Monday, April 18, 2011

तानाशाही ही तो है!

 ११ -१७ मई १९८३ के सप्तदिवा,आगरा में पूर्व प्रकाशित

लगभग पन्द्रह वर्ष (अब ४४ वर्ष)पूर्व एक साप्ताहिक पत्रिका (हिन्दुस्तान)में एक कार्टून छापा था जिसकी पृष्ठ भूमि में एक महाशय कुछ प्रत्याशियों से साक्षात्कार कर रहे हैं.एक प्रत्याशी से पूंछा गया कि,लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं?प्रत्याशी ने तपाक से जवाब दिया-'जिसमें तंत्र की पूंछ पकड़ कर संविधान की जय बोलते हुए लोक की वैतरणी पार की जाती हो उसे लोकतन्त्र कहते हैं.'पाठक गण समझदार हैं और मुझे विशवास है कि इस प्रत्याशी का आशय स्पष्ट समझ गए होंगे कि लोकतन्त्र में शासन और प्राशासन में जमे हुए लोग संविधान की आड़ लेकर किस तरह लोक अर्थात जनता को बहका ले जाते हैं.और दरअसल ऐसा होता भी है जिसका व्यवहारिक अनुभव आप सभी को होगा.कुछ विद्वानों ने तो लोकतन्त्र को मूर्खों का शासन भी कहा है और कुछ दार्शनिक इसे भीड़ तन्त्र(मेजारिटी जायींट) भी कहते हैं.हाँ जब भी चुनाव होते हैं अलग-अलग जत्थे बड़ी से बड़ी भीड़ बटोरने की बहुतेरी कोशिश करते हैं और जो इसमें कामयाब हो जाता है वही निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है.प्रायः बुद्धिजीवी और सभी तबका भीड़-भड़क्का से दूर ही रहना चाहता है और दूर ही रहता है.अतः वह न चुनाव लड़ता है और न ही चुने जा सकने की स्थिति में ही होता है.खैर हमको लोकतन्त्र से यहाँ क्या लेना-देना हमें देखना है जिसे तानाशाही कहते हैं वह क्या है?तानाशाही को राजनीतिक चिन्तक अधिनायकवाद कहते हाँ.स्पष्ट है कि इस वाद में तन्त्र का सूत्राधार एक अधिनायक होता है और वह लोक पर शासन करता है,लोक से पूंछता नहीं है और न ही लोक के प्रति वह जवाबदेही समझता है.वह स्वंय को ईश्वर का प्रतिनिधि समझता है और जो कुछ करता है बस ईश्वरीय प्रेरणा से ही करता है.हमने देखा है जहां भी दुनिया में कहीं कोई अधिनायक  उत्पन्न हो गया दुनिया का वह हिस्सा बाकी से बाजी मार ले गया है.एक समय था जब दुनिया भर में ब्रिटिश साम्राज्य फैला हुआ था और ब्रिटेन की टूटी बोलती थी.लंकाशायर और मैनचेस्टर की मिलों से सस्ता,अच्छा और टिकाऊ माल बनाने वाली जर्मनी और जापान की मिलों को अपने लिए बाजार ढूंढना मुश्किल था.ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य भी नहीं डूबता था.लेकिन एडोल्फ हर हिटलर जब हिंडनवर्ग को हरा कर जर्मनी का चांसलर बना तो उसने एक साथ पूंजीवाद और साम्यवाद का विरोध करने के लिए निगमवाद को बढ़ावा दिया और उसके एकछत्र अधिनायकत्व में जर्मनी ने जो प्रगति की उसके सामने लोकतांत्रिक प्रगति वाले पिछड़ गए.यही हाल तोजो के अधिनायकत्व में जापान का और बोनोटो मुसोलनी की छत्रछाया में इटली का हुआ.हम दूर क्यों जाएँ हमारे पडौसी राष्ट्र पाकिस्तान में लगभग पिछले पच्चीस वर्षों से अधिनायकत्व चल रहा है वहां जिस तेजी से विकास हुआ है उसके आगे हमारा विकास फीका है.ऐसा क्यों होता है हमें पता नहीं ,हमने तो सीखा है-'होंहूँ कोऊ नृप हमहूँ का हानि'एक बार समाचार छपा था कि,स्व.के.कामराज ने एक निवृतमान अमेरिकी राजदूत से पूंछा कि आपने अपने भारत प्रवास के दौरान क्या विशेष कुछ अनुभव किया. तो उन कूटनीतिक महाशय का कहना था कि,भारत में रह कर मैंने जाना कि,यहाँ का भाग्य-विधाता दरअसल में ईश्वर ही है.यहाँ आये दिन दंगे-फसाद,लूट-मार,आगजनी,प्रदर्शन वगैरह होते रहते हैं फिर भी भारत तरक्की करता जा रहा है ;जरूर इसका राज दैवी -कृपा ही है.  पता नहीं उस राजदूत के ऐसा कहने के पीछे क्या मनोभावना थी,परन्तु आप तो जानते ही हैं कि किस प्रकार हमारे लोग मतदान से कतराते हैं और कितने प्रतिशत मतदान होता है और फिर कुल मतदान का कितना प्रतिशत प्राप्त कर प्रत्याशी निर्वाचित हो जाते हैं.इस प्रकार प्राप्त बहुमत वस्तुतः बहुमत नहीं कहा जा सकता .यह वाकई भीड़ों में बड़ी भीड़ का शासन होता है फिर उसमें  से भी कुछ ही लोग कार्यपालिका में आते हैं और कार्यपालिका का सूत्रधार एक ही उसका जो प्रधान होता है.यानी कि घूम-फिर कर यह भी एक किस्म की तानाशाही व्यवस्था ही है भले ही इसकी प्रक्रिया लोकतांत्रिक हो.अस्तु तानाशाही सार्वभौम सत्य है और सर्वत्र व्याप्त है.इस सर्वव्यापी तानाशाही को हम नमन करते हैं!

4 comments:

Unknown said...

आपने बहुत सही बात कही है.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है -
मीडिया की दशा और दिशा पर आंसू बहाएं
भले को भला कहना भी पाप

Sunil Kumar said...

विचारणीय पोस्ट , सार्थक पोस्ट, आपका आभार

Unknown said...

मेरे ब्लॉग पर आयें, आपका स्वागत है
मीडिया की दशा और दिशा पर आंसू बहाएं

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सच में ...इसिलए सत्ता हर कहीं सिर्फ शक्ति का खेल बन कर रह जाती है.....इसी तानाशाही की बदौलत .....