Sunday, December 19, 2010

मानव क्या है ?

                             जब तक जियो ,मौज से जियो.
                            घी पियो,चाहे उधार लेके  पियो..
महर्षि चार्वाक का यह कथन आज क़े मानव ने शतशः अपना लिया है.चारों ओर एक -दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ मची हुई है.हर किसी का धर्म बन चुका है कि,-
                              दुनिया लूटो मक्कर से.
                              रोटी खाओ घी-शक्कर से..
क्या यही मानवता है ?मनुष्य होने का अर्थ क्या मौज -मस्ती ही है ? जी नहीं .यह न तो मानवता है और न ही मनुष्यत्व का यह धर्म है.वस्तुतः जैसा कि,गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में कहा भी है कि -"बड़ भाग मानुष तन पावा " -यह मनुष्य जीवन आत्मा को यों ही नहीं मिल गया है,कुल -खानदान,माता -पिता और उनके जीन्स यों ही नहीं मिला करते हैं बल्कि पूर्वजन्मों क़े संचित शुभ कर्मों क़े आधार पर प्रारब्ध निर्माण हो कर ही यह मनुष्य शरीर मिला करता है.आत्मा स्वंय में चेतन होते हुए भी जड़ शरीर क़े बगैर कुछ नहीं कर सकता.आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अन्धे और लंगड़े जैसा है ;एक क़े बगैर दूसरा कार्य नहीं कर सकता .मनुष्य जन्म मोक्ष का द्वार है,यदि  इसमें चूक गये तो फिर अनन्त योनियों क़े चक्र में पुनः फंसना पड़ेगा और कर्मों का भोग भोगना होगा.लेकिन आज मनुष्य तन पाकर लोग अहंकार में भरे पड़े हैं.येन -केन प्रकारेण   पद -पैसा -बुद्धि बटोर कर स्वंय को उच्च और दूसरों को तुच्छ समझने की एक अजीब मानसिकता बन चुकी है.जो लोग स्वंय को उच्च उठाने में नाकामयाब रह जाते हैं,दूसरों को गिराने की युक्तियाँ चलते रहते हैं और इनका सहयोग करते हैं -स्वार्थी पोंगापंथी तथाकथित ज्योतषी,पंडित आदि-आदि.क्योंकि गाँठ क़े पूरे और अक्ल क़े अधूरे लोगों को उलटे उस्तरे से मूढ्ना ऐसे फरेबी  लोगों क़े बाएँ हाथ का खेल होता है,इसलिए आज क़े मार्केटिंग युग में उन्होने दावों की पुष्टि  में गारंटी कार्ड देना शुरू कर दिया है.लोग यह नहीं समझते कि,परमात्मा से ऊपर कोई नहीं है,अतः किसी कार्य को सम्पन्न करने का न तो कोई दावा करना उचित है और न ही गारंटी दी  जा सकती है.फिर सवाल उठता है कि तब ज्योतिष का क्या लाभ ?ज्योतिष मानव जीवन को सुन्दर ,सुखद व समृद्ध बनाने का विज्ञान है.ज्योतिष क़े माध्यम से मनुष्य अपने पूर्व जन्मों क़े संचित कर्म-अकर्म आदि का फल ज्ञात कर सकता है और ग्रह -नक्षत्रों क़े प्रकोप को शांत करा सकता है.इसके लिए परमात्मा से स्तुति,प्रार्थना की जाती है,परमात्मा द्वारा प्रस्तुत वेदों क़े ज्ञान का लाभ उठाते हुए मन्त्रों से हवन में आहुतियाँ देकर ग्रह नक्षत्रों क़े दुष्प्रभाव को कम या समाप्त भी किया जा सकता है.

अग्नि परमात्मा का तथा सभी देवताओं का मुख होती है.अग्नि में  गई आहुति बोले गये मन्त्रों की शक्ति से देवताओं तथा ग्रह -नक्षत्रों तक वायु द्वारा तत्काल पहुंचा डी जाती है.इस प्रकार यदि मनुष्य श्रद्धा और पूर्ण भक्ति भाव से हवन करता हैऔर ज्योतिषी अथवा सुविज्ञ पंडित समुचित विधि-विधान से ग्रह -नक्षत्रों की शांति हेतु निर्धारित मन्त्रों से हवन करता है तो लाभ अवश्य ही मिलता है.परमात्मा इस मनुष्य जीवन की शेष अवधि क़े लिए कष्टों को स्थगित कर देता है और मनुष्य सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है.बुद्धि और विवेक का प्रयोग करते हुए मनन करना ही मानव का गुण है और यही मनुष्यत्व है जो धारण करना सिखाता है.
                                         यदि हम अपने कष्टों को शांत करना
                                        चाहते हैं तो हमें दूसरों को कष्ट देने
                                         की प्रवृति को छोड़ना होगा अन्यथा
                                       हम चाहे जितनी प्रार्थनाएं और ढोंग
                                        करें फल कुछ नहीं निकलेगा..

सिर्फ वही ढाक क़े तीन पात रह जायेंगे.जो लोग दूसरों को नीचा दिखाने हेतु अपनी भव्यता का प्रदर्शन करने हेतु ढोंगी -फरेबी लोगों का सहारा लेते हैं ,तात्कालिक रूप से भले ही अपने को लाभान्वित समझें कुल मिलकर अपने कर्मों को बिगाड़ लेते हैं;अपना मानवीय धर्म नष्ट कर लेते हैं और इनके दुष्परिणाम अन्ततः उन्हें भोगने ही पड़ते हैं.इसलिए उत्तम यही है कि,सही निदान किये जाएँ,सही व्यक्ति से संपर्क किया जाये और सिर्फ ऊपर उठने की बात सोची जाये;किसी दूसरे को नीचा दिखाने या /तथा गिराने का न तो प्रयास करना चाहिए और न ही ऐसी दुर्भावना रखनी चाहिए,फिर देखिये कि मनुष्य जीवन कितना सार्थक,कितना सफल रहता है.मनुष्य -मनुष्य में भेद न करना ही मानव धर्म है.यही मानवता है.   

एक विद्वान् का कहना है--

त्याग-तपस्या से पवित्र -परिपुष्ट हुआ जिसका 'तन' है
भद्र भावना -भरा स्नेह -संयुक्त शुद्ध जिसका 'मन' है
होता है नित्य-प्रति पर -हित में,जिसका शुचि संचित 'धन' है
वही श्रेष्ठ -सच्चा 'मानव' है,धन्य उसी का 'जीवन' है 


[टाइप समन्वय-यशवन्त ]


(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

3 comments:

महेन्‍द्र वर्मा said...

बहुत सार्थक विषय पर आपने लेख लिखा है।
आपके विचार मानवमात्र के लिए मननीय और अनुकरणीय है।
चेतना के स्तर पर मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह इस मानवतन का लाभ उठाए। भौतिकवादी जीवन जीने वाले पुनः निम्नतर योनियों में जन्म लेंगे जबकि सात्विक जीवन जीने और परमात्मा के प्रति श्रद्धा रखने वाले मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होते हैं।
...शुभकामनाएं।

मनोज कुमार said...

एक सार्थक आलेख। बहुत सी बातें सीखने को मिली।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

पारंपरिक ग्रंथों से द्रष्टान्त एवं सन्दर्भ द्वारा एक अत्यंत सामयिक दर्शन प्रस्तुत किया है आपने. दुःख इसी बात का है कि लोग सच्ची निधि की पहचान नहीं रखते और माया के पीछे भागते हैं.