विक्रमी संवत 2070 शुभ व मंगलमय हो---
( 'तपो भूमि',मथुरा के संपादक सिद्धान्त शास्त्री प्रेम भिक्षु जी ने 'नित्य कर्म विधि' *पुस्तक का भी सम्पादन किया है और उसकी भूमिका मे उन्होने जो कुछ लिखा है उसको ज्यों का त्यों 11 अप्रैल 2013 विक्रमी नव संवत (आर्यसमाज स्थापना दिवस)के अवसर पर यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है । 'धर्म' के संबंध मे भ्रांतियों का निवारण करने व वास्तविक धर्म को समझने मे इससे सहायता मिल सकेगी ऐसी हम उम्मीद करते हैं। ---विजय राजबली माथुर)
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कहने को आज हमारे देश मे हमारा अपना राज्य है। किन्तु वह सुख और शान्ति जिसको लक्ष्य कर भारत माँ के एक दो नहीं सैंकड़ों और हजारों लाल बलि-वेदी पर सदैव के लिए सो गए,आज उसकी छाया भी कहीं दीखती है?उल्टे चारों ओर दुख,अशांति और निराशा की काली-2 घटाएँ घनीभूत दीख पड़ती हैं। प्रश्न है क्यों?और एक ही उत्तर है,इस प्रश्न का --पश्चिम का अंधानुकरण!अंग्रेज़ चला गया,परंतु अंग्रेज़ियत अर्थात कोरे भौतिकवाद का एक छ्त्र साम्राज्य आज पहले की अपेक्षा भी अधिक उग्र रूप मे बना हुआ है। आम लोगों ने पैसे मे ही सुख मान लिया है। पैसा साधन तो है,पर उसे आज साध्य मान लिया गया है,यही भूल है। आज प्रत्येक सच्चाई का मूल्यांकन रुपए-पैसे मे होता है। चीजों मे मिलावट करना,रिश्वत देना और लेना आदि कुकर्म साधारण बातें हो चली हैं। एक दूसरे के सुख-दुख का किसी को रञ्च मात्र भी ध्यान नहीं है,पारस्परिक प्रेम सहानुभूति एवं सद्भावनाएं सभी कुछ एक-2 करके लुप्त होते जा रहे हैं तथा उनके स्थान पर एक दूसरे के प्रति अविश्वास,राग-द्वेष ,घृणा और प्रतिहिंसा की मात्रा प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
कैसी भयावह स्थिति है यह!और इसके मूल मे क्या है?सच्ची और व्यावहारिक आस्तिकता (प्रभु-भक्ति)का सर्वथा अभाव!वह वास्तविकता जो मनुष्य के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को निर्मल करती हुई उनके बीच सामञ्जस्य स्थापित कर सके,वह आसतिकता जो मनुष्य के नैतिक धरातल को ऊंचा उठाने मे सहायक बन कर उसे सही अर्थों मे मनुष्य बना सके तथा वह आस्तिकता जो मनुष्य को समाज और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य पालन मे जागरूक बनाते हुये प्रभु की इस पावन विश्व-वाटिका का एक सुरभित और विकसित पुष्प बना सके,---आसतिकता का यह रूप ही उसका चिरंतन स्वरूप है। आज इसका अभाव है,इसलिए मनुष्य समाज दुखी है और इसलिए संसार का मार्ग-दर्शक भारत स्वम्य पथ -भ्रष्ट हो रहा है।
यों कहने भर के लिए हमारे देश मे आज भी आस्तिकता संसार के सभी देशों से अधिक है। पर सच्ची और व्यावहारिक आस्तिकता की दृष्टि से हमारा देश अन्य देशों से कहीं बहुत पीछे है और सच तो यह है कि आज हमारे देश मे आसतिकता का जो विकृत रूप विद्यमान है उसे प्रच्छन्न (ढकी हुई)नास्तिकता कहना कहीं अधिक उपयुक्त होगा-हम मुंह से तो राम-2 कहें पर हमारे सारे काम राम के आदर्शों के विरुद्ध हों,हम घर पर नित्य हवन-यज्ञ करते हों किन्तु दुकान या आफिस मे बैठ कर लोगों की आँखों मे धूल झोंकने का प्रयत्न करते हों-यही प्रच्छ्न्न नास्तिकता है। आज हमारे देश मे जो प्रकट (खुले रूप मे )नास्तिकता की बाढ़ आ रही है,आज हमें जो ईश्वर -धर्म,सदाचार और संस्कृति के विरोधी नारे सुनाई पड़ रहे हैं-क्या हमने कभी सोचा है कि यह ढकी हुई नास्तिकता ही इसका मुख्य और एक मात्र कारण है?
