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Friday, November 11, 2016

बड़े आराम से ‘अकूत’ नोट सोने में बदल गया और बीमार व्यक्ति के लिए दवाई लेने वाली महिला दुकानदार से रात भर झगडती रही ------मंजुल भारद्वाज

नोट बदलने का खेल एक शुद्ध राजनैतिक छलावा !
-मंजुल भारद्वाज

काला धन, काला धन, काला धन ... ये संकल्पना ही सिरे से गलत है . दरअसल राजनैतिक पैतरे बाज़ी का यही कमाल है और बाबु किस्म के जीव इस पैतरे बाज़ी में अपना करियर चुनते हैं जिसे प्रोफेशन कहते हैं और उन बाबुओं को प्रोफेशनल . साफ़ और सच बात ये है कि पैसा घोषित होता है या अघोषित होता है ..काला या सफेद नहीं होता . लेकिन सारे के सारे जनता को काले पैसे के नाम पर गुमराह कर रहे हैं और बहुमत वाली सरकार उस काले धन को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध और देश भक्त है ..बाकी सब इस बहुमत वाली सरकार की नज़र में क्या है? ये अब कहने की जरूरत नहीं ...
दरसल बहुमत वाली सरकार की सबसे बड़ी दिक्कत ये है की वो “कुछ” करते हुए दिखना चाहती है पर असल में “कुछ” करना नहीं चाहती  और उपर से उद्घोषणा का ग्रांड स्टाइल व्यक्तिवादी तरीका ...जैसे गोया एक तानाशाह की सरकार हो .. ना मंत्री मंडल .. ना सलाहकार ना कोई मन्त्रणा ..बस एक सनक की उठे और  त्यौहार में विलुत्प होती अपनी चर्चा को धमाके से सुर्ख़ियों में लाना ... और ऐलान करना देखो मैं हूँ और ... अब से मेरे हिसाब से चलो ..सुबह लाइन लगाना ..दूध ..सब्जी ..दवाई .. आटा यानी रोज़मर्रा की सारी चीज़ें खरीदते हुए मेरे नाम की माला जपना ...  ऐलान में कहा गया किसी को पता नहीं है की ये निर्णय लिया जा रहा है .. पर पूंजीपतियों ने तो पहले ही 30 दिसम्बर तक का ऐलान कर रखा है अपने मोबाइल और इन्टरनेट नेटवर्क का जिसकी पब्लिसिटी स्वयं “उद्घोषक” कर रहे हैं .
दावा “काला धन” खत्म ..बहुमत वाली सरकार के मुखिया ने कहा “बहनों , भाइयो .. बोरों में पैसे भरके रखें  हैं ..बात सही है ..ख़बरों में ..बोल चाल में .. सामान्य व्यवहार में ये देखने , सुनने में आता है कि राजनेताओं और  सरकारी बाबुओं के घर में ... “बोरों और बक्सों में नोट मिलते हैं”  .. अब इन बक्सों में नोट रखने वाले चंद लोगों के लिए 125 करोड़ जनता की फजीहत . क्योंकि गुड गवर्नेंस , आयकर विभाग , एमनेस्टी स्कीम सब टांय टांय फिस्स ! जरा विश्लेष्ण करें की ये बक्सों में नोट भरकर रखने वाले ... इतने नोट लाते कहाँ से हैं ..उनके पास वो कौन से तरीके हैं जिससे इतना धन उनके पास आता है ? क्या सरकर ने उन तरीकों को बंद किया ? मात्र नोट बदलने से क्या इन बक्सों वालों को फर्क पड़ेगा . जिन लोगों ने पहले वाले नोट दिए थे वही लोग इनको बड़े आराम से नये ‘वाले नोट” पुराने नोटों के बदले दे देंगें . इन अकूत नोट रखने वालों को जल्दबाजी तो है नहीं .. रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए तो उन्होंने ये ‘अकूत’ नोट रखे नहीं हैं . और जैसे ही ‘नोट’ बदलने की घोषणा हुई ..इन ‘अकूत’ नोट रखने वालों ने तुरंत ‘सोना’ खरीद लिया .. रातों रात सोने की और गहनों की दुकान खुली रहे ..बड़े आराम से ‘अकूत’ नोट सोने में बदल गया और बीमार व्यक्ति के लिए दवाई लेने वाली महिला दुकानदार से रात भर झगडती रही .. सरे आम  दलालों के वारे न्यारे .. बस्तियों में, स्टेशन पर .. टोल नाकों पर 500 रुपये के पुराने नोट के बदले ब्लैक में 400 रूपये देने का काम खुलम खुल्ला चला और जिनके पास खाते नहीं है उनके  साथ चल रहा है .. ये आम लोग फिर ठगे गये ...  बहुमत सरकार के गृह राज्य में सरे आम 1500 ( तीन पुराने 500 के नोट)  रूपये के बदले 1000 ( सौ रूपये के 10 नोट) देने का कारबार चला ...दलालों की चांदी ही चांदी...अब आप समझ गए .. आज सुबह बैंक का कर्मचारी अपने ग्राहक से कह रहा था , साहब ये सब चोर चोर मौसेरे भाई हैं ..नोट भी बदल गए और उनकी कीमत भी  ‘सोने’ से और बढ़ गयी .. और आप लोग भीड़ में एक दुसरे पर लाल – पीले हो रहे हो !
