Tuesday, May 28, 2013

मंगल और अमंगल का दंगल ---विजय राजबली माथुर

 
 हिंदुस्तान,लखनऊ के 27 मई,2013 के अंक में पृष्ठ-07 पर "डेढ़ सौ साल से ज़्यादा पुरानी है जेठ के मंगल की परंपरा" के अंतर्गत आँचल अवस्थी  जी का विश्लेषण प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार 1846 से 1856 के मध्य एक 'इत्र'व्यापारी द्वारा जेठ माह के पहले मंगलवार को अलीगंज क्षेत्र में एक हनुमान मंदिर की स्थापना करवाई गई थी। तब से ही प्रत्येक वर्ष के जेठ माह के पहले मंगल को बड़ा मंगल के नाम से एक उत्सव के रूप मे मनाने की परिपाटी चली आ रही है लेकिन अब जेठ माह के सभी मंगलवार -बड़ा मंगल के रूप मे मनाए जा रहे हैं। 

ऐसे ही पहले मंगल अर्थात बड़ा मंगल (तब तक वही पहला मंगल बड़ा मंगल होता था सभी नहीं)पर मैं मौत के मुंह मे समाते-समाते बच गया था जिसका विवरण पूर्व में प्रकाशित हो चुका है।  : -

"५ या ६ वर्ष का रहा होऊंगा तब बड़े मंगल पर अलीगंज मंदिर में में भीड़ में छूट गया था.बउआ महिला विंग से गयीं.नाना जी ने अजय को गोदी ले लिया और बाबु जी शोभा को गोदी में लिए थे मैने बाबूजी का कुर्ता पकड़ रखा था.पीछे से भीड़ का धक्का लगने पर मेरे हाथ से बाबू जी का कुर्ता छूट गया और मैं कुचल कर खत्म ही हो जाता अगर एक घनी दाढ़ी वाले साधू मुझे गोद में न उठा लेते तो.वे ही मुझे लेकर बाहर आये और सब को खोजने के बाद एक एकांत कोने में मुझे रेलिंग पर बैठा कर खड़े रहे उधर नाना जी और बाबु जी भी अजय और शोभा को बाउआ के सुपुर्द कर मुझे ढूंढते हुए पहुंचे और खोते-खोते मैं बच गया".http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/08/blog-post_14.html

यहाँ सिर्फ यह स्पष्ट करना अभीष्ट है कि इस प्रकार के आयोजनों का कोई भी धार्मिक या आध्यात्मिक महत्व नहीं है ये मात्र 'व्यापारिक आयोजन' ही हैं जैसा कि इस परंपरा को एक व्यापारी द्वारा शुरू किए जाने की बात से ही सिद्ध हो जाता है। 

'हनुमान' तो 'राम' की वायु  सेना के प्रधान  थे अर्थात चीफ एयर मार्शल। वह प्रकांड विद्वान व 'कूटनीतिज्ञ' भी थे। उनके रूप व चरित्र को जिस तरह इन मंदिरों में दिखाया जा रहा है वह स्पष्टत : उनका घोर अपमान करना ही है। राम द्वारा लंका पर आक्रमण करने से पूर्व हनुमान ने उनके 'राजदूत' के रूप में वहाँ जाकर रावण की सेना व खजाने को अपनी चतुराई से अग्नि बमों (नेपाम बमों)से नष्ट करके खोखला कर दिया था। उनके 'राडार' जिसे 'सुरसा' नाम से जाना जाता था को पूर्व में ही नष्ट कर डाला था जिससे राम की वायु सेना के विमानों की टोह रावण की सेना को न लग सकी थी। 

विदेशी शासकों ने 'राम' और 'हनुमान' के साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र को दबाने व छिपाने हेतु हनुमान का रूप विकृत करने हेतु पोंगा-पंडितों को उकसाया जिसका दुष्परिणाम आज भयावह रूप में सामने है। इन थोथे उत्सव आयोजनों द्वारा जनता को न केवल उल्टे उस्तरे से मूढ़ा जा रहा है बल्कि उसके मस्तिष्क को भी ध्वस्त किया जा रहा है। 

दन्त कथाओं मे गुमराह करने की बातें गढ़ कर जनता को मूर्ख बनाने हेतु कह दिया है कि 'हनुमान' ने पाँच वर्ष की बाल्यावस्था में 'सूर्य' को रसगुल्ला समझ कर निगल लिया था। (बाल समय रवि भक्ष्य लियो ,तीनों लोक भयो अंधियारों)। 

जब ये बातें गढ़ी जा रही थीं हमारा देश गुलाम था और विदेशी शासक जनता को मूर्ख बना कर दबाने के उपक्रम करते रहते थे। उन विदेशी शासकों ने जनता को अपने पक्ष मे करने हेतु यह प्रचारित किया कि उनके हज़रत साहब ने 'चाँद' के दो टुकड़े कर दिये थे -आशय यह था कि यहाँ की उपेक्षित जनता उनकी अनुयाई बन कर शासकों को समर्थन प्रदान करे। उसको रोकने हेतु मूर्ख पंडितों ने कहानी गढ़ी कि वह क्या?हनुमान ने तो बचपन में ही सूर्य को निगल लिया था। 