वस्तुतः प्रच्छ्न्न (ढकी हुई)नास्तिकता ही प्रकट नास्तिकता को जन्म देती है। कैसे?इतिहास के पन्ने उलटिए। गौतम को नास्तिक किसने बनाया?क्या आस्तिकता,ईश्वर और वेद की ओट मे गोमेध,अश्वमेध और नरमेध आदि यज्ञों के नाम पर निरपराध गायों,घोड़ों और मनुष्यों तक की अमानुषिक हत्या के वीभत्स दृश्य ने ही दयालु हृदय गौतम को ईश्वर,वेद और यज्ञ का विरोधी नहीं बनाया?क्या तत्कालीन ब्राह्मणों के मिथ्या जात्याभिमान ने ही उसके विरुद्ध झण्डा खड़ा करने वालों को प्रोत्साहित नहीं किया?स्पष्ट है कि उस समय के धर्माधिकारी लोग आस्तिकता के चोंगे मे घोर नास्तिक थे और इन्ही ढके हुये नास्तिकों ने गौतम तथा बुद्ध मत के रूप मे प्रकट नास्तिकता को जन्म दिया जिससे भारत-पतन हुआ। आज 2500 वर्ष के बाद इतिहास ने फिर अपने को दुहराया है। प्रच्छ्न्न नास्तिकता अपनी सीमा को पहुँच चुकी है। धर्म और आस्तिकता के नाम पर जहां एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की छाया अपने शरीर पर पड़ जाना पाप समझता हो,जहां प्रभु की सर्वश्रेष्ठ रचना एक मनुष्य को इसलिए समस्त सामान्य मानवीय अधिकारों से वंचित किया जाता हो,क्योंकि उसके परिवारी चमड़े के जूते बनाते अथवा मैले आदि की सफाई करते अथवा इसी प्रकार का कोई अन्य श्रम-साध्य काम करते हैं,जहां पर बुड्ढे और दुधमुंहे बच्चों तक के विवाह धर्मविहित हों,धर्म के नाम पर जहां एक-2 वर्ष तक की हजारों बच्चियाँ वैधव्य की आग मे जलती हों,धर्म के नाम पर जहां अराष्ट्रीयता और अनैतिकता की मनोवृत्ति के जनक पाखंड और अन्ध-विश्वास का पोषण होता हो,धर्म के नाम पर जहां नारी के सतीत्व के साथ खिलवाड़ होता हो तथा राष्ट्र के ज्योति स्तम्भ राम-कृष्ण आदि महापुरुषों का स्वांग बनाया जाता हो और धर्म जहां स्वार्थपूर्ती का साधन मात्र बन कर रह गया हो,वहाँ ये बातें सुनाई पड़ना कोई आश्चर्य की बात नही कि 'धर्म और ईश्वर ढोंग तथा पाखंड है' या धर्म और ईश्वर ही हमारी सभी मुसीबतों की जड़ है। अतः देश को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए हमे धर्म,ईश्वर आदि को जल्दी से जल्दी देश निकाला दे देना चाहिए। ' हमारे देश का नौजवान आज बहुत कुछ इसी ढंग से सोचता है,जो स्व्भाविक ही है।
प्रश्न है-क्या वास्तव मे धर्म,ईश्वर और आस्तिकता की चर्चा करना देश को रसातल मे ले जाना है?उत्तर है नहीं,कदापि नहीं। सच्ची आस्तिकता तो विश्व मे प्राणी मात्र की सुख -शान्ति का एकमात्र आधार है। प्रभु -प्राप्ति तो मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। फिर यह झमेला कैसा?स्पष्ट है कि किसी भी अच्छी चीज का सदुपयोग संसार के लिए जितना कल्यांणकर उन्नति की ओर ले जाने वाला है,उसका दुरुपयोग उतना ही हानिकर तथा पतन के गड्ढे मे गिराने वाला है। तो आज आवश्यकता है आस्तिकता अथवा ईश्वर भक्ति का ठीक-ठीक अर्थ समझने की और उसे सही रूप से व्यवहार मे लाने की। बस!यही आज की समस्याओं का एकमात्र हल है।
आस्तिकता(ईश्वर भक्ति)का सच्चा स्वरूप