ये ‘अकूत’ नोट वाले ‘मेंढक’ की तरह है यानी विषम परिस्थतियों में  हाइबरनेशन में चले जाते हैं . ये नई सरकार आने तक या इसी सरकार की नीति बदलने तक पुराने नोटों को दबा के रख सकते हैं . मज़े की बात ये है कि... बात नोट बदलने की थी तो उसके लिए ‘आपात कालीन’ घोषणा करने की क्या ज़रूरत थी? ये काम तो पहले भी होता रहा है और बैंक करते रहे हैं ! ‘अकूत नोट वालों के पास बेनामी या नामी कारें , बंगलो , फ्लैट , आदि सम्पति होती है उसका क्या? जब नोट बंद करने हैं तो 500 और 2000 के नोट पुनः जारी करने की क्या ज़रूरत है .क्योंकि ऐलान में तर्क दिया गया कि आज 500 और 1000 के नोट का उपयोग 85 प्रतिशत लेन  देन  में हो रहा है . अरे  भाई जान लेना मंहगाई में जहाँ 500 रूपये में दाल और दूध नहीं आता ..वहां 100 रूपये के नोट की क्या औकात ? और दो महीने के बाद 2000 के नोट रखने में ‘बक्से’ कम लगेगें ! सरकार को जब 500 और 1000 के नोट बंद करने थे तो हमेशा के लिए करने थे ..नए नोट ज़ारी करने की क्या ज़रूरत .. अपने ही तर्क को अपने आप सरकार ने खारिज कर दिया है नए 500 और 2000 के नोट जारी कर ! दरअसल ‘कुछ” लोग अर्थ व्यवस्था को ‘आयकर नियमों’ के आईने में  समझ रहे हैं . वो ये भूल गए हैं की ‘अर्थ व्यवस्था’ के व्यापक आयाम हैं और उसमें मनोविज्ञान एवम सामजिक संरचना भी अहम है .
असल बात ये है की बहुमत वाली सरकार के मुखिया ‘अल्प ज्ञान , सतही समझ , गैर समझ , आधी अधूरी समझ और जनता में फैले कनफूजन को बड़ी कुशलता से अपने राजनैतिक फायदे के लिए उपयोग करने में माहिर है . उसने देश भक्ति के नाम पर यही किया है . जैसे जनता में ये आम समझ है की जो पैसा बैंक में है वो सफेद .. और जो हाथ में है वो काला.. अब सारे आम नागरिकों ने अपने 500 और 1000 रुपये के नोटों को  बाकयदा धक्का मुक्की करके ..पसीना बहाकर .. घंटों लाइन में खड़े होकर बैंक से ‘सफेद’ कर लिया . देश वासियों ने बड़ा त्याग किया और बहुमत वाली सरकार के मुखिया ने छलावा ! बहुत जल्द यूपी की चुनाव सभा में ये कहा जाएगा  “ भाइयो , बहनों .. हमने काले धन को बदल दिया .. आप सब ने साथ दिया .. आप सब खुद शामिल हुए ... वैगहरा वैगहरा” जबकि हकीक़त में बदला ‘कुछ’ नहीं ! ये है जुमले बाज़ी !
अब थोडा बात करें की पैसा काला या सफेद नहीं होता .. वो घोषित या अघोषित होता है .. और जनता ये भी समझ ले की नकद पैसा भी सफेद है और बैंक में रखा भी ... क्योंकि एक योग को हथियाए बाबा ‘स्विस बैंक’ में जमा काले धन को लाने की बात कर रहे थे पिछले लोकसभा चुनाव में .. बैंक में भी होता है काला धन .. यानी सरकार के नियमों के अनुसार अघोषित पैसा .. चाहे  वो बैंक में हो या नकद हाथ में .. अब इस नव उदारवाद काल में जब स्वयं ‘विश्व बैंक” एक लुटेरे की तरह काम कर रहा हो .. हमारे अपने बैंक घाटे में चल रहे हों .. बैंकों से अरबो रूपये का  क़र्ज़ लेकर पूंजीपति सरकार के सामने विदेशों में फ़रार हो रहे हों तो क्या जनता को बैंकों पर विश्वास करना चाहिए ? क्या ‘जनता’ को ये बात नहीं समझनी चाहिए की ये सिर्फ राजनैतिक चालबाज़ी है और उसको परेशान करने का एक सरकारी मुखिया का आदेश ! 
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 लेखक का संक्षिप्त परिचय -

