमटीएनएल जैसी बड़ी कम्पनियां बर्बादी के कगार पर हैं। उनके इंजीनियर और कर्मचारी सड़कों पर उतर चुके हैं। अभी बहुत कुछ होना बाकी है। जिनके हलक 'मोदी...मोदी...मोदी...मोदी' का जयघोष करते सूखते नहीं थे उन्हें चिलचिलाती धूप में सड़कों पर अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिये 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे लगाते देखना, अपने बाल-बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, उनकी परवरिश की दुहाई देते देखना, धूप में नारे लगाने से सूखते हलक को हाथ में थामे बोतल के पानी से तर करते देखना विस्मयकारी अनुभव है।

मोदी रहें या जाएं, उनके राज में जिन अट्टालिकाओं की दीवारें खोखली हुई हैं उनमें से अनेक का ढहना अभी बाकी है। कुछ का ढह जाना तो अब महज समय की बात है। सार्वजनिक क्षेत्र की दूर संचार कम्पनियों से लेकर कई बैंक तक इस खतरे से जूझ रहे हैं। एयर इंडिया के हालात देश के सामने हैं।

पहले से ही विश्वविद्यालयों की दीवारों में सेंध लग चुकी थी। मोदी की नीतियों ने उनकी जड़ों को हिला कर रख दिया है। अकादमिक प्राचीरों के झड़ते पलस्तर इस देश के नेट-पीएचडी उत्तीर्ण युवाओं के 'एडहॉकिज्म' का शिकार बनने की कहानियां सुना रहे हैं। 'तदर्थ' और 'अतिथि' के रूप में नियुक्ति ही अब अधिकांश नियुक्तियों की प्रकृति है।

त्रासद यह कि स्थायित्व की गरिमा और सुरक्षा से वंचित किये जा रहे हिन्दी पट्टी के बहुत सारे उच्च योग्यताधारी युवा आज की तारीख में भी राजनीति के जातीय ध्रुवीकरण से निर्देशित हो विकल्पहीनता की थोथी दलीलें देते नहीं सकुचाते.. "मोदी... मोदी, 
मोदी...मोदी।" यह वैचारिक अंधकार है जो सर्वत्र पसर चुका है। इस अंधकार में तर्क अप्रासंगिक हैं, चेतना कुंठित है और दृष्टि धुंधली।

भारतीय राजनीति वैचारिक और व्यावहारिक, दोनों स्तरों पर अपने निकृष्टतम दौर में है। सारे दल, तमाम राजनेता इसके जिम्मेवार हैं। लेकिन, नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी सर्वथा अग्राह्य है। क्योंकि, नोटबन्दी की विभीषिका के बाद, कारपोरेट लूट का रिकार्ड तोड़ने के बाद भी मोदी राष्ट्रवाद और धर्म-संस्कृतिवाद की खतरनाक आड़ ले सकते हैं, ले रहे हैं, पुलवामा के शहीदों के नाम पर वोट मांगने की राजनीतिक अनैतिकता का खुलेआम प्रदर्शन कर रहे हैं जबकि अमित शाह बालाकोट में 250 आतंकियों के मारे जाने की नितांत झूठी खबर को चुनावी रैली में राजनीतिक अस्त्र की तरह इस्तेमाल कर चुके हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की इस स्वीकारोक्ति पर कि..."बालाकोट हमले में न कोई पाकिस्तानी सैनिक मरा, न कोई नागरिक"...अमित शाह को कोई शर्म महसूस नहीं होगी न उन चैनलों को कोई लाज आने वाली है जो 350 को मारने की खबरों के शोर से आसमान सिर पर उठाए थे।

मध्यवर्ग चिंतित है किंतु आत्मचिंतन को तैयार नहीं...तब तक, जब तक कि उसके पैरों के नीचे से दरी न खींची जाने लगे। आज कोई बीएसएनएल के इंजीनियर्स से पूछे जो गवाह हैं कि किस तरह जियो के उत्कर्ष की बलिवेदी पर उनके संगठन को जानबूझ कर बर्बाद किया गया। कल तक जेट एयरवेज के कर्मी, जिनमें 90 प्रतिशत से अधिक शहरी मध्यवर्गीय सवर्ण होंगे, किसी राजनीतिक सवाल पर या तो कंधे उचका कर, मुंह बिचका कर 'आई हेट पॉलिटिक्स' बोलते होंगे या मोदी का विकल्प नहीं होने की बात दुहराते होंगे। आज वे आत्म चिंतन कर रहे होंगे क्योंकि सत्य उनके सामने चुनौती बन कर आ खड़ा हुआ है। वे सब अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग हैं। वे समझ रहे होंगे कि उनके संगठन के साथ, उनके करियर के साथ, उनके बच्चों के भविष्य के साथ कौन सा खेल खेला गया है और इस खेल में "मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स" की क्या भूमिका है। और...यह भी कि... कंपनी डूबने का वास्तविक खामियाजा कौन उठा रहा है...नरेश गोयल जैसा कारपोरेट का शातिर खिलाड़ी या उनके जैसे मेहनतकश कर्मचारी। जैसे-जैसे मुक्त आर्थिकी के इस दुष्चक्र का भान उनको होता जाएगा वैसे-वैसे निम्न श्रेणी के श्रमिकों के साथ संघर्षों में उनकी भागीदारी बढ़ती जाएगी। जैसे फ्रांस में बढ़ रही है, हंगरी, नीदरलैंड,फिनलैंड जैसे अन्य यूरोपीय देशों में बढ़ रही है।