आस्तिकता अथवा प्रभु भक्ति को ठीक-2 समझने के लिए हम उसे दो रूपों मे देख सकते हैं। (अ)ईश्वर-विश्वास (कर्मकांड)प्रधान आस्तिकता। (ब )आचार-प्रधान आस्तिकता। उक्त दोनों रूपों मे से जब कभी ईश्वर-विश्वास प्रधान आस्तिकता,आचार प्रधान आस्तिकता को मार कर आगे बढ़ना चाहती है तो कालांतर मे वह अनेकों प्रकार केढोंग,पाखंड,दुराचार और अंधविश्वासों को जन्म देकर राष्ट्र को अवनति के गहरे गर्त मे धकेलने का कारण बन जाती है। ईश्वर-विश्वास प्रधान आस्तिकता के आवश्यक अंगों मे से श्रद्धा-अंधश्रद्धा मे बदल जाती है,भाग्यवाद-आलस्य का रूप ले लेता है,परलोकवाद -कल्पित किस्से कहानियों का और अध्यात्मवाद -जीवन और जगत से दूर जड़वत शून्यता का। समस्त पौराणिक काल हमारे इसी पतन की दुखभरी कहानी है। और तब उसकी प्रतिक्रिया मे आचार प्राधान आस्तिकता का युग आता है। परंतु वह भी प्रतिक्रिया के आवेश मे जब ईश्वर -विश्वास,कर्मफल,पुनर्रजन्म अध्यात्मवाद आदि को मार कर जीवित रहना चाहती है तो कालांतर मे कोरे भौतिकवाद,प्रत्यक्षवाद और शुष्क कर्मवाद की चोटों से मनुष्य की सरस भावनाओं का हनन करके उसे नरपिशाच बना देती है।
यह सही है कि आचार प्रधान आस्तिकता ही वस्तुतः आस्तिकता का समग्र रूप है परंतु ईश्वर -विश्वास -प्रधान आस्तिकता का महत्व उससे भी कहीं अधिक इसलिए है क्योंकि पहली का आधार ही दूसरे प्रकार की आस्तिकता है। 'बौद्धमत' ईश्वर-विश्वास प्रधान आस्तिकता के 'अतिवाद' की प्रतिक्रिया मे आचार प्रधान आस्तिकता का महत्व लेकर आया था। प्रतिक्रिया के आवेश मे बुद्ध ने ईश्वर,वेद,पुनर्जन्म आदि को उसमे स्थान नहीं दिया। परिणाम सामने है। बुद्ध के पश्चात बहुत थोड़े समय मे ही बौद्धमत मे ईश्वर के स्थान पर बुद्ध को ही ईश्वर बना देने के लिए विवश होना पड़ा। भारतीय इतिहास मे मूर्ती-पूजा तथा अवतारवाद की अवैदिक प्रथा का प्रारम्भ यहीं से होता है।
बौद्धयुग की प्रतिक्रिया मे पौराणिक काल आया था और आज का युग पौराणिक काल की प्रतिक्रिया के रूप मे आया है। इस संसार के समस्त मतों का इतिहास आस्तिकता के एक अंग के अतिवाद के विरुद्ध दूसरे अंग की प्रतिक्रिया के अथवा सूक्ष्म और स्थूल के इस संघर्ष से भरा पड़ा है। परंतु किसी भी एक अंग को ही लेकर चलने वाली आस्तिकता एकांगी है,अपूर्ण है,लंगड़ी है,उल्टा परिणाम लाने वाली है। सच्ची आस्तिकता के लिए उक्त दोनों रूपों का समुचित समन्वय परमावश्यक है। यही वैदिक भक्तिवाद है। वैदिक भक्तिवाद मे अध्यात्मवाद एवं भौतिकवाद,प्रत्यक्ष और परोक्ष ,लोक और परलोक,श्रद्धा तत्व एवं तर्क तत्व,भाग्यवाद एवं पुरुषार्थ तथा त्याग और भोगवाद का समुचित साम्ञ्जस्य है। सच्ची आस्तिकता न तो आकाश की उड़ान है और न तलातल मे डुबकियाँ लगाने के समान है। वह तो पृथ्वी के ठोस धरातल पर आकाश की छाया मे पलतीहै।
वैदिक भक्ति या सच्ची आस्तिकता न हो तो हमे यह सिखाएगी कि,'अरे बच्चा क्या है,संसार तो स्वप्न के समान है। झूठा झगड़ा है,दुनिया के सब नाते मिथ्या हैं। एक मात्र ब्रह्म ही सत्यहै इसलिए छोड़ो यह सब झमेला' और न सच्ची आस्तिकता एकमात्र संसार के इन चमकीले और लुभावने पदार्थों मे आसक्त होकर मानव जीवन के उच्चत्तम लक्ष्य को भूल जाने कहेगी वह संसार के माध्यम से संसार-पति को पाने का मार्ग है। उसमे तो एहिक और पारलौकिक उन्नत्ती के समन्वय का रूप धर्म का प्रतिपादन है। 'तेनत्यक्तेन भुञ्जीथा: ' और 'योग कर्मसु कौशलम ' इन सूक्तियों मे 'वैदिक भक्तिवाद' का रहस्य छिपा है।
