Wednesday, April 20, 2011

समाज का ऐतिहासिक विकासक्रम


सप्तदिवा साप्ताहिक,आगरा के ०४ -१० फरवरी ,१९८९ अंक में पूर्व प्रकाशित

परस्पर संबंधों का ताना-बाना ही समाज है और मनुष्य जन्म से ही एक सामाजिक प्राणी है.लगभग दस लाख वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर जब मनुष्य का उद्भव हुआ तो प्रारम्भ में वह समूह बना कर जहां प्राकृतिक सुविधाएं मिलती थीं -निवास करता था और एक स्थान पर सुविधाएं समाप्त होते ही अन्य स्थान पर विचरण करता था.मनुष्य समाज में उस समय विवाह संस्था नहीं थी और समाज स्त्री सत्तात्मक था.स्त्री से ही संतान की पहचान होती थी.मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती प्रकृति से होने के कारण समाज में किसी प्रकार की कोई समस्या न थी.यह शोषण विहीन उन्मुक्त समाज था,जिसे इतिहास में आदिम साम्यवाद अर्थात सतयुग के नाम से जाना जाता है.इस युग में कोई किसी का शोषण न करता था,न चोरी होती थी न किसी को किसी का भय था.परिवार में परिवार की मुखिया स्त्री के ही आदेशों का पालन होता था और समाज में मुखिया स्त्री ही का शासन चलता था.परन्तु जैसा की हम जानते हैं मानव -विकास की कहानी प्रकृति के साथ उसके सतत संघर्षों की कहानी है.जहां प्रकृति ने मनुष्य को राह दी वहीं वह आगे बढ़ गया और जहां प्रकृति की विषमताओं ने उसे रोका वहीं रुक गया.इस प्रकार विभिन्न प्रकार की समाज व्यवस्थायें विकसित होती गईं.अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु स्थान विचरण करते हुए कभी -कभी एक समूह समाज का दुसरे समूह समाज से स्थानाधिपत्य को लेकर संघर्ष चलने लगा.इस संघर्ष में स्वभाविक रूप से समूह के पुरुष ही अधिक सक्रियता से भाग ले पाते थे और शक्ति के आधार पर विजय प्राप्त करने के कारण अब समाज का स्वरूप बदलने लगा.पुरुष की प्रभुता स्थापित होती चली परिवार और समाज पुरुष प्रधान होते चले गए.विवाह संस्था का भी अब आविर्भाव होने लगा और स्त्री का स्थान गौड़ हो गया.संघर्ष में विजेता समूह ,विजित समूह को अपना दास बनाने लगा और उनका शोषण करने लगा.अतः अब दास युग का प्रारम्भ हो गया.स्वल्प होते प्राकृतिक साधनों और अपने द्वारा खा कर फेंके गए फलों के बीजों को जमते ,उगते और पुनः फलते देख कर मनुष्य ने शनैः -शनैः यायावर जीवन त्याग कर कृषि-युग में प्रवेश किया.ये दास कृषि के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुए .परन्तु दासों की अपनी दशा सोचनीय होती थी,उन्हें जंजीरों से बाँध कर रखा जाता था और उनमें मालिक के शोषण के विरुद्ध आक्रोश होता था.युद्ध के दौरान हमलावर समाज द्वारा अपनी बेड़ियाँ काटे जाने पर ये दास अपने शोषक मालिक के विरुद्ध आक्रान्ता समाज का साथ देते थे.अतः दासों के विद्रोह के भय ने शोषकों को नया रास्ता सुझाया और दासों को कुछ भूखंड देकर उन्हें जंजीर के स्थान पर जमीन से बांधा जाने लगा.दासों ने इस व्यवस्था का स्वागत किया और यह सामंत युग का प्रारम्भ हुआ.इस अवस्था में उत्पादन में तीव्र वृद्धि हुयी और अब अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादों को जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाने लगी.प्रारंभ में यह प्रक्रिया वस्तु-विनिमय (बार्टर) के आधार पर चलती थी.मुद्रा के आविष्कार के बाद इसका स्थान व्यापार ने ले लिया और इस प्रकार उत्पादक और उपभोक्ता के मध्य एक नया वर्ग आ गया.कालान्तर में यह नया वर्ग अधिक शक्तिशाली हो गया क्योंकि अब समाज में धन का वर्चस्व था.अतः उत्पादक और उपभोक्ता दोनों का शोषण इस व्यापारी वर्ग ने करना प्रारम्भ किया .धन-बल पर कुटीर उद्योग चलाने वाले कुशल और स्वावलम्बी कारीगरों को इस व्यापारी वर्ग ने खरीदना प्रारम्भ किया और बड़े उद्योग लगने लगे.अब कारीगर ,कारीगर नहीं रहा मजदूर हो गया जिसे अपने लिए नहीं मालिक के लिए उत्पादन करना था.यह पूंजीवाद का युग कहलाता है जो कि वर्तमान में शोषण का सर्वाधिक सशक्त रूप लिए विद्यमान है.पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध एक लम्बे संघर्षों के बाद मजदूरों ने कुछ रियायते हासिल करना भी प्रारम्भ किया और इस सम्पूर्ण व्यवस्था -परिवर्तन हेतु भी संघर्ष चलाये जिनका परिणाम है कि विश्व की एक तिहाई आबादी अब शोषण विहीन मजदूर वर्ग के समाजवादी युग में रह रही है.