वक्त और हालात हर किसी को आत्म चिंतन को विवश करते हैं। समय आएगा जब हिन्दी पट्टी के सवर्ण भी सोचने-समझने को बाध्य होंगे। वह दौर बीत चुका जब उनकी जातीय दबंगई और श्रेष्ठता के अहंकार के सामने राजनीति नतमस्तक होती थी। दौर बहुत आगे निकल चुका है और अपने जड़ अहंकार के साथ वे पीछे छूट चुके हैं। जिस दिन उनके बच्चे इस सत्य को समझ लेंगे कि गांव के अन्य गरीबों की नियति के साथ ही उनकी नियति भी बंधी है उसी दिन उनकी राजनीतिक चेतना का परिष्कार होगा और वे उन कंधों से कंधा मिला कर आगे बढ़ सकेंगे जिनसे उनकी दूरी उन्हें भी कमजोर बनाती है और अन्य गरीबों को भी।

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 ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, April 13, 2019

समष्टिवाद के ध्वजावाहक कामरेड कन्हैया कुमार ------ विजय राजबली माथुर

  



 वह वैचारिक प्रचलित आधार पर खुद को 'नास्तिक ' कहते हैं , किन्तु स्वामी विवेकानंद के अनुसार 'नास्तिक ' वह है जिसका खुद अपने ऊपर विश्वास न हो जबकि 'आस्तिक' वह है जिसका अपने ऊपर पूर्ण विश्वास हो ।  जो लोग खुद पर नहीं किसी अदृश्य पर विश्वास करते हैं वे नास्तिक अथवा ढ़ोंगी हैं। हम स्वामी विवेकानंद की परिभाषा के अनुसार कन्हैया को 'पूर्ण आस्तिक ' कह सकते हैं। वह पूर्ण आध्यात्मिक भी हैं क्योंकि अध्यात्म का अर्थ है अध्यन + आत्मा अर्थात अपनी आत्मा का अध्यन ; कन्हैया ने प्रत्येक भाषण में खुद अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति करने की बात कही है। स्पष्ट है वह अपना आत्मावलोकन करके ही वेदना व्यक्त कर रहे हैं।  जो लोग पाखंड और आडंबर को अध्यात्म बताते हैं वे भी वस्तुतः ढ़ोंगी ही हैं।

मानव जीवन को 'सुंदर, सुखद व समृद्ध' बनाने का मार्ग बताने वाला विज्ञान ही ज्योतिष है और इसका 'रेखा गणितीय' विश्लेषण 'हस्त रेखा विज्ञान' कहलाता है। जो लोग बाएँ हाथ को स्त्रियों  का व दायें को पुरुषों का बता कर विश्लेषण करते हैं वे पूर्णत :  सही विश्लेषण प्रस्तुत नहीं करते हैं। इसी प्रकार जो लोग बाएँ हाथ को बेरोजगारों व दायें हाथ को सरोजगारों के लिए निर्धारित करते हैं वे भी अपूर्ण निष्कर्ष तक ही पहुँचते हैं।

वस्तुतः स्त्री-पुरुष एवं रोजगार-बेरोजगार का विभेद किए बगैर बाएँ हाथ से किसी भी मनुष्य के  जन्मगत 'प्राब्ध'/भाग्य/LUCK का ज्ञान प्राप्त होता है और उसके दायें हाथ से व्यावहारिक तौर पर  कर्मगत उसने जो प्राप्त/अर्जित किया है उसका ज्ञान होता है 



उपरोक्त चित्रों में कन्हैया का बायाँ हाथ जितना स्पष्ट है उतना ही दायाँ हाथ भी स्पष्ट है। उनकी भाग्य रेखा दोनों हाथों में मणिबन्ध से प्रारम्भ होकर शनि पर्वत तक स्पष्ट पहुँच रही है। उसकी एक शाखा की पहुँच गुरु पर्वत पर भी है। हस्तरेखा विज्ञान में ऐसी भाग्यरेखा 'सर्व-श्रेष्ठ' होती है। लाल बहादुर शास्त्री जी के हाथों में भी ऐसी ही भाग्यरेखा थी। ऐसी भाग्यरेखा के संबंध में डॉ नारायण दत्त श्रीमाली का निष्कर्ष है  :
" ऐसा व्यक्ति अपने देश की भलाई में अपने आप को न्योछावर कर देता है। यह व्यक्ति सबका प्रिय, स्वाभिमानी, दानी, सबकी सुनने वाला होता है। यह व्यक्ति उन्मुक्त सिंह की तरह अपने विचार धड़ल्ले के साथ व्यक्त करने वाला होता है। "

उनके प्रत्येक भाषण से डॉ श्रीमाँली के इस निष्कर्ष की स्पष्ट परिपुष्टि हो रही है। बड़ी बेबाकी के साथ उन्होने गाँव से लेकर समाज,राष्ट्र व विश्व की वृहद चर्चा की है और शक्तिशाली व बर्बर सरकार के उत्पीड़न की परवाह किए बगैर अपने विचारों को सुस्पष्ट तौर पर रखा है।