कौन कहता है?ऐश्वर्य,धन(अर्थ)हेय है,वह साधना मार्ग मे बाधक है। हम तो प्रतिदिन दो बार साँय प्रातः प्रार्थना करते हैं'वयं स्याम पतयो रयीणाम('हम एश्वर्यों के स्वामी बनें' 'भूखे भजन न होय गुपाला' वाली कहावत बहुत कुछ सारपूर्ण है। उसकी सत्यता को कोरे अध्यात्मवाद के नारों से झुठलाया नहीं जा सकता। परंतु रुको,ठहरो,ज़रा भी बहे कि समाप्त!(तभी तो धर्म-पथ को 'क्षु रस्य धारा' कहा है। )हमे ठीक इसी समय यह भी ध्यान रखना है कि कहीं हम सांसारिक ऐश्वर्यों का समर्थन करते-2 उसी को तो सब कुछ नहीं मान बैठे हैं। 'धन साधन है साध्य नहीं' तथा संसार के ऐश्वर्यों के ढक्कन के पीछे सत्य छिपा है,इस तथ्य को एक क्षण के लिए भी भूलने का अर्थ है वैदिक भक्तिवाद के स्वरूप को भूल कर आध्यात्मिक मृत्यु को प्राप्त हो जाना,जिस स्थिति मे आज हम हैं। इस संबंध मे हमे 'धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष'इस फल चतुष्टय को समझ लेना अधिक उपयोगी होगा। 'अर्थ' अर्थात धनोपार्जन और 'काम' अर्थात उसका उपभोग दोनों ही आवश्यक हैं किन्तु मूल मे 'धर्म' हो और उनका लक्ष्य हो 'मोक्ष'प्राप्ति। यह विशुद्ध वैदिक भक्ति मार्ग है।
वैदिक भक्ति हमे सिखाती है कि समष्टि रूप मे ब्राह्मण ज्ञान-शक्ति से राष्ट्र के अज्ञान को,क्षत्रिय अपनी क्षात्र -शक्ति से राष्ट्र मे अथवा राष्ट्र पर होने वाले अन्याय को,वैश्य अपनी धनोपार्जन कला से राष्ट्र के अभाव को चुनौती देकर और शूद्र उक्त तीनों को अपना पावन सहयोग देकर कर्तव्य -भाव से अपने-अपने राष्ट्र धर्म का पालन करें और उनमे से प्रत्येक अपने-2 कर्तव्य कर्मों के द्वारा समान रूप से आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति कर सकें। इसी प्रकार व्यष्टि रूप मे एक मानव ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ,वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रमों की सफल साधना द्वारा अपने व्यक्तिगत जीवन को समुज्ज्वल बनाते हुये उसे राष्ट्र -जीवन के साथ जोड़ सके तो वह सच्चा आस्तिक होगा। अपने-अपने परिवार ,समाज,राष्ट्र एवं अखिल विश्व के प्राणिमात्र के प्रति अपने-अपने आश्रम और वर्ण की मर्यादानुसार सम्यक रूपेण कर्तव्य -पालन करना ही ईश्वर भक्ति है।
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ईश्वर के प्रति कर्तव्य-पालन का जहां तक संबंध है उसके रिझाने के लिये किसी पृथक कर्तव्य या अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं। वह खुशामद पसंद नहीं है। ईश्वर के दरबार में ब्लैक और रिश्वत नहीं चलती। वहाँ तो उपर्युक्त आश्रम और मर्यादानुसार यम -नियमों की दिव्य साधना ही काम आती है। अज्ञान और अविद्या के कारण अथवा ईश्वर -विश्वास प्रधान भक्ति के 'अतिवाद' के कारण आज हमारे देश में फल-फरक-भक्ति प्रचलित है। मंदिरों में हम भोग प्रसाद आदि इसलिए रखते हैं अथवा देवी पर बकरा इसलिए काटते और कटवाते अथवा कीर्तन,तीर्थ यातर,व्रतोपवास इसीलिए करते हैं कि ऐसा कराने से हमें धन की या संतान की प्राप्ति हो या फिर किसी मुकदमे में ही जीत हो जावे। कई विद्यार्थी भी इसलिए भोग प्रसाद आदि रखते देखे गए हैं क्योंकि वे बिना परिश्रम किए ही परीक्षा मे उत्तीर्ण हो जाना चाहते हैं। कैसी विचित्र भक्ति है!