“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत के सर्जक व प्रयोगकर्त्ता मंजुल भारद्वाज वह थिएटर शख्सियत हैं, जो राष्ट्रीय चुनौतियों को न सिर्फ स्वीकार करते हैं, बल्कि अपने रंग विचार "थिएटर आफ रेलेवेंस" के माध्यम से वह राष्ट्रीय एजेंडा भी तय करते हैं।
एक अभिनेता के रूप में उन्होंने 16000 से ज्यादा बार मंच से पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।लेखक-निर्देशक के तौर पर 28 से अधिक नाटकों का लेखन और निर्देशन किया है। फेसिलिटेटर के तौर पर इन्होंने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थियेटर ऑफ रेलेवेंस सिद्धांत के तहत 1000 से अधिक नाट्य कार्यशालाओं का संचालन किया है। वे रंगकर्म को जीवन की चुनौतियों के खिलाफ लड़ने वाला हथियार मानते हैं। मंजुल मुंबई में रहते हैं। उन्हें 09820391859 पर संपर्क किया जा सकता है।

Tuesday, May 1, 2012

काम के घंटे हों -चार --- विजय राजबली माथुर


पहली मई 'मजदूर दिवस' पर विशेष :




आज पूरी दुनिया मे हर जाति,संप्रदाय,धर्म के लोग 'मजदूर दिवस' के पर्व को अपने -अपने तरीके से मना रहे हैं। लगभग सवा सौ वर्षों पूर्व अमेरिका के शिकागो शहर मे मजदूरों ने व्यापक प्रदर्शन का आयोजन किया था ,तब से ही आज के दिन को प्रतिवर्ष 'मजदूर दिवस' के रूप मे मनाने की परिपाटी चली आ रही है। वस्तुतः आज का दिन उन शहीद मजदूरों की कुर्बानी को याद करने का दिन है जिन्हों ने अपने साथियों के भविष्य के कल्याण हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया था। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लोभ मे उद्योगपति मजदूरों से 12-12 और 14-14 घंटे काम लेते थे। उनका शोषण -उत्पीड़न तो करते ही थे उन्हें बंधक भी बना लेते थे। समय-समय पर मजदूर संगठित होकर अपने ऊपर हो रहे जुल्मों का विरोध करते थे। व्यापारियो -उद्योगपतियों की समर्थक सत्ता की गोली वर्षा से अनेकों मजदूर शहीद हुये और तभी से मजदूरों का सफ़ेद 'झण्डा' 'लाल' रंग मे तब्दील कर दिया गया जो इन वीरों की शहादत याद दिलाता है। इसी के फलस्वरूप  बाद मे काम के घंटे -8 नियमित किए गए थे।