कन्हैया के दोनों हाथों में सभी ग्रहों के पर्वत उन्नत हैं अतः उनको पूर्ण फल प्राप्त होगा। मूल भाग्यरेखा के साथ-साथ चंद्र पर्वत से एक और सहायक भाग्यरेखा भी आ रही है अर्थात विवाहोपरांत उनका भाग्य और गति प्राप्त करेगा। उनकी हृदय रेखा स्पष्टतः गुरु पर्वत के नीचे पहुँच रही है जिसका फल उनकी इस सहृदयता में सबके सामने है कि, वह अपने आक्रांताओं के प्रति भी निर्मम नहीं उदार हैं।





हालांकि उन पर शारीरिक व मानसिक रूप से निष्ठुर प्रहार किए गए हैं उनको 'देशद्रोही' तक कह  कर उनके प्रति घृणा को प्रचारित किया गया है। परंतु उन्होने अपना संयम नहीं खोया है। स्वामी विवेकानंद का कहना है कि प्रारम्भ में जिस व्यक्ति या  पदार्थ का जितना तीव्र विरोध होता है कालांतर में वह व्यक्ति या पदार्थ उतना ही 'लोकप्रिय ' होता है।
15-03-2016 

15 मार्च  2016 के संसद मार्च व जनसभा  में भाकपा के राष्ट्रीय सचिव कामरेड डी राजा साहब व माकपा के राष्ट्रीय महासचिव कामरेड सीताराम येचूरी साहब की उपस्थिती कन्हैया की जनप्रियता के ही कारण थी। प्रख्यात लेखिका अरुंधति राय जी व अन्य महानुभाव उनके वैचारिक महत्व के कारण ही शामिल हुये हैं। 
उनके हाथों में मस्तिष्क रेखा स्पष्ट व गहरी है और चंद्र पर्वत की ओर ढलवां झुकी हुई है जो एक आदर्श रूप में उपस्थित है और इसी के कारण वह प्रत्येक बात को गहराई से अध्यन  करके सुस्पष्ट रूप में सार्वजनिक रूप से रखने में समर्थ रहते हैं। इसी कारण शक्तिशाली सर्वोच्च सत्ता से टकरा कर उनकी जनप्रियता उच्च सोपान को छू सकी है। 

उनकी गिरफ्तारी के समय की प्रश्न कुंडली प्राप्त करने पर ज्ञात होता है कि, उस समय नौ में से सात ग्रह उनके अनुकूल थे। केवल सूर्य तथा शनि ग्रह उनके प्रतिकूल थे। सूर्य की प्रतिकूलता के कारण उनका 'मान-भंग' हुआ जो उन पर 'देशद्रोह' का झूठा आरोप थोपा गया और शनि की प्रतिकूलता के कारण उनको कारागार की यात्रा करनी पड़ी। जैसा की न्यूज़ लाउंड्री को दिये साक्षात्कार में उन्होने बताया भी है कि 'जांच में सहयोग' करने के नाम पर धोखे में रख कर उनको गिरफ्तार किया गया यह भी शनि का ही प्रकोप रहा है। शुक्र व बुध ग्रहों के शक्तिशाली होने के कारण उनका बुद्धि,ज्ञान,विवेक संतुलित रहा एवं उनको कानूविदों का भी सहयोग प्राप्त हुआ जिससे वह अन्तरिम रूप से ही सही रिहा हो सके। शनि के स्त्रीकारक ग्रह होने के कारण जहां उनकी गिरफ्तारी में महिला मंत्री का हाथ रहा वहीं रिहाई में भी महिला न्यायाधीश का हाथ रहा है। स्त्रीकारक ग्रह शुक्र  के सर्वाधिक शक्तिशाली होने व माँ के भाव में होने के कारण सर्वप्रथम उनको अपनी माता जी का पूर्ण आशीर्वाद मिला है। उनकी अनुपस्थिति में महिला उपाध्यक्ष ने ही कुशलतापूर्वक उनके कार्यों का निष्पादन व आंदोलन का संचालन किया है। गुरु,राहू और केतू ग्रह भी उनको सुख दिलाने व हमलों से बचाने में समर्थ रहे हैं बल्कि यदि कहें कि सरकार का दांव सरकार को ही उल्टा पड़ने में इन सब ग्रहों की प्रमुख भूमिका रही है तो गलत न होगा । 
सिर्फ यह कह देने से कि हम नहीं मानते ग्रहों के प्रभाव से अछूता नहीं रहा जा सकता है। कन्हैया का इस समय जनता पर अनुकूल प्रभाव है और यदि वह जनता को सामाजिक रूप से जागरूक करने को कहें कि सरकार और उसके समर्थक अधार्मिक तत्व हैं जबकि वह जनता के धर्म की रक्षा का युद्ध लड़ रहे हैं। वस्तुतः 'धर्म' शब्द की व्युत्पति 'धृति' धातु से हुई है जिसका अर्थ है धारण करना। अर्थात मानव शरीर व समाज को धारण करने हेतु आवश्यक तत्व ही 'धर्म' हैं , यथा-
सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। इनका पालन ही धर्म है बाकी सब ढोंग-पाखंड-आडंबर है। 
यही उपयुक्त समय है जब जनता को समझाया जा सकता है कि, 'कृणवनतो विश्वमार्यम ' अर्थात सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने वाला समष्टिवाद ही आज का साम्यवाद है जो विश्व के  मेहनतकशों  को एकजुट करने की बात उठाता है और उसका विरोध करने वाले ही वस्तुतः देशद्रोही हैं। 

