हिंदुस्तान,लखनऊ के 27 मई,2013 के अंक में पृष्ठ-07 पर "डेढ़ सौ साल से ज़्यादा पुरानी है जेठ के मंगल की परंपरा" के अंतर्गत आँचल अवस्थी जी का विश्लेषण प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार 1846 से 1856 के मध्य एक 'इत्र'व्यापारी द्वारा जेठ माह के पहले मंगलवार को अलीगंज क्षेत्र में एक हनुमान मंदिर की स्थापना करवाई गई थी। तब से ही प्रत्येक वर्ष के जेठ माह के पहले मंगल को बड़ा मंगल के नाम से एक उत्सव के रूप मे मनाने की परिपाटी चली आ रही है लेकिन अब जेठ माह के सभी मंगलवार -बड़ा मंगल के रूप मे मनाए जा रहे हैं।
ऐसे ही पहले मंगल अर्थात बड़ा मंगल (तब तक वही पहला मंगल बड़ा मंगल होता था सभी नहीं)पर मैं मौत के मुंह मे समाते-समाते बच गया था जिसका विवरण पूर्व में प्रकाशित हो चुका है। : -
"५ या ६ वर्ष का रहा होऊंगा तब बड़े मंगल पर अलीगंज मंदिर में में भीड़ में छूट गया था.बउआ महिला विंग से गयीं.नाना जी ने अजय को गोदी ले लिया और बाबु जी शोभा को गोदी में लिए थे मैने बाबूजी का कुर्ता पकड़ रखा था.पीछे से भीड़ का धक्का लगने पर मेरे हाथ से बाबू जी का कुर्ता छूट गया और मैं कुचल कर खत्म ही हो जाता अगर एक घनी दाढ़ी वाले साधू मुझे गोद में न उठा लेते तो.वे ही मुझे लेकर बाहर आये और सब को खोजने के बाद एक एकांत कोने में मुझे रेलिंग पर बैठा कर खड़े रहे उधर नाना जी और बाबु जी भी अजय और शोभा को बाउआ के सुपुर्द कर मुझे ढूंढते हुए पहुंचे और खोते-खोते मैं बच गया".http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/08/blog-post_14.html
यहाँ सिर्फ यह स्पष्ट करना अभीष्ट है कि इस प्रकार के आयोजनों का कोई भी धार्मिक या आध्यात्मिक महत्व नहीं है ये मात्र 'व्यापारिक आयोजन' ही हैं जैसा कि इस परंपरा को एक व्यापारी द्वारा शुरू किए जाने की बात से ही सिद्ध हो जाता है।
'हनुमान' तो 'राम' की वायु सेना के प्रधान थे अर्थात चीफ एयर मार्शल। वह प्रकांड विद्वान व 'कूटनीतिज्ञ' भी थे। उनके रूप व चरित्र को जिस तरह इन मंदिरों में दिखाया जा रहा है वह स्पष्टत : उनका घोर अपमान करना ही है। राम द्वारा लंका पर आक्रमण करने से पूर्व हनुमान ने उनके 'राजदूत' के रूप में वहाँ जाकर रावण की सेना व खजाने को अपनी चतुराई से अग्नि बमों (नेपाम बमों)से नष्ट करके खोखला कर दिया था। उनके 'राडार' जिसे 'सुरसा' नाम से जाना जाता था को पूर्व में ही नष्ट कर डाला था जिससे राम की वायु सेना के विमानों की टोह रावण की सेना को न लग सकी थी।
विदेशी शासकों ने 'राम' और 'हनुमान' के साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र को दबाने व छिपाने हेतु हनुमान का रूप विकृत करने हेतु पोंगा-पंडितों को उकसाया जिसका दुष्परिणाम आज भयावह रूप में सामने है। इन थोथे उत्सव आयोजनों द्वारा जनता को न केवल उल्टे उस्तरे से मूढ़ा जा रहा है बल्कि उसके मस्तिष्क को भी ध्वस्त किया जा रहा है।
दन्त कथाओं मे गुमराह करने की बातें गढ़ कर जनता को मूर्ख बनाने हेतु कह दिया है कि 'हनुमान' ने पाँच वर्ष की बाल्यावस्था में 'सूर्य' को रसगुल्ला समझ कर निगल लिया था। (बाल समय रवि भक्ष्य लियो ,तीनों लोक भयो अंधियारों)।
जब ये बातें गढ़ी जा रही थीं हमारा देश गुलाम था और विदेशी शासक जनता को मूर्ख बना कर दबाने के उपक्रम करते रहते थे। उन विदेशी शासकों ने जनता को अपने पक्ष मे करने हेतु यह प्रचारित किया कि उनके हज़रत साहब ने 'चाँद' के दो टुकड़े कर दिये थे -आशय यह था कि यहाँ की उपेक्षित जनता उनकी अनुयाई बन कर शासकों को समर्थन प्रदान करे। उसको रोकने हेतु मूर्ख पंडितों ने कहानी गढ़ी कि वह क्या?हनुमान ने तो बचपन में ही सूर्य को निगल लिया था।
आज इक्कीसवीं सदी के प्रगतिशील युग में जब चाँद और मंगल पर मानव की पहुँच हो गई है भारत की असंख्य जनता गुलाम भारत के कुचक्रों से अपने को 'मुक्त' नहीं करना चाहती ,क्यों?क्योंकि व्यापारी/उद्योगपति/कारपोरेट/विदेशी साम्राज्यवादी भारत की जनता को जागरूक नहीं होने देना चाहते हैं सिर्फ इसीलिए ये सब ढोंग-पाखंड खूब धूम-धाम से मनाए जाते हैं।
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