मजदूरों ने किसानों को भी अपने साथ मिलाया और दुनिया मे उनको पहली सफलता 1917 मे रूस मे मिली भी। रूसी क्रांति का ही असर था कि, भारत आदि कई उपनिवेशों को साम्राज्यवाद से मुक्ति मिली। 1949 मे चीन मे भी मजदूरों की सत्ता की स्थापना हुई। रूस और चीन मे मजदूरों का नेतृत्व करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां जिस तरीके से साम्यवाद को लागू करती रहीं वह त्रुटिपूर्ण रहा। यही कारण है कि 1991 मे रूस से कम्युनिस्ट शासन विदा हो गया और अब वहाँ पुनः पूंजीवादी व्यवस्था लागू है। चीन मे भी कम्युनिस्ट पार्टी ने पूंजीवाद पर चलना चालू कर रखा है।

भारत मे भी आज मजदूर आंदोलन बिखरा हुआ है। मजदूरों के नाम पर पूँजीपतियों ने अपने हितैषी संगठन खड़े करवा लिए हैं जो मजदूर एकता मे बाधा हैं। वैसे भी जाति और धर्म भारत मे मजदूरों के संगठित होने मे बाधक रहे हैं। आबादी तेज़ी से बढ़ी है,वैज्ञानिक प्रगति खूब हुई है परंतु रोजगारों मे छ्टनी भी खूब हुई है। बेरोजगारी और गरीबी के कारण मनुष्यों का जीना दूभर हो गया है। जिन को रोजगार मिला भी है उनका शोषण बहुत बढ़ गया है। श्रम क़ानूनों के मौजूद होते हुये भी कामगारों से आज फिर 12-12 घंटे,14-14 घंटे काम लिया जा रहा है। दूसरी ओर अमीर और अमीर हुआ है। उद्योपातियों के मुनाफे मे बेतहाशा वृद्धि हुई है और मजदूरों का जीना मुहाल हुआ है।

मजदूरों का उत्पीड़न और शोषण बरकरार रखने के लिए उद्योगपतियों-पूँजीपतियों के दलाल-तथाकथित पुरोहित जनता को अधर्म का पाठ धर्म के नाम पर पढ़ा रहे हैं। हमारे कम्युनिस्ट मजदूर नेता धर्म के उसी गलत स्वरूप को धर्म मानते हुये धर्म का कडा विरोध करते हैं। नतीजा यह होता है कि मजदूर और गरीब जनता अधर्मिकों के मकड़-जाल मे उलझ कर रह जाती है।

आज इस मजदूर दिवस पर मजदूरों को संकल्प लेना चाहिए कि अधार्मिक पुरोहितों का पर्दाफाश करके वास्तविक 'धर्म' के मर्म को समझते हुये अपनी मुक्ति हेतु एकजुट संघर्ष करेंगे। बढ़ती बेरोजगारी पर काबू पाने और बेतहाशा मुनाफा ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए काम के घंटे कम करके 'चार' करवाने का संघर्ष प्रारम्भ करना होगा। 8 घंटे के कानूनी प्रविधान को 4 घंटे करने पर तत्काल दुगुने लोगों को रोजगार संभव होगा और वह मुनाफा इस प्रकार चंद हाथों से निकाल कर एक बड़े वर्ग की ज़िंदगी संवार सकेगा।


'काम के घंटे हों-चार 'इस आंदोलन को चलाने के लिए हमारे नेता अपने वेदिक विद्वानों के विचारों को साथ लें तो जनता का भला कर सकेंगे।मथुरावासी विजय सिंह जी का लिखा मेरे स्वर मे यह गीत सुनें और स्पष्ट समझें कियह मजदूर आंदोलन को संगठित करने मे बहुत मददगार होगा। काश नेतृत्व स्वीकार कर सके?






