आदरणीय जी.विश्वनाथ जी,
सादर नमस्ते
आपकी विभिन्न ब्लॉग्स पर तो टिप्पणियाँ पढ़ प्रभावित था ही परन्तु आपने मेरे पुत्र के ब्लौग पर उसके लिए जो टिप्पणियाँ की हैं उनसे काफी ज्ञानार्जन हुआ है,आप की लगभग सभी बातें सही हैं और उन से सहमत हूँ.बल्कि आपने देखा होगा कि असहमति वाले विषयों पर मैं वहां प्रतिवाद करने कि बजाय अपने ब्लौग पर बगैर उसका हवाला दिए ही लिखता हूँ.एक वरिष्ठ पत्रकार महोदय से राष्ट्रीयता पर सहमत नहीं था,हल्का सा ज़िक्र करने पर उन्होंने विदेशी पुस्तकों का हवाला दिया तो मैंने "धन्यवाद" पर वहां बात समाप्त करके यहाँ "ब्रह्मवर्चसी......."में बात को स्पष्ट किया.इसी प्रकार गांधी जी वाले पोस्ट में प्रयोग किया.मैं समझता हूँ आपकी बातों को अन्य लोगों को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए.आप इंजिनीयर होने के नाते बनाने की,निर्माण करने की बातें करते हैं जो पूर्णतः उचित हैं.अभी अयोध्या विवाद गर्म है -मैंने भी एक पोस्ट दिया है; परन्तु यहाँ वेदों के मतानुसार अयोध्या का मंतव्य स्पष्ट कर रहा हूँ और चाहूँगा कि आप यदि कोई त्रुटी हो तो उस पर प्रकाश डालें जिससे कि मैं संशोधन और परिवर्धन कर सकूँ.हांलांकि ये विचार मेरी खोज नहीं हैं विद्वान् प्रो.द्वारा की हुई व्याख्या है.
अथर्ववेद के अध्याय १० के खंड ३ के श्लोक संख्या ३१ में कहा गया है:-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवपूरयोध्या
प्रो.साहब (डा.सोम देव शास्त्री ) ने इस मन्त्र का विश्लेषण इस प्रकार किया है--
यह शरीर देवताओं की ऎसी नगरी है कि उसमे दो आँखें, दो कान, दो नासिका द्वार एक मुंह तथा दो द्वार मल एवं मूत्र विसर्ज्नार्थ हैं.ये कुल नौ द्वार अथार्त दरवाजे हैं जिस अयोध्या नगर में रहता हुआ जीवात्मा अथार्त पुरुष कर्म करता और उनका फल भोगता है.द्वारों के सन्दर्भ में ही इस शरीर को द्वारिकापुरी भी कहा जाता है.
मुझे लगता है कि अगर हम अयोध्या की यह व्याख्या मानें और प्रचारित करें तो जो झगडा अयोध्या में मचा हुआ है उससे बचा जा सकता है.जो आपा धापी और मार काट अयोध्या के नाम पर हो रही है बगैर यह सोचे कि इसका कुफल क्या होगा और कौन भोगेगा.राम तथा कृष्ण तो वेदों के अनुकूल आचरण करते थे और राष्ट्र हित में अपना सर्वस्व न्योछावर करने से भी नहीं चूके थे.आज उन्हीं राम के नाम पर अयोध्या में तथा कृष्ण के नाम पर मथुरा में बावेला मचाया जा रहा है.यह केवल अज्ञानता के कारण नहीं है बल्कि आर्थिक शोषण को मज़बूत करने हेतु राजनैतिक कवच धारण करने की कुचेष्टा है.
हम जो कर्म करते हैं और इस जीवन में उनका सुफल व कुफल भोगने से बच जाता है वही अवशेष अगले जन्म हेतु प्रारब्ध (भाग्य)बन जाता है जिसे अपने कर्मों द्वारा हम अनुकूल या प्रतिकूल बना सकते हैं.किसी जातक के जन्म समय के आधार पर ज्योतिष में गणितीय गणना करके ग्रह नक्षत्रों के फल के आधार पर उसका भविष्य बताते हैं.सही समय का लाभ उठाना चाहिए और खराब समय को वैज्ञानिक उपाय अपना कर सही में बदलना चाहिए.यही ज्योतिष का अभीष्ट है.लेकिन कुछ ढोंगी व पाखंडी जनता को उलटे उस्तरे से मूढ़ कर इस विज्ञान का दुरूपयोग करते हैं वह सर्वथा गलत और निंदनीय है.आज कल नवरात्र चल रहे हैं और लोक में प्रचलित गलत मान्यताओं पर ये भी पाखण्ड से ग्रस्त हैं जबकि श्री श्री रविशंकर के अनुसार :-महिषासुर (अथार्त जड़ता) शुम्भ-निशुम्भ (गर्व और शर्म) और मधु-कैटभ (अत्यधिक राग द्वेष) को नष्ट करने का सन्देश है.मनो ग्रंथियों (रक्त बीजासुर),बेमतलब का वितर्क (चंड-मुंड) और धुंधली दृष्टि (धूम्रलोचन) को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर ही दूर किया जा सकता है.डा.सुरेश चन्द्र मिश्र के अनुसार :-"ओं दुं दुर्गाये नमः" का अर्थ है -द=दैत्य नाश,उं=विध्न नाश,र=रोग नाश,ग=पाप नाश,आ=भय,और शत्रु नाश का तात्पर्य है.
दैत्य = तन मन में छुपे तौर पर रहने वाले शोक,रोग,भव -बंधन,भी,आशंका आदि मनोविकार,शरीर के सामान्य क्रिया कलापों को प्रभावित करने वाले विकार या कीटाणु (Bactarias) जाने अनजाने होने वाले पाप सब तरह के गुप्त प्रकट शत्रु ही दैत्य हैं.
विद्वानों की बातें जनता नहीं सुन रही है जबकि लोभी,ढोंगी मूर्ख बना रहे हैं.
कृपया मार्गदर्शन करें कि सही बातें जनता में कैसे लोकप्रिय बनायी जाएँ.
आप के परिवार में सबों की मंगल कामना करता हूँ उन्हें नमस्ते.
भवदीय
विजय माथुर
Typist -यशवंत
2 comments:
अद्भुत जानकारी --आभार।
बहुत अच्छी जानकारी मिली...धन्यवाद...आने में थोड़ी-सी देर हो गई..कुछ व्यस्त थी....आपके लेखों में जानकारी तो होती ही है...आभार
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