गंगा यमुना का स्नान,तीर्थ यात्रा,काशीमरण आदि से मोक्ष प्राप्ति रूप अनेकों,मिथ्या,माहात्स्य इसी फलपरक भक्ति के ही नमूने हैं। इनसे संसार में घोर पाप और आलस्य ही बढ़ा है और बढ़ रहा है। वस्तुतः यह सब खुशामद ईश्वर के निकट कोई महत्व नहीं रखती। वहाँ तो ‘अवश्यमेव भोक्त-व्यं कृतं कर्म शुभाsशुभम’ का सिद्धांत ही चलता है। माफी मुल्तबी का कोई प्रश्न ही नहीं। शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य मिलेगा ही। जब ऐसा है तो प्रश्न उठता है कि फिर हम ईश्वर-भक्ति क्यों करें ? ईश्वर-भक्ति से क्या लाभ ?
वस्तुतः उक्त प्रश्न भक्ति क्या है और उसका ठीक रूप क्या है,यह न समझने के कारण ही उठता है। यदि हम यह समझ सकें कि केवल प्राणिमात्र के प्रति अपने कर्तव्य-कर्मों का सम्यक पालन ही [न कि कोई अन्य विशेष अनुष्ठान] सच्ची प्रभु भक्ति है,तो यह प्रश्न ही नहीं पैदा होता। तब तो हम विचारेंगे कि मानव पूजा ही सच्ची ईश्वर पूजा है। मंदिर के भीतर स्थापित कल्पित ईश्वर की मूर्ति की अपेक्षा मंदिर की बाहर की चौखट से प्रताड़ित मानव मूर्ति [अछूत] की उपासना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। दरिद्र दुख भजन आर्त मानवता की सेवा तथा व्यवहार की शुद्धता और सात्विकता ही सच्चा यजन,भजन और पूजन है। काश! हमारा देश आस्तिकता के इस आचार प्रधान रूप को ठीक-ठीक समझ सकता!
परंतु इसे ठीक-ठीक समझने पर भी सत्यता से निभा सकने के लिए सजग ईश्वर विश्वास,अनंत आत्म-बल,आत्म-निरीक्षण,दृढ़ पुरुषार्थ,विनम्रता,निर्भयता सब प्राणियों में स्वात्मवत भावना आदि गुण अपेक्षित हैं। उक्त गुणों को प्राप्त कर सकने ,कुसंस्कारों के मल को धो कर सुसंस्कारों को जागृत करने तथा पापों के कारण रूप अभिमान और अवमान की भावना को मिटाने के लिए यह परम आवश्यक है कि मनुष्य अपना संबंध शक्ति के महान स्त्रोत प्रभु से स्थापित करे। यही भक्ति का ईश्वर विश्वास प्रधान रूप है। भक्ति का यह रूप जिससे साधक में उक्त गुणों का विकास हो कर वह लोक-संग्रह कार्य में प्रवृत्त होता है,भक्ति का चिंतन,शाश्वत,और सार्वभौम स्वरूप है।
वैदिक भक्तिवाद में पंच महायज्ञों का विधान विशेषतः इसी उद्देश्य से किया गया है। 1-ब्रह्मयज्ञ[संध्या] 2-देवयज्ञ[हवन] 3-पितृयज्ञ[जीवित माता-पिता एवं गुरुजनों की सेवा] 4-अतिथियज्ञ [आप्त विद्वानों,निष्काम देश भक्तों की सेवा] 5-भूतयज्ञ[प्राणिमात्र के प्रति सदभावना] यही पंच महायज्ञ हैं। इनमें से संध्या-आस्तिकता के ईश्वर-विश्वास प्रधान रूप से संबन्धित है तथा शेष महायज्ञ आचार प्रधान रूप से। संध्या से साधक अपने प्यारे प्रभु की गोद में बैठा हुआ आत्म-निरीक्षण करते हुए मानव जीवन के उद्देश्य पर विचार करता है और उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपने,समाज तथा प्रभु के प्रति जो उसका कर्तव्य है। उसके पालन करने के लिए वह कृतसंकल्प होता है। संध्या के मंत्रों द्वारा प्रभु की