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01-05-2016 

Sunday, February 5, 2012

सठियाने के बाद



(विजय,पूनम एवं यशवन्त माथुर)
अक्सर लोगों को कहते सुना है कि वह या यह सठिया गया है। वैसे लोग किस संदर्भ मे कहते हैं वे ही जानें। परंतु मै समझता हूँ कि जब कोई जीवन के साठ वर्ष पूर्ण कर ले तो उसे सठियाया कहते होंगे। यदि ऐसा ही है तब अब मै भी सठिया गया। मेरा ब्लाग का प्रारम्भिक लेख था-'आठ और साठ  घर मे नहीं'। 02 जून 2010 को ब्लाग मे प्रकाशन से पूर्व यह लेख लखनऊ के एक स्थानीय अखबार मे प्रकाशित हो चुका था। इसके मुताबिक मुझे अब घर छोड़ कर 'वानप्रस्थ'ग्रहण कर लेना चाहिए। परंतु समाज मे व्यावहारिक रूप से आज ऐसी व्यवस्था नहीं है। अतः आज 61वे वर्ष मे प्रवेश के बावजूद घर मे ही मेरी उपस्थिती बरकरार रह गई है। हालांकि मै चाहता हूँ कि घर मे न उलझा रह कर 'राजनीति' और 'लेखन' के माध्यम से समाज सेवा/जन सेवा मे अधिकाधिक अपना समय लगाऊ । यों तो राजनीति मे मै किसी न किसी रूप मे युवावस्था से ही हूँ। 22 वर्ष की अवस्था मे मै 'सारू मजदूर संघ',मेरठ की कार्यकारिणी मे था और कुछ समय कार्यवाहक कोषाध्यक्ष भी रहा था। न चाहते हुये भी 26 वर्ष की अवस्था मे 'होटल मुगल कर्मचारी संघ',आगरा का महामंत्री (SECRETARY GENERAL)बनना पड़ा था। 25 वर्ष की अवस्था मे 'जनता पार्टी'(चंद्रशेखर की अध्यक्षता वाली) का साधारण सदस्य और 28-29 वर्ष की अवस्था मे ए बी बाजपाई की अध्यक्षता वाली 'भाजपा' का सक्रिय सदस्य था। 34 वर्ष की आयु से 'भाकपा' मे आया (42 वर्ष आयु से 54 वर्ष आयु तक मुलायम सिंह की आद्यक्षता वाली 'समाजवादी पार्टी' मे -पूर्वी विधान सभा क्षेत्र ,आगरा का महामंत्री फिर बाद मे डॉ डी.सी .गोयल के महानगर अध्यक्ष बनने पर उनकी नगर कार्यकारिणी मे भी रहा और राज बब्बर से भी पहले 'सपा' छोड़ कर खाली बैठा था कि आगरा-भाकपा के मंत्री के आग्रह पर वापिस 'भकपा'मे लौट आया)और आज 'सठियाते समय' लखनऊ -भाकपा की जिला काउंसिल मे हूँ।