हमारी शुभकामनायें  सदैव  कामरेड कन्हैया कुमार के साथ हैं।
https://communistvijai.blogspot.com/2016/03/blog-post_18.html 
सर्व- प्रथम प्रकाशित 
Friday, 18 March 2016

प्रारब्ध के धनी व विचारों से समृद्ध कन्हैया कुमार ------ विजय राजबली माथुर



~विजय राजबली माथुर ©

Friday, April 12, 2019

हमारे लोकतंत्र को बचाएं ------ राम हर्ष पटेल


Ram Harsh Patel
9 mins
*मोदी का पूरा रिपोर्ट कार्ड *  :

आप यह देखकर चौंक जाएंगे कि पिछले 5 वर्षों में भारत कैसे बदल गया है, इसमे अगर कुछ भी गलत लगे तो बताएं...अन्यथा इस सच को स्वीकार करें..

*1* भारत अब उच्चतम बेरोजगारी दर से पीड़ित है *(NSSO डेटा)*

*2* दुनिया के सभी शीर्ष 10 सबसे प्रदूषित शहर अब भारत में हैं *(WHO डेटा)*

*3* भारतीय सैनिकों की शहीद की संख्या 30 वर्षों में सबसे अधिक है *(वाशिंगटन पोस्ट)*

*4* भारत में अब 80 वर्षों में सबसे अधिक आय असमानता है *(क्रेडिट सुइस रिपोर्ट)*

*5* भारत महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे खराब देश बन गया है *(थॉमस रॉयटर्स सर्वे)*

*6* उग्रवाद में शामिल होने वाले कश्मीरी युवा इन वर्षों में सबसे ज्यादा हैं *(भारतीय सेना के आंकड़े)*

*7*.इस बार भारतीयों किसानों को पिछले 18 साल में सबसे खराब कीमत का सामना करना पड़ा *(WPI डेटा)*

*8* मोदी के पीएम बनने के बाद अब तक की सबसे ज्यादा गाय से जुड़ी हिंसा और रिकॉर्ड पर मॉबलिंचिंग की घटनाएं हुई *(इंडिया स्पेंड डेटा)*

*9* भारत अब विश्व का दूसरा सबसे असमान देश है *(ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट)*

*10* भारतीय रुपया अब एशिया की सबसे खराब प्रदर्शन वाली मुद्रा *(मार्केट डेटा)* है

*11* भारत पर्यावरण संरक्षण में विश्व का तीसरा सबसे बुरा देश बन गया है *(EPI 2018)*

*12* भारत के इतिहास में पहली बार विदेशी धन और भ्रष्टाचार को वैध बनाया गया है *(वित्त विधेयक २०१ in)*

*13* हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री 70 वर्षों में कम से कम जवाबदेह प्रधानमंत्री हैं *(प्रथम पीएम 0 प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए)*

*14* भारत के इतिहास में पहली बार, CBI बनाम CBI, RBI बनाम Govt, SC बनाम Govt के झगड़े इसलिए हुए क्योंकि मोदी सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर नियंत्रण चाहते थे

*15* भारत के इतिहास में पहली बार, सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि ”लोकतंत्र खतरे में है, हमें काम नही करने दिया जा रहा”

*16*. भारत के इतिहास में पहली बार, रक्षा मंत्रालय कार्यालय से चोरी हुए शीर्ष गुप्त रक्षा दस्तावेज (राफेल)

*17*.पिछले 70 सालों में असहिष्णुता और धार्मिक अतिवाद सबसे ज्यादा है *(व्यक्तिगत अवलोकन क्योंकि इसके लिए कोई डेटा मौजूद नहीं है )*

*18.भारतीय मीडिया अब तक के वर्षों में सबसे खराब है *(व्यक्तिगत अवलोकन)*

*19*.भारत के इतिहास में पहली बार, अगर आप मोदी सरकार की आलोचना करते हैं, तो आप पर देशद्रोही का लेबल लगता हे जो की बहुत शर्मनाक है

इस संदेश में जो कुछ भी कहा गया है वह जुमला नहीं है। ऊपर दिया गया सभी डेटा 100% सत्यापित फैक्ट्स  है। आप किसी भी बिंदु पर एक Google खोज करके उन्हें स्वयं सत्यापित कर सकते हैं। हमारे भारत के साथ जो हुआ है उसकी वास्तविकता यही है।

मोदी सरकार पिछले 70 वर्षों में सबसे खराब भारत सरकार है।

कुछ लोग कहते हैं कि 2019 का चुनाव भारत में होने वाला आखिरी चुनाव होगा। क्योंकि अगर मोदी इस बार जीतते हैं, तो वह हमारे लोकतंत्र के सभी संस्थानों को नियंत्रित करना चाहते हैं और एक तानाशाह बन जाएंगे। आज *"चोर" और "चौकीदार" की बहस के बीच रोज़ी-रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, भ्रष्टाचार, कालाधन, नोटबंदी, रोजगार, महंगाई आदि सभी मुद्दें उड़न छू हो गये।