स्तुति,प्रार्थना और उपासना **करते हुए साधक उन मंत्रों में गुंथे हुए दिव्य संदेश को अपने क्रियात्मक जीवन में ढालने के लिए संकल्पशील होता है। प्रातः सायं संध्या में बैठा हुआ साधक मानो सुरक्षित किले में बैठे हुए उस सिपाही के समान है जो निश्चिंत भाव से अपने दिन भर के संघर्ष क्षेत्र का चित्र तैयार करता है,पिछले दिन की भूलों के प्रति सावधानी बर्तने का निश्चय करता है और कर्म क्षेत्र में उतर पड़ता है। सायंकाल पुनः किले में वापिस आकर अपने कर्तव्य कर्मों की समीक्षा करता है। इस क्रम से साधक नित्यशः अपने लक्ष्य के समीपतर होता जाता है। संध्या के 19 मंत्रों को केवल मात्र दुहरा लेने वाले सज्जन संध्या के इस रहस्य और मंत्रों में सन्निहित अलौकिक आनंद को कहाँ समझ सकते हैं ?
देवयज्ञ द्वारा जहां साधक व्यक्तिगत हितों को राष्ट्र हित के लिए आहूत कर देने का महान संदेश प्राप्त करता है,वहाँ वह अपने शरीर द्वारा फैलाई हुई दुर्गंध को दूर करने के लिए किसी अंश में वायुमण्डल को सुगंधित कर अपने मनुष्यपन रूप धर्म का पालन भी करता है। इसी प्रकार पितृयज्ञ,अतिथियज्ञ और भूतयज्ञ द्वारा अपने “स्व” का उत्तरोत्तर विकास करता हुआ वह ‘आत्मवत सर्वभूतेषु.’ के आदर्श को अपने जीवन में चरितार्थ करता है अर्थात उसका जीवन ‘यशमय’ हो जाता है। संसार से कम से कम लेकर अधिक से अधिक देने की पवित्र भावना उसके जीवन का एक आवश्यक अंग बन जाती है। ऐसा कर्मशील मनुष्य जीवन-मुक्त हो कर अपने समस्त व्यवहारों को अनासक्त भाव से एवं ‘वसुधैवकुटुम्बकम’ के आदर्श अनुप्राणित होकर करता है। यही ‘गुर’ विश्वशांति का मूल है।
पंच महायज्ञ ही ईश्वर भक्ति या आस्तिकता का सर्वांगीण स्वरूप हैं। आस्तिकता के दोनों रूपों का सम्यक समन्वय इनमें मिलता है। अतः पंच महायज्ञों का श्रद्धापूर्वक पालन करना एक आर्य [श्रेष्ठ मनुष्य] का नित्यकर्म है। भगवान मनु ने इसके विषय में कहा है-
ब्रह्मयज्ञम,देवयज्ञम,पितृयज्ञम च सर्वदा।
नृयज्ञम अतिथियज्ञम च यथाशक्तिं न हाषयेत॥
जो मनुष्य (स्त्री-पुरुष) इनके व्यावहारिक रूप को समझ कर इन्हें अपने जीवन (दिनचर्या) में स्थान देते हैं वही सच्चे अर्थों में ईश्वर भक्त हैं। भारत को आज ऐसे ही ईश्वर भक्तों की आवश्यकता है। इसी भावना से प्रेरित हो यह लघु प्रयास ईश्वर भक्तों के चरणों में सादर समर्पित है।
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*नित्य कर्म विधि
लेखक-आचार्य प्रेम भिक्षु वानप्रस्थ
प्रकाशक-
सत्य प्रकाशन
वृन्दावन मार्ग,मथुरा,उत्तर प्रदेश
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ईश्वर स्तुति,स्वस्ति वाचन और शांति प्रकरण के 'भवानी दयाल सन्यासी'जी द्वारा किए भावानुवाद दिये गए लिंक्स पर सुने जा सकते हैं-
ईश्वर स्तुति-प्रार्थना--
http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.in/2011/10/blog-post_28.html
स्वसतीवाचनम--
http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.in/2011/11/blog-post.html
शांति प्रकरणम--
http://janhitme-vijai-mathur.blogspot.in/2011/11/blog-post_06.html
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