जहां अधिकांश लोगों को कहते सुना जाता है कि राजनीति भले लोगों के लिए नहीं है वहीं इसके ठीक विपरीत मेरा सुदृढ़ अभिमत है कि 'राजनीति' है ही भले लोगों के लिए और राजनीति को 'गंदा' करने के लिए जिम्मेदार हैं तथाकथित 'भद्र जन'जो छुद्र स्वार्थों के कारण राजनीति से दूर रहते है और इसे गंदे लोगों के लिए खाली छोड़ देते हैं। MAN IS A POLITICAL BEING -यह कथन है सुकरात (प्लूटो)का जो अरस्तू (एरिस्टाटल )का गुरु था। अर्थात Man is a social animal -मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है-कहने वाले के गुरु का कहना है कि ' मनुष्य जन्म से ही एक राजनीतिक प्राणी है'। समाँज मे तो मनुष्य जन्म के बाद ही आता है तब जब वह सक्रिय होता है किन्तु राजनीति मे तो वह जन्मते ही शामिल हो जाता है। फिर कैसे 'राजनीति' गंदे लोगों के लिए है?दरअसल ऐसा कहने वाले लोग ही गंदे होते हैं जो समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन नही करना चाहते-उनका मूल मंत्र होता है-मेरा पेट हाऊ मै न जानूँ काऊ ।

आज सठियाते समय मै तो सामान्य से अधिक सक्रिय हूँ अपने शौक(Hobby)-राजनीति मे और लेखन मे भी  क्योंकि अभी हमारे उत्तर प्रदेश मे विधान सभा चुनाव चल रहे हैं। आज से दो सप्ताह बाद हमारे नगर लखनऊ मे मतदान होना है। इस बार हमारी भाकपा ने पूरे प्रदेश मे अपने 55 और सम्पूर्ण बामपंथ ने 115 प्रत्याशी चुनाव मे उतारे हैं एक मजबूत विपक्ष विधानसभा मे बनाने हेतु जो दबे-कुचले,शोषित-उपेक्षित ,किसानों-मजदूरों की समस्याओं पर सदन के भीतर ही सशक्त आवाज बुलंद करेगा। एक मजबूत विपक्ष के आभाव मे सरकारें निरंकुश और भ्रष्ट होती रही हैं। भ्रष्टाचार मुक्त पार्टी-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस बार के चुनावों के माध्यम से सरकार को अंकुश मे रखने का प्रयास कर रही है। सभी भद्र जनों को हमारे इस प्रयास मे सहयोग करना चाहिए। 'एकला चलो रे' सिद्धान्त के अनुसार मै तो इस अभियान मे संलिप्त हूँ ही और इस सठियाने के बाद और अधिक सक्रिय रहने का प्रयास करूंगा।

11 माह की नौकरी करने के बाद स्तीफ़ा मांगे जाने का विरोध करके डटे रहने के कारण 'सारू मजदूर संघ ',मेरठ के कोषाध्यक्ष ने मुझ से कहा था जब अपने लिए संघर्ष कर सकते हो तो सब के भले के लिए यूनियन मे शामिल हो जाओ और पिछ्ले समय से सदस्यता देकर मुझे कार्यकारिणी मे शामिल कर लिया गया था। आगरा मे भी मुझ पर दबाव था कि मै आगे आ कर यूनियन के गठन मे सहयोग दूँ परंतु पहले मै दूर ही रहा। किन्तु 'होटल मुगल कर्मचारी संघ',आगरा का रेजिस्ट्रेशन होने से पूर्व ही महामंत्री का चयन बैंक आफ बरोदा मे DRO के रूप मे हो गया। मँझधार मे छूटी यूनियन का मुझे सीधे महामंत्री घोषित कर दिया गया और फिर बाद मे मुझे पिछले समय से सदस्यता ग्रहण करनी पड़ी थी। जनता पार्टी सरकार बनने के बाद मुगल होटल मे सहयोगी केरल वासी विजय नायर साहब ने एक रुपया लेकर जबर्दस्ती 'जनता पार्टी' की सदस्यता दे दी थी। क्योंकि 'होटल मुगल कर्मचारी संघ',आगरा के रेजिस्ट्रेशन के वक्त बी एम एस नेताओं ने मदद की थी अतः उनके प्रस्ताव को नजरंदाज न कर पाने के कारण 'भाजपा' का सक्रिय सदस्य बनना मजबूरी का सबब था। 25 लोगों से एक-एक रुपया लेकर रसीद बुक जमा कर देने के कारण 'सक्रिय सदस्यता' प्रदान कर दी गई थी। जब किसी से एक पान भी  खाये बगैर ही सबका कार्य सम्पन्न कराया हो तब सीट पर बैठे-बैठे एक-एक रु.की रसीद तो सम्पूर्ण 450 लोगों की काटी जा सकती थी 25 की क्या  कोई बात थी?एक-आध बार बैठकों मे भाग लिया तो समझ आया कि यह-भाजपा  तो व्यापारियों और पोंगापंथियों की पोषक पार्टी है  ,आम जनता के हितों से इसका कोई सरोकार नहीं है । अंदरूनी बैठकों मे इसके नेता और कार्यकर्ता कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ते हैं। अतः गुप-चुप तरीके से अलग हो गया।