लेकिन ये तय है कि जब देश को बर्बाद करने वालों की सूची तैयार होगी तब इन दो वर्गों का नाम सबसे ऊपर होगा
1.बिकाऊ मीडिया
2. मूर्ख अंधभक्त

*इस सरकार की सुखद बात यही रही कि नाली से गैस, बतख से ऑक्सीजन, गोबर से कोहिनूर, रोजगार में पकौड़े इतनी मनोरंजक सरकार थी कि 5 साल कैसे कट गये पता ही नहीं चला..*

डरें मत, इस संदेश को साझा करें।

हमारे लोकतंत्र को बचाएं।

https://www.facebook.com/ramharsh.patel/posts/2087640334685472
~विजय राजबली माथुर ©

Wednesday, April 3, 2019

90 के बाद की आर्थिक नीतियों की राजनीति का रास्ता बदलने का संकेत ------ रवीश कुमार


Page Liked · April 8, 2017 · 
03-04-2019 
धंधेबाज़ मीडिया मालिकों से भिड़ेगी, कोर्ट ऑफ अपील बनाएगी, इलेक्टोरल बान्ड खत्म कर देगी कांग्रेस

कांग्रेस का घोषणा पत्र 90 के बाद की आर्थिक नीतियों की राजनीति का रास्ता बदलने का संकेत दे रहा है। उदारीकरण की नीति की संभावनाएं अब सीमित हो चुकी हैं। इसमें पिछले दस साल से ऐसा कुछ नहीं दिखा जिससे लगे कि पहले की तरह ज़्यादा वर्गों को अब यह लाभ दे सकती है। बल्कि सारे आंकड़े उल्टा ही बता रहे हैं। 100 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश में कुल संपत्तियों का 70 फीसदी एक प्रतिशत आबादी के बाद चला गया है। इस एक प्रतिशत ने सुधार के नाम पर राज्य के पास जमा संसाधनों को अपने हित में बटोरा है। आज प्राइवेट जॉब की स्थिति पर चर्चा छेड़ दीजिए, दुखों का आसमान फट पड़ेगा, आप संभाल नहीं पाएंगे। 

हम आज एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं। हमें राज्य के संसाधन, क्षमता और कारपोरेट के अनुभवों का तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए। एक की कीमत पर उसे ध्वस्त करते हुए कारपोरेट का पेट भरने से व्यापक आबादी का भला नहीं हुआ। मोदी राज में कारपोरेट ने अगर नौकरियों का सृजन किया होता तो स्थिति बदतर न होती। मगर अब कारपोरेट के पास सिर्फ टैक्सी और बाइक से डिलिवरी ब्वाय पैदा करने का ही आइडिया बचा है। 

उदारीकरण ने हर तरह से राज्य को खोखला किया है। राज्य ने संसाधनों का विस्तार तो किया मगर क्षमताओं का नहीं। आज राज्य का बजट पहले की तुलना में कई लाख करोड़ का है। लेकिन इनके दम पर राज्य ने जनता की सेवा करने की क्षमता विकसित नहीं की। सरकारी सेक्टर में रोज़गार घट गया। घटिया हो गया। ठेकेदारों की मौज हुई और ठेके पर नौकरी करने वालों के हिस्से सज़ा आई। इस संदर्भ में कांग्रेस का घोषणापत्र राज्य के संसाधनों को राज्य की क्षमता विकसित करने की तरफ जा रहा है। यह नया आइडिया नहीं है मगर यही बेहतर आइडिया है।

कांग्रेस ने 5 करोड़ ग़रीब परिवारों को प्रतिमाह 6000 देने का वादा किया है। मोदी सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण मे यह बात 2016 में आ गई मगर सरकार सोती रही। जब राहुल गांधी ने इसकी चर्चा छेड़ी तो कितने कम समय में 10 करोड़ किसानों को साल में 6000 देने की योजना आ गई। यह प्रमाण है कि आम लोगों का जीवन स्तर बहुत ख़राब है। इतना ख़राब कि उज्ज्वला योजना के तहत सिलेंडर देने पर दोबारा सिलेंडर नहीं ख़रीद पा रहे हैं। सिलेंडर रखा है और बगल में लकड़ी के चूल्हे पर खाना पक रहा है। 

हमने डेढ़ साल की नौकरी सीरीज़ में देखा है। हर राज्य अपराधी हैं। परीक्षा आयोग नौजवानों की ज़िंदगी को बर्बाद करने की योजना हैं। इसका मतलब है कि राहुल गांधी ने इस बात को देख लिया है। एक साल में केंद्र सरकार की 4 लाख नौकरियां भरने का वादा किया है। वो भी चुनाव ख़त्म हो जाने के बाद भरा जाएगा। मोदी सरकार ने पांच साल भर्तियां बंद कर दीं। चुनाव आया तो आनन-फानन में रेलवे की वेकेंसी निकाली। उसके पहले सुप्रीम कोर्ट केंद्र से लेकर राज्यों को फटकारता रहा कि पुलिस बल में 5 लाख पद ख़ाली हैं, इनकी भर्ती का रोड मैप दीजिए। ज़ाहिर है इस बेरोज़गारी को भी सरकार और राज्य सरकारों की आपराधिक लापरवाही ने भी बड़ा किया है। राहुल राज्यों को भी नौकरियां देने के लिए मजबूर करने की बात कर रहे हैं। उन्हें केंद्र से फंड तभी मिलेगा जब वे अपने यहां की बीस लाख नौकरियों को भरेंगे। 

