Hindustan-01/12/2011 |
कालाकांकर राजघराने के राजा बृजेश सिंह मेहनतकश जनता के हितैषी थे और इसीलिए वह सब कुछ त्याग कर कम्यूनिस्ट बने थे। कैसरबाग ,लखनऊ स्थित अपनी निजी संपत्ति उन्होने भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी को दान कर दी थी और उत्तर-प्रदेश भाकपा का कार्यालय आज भी वहाँ है। ऐसे कामरेड बृजेश सिंह ने रूस प्रवास के दौरान वहाँ के शासक रहे जोसफ स्टालिन की छोटी पुत्री 'स्वेतलाना' से विवाह किया था। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी स्वेतलाना भारत आई और यहाँ से अमेरिका वाया स्विट्जरलैंड चली गई तथा वहीं उनका 85 वर्ष की आयु मे गुमनामी मे निधन हो गया। जिस प्रकार डॉ हरगोविंद खुराना के निधन का समाचार देर से आया था उसी प्रकार स्वेतलाना के निधन का समाचार भी बहुत देर से ही आया। स्वेतलाना अपने पिता की 'तानाशाहीपूर्ण' नीतियों की घोर विरोधी थीं। इसी कारण उन्हें रूस छोडना पड़ा था। एक भारतीय कम्यूनिस्ट नेता की पत्नी और रूसी तानाशाह (अपने पिता की विरोधी) स्वेतलाना का निधन एक ऐसे समय मे हुआ है जब पूंजीवादी अमेरिका आर्थिक संकट से जूझ रहा है और उसे उबारने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 'वालमार्ट' सरीखी कंपनियों के लिए भारतीय बाजार खोल रहे हैं। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने उत्तर प्रदेश मे तीन दूसरे बामपंथी दलों से मिल कर एक मोर्चा बनाया है और उसके तहत आगामी विधान सभा चुनाव 2012 मे लड़ने का निर्णय लिया है। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी,उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव डा. गिरीश ने एक वक्तव्य जारी कर कहा है कि ,"चूंकि इस समय पूंजीवादी दल अपनी कारगुजारियों के चलते पूरी तरह बेनकाब हो गये हैं, अतएव उत्तर प्रदेश की जनता एक साफ सुथरे नये विकल्प की तलाश में है। एक हद तक इस कमी को वामपंथी दल पूरा कर सकते हैं जो आम जनता की समस्याओं पर लगातार संघर्ष करते रहे हैं, भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हैं और उनके पास संगठन का एक ठीक-ठाक ताना-बाना पूरे प्रदेश में मौजूद हैं। इस उद्देश्य से भाकपा, माकपा, फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी पहले ही एकजुट हो चुके हैं और अब दूसरे वाम समूहों का आह्वान किया गया है कि ऐतिहासिक इस घड़ी में मोर्चे के साथ आयें। कुछ धर्मनिरपेक्ष और भ्रष्टाचार से मुक्त छोटे दलों को भी साथ लेने पर विचार किया जा रहा है।"
भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को सबसे अधिक नुकसान डॉ राम मनोहर लोहिया के राजनीतिक दर्शन से हुआ है ,इस संबंध मे जून 2011 मे सत्य नारायण ठाकुर साहब ने डा. लोहिया के विचारों के विरोधाभास को उजागर करते हुए तीन कड़ियों में विस्तार से बताया है उस पर ध्यान देने की पर्मावाश्यक्ता है.साथ ही साथ निम्न-लिखित तथ्यों पर भी यदि ध्यान दिया जाये तो भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को लाभ हो सकता है-
वस्तुतः डा.लोहिया ने १९३० में 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी'की स्थापना १९२५ में स्थापित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'और इसके आंदोलन को विफल करने हेतु की थी.
स्वामी दयानंद के नेतृत्व में 'आर्य समाज'के माध्यम से देश की आजादी की जो मांग १८७५ में उठी थी उसे दबाने हेतु १८८५ में कांग्रेस की स्थापना रिटायर्ड आई .सी.एस.श्री ह्यूम द्वारा वोमेश बेनर्जी की अध्यक्षता में हुयी थी जिसमें आर्य समाजियों ने घुस कर आजादी की मांग उठाना शुरू कर दिया था.बाद में कम्यूनिस्ट भी कांग्रेस में घुस कर ही स्वाधीनता आंदोलन चला रहे थे.