होटल मुगल से बर्खास्तगी के विरुद्ध कानूनी लड़ाई लड़ने के वक्त बने संपर्कों के आधार पर 1986 मे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मे शामिल कर लिया गया और बाद मे कोषाध्यक्ष भी रहा। 1994 से 2004 तक समाजवादी पार्टी ,आगरा मे रहा, दो वर्ष निष्क्रिय रहने के बाद वापिस सी पी आई  मे आ गया और 2006 से पुनः भाकपा मे सक्रिय हूँ। 45 वर्ष से 52 वर्ष की आयु तक 'बल्केश्वर-कमलनगर आर्यसमाज',आगरा मे भी सक्रिय रहा और इसकी कार्यकारिणी मे भी शामिल किया गया जिससे एक माह मे ही हट गया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती से शुरू से ही प्रभावित था 11 वर्ष की उम्र मे उनका 'सत्यार्थ प्रकाश' काफी अच्छा लगा था। 17 से 19 वर्ष की आयु के मध्य मेरठ कालेज ,मेरठ के पुस्तकालय मे उनके प्रवचनों का संग्रह-'धर्म और विज्ञान' भी पढ़ा-समझा था और आज भी उनके विचार सर्वोत्कृष्ट लगते हैं। किन्तु महर्षि द्वारा स्थापित संगठन 'आर्यसमाज' अधिकांशतः उनके विचारों के विरोधी संगठन आर एस एस से प्रभावित लोगों के चंगुल मे फंस गया है अतः गुप-चुप तरीके से संगठन से प्रथक्क हो गया। 49  वर्ष से 53 वर्ष की आयु तक 'कायस्थ सभा',आगरा मे भी सक्रिय रहा और इसकी कार्यकारिणी मे तथा कई सचिवों मे से एक सचिव भी रहा। इसका तथा 'अखिल भारतीय कायस्थ महासभा',आगरा का आजीवन सदस्य होते हुये भी इन संगठनों से निष्क्रिय इसलिए हो गया क्योंकि ये संगठन इनको चलाने वाले नेताओं के व्यापारिक हितों का संरक्षण करते हैं न कि आम लोगों का कल्याण। 