रोज़गार से संबंधित कुछ वादे और भी महत्वपूर्ण हैं। 12 महीने के भीतर अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी के ख़ाली पदों को भरने का वादा किया गया है। आरक्षण को लेकर भ्रांतियां फैलाई जाती हैं मगर यह कभी मिलता नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट थी। 23 आई आई टी में 6043 फैक्लटी में आरक्षित वर्ग के 170 फैकल्टी ही हैं। मात्र तीन प्रतिशत। वही हाल सेंट्रल यूनिवर्सिटी में है। हर जगह है। अगर 12 महीने के भीतर इन पदों को भरा जाएगा तो कई हज़ार नौजवानों को नौकरी मिलेगी। इसके अलावा सर्विस रूल में बदलाव कर केंद्र सरकार की भर्तियों में 33 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात है। 

90 के दशक से यह बात रेखांकित की जा रही है कि न्यायपालिका में अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी, अल्पसंख्यक का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है। कम कहना भी ज़्यादा है। दरअसल नगण्य है। कांग्रेस ने वादा किया है कि वह इसमें सुधार करेगी और उनके प्रतिनिधित्व का स्तर बढ़ाएगी। मोदी सरकार में ग़रीब सवर्णों को आरक्षण मिला है। वो अब देखेंगे कि राज्य कभी उनके आरक्षण को लेकर गंभीर नहीं रहेगा। जब दलित और ओबीसी जैसे राजनीतिक रूप से शक्तिशाली तबके के प्रतिनिधित्व का यह हाल है तो ग़रीब सवर्णों को क्या मिल जाएगा। 

उदारीकरण के बाद भारत में सरकारी उच्च शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया गया। इसमें कांग्रेस के दस साल और बीजेपी के भी वाजपेयी और मोदी के दस साल हैं। देश भर में हज़ारों की संख्या में अजीब-अजीब प्राइवेट संस्थान खोले गए। महंगी फीस के बाद भी इन हज़ारों में से मुश्किल से दस बीस संस्थान भी स्तरीय नहीं हुए। जबकि इन्हें राज्य ने कितना कुछ दिया। किसानों से ज़मीनें लेकर कम दामों पर ज़मीनें दी। बाद ये लोग यूनिवर्सिटी बंद कर उसमें अलग अलग दुकान खोलते रहे। इस प्रक्रिया में चंद लोग ही मज़बूत हुए। इसके पैसे से राज्य सभा और लोकसभा का टिकट ख़रीद कर संसद में पहुंच गए। 

ज़िलों और कस्बों में कालेज को ध्वस्त करने का आर्थिक बोझ वहां के नौजवान ने उठाया। उनकी योग्यता का विस्तार नहीं हुआ। जिससे कम कमाने लायक हुए और अगर राजधानियों और दिल्ली तक आए तो उस पढ़ाई के लिए लाखों खर्च करना पड़ा जिससे वे और ग़रीब हुए। राहुल गांधी ने कहा है कि वे सरकारी कालेजों का नेटवर्क बनाएंगे। शिक्षा पर 6 प्रतिशत ख़र्च करेंगे। यही रास्ता है। गांव कस्बों के नौजवानों को पढ़ाई के दौरान गरीबी से बचाने के लिए इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। 

न्यायपालिका के क्षेत्र में कांग्रेस का घोषणा पत्र नई बहस छेड़ता है। कांग्रेस ने कहा है कि वह देश भर में छह अपील कोर्ट की स्थापना करेगी। राज्यों के हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए देश भर से सभी को दिल्ली नहीं आना होगा। बीच में ही मौजूद इन अपील कोर्ट से उसके मामले का निपटारा हो सकता है। इससे सुप्रीम कोर्ट का इंसाफ और सामान्य लोगों तक पहुंचेगा। क्यों हार्दिक पटेल को अपील के लिए सुप्रीम कोर्ट आना पड़ा ? इसी के तर्ज पर राज्यों के भीतर हाईकोर्ट की बेंच का भौगोलिक विस्तार करने की मांग ज़ोर पकड़ सकती है । कांग्रेस को यह भी देखना था। मेरठ में अलग बेंच की मांग वाजिब है। इस बात का भी ध्यान रखना था। 

सुप्रीम कोर्ट को संवैधानिक कोर्ट का दर्जा देने की बात है। अलग अलग बेंचों से गुज़रते हुए संवैधानिक मामले बहुत समय लेते हैं। मौलिक अधिकार की व्याख्या हो या राम मंदिर का ही मामला। मामला छोटी बेंच से बड़ी बेंच और उससे भी बड़ी बेंच में घूमते रहता है और अलग अलग व्याख्याएं सामने आती रहती हैं। आपने देखा होगा कि अमरीका के सुप्रीम कोर्ट में सारे जज एक साथ बैठते हैं और मामले को सुनकर निपटाते हैं। संवैधानिक मामलों का फैसला इसी तरह से होना चाहिए। यह बहस पुरानी है मगर कांग्रेस ने वादा कर यह संकेत दिया है कि वह राज्य और न्यायपालिका के ढांचे में बदलाव करना चाहती है। 