१९२० में स्थापित हिन्दू महासभा के विफल रहने पर १९२५ में आर.एस.एस. की स्थापना अंग्रेजों के समर्थन और प्रेरणा से हुयी जिसने आर्य समाज को दयानंद के बाद मुट्ठी में कर लिया तब स्वामी सहजानंद एवं गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्य समाजी कम्यूनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए थे.
सी.एस. पी की वजह से जनता भ्रमित रही और क्रांतिकारी ही कम्यूनिस्ट हो सके.
डा.लोहिया ने अपनी पुस्तक'इतिहास चक्र'में साफ़ लिखा है 'साम्यवाद' और पूंजीवाद'सरीखा कोई भी वाद भारत के लिए उपयोगी नहीं है .
हम कम्यूनिस्ट जनता को यह नहीं समझाते थे -कम्यूनिज्म भारतीय अवधारणा है जिसे मैक्समूलर साहब की मार्फ़त महर्षि मार्क्स ने ग्रहण करके 'दास केपिटल'लिखा था.हमने धर्म को अधर्मियों के लिए खुला छोड़ दिया और कहते रहे-'मैन हेज क्रियेटेड गाड फार हिज मेंटल सिक्यूरिटी आनली'.हम जनता को यह नहीं समझा सके -जो शरीर को धारण करे वह धर्म है.नतीजा यह रहा जनता को भटका कर धर्म के नाम पर शोषण को मजबूत किया गया. डा.लोहिया भी रामायण मेला आदि शुरू कराकर जनता को जागृत करने के मार्ग में बाधक रहे.
आज यदि हम धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करके जनता को स्वामी दयानद,विवेकानंद,कबीर और कुछ हद तक गौतम बुद्ध का भी सहारा लेकर समझा सकें तो मार्क्सवाद को भारत में सफल कर सकते हैं जो यहीं सफल हो सकता है.यूरोपीय दर्शन जो रूस में लागू हुआ विफल हो चुका है.केवल और केवल भारतीय दर्शन ही मार्क्सवाद को उर्वर भूमि प्रदान करता है,यदि हम उसका लाभ उठा सकें तो जनता को राहत मिल सके.व्यक्तिगत स्तर पर मैं अपने 'क्रान्ति स्वर 'के माध्यम से ऐसा ही कर रहा हूँ.परन्तु यदि सांगठनिक-तौर पर किया जाए तो सफलता सहज है.
भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन के एक बड़े संगठनकर्ता कामरेड बृजेश सिंह की पत्नी स्वेतलाना के निधन के बाद अब तो यह स्वीकार कर ही लिया जाना चाहिए कि,रूस मे जिस तरीके से साम्यवाद को लागू किया गया था वह गलत था तभी स्टालिन की पुत्री स्वेतलाना को ही विद्रोह करना पड़ा था और इसी कारण रूस मे साम्यवाद विफल हो गया था। साम्यवाद जो मूलतः भारतीय अवधारणा है भारतीय संदर्भों से ही भारत मे प्रसार पा सकेगा। जो लोग आज भी संकीर्ण(दक़ियानूसी) सिद्धांतों पर कम्यूनिस्ट आंदोलन को चलाने की जिद्द करते हैं वे वास्तव मे 'साम्यवाद' के हितैषी नहीं हैं और न ही भारत मे साम्यवाद को सफल होते देखना चाहते हैं चाहे संगठन मे वे कितने ही प्रभावशाली पदों पर क्यों न आसीन हों।
भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को सबसे अधिक नुकसान डॉ राम मनोहर लोहिया के राजनीतिक दर्शन से हुआ है ,इस संबंध मे जून 2011 मे सत्य नारायण ठाकुर साहब ने डा. लोहिया के विचारों के विरोधाभास को उजागर करते हुए तीन कड़ियों में विस्तार से बताया है उस पर ध्यान देने की पर्मावाश्यक्ता है.साथ ही साथ निम्न-लिखित तथ्यों पर भी यदि ध्यान दिया जाये तो भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन को लाभ हो सकता है-
वस्तुतः डा.लोहिया ने १९३० में 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी'की स्थापना १९२५ में स्थापित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'और इसके आंदोलन को विफल करने हेतु की थी.