कुछ क्या अधिकांश लोगों को यह हास्यास्पद प्रतीत होता है कि मै कम्युनिस्ट पार्टी मे होते हुये भी 'वैदिक'मत का समर्थक कैसे हूँ?कारण यह है कि लोग भी समझते हैं और कम्युनिस्ट खुद भी अपने को धर्म विरोधी कहते हैं। वस्तुतः 'धर्म' को न समझने के कारण ही ऐसा भ्रम बना हुआ है। साधारणतः लोग ढोंग और पाखंड को धर्म कहते हैं और कम्यूनिज़्म इसी का विरोध करता है और स्वामी दयानन्द ने भी इसी का विरोध किया है। यही कारण है कि ठोस आर्यसमाजी को भी कम्युनिस्टों की भांति ही संशय की दृष्टि से देखा जाता है। जबकि वास्तव मे 'मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध' बनाने हेतु दोनों के विचार समान हैं । 'साम्यवाद' जिसे कम्यूनिज़्म कहा जाता है मूल रूप से भारतीय अवधारणा ही है जिसे मैक्स मूलर साहब अपने साथ यहाँ की मूल पांडु लिपियाँ लेकर जर्मनी पहुंचे और वहाँ उनके जर्मन अनुवाद से प्रभावित हो कर कार्ल मार्क्स ने जो निष्कर्ष निकाले वे ही कम्यूनिज़्म के नाम से जाने जाते हैं। सारा का सारा भ्रम साम्राज्यवाद के हितचिंतक संप्रदाय वादी आर एस एस का फैलाया हुआ है। इसी भ्रम को तोड़ना मेरा लक्ष्य है। अधिकाधिक लोगों का कल्याण हो और वे भटकें नहीं इसी विचार को लेकर मै 'हवन विज्ञान' संस्था बनवाना चाहता था और लोगों का हकीकत -सत्य से साक्षात्कार करवाना चाहता था। अपने निकटतम रिशतेदारों (जो मेरे लखनऊ आने के प्रबल विरोधी रहे और अब संबंध तोड़ लिए) के फैलाये कुचक्र के कारण इस विचार को फिलहाल स्थगित रखा है परंतु उम्मीद है कि भविष्य मे सफल हो सकूँगा।


दूसरे शौक लेखन मे 19 वर्ष की आयु मे 'मेरठ कालेज पत्रिका',मे एक लेख 'रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना' के प्रकाशन के साथ ही शामिल हूँ।21 वर्ष की अवस्था मे आगरा जहां अजय इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे घूमने गया था और उनके परिचय से फारवर्ड ब्लाक के एक नेता के अखबार 'युग का चमत्कार' मे पहला लेख-'अंधेरे उजाले' जो महर्षि स्वामी दयानन्द 'सरस्वती'पर था प्रकाशित  हुआ था। आगरा के ही एक अखबार 'पैडलर टाइम्स' मे पहली कविता 'यह महाभारत क्यों होता?' प्रकाशित हुई थी।  सारू स्मेल्टिंग,मेरठ मे अकौण्ट्स विभाग मे होने के कारण पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों से भी वास्ता पड़ता रहता था। 'पी  सी टाइम्स' के संपादक प्रकाश चंद जी मेरे सभी लेख छापने लगे उस वक्त उम्र 22  वर्ष थी। लेखों के आधार पर पत्र के प्रबन्धक मिश्रा जी ने एक बार मुझसे पूछा था कि आपने एम ए 'राजनीति शास्त्र' मे किया है अथवा 'हिन्दी साहित्य' मे? विनम्रता पूर्वक उन्हे समझाना पड़ा कि ,साहब मैंने तो एम ए ही नहीं किया है मात्र बी ए किया है। उन्होने प्रसन्नतापूर्वक कहा था जब भी इधर आना मुझसे मिले बगैर न जाना। उनके निर्देश का मैंने सहर्ष पालन सदैव किया।  

आगरा मे 29 वर्ष की अवस्था से 'सप्त दिवा'साप्ताहिक मे नियमित लेख प्रकाशित होते रहे बाद मे सहायक संपादक तथा उसके बाद उप संपादक के रूप मे भी इससे संबद्ध रहा। 'ब्रह्मपुत्र समाचार' ,आगरा मे 50 वर्ष की आयु से नियमित लेख आदि छपते रहे। 'माथुर सभा','कायस्थ सभा' की मेगजीन्स मे तो लेख छ्पे ही वैश्य समुदाय की 'अग्रमंत्र' त्रैमासिक पत्रिका मे भी उप-संपादक के तौर पर संबद्ध रहकर नियमित लिखता रहा। 58 वर्ष की उम्र मे लखनऊ के एक स्थानीय अखबार मे भी लेख छपे किन्तु जून 2010 से 'क्रांतिस्वर' ब्लाग बन जाने के बाद केवल ब्लाग्स और फेसबुक मे ही लिख रहा हूँ और आगे भी यह शौक बदस्तूर जारी ही रहने की संभावना है।