कांग्रेस ने 17 वीं लोकसभा के पहले ही सत्र में उन्मादी भीड़ द्वारा आगजनी, हत्या जैसे नफरत भरे अपराधों की रोकथाम और दंडित करने के लिए नया कानून बनाने का वादा किया है। कांग्रेस का यह वादा साहसिक है कि वह मोदी सरकार की बनाई गई इलेक्टोरल बान्ड को बंद कर देगी। यह स्कीम अपारदर्शी है। पता नहीं चलता कि किन लोगों ने बीजेपी को 1000 करोड़ से ज्यादा का चंदा दिया है। सारी बहस थी कि चंदा देने वाले का नाम पारदर्शी हो, मगर कानून बना उल्टा। इसके अलावा कांग्रेस ने राष्ट्रीय चुनाव कोष स्थापित करने का वादा किया है। जिसमें कोई भी योगदान कर सकता है। बेहतर है इन सब पर चर्चा हो। 

मेरे लिहाज़ से कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में मीडिया को लेकर जो वादा कर दिया है उस पर ग़ौर किया जाना चाहिए। अभी तेल कंपनी वाला सौ चैनल खरीद लेता है। खनन कंपनी वाला रातों रात एक चैनल खड़ा करता है, चाटुकारिता करता है और सरकार से लाभ लेकर चैनल बंद कर गायब हो जाता है। इसे क्रास ओनरशिप कहते हैं। इस बीमारी के कारण एक ही औद्योगिक घराने का अलग पार्टी की राज्य में खुशामद कर रहा है तो दूसरी पार्टी की सरकार के खिलाफ अभियान चला रहा है। पत्रकारिता में आया हुआ संकट किसी एंकर से नहीं सुलझेगा। क्रास ओनरशिप की बीमारी को दूर करने से होगा। 

मीडिया इस बहस को ही आगे नहीं बढ़ाएगा। यह बहस होगी तो आम जनता को इसके काले धंधे का पैटर्न पता चल जाएगा। कांग्रेस ने कहा है कि मीडिया में "एकाधिकार रोकने के लिए कानून पारित करेगी ताकि विभिन्न क्षेत्रों के क्रॉस स्वामित्व तथा अन्य व्यवसायिक संगठनों द्वारा मीडिया पर नियंत्रण न किया जा सके।" आज एक बिजनेस घराने के पास दर्जनों चैनल हो गए हैं। जनता की आवाज़ को दबाने और सरकार के बकवास को जनता पर दिन रात थोपने का काम इन चैनलों और अखबारों से हो रहा है। अगर आप भाजपा के समर्थक हैं और कांग्रेस के घोषणा पत्र से सहमत नहीं हैं तो भी इस पहलू की चर्चा ज़ोर ज़ोर से कीजिए ताकि मीडिया में बदलाव आए। 

2008 में कांग्रेस ने यह संकट देख लिया था, उस पर रिपोर्ट तैयार की गई मगर कुछ नहीं किया। 2014 के बाद कांग्रेस ने इस संकट को और गहरे तरीके से देख लिया है। पांच साल में मीडिया के ज़रिए विपक्ष को ख़त्म किया गया। उसका कारण यही क्रॉस स्वामित्व था। अब कांग्रेस को समझ आ गया है। मगर क्या वह उन बड़े औद्योगिक घरानों से टकरा पाएगी जिनका देश की राजनीति पर कब्ज़ा हो गया है। वे नेताओं के दादा हो गए हैं। प्रधानमंत्री तक उनके सामने मजबूर लगते हैं। मेरी बात याद रखिएगा। कांग्रेस भले वादा कर कुछ न कर पाए, मगर यह एक ऐसा ख़तरा है जिसे दूर करने के लिए आज न कल भारत की जनता को खड़ा होना पड़ेगा। 

मैं मीडिया में रहूं या न रहूं मगर ये दिन आएगा। जनता को अपनी आवाज़ के लिए मीडिया से संघर्ष करना पड़ेगा। मैं राहुल गांधी को इस एक मोर्चे पर लड़ते हुए देखना चाहता हूं। भले वे हार जाएं मगर अपने घोषणा पत्र में किए हुए वादे को जनता के बीच पहुंचा दें और बड़ा मुद्दा बना दें ।आप भी कांग्रेस पर दबाव डालें। रोज़ उसे इस वादे की याद दिलाएं। भारत का भला होगा। आपका भला होगा।


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 ~विजय राजबली माथुर ©

Tuesday, April 2, 2019

जमीन की उपज पर सभी का अधिकार है ------ अश्वनि शर्मा

 ****** याद रखना जरूरी है कि हमारे समाज की बुनियाद सामाजिक न्याय पर टिकी है। यदि समाज में शांति और सौहार्द्र की रूपरेखा बुनी गई है तो ऐसा करने वालों को हमें उनका हक देना होगा । ******