हालांकि आदिम साम्यवाद से दास प्रथा और दास प्रथा से सामंत युग तथा सामंत युग से पूंजीवाद का आविर्भाव पहली अवस्था से दूसरी में धीरे-धीरे होता रहा परन्तु अब पूंजीवाद से समाजवाद में परिवर्तन एक ही अवस्था के भीतर सम्भव नहीं है क्योंकि पूर्व की प्रत्येक अवस्था शोषण पर आधारित रही है-केवल उसका रूपांतरण हुआ है.समाजवाद शोषण-विहीन संता पर आधारित समाज अवस्था है जो शोषण के सम्पूर्ण खात्मे पर ही सम्भव है.अतः सम्पूर्ण विश्व में आज समाजवाद कायम करने के लिए जन - संघर्ष चल रहे हैं.पूंजीवादी सरकारें दमन और तिकड़म से इन जन-संघर्षों को सर्वत्र कुचल रही हैं.कहीं-कहीं पूंजीवादी सरकारें स्वंय समाजवाद का आलाप करते हुए जन-चेतना को दिग्भ्रमित कर रही हैं.हमारा भारत भी इसका अपवाद नहीं है.लेखक,चित्रक,विचारक सदा से ही मनुष्य को सुखी देखने और एक विश्व की परिकल्पना करते रहे हैं.प्रति वर्ष बसंत-पंचमी को जिनका जन्म-दिन मनाया जाता है उन महान क्रांतिकारी और राष्ट्र-भक्त कवि पं.सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'ने यह याचना की थी-

"वर दे वीणावादिनी यह वर दे
प्रिय स्वतंत्र रव,अमृत मन्त्र
नव भारत भर में भर दे,
काट उर के बंधन स्तर
बहा जननी ज्योतिर्मय निर्झर ..........."

हमें आज भी भारतीय जन-मानस को उद्वेलित करके समाज में व्याप्त शोषण के अन्धकार को दूर करने का क्रांतिकारी आह्वान करने वाले जन-कवियों से निरंतर प्रेरणा लेने की आवश्यकता है;जिससे समाज के विकास की इस मंजिल में हम अब और न पिछड़ें और शीघ्र ही शोषण-विहीन समतामूलक समाज की स्थापना अपने प्रिय भारत-वर्ष में कर सकें.

3 comments:

Sunil Kumar said...

जानकारीपरक सार्थक लेख, दासों की बेड़ियाँ खोल कर जमीन से बाँधने का रोचक वर्णन बहुत सुन्दर , बधाई

Dr (Miss) Sharad Singh said...

अत्यंत तथ्यपरक एवं सारगर्भित लेख के लिये आपको हार्दिक बधाई।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सशक्त रचना .... अर्थपूर्ण सवाल लिए ....