श्री रघुनाथ वैदिक भूषण एटा से आकर वेद-प्राचार कार्यक्रम में जो भजन प्रस्तुत कर रहे थे और जैसा लाउड स्पीकर से सुनायी दे रहा था उसमें कुछ वाक्य इस प्रकार थे :-
बन्दे तू मन के गंदे.-धन दौलत जोड़ कर
नौकर चाकर पास तेरे बड़ा है कारोबार
भरा पूरा बड़ा है तेरा परिवार
करेगा क्या खाली हाथ जाना है सब छोड़ कर.
बन्दे तू मन के गंदे जिसने तुम्हें जन्म दिया
उसका न तूने कभी नाम लिया
जाने किस बात में तू इतना फूल गया
जिससे इतना पाया उस परमेश्वर को तू भूल गया
बन्दे तू मन के गंदे दिन तो कटे धन की धुन में
रात कैसे कटे तू तू जागे टैक्स बचाने की धुन में
पाप में तेरा दिल है तो ईश्वर का मिलना मुश्किल में
बन्दे तू मन के गंदे है तेरी तो जगह जहन्नुम में.
आत्मा ,मन एवं शरीर का समन्वय ही मनुष्य है.शरीर सृजन का आरम्भ अंतःकरण से होता है जिसमें चेतना(आत्मा) प्रकट होती है.बुद्धी एवं अहंकार के विकास के कारण वासना का उदय होता है जिसके संकल्प से शरीर रचना का कार्य आरम्भ होता है.वासना एवं संकल्प का नाम ही 'मन' है जो भौतिक (जड़) पदार्थों से सामग्री लेकर कारण शरीर का निर्माण करता है.पहले इसके विकास से 'सूक्ष्म शरीर ' बनता है जो बाद में 'स्थूल शरीर' का रूप लेता है.अर्थात 'कारण' ,'सूक्ष्म 'व 'स्थूल'शरीर केवल मन की वासना के कारण बनते हैं.'क्रिया' एवं 'भोग' स्थूल शरीर से होते हैं जिनका कारण मन ही है.इन्हीं क्रियाओं से संस्कार निर्मित होकर मन में ही संग्रहीत होते हैं जो भावी जीवन का कारण बनते हैं.'मन'का यही चक्र अनंत जीवन तक चलता रहता है.जीवन की समस्त क्रियाओं का कारण मन और माध्यम शरीर है.शरीर 'मन' की इच्छानुसार ही समस्त कर्म करता रहता है.शरीर,मन एवं आत्मा अभिन्न हैं.'दृश्य आत्मा ' ही शरीर है और 'अदृश्य शरीर' ही आत्मा है .मन के ही कारण तीन रूप प्रतीत होते हैं.
भौतिक शरीर-पंचभूतों से निर्मित है और जड़ होने के कारण क्रिया या व्यवस्था नहीं कर सकता है.(पंचभूत =भूमि,गगन,वायु,अग्नि,नीर).
मन-शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कड़ी है जो जड़ पदार्थ और चेतन आत्मा के संयोग से निर्मित है.
आत्मा-ज्ञान एवं क्रिया की शक्ति का एकमात्र कारण है परन्तु स्वंय कोई क्रिया नहीं करता.
मन को पहचानें :-
जड़ पदार्थों से निर्मित होने के कारण भोगों कामनाओं,वासनाओं,इच्छाओं के माध्यम से लोभ,मोह,घृणा,राग,द्वेष ०को उत्पन्न करता है किन्तु सत्संग,स्वाध्याय ,ईश्वर प्रेरणा,गुरु कृपा से आत्मिक स्वरूप जाग्रत हो सकता है.मन की संरचना में 'सत्व,रज एवं तम' की प्राकृतिक शक्तियां विद्यमान हैं. सत्व और तंम तो स्थिर रहते हैं जबकि रज में गति होती है.जब रज की गति सत्व की और हो जाए तो सत्व तत्व की प्रधानता हो जाती है और शुभ कर्म संपादित होते है तथा जब रज की गति तंम की और हो जाए तो तामसिक गुणों की वृद्धी हो जाती है और बुरे कार्य संपन्न होते हैं. मन की अभिव्यक्ति चार प्रकार की वाणी से होती है-(१) बेखरी -बोलकर शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति देना,(२)मध्यमा -शारीरिक हाव-भावों को अभिव्यक्त करना,(३)पश्यन्ति-प्रेम,करुना,दया,अहिंसा आदि ह्रदय में उत्पन्न सूक्ष्म तरंगों द्वारा जिन्हें दूसरा ह्रदय ग्रहण कर लेता है और (४)परा-यह आत्मा की वाणी है और इसे शून्यावस्था में सुना जा सकता है.
खाना-पीना,उठना-बैठना,चलना-फिरना,कार्य करना,सेवा-व्यवसाय,रूचि कार्य,सामजिक,राजनीतिक,बुरे व अनैतिक कार्य,कला-संस्कृत,साहित्य,विज्ञान का विकास और मोक्ष प्राप्ति की साधना मनुष्य शरीर द्वारा तो करता है परन्तु उनकी उत्पत्ति मन द्वारा ही होती है.मन की स्वीकृति के बिना न सत्संग होता है न स्त्री संग,संतानोत्पत्ति का कारण भी मन है.हत्या-बलात्कार,सेवा-सुश्रूषा मन की ही उपज हैं.सभी विचार सर्व-प्रथम मन में उपजते हैं तभी कोई शारीरिक कर्म होते हैं.समस्त कर्मों का कारण मन है अर्थात मन ही मनुष्य है ,मनन करने के कारण ही यह प्राणी मनुष्य है और यही जिन्दगी का रहस्य है.
मन को शुद्ध करने ,बलिष्ठ बनाने,सद्कर्मों में लगाने हेतु वेदों में यह छः मन्त्र बताये गए है जिनका श्री मराल जी द्वारा किया गया भावानुवाद आप भी सुन सकते हैं-