घुमंतू समाज को कब मिलेगी घोषणापत्रों में जगह
------ अश्वनि शर्मा

2011 की जनगणना के अनुसार देश में 840 घुमंतू समुदाय हैं। रैनके आयोग की रिपोर्ट कहती है कि इस समुदाय की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 10 फीसदी है।  
चुनावी प्रचार के शोरगुल के बीच सभी दल अपने वोट बैंक को लुभाने के लिए तरह-तरह के दावे और वादे कर रहे हैं। लेकिन लोकतंत्र के इस सबसे बड़े त्योहार में हर बार की तरह इस बार भी घुमंतू समाज के लिए कुछ नहीं है। 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे देश में 840 घुमंतू समुदाय हैं। इसके अंतर्गत नट, भाट, भोपा, गड़िया लुहार, कालबेलिया, कंजर, बावरिया, गवारिया, बहुरूपिया, जागा, जोगी, सांसी, मारवाड़ी इत्यादि आते हैं। रैनके आयोग की रिपोर्ट कहती है कि घुमंतू समुदाय की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 10 फीसदी है। इसके बावजूद तमाम राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में इनकी उपस्थिति का कोई संकेत नहीं मिलता।

यह हमारे लोकतंत्र की एक विडंबना है। यहां पर संगठित और जागरूक की चलती है। चूंकि घुमंतू समाज अभी न जागरूक है और न ही संगठित इसलिए सरकारें और राजनीतिक पार्टियां उसकी कुछ फिक्र करना जरूरी नहीं समझतीं। हालांकि घुमंतू समाज को चलाने वाले ऊंचे दर्जे के लोग रहे हैं। इनसे हमारा जीवन संबल पाता था। ये हमें एक-दूसरे से जोड़ने का कठिन काम करते रहते थे। स्थानीय संस्कृति के विविध रंगों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक यही पहुंचाते। ये गधों ओर ऊंटों की सहायता से व्यापार और परिवहन का कार्य करते। 

इनकी हमारे साथ बेहतरीन जुगलबंदी हुआ करती थी जिसका आधार इस सोच पर टिका था कि जमीन की उपज पर सभी का अधिकार है। लेकिन जैसे-जैसे हमारा सामाजिक-आर्थिक ढांचा बदला, किसान की हालत बिगड़ी, कृषि का स्तर गिरा वैसे-वैसे यह जुगलबंदी कमजोर पड़ी और ये घुमंतू लोग अपनी ही जमीन पर बेगाने हो गए। फलस्वरूप हुआ यह कि घुमंतुओं के साथ जुड़ा हमारा जीवनचक्र टूट गया। 

रैनके आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 98 फीसदी घुमंतू बिना जमीन रहते हैं, 57 फीसदी के पास रहने के लिए झोपड़ी है, 72 फीसदी के पास अपनी पहचान के दस्तावेज नहीं हैं और 94 फीसदी घुमंतू बीपीएल श्रेणी से बाहर हैं। उन्हें न राशन मिलता है न ही पेंशन। आए दिन इनके कच्चे घरौंदों को भी ढहा दिया जाता है। यहां तक कि मरने पर इनको श्मशान भूमि भी नसीब नहीं होती।

भले किसी प्रमुख दल या प्रत्याशी ने इन समुदायों के लिए घोषणापत्र निकालने या अपने घोषणापत्र में इनके लिए कुछ जगह निकालने की जरूरत न समझी हो, इनके हालात को देखते हुए कुछ सुझाव जरूर रखे जा सकते हैं जो इन समुदायों के लोगों की दशा और दिशा में बदलाव लाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। 

एक ---  घुमंतू समाज के लिए आवास और पशुबाड़ों की व्यवस्था की जाए। इसके लिए केरल और आंध्रप्रदेश की तर्ज पर होम स्टेट एक्ट लाया जा सकता है।
 दो ---  घुमंतू समाज के साथ होने वाले अपराधों को एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत लाया जाए।
 तीन ---  घुमंतू समाज के बच्चों के लिए आवासयुक्त स्कूल बने जहां वे आधुनिक शिक्षा के साथ अपनी कला-संस्कृति से जुड़ी बारीकियां भी सीखें।
 चार ---  घुमंतू समाज की कला-संस्कृति को सहेजने के लिए एक केंद्र बनाया जाए।
 पांच ---  घुमंतू समाज की कला को बचाना है तो इनकी जीवन प्रक्रिया को बचाने की जुगत की जाए। इससे इनके परंपरागत ज्ञान की पूंजी भी बची रहेगी।


बात चुनावों की या घोषणापत्र की नहीं, पुरखों से सीखे समाज के सहज और उपयोगी ज्ञान की अवहेलना की है, उस परंपरा के अंत की है जिसकी बुनियाद पर हम टिके हैं। हालांकि हमें इस ज्ञान का कोई मोल नहीं चुकाना है, फिर भी हम उसकी जड़ में मट्ठा डाल रहे हैं। याद रखना जरूरी है कि हमारे समाज की बुनियाद सामाजिक न्याय पर टिकी है। यदि समाज में शांति और सौहार्द्र की रूपरेखा बुनी गई है तो ऐसा करने वालों को हमें उनका हक देना होगा। संस्कृति को ऊंट और सारंगी तक सीमित करके हम न तो संस्कृति को बचा पाएंगे और न सदियों से चले आ रहे अपने समाज के सत्व को सुरक्षित रख पाएंगे।

http://epaper.navbharattimes.com/details/25615-77096-2.html


 ~विजय राजबली माथुर ©
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02-04-2019