स्वामी दयानंद के नेतृत्व में 'आर्य समाज'के माध्यम से देश की आजादी की जो मांग १८७५ में उठी थी उसे दबाने हेतु १८८५ में कांग्रेस की स्थापना रिटायर्ड आई .सी.एस.श्री ह्यूम द्वारा वोमेश बेनर्जी की अध्यक्षता में हुयी थी जिसमें आर्य समाजियों ने घुस कर आजादी की मांग उठाना शुरू कर दिया था.बाद में कम्यूनिस्ट भी कांग्रेस में घुस कर ही स्वाधीनता आंदोलन चला रहे थे.
१९२० में स्थापित हिन्दू महासभा के विफल रहने पर १९२५ में आर.एस.एस. की स्थापना अंग्रेजों के समर्थन और प्रेरणा से हुयी जिसने आर्य समाज को दयानंद के बाद मुट्ठी में कर लिया तब स्वामी सहजानंद एवं गेंदा लाल दीक्षित सरीखे आर्य समाजी कम्यूनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए थे.
सी.एस. पी की वजह से जनता भ्रमित रही और क्रांतिकारी ही कम्यूनिस्ट हो सके.
डा.लोहिया ने अपनी पुस्तक'इतिहास चक्र'में साफ़ लिखा है 'साम्यवाद' और पूंजीवाद'सरीखा कोई भी वाद भारत के लिए उपयोगी नहीं है .
हम कम्यूनिस्ट जनता को यह नहीं समझाते थे -कम्यूनिज्म भारतीय अवधारणा है जिसे मैक्समूलर साहब की मार्फ़त महर्षि मार्क्स ने ग्रहण करके 'दास केपिटल'लिखा था.हमने धर्म को अधर्मियों के लिए खुला छोड़ दिया और कहते रहे-'मैन हेज क्रियेटेड गाड फार हिज मेंटल सिक्यूरिटी आनली'.हम जनता को यह नहीं समझा सके -जो शरीर को धारण करे वह धर्म है.नतीजा यह रहा जनता को भटका कर धर्म के नाम पर शोषण को मजबूत किया गया. डा.लोहिया भी रामायण मेला आदि शुरू कराकर जनता को जागृत करने के मार्ग में बाधक रहे.
आज यदि हम धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करके जनता को स्वामी दयानद,विवेकानंद,कबीर और कुछ हद तक गौतम बुद्ध का भी सहारा लेकर समझा सकें तो मार्क्सवाद को भारत में सफल कर सकते हैं जो यहीं सफल हो सकता है.यूरोपीय दर्शन जो रूस में लागू हुआ विफल हो चुका है.केवल और केवल भारतीय दर्शन ही मार्क्सवाद को उर्वर भूमि प्रदान करता है,यदि हम उसका लाभ उठा सकें तो जनता को राहत मिल सके.व्यक्तिगत स्तर पर मैं अपने 'क्रान्ति स्वर 'के माध्यम से ऐसा ही कर रहा हूँ.परन्तु यदि सांगठनिक-तौर पर किया जाए तो सफलता सहज है.
भारत मे कम्यूनिस्ट आंदोलन के एक बड़े संगठनकर्ता कामरेड बृजेश सिंह की पत्नी स्वेतलाना के निधन के बाद अब तो यह स्वीकार कर ही लिया जाना चाहिए कि,रूस मे जिस तरीके से साम्यवाद को लागू किया गया था वह गलत था तभी स्टालिन की पुत्री स्वेतलाना को ही विद्रोह करना पड़ा था और इसी कारण रूस मे साम्यवाद विफल हो गया था। साम्यवाद जो मूलतः भारतीय अवधारणा है भारतीय संदर्भों से ही भारत मे प्रसार पा सकेगा। जो लोग आज भी संकीर्ण(दक़ियानूसी) सिद्धांतों पर कम्यूनिस्ट आंदोलन को चलाने की जिद्द करते हैं वे वास्तव मे 'साम्यवाद' के हितैषी नहीं हैं और न ही भारत मे साम्यवाद को सफल होते देखना चाहते हैं चाहे संगठन मे वे कितने ही प्रभावशाली पदों पर क्यों न आसीन हों।
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