आज इक्कीसवीं सदी के प्रगतिशील युग में जब चाँद और मंगल पर मानव की पहुँच हो गई है भारत की असंख्य जनता गुलाम भारत के कुचक्रों से अपने को 'मुक्त' नहीं करना चाहती ,क्यों?क्योंकि व्यापारी/उद्योगपति/कारपोरेट/विदेशी साम्राज्यवादी भारत की जनता को जागरूक नहीं होने देना चाहते हैं सिर्फ इसीलिए ये सब ढोंग-पाखंड खूब धूम-धाम से मनाए जाते हैं।




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Sunday, May 26, 2013

समस्याएँ अनेक-समाधान एक---विजय राजबली माथुर

04 मई से 29 मई 2013 तक वृष राशि में 'गुरु' व 'शुक्र' ग्रह एक साथ होने का परिणाम है आज कल ग्रीष्म का प्रचंड -प्रकोप । 'राहू' व 'मंगल' तथा 'शनि' व 'मंगल' के मध्य बना 180 डिग्री का संबंध अमेरिका के तूफानी बवंडर ,बस्तर आदि की आतंकवादी  घटनाओं के कारक हैं (निर्णय सागर पंचांग के पृष्ठ-32एवं 33 पर पूर्व चेतावनी दी गई थी-
"राहू भौम सप्तम गति,शनि भौम संम सप्त। 
भूक्रंदनजन धन क्षति,मनसा मानस तप्त। । 
चक्रवात आंधी पवन,सागर देश विदेश। 
संहारक रचना गति,जन धन मध्य विशेष। । "

26 मई से 23 जून के मध्य सीमा क्षेत्रों में यातना तथा सम्पूर्ण विश्व में आतंकवादी हिंसा बढ्ने की चेतावनी दी गई है। 
परंतु खेद के साथ कहना और लिखना पड़ रहा है  कि कोई भी इस ओर उसी प्रकार ध्यान नहीं देगा जैसा कि पूर्व में हुआ था जो कि निम्नांकित के अवलोकन से सिद्ध हो जाएगा। :-----
 

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

[२७ अप्रैल २०१० को लखनऊ के एक स्थानीय समाचार पत्र में पूर्व प्रकाशित आलेख ]


दंतेवाडा त्रासदी - समाधान क्या है? http://krantiswar.blogspot.in/2011/04/blog-post_06.html




(त्रासदी के एक साल पूरा होने पर )

समय करे नर क्या करे,समय बड़ा बलवान.

असर ग्रह सब पर करे ,परिंदा पशु इनसान। 



मंगल वार 6 अप्रैल 2010 के भोर में छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा में ०३:३० प्रात पर केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल पर नक्सलियों का जो हमला हुआ उसमें ७६ सुरक्षाबल कर्मी और ८ नक्सलियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.यह त्रासदी समय कि देन है.हमले के समय वहां मकर लग्न उदित थी और सेना का प्रतीक मंगल-गृह सप्तम भाव में नीच राशिस्थ था.द्वितीय भाव में गुरु कुम्भ राशिस्थ व नवं भाव में शनि कन्या राशिस्थ था.वक्री शनि और गुरु के मध्य तथा गुरु और नीचस्थ मंगल के मध्य षडाष्टक योग था.द्वादश भाव में चन्द्र-रहू का ग्रहण योग था.समय के यह संकेत रक्त-पात,विस्फोट और विध्वंस को इंगित कर रहे थे जो यथार्थ में हो कर रहा.विज्ञानं का यह नियम है कि,हर क्रिया कि प्रतिक्रिया होती है.यदि आकाश मंडल में ग्रहों की इस क्रिया पर शासन अथवा जनता के स्तर से प्रतिक्रिया ग्रहों के अरिष्ट शमन की हुई होती तो इतनी जिन्दगियों को आहुति न देनी पड़ती।

जब हम जानते हैंकि तेज धुप या बारिश होने वाली है तो बचाव में छाते का प्रयोग करते हैं.शीत प्रकोप में ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते हैं तब जानबूझकर भी अरिष्ट ग्रहों का शमन क्यों नहीं करते? नहीं करते हैं तभी तो दिनों दिन हमें अनेकों त्रासदियों का सामना करना पड़ता है.जाँच-पड़ताल,लीपा – पोती ,खेद –व्यक्ति ,आरोप प्रत्यारोप के बाद फिर वही बेढंगी चाल ही चलती रहेगी.सरकारी दमन और नक्सलियों का प्रतिशोध और फिर उसका दमन यह सब क्रिया-प्रतिक्रिया सदा चलती ही रहेगी.तब प्रश्न यह है कि समाधान क्या है?महात्मा बुद्द के नियम –दुःख है! दुःख दूर हो सकता है!! दुःख दूर करने के उपाय हैं!!! दंतेवाडा आदि नक्सली आन्दोलनों का समाधान हो सकता है सर्वप्रथम दोनों और की हिंसा को विराम देना होगा फिर वास्तविक धर्म अथार्त सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य  का वस्तुतः पालन करना होगा.

सत्य-सत्य यह है कि गरीब मजदूर-किसान का शोषण व्यापारी,उद्योगपति,साम्राज्यवादी सब मिलकर कर रहे हैं.यह शोषण अविलम्ब समाप्त किया जाये.

अहिंसा-अहिंसा मनसा,वाचा,कर्मणा  होनी चाहिए.शक्तिशाली व समृद्ध वर्ग तत्काल प्रभाव से गरीब किसान-मजदूर का शोषण और उत्पीडन बंद करें.
अस्तेय-अस्तेय अथार्त चोरी न करना,गरीबों के हकों पर डाका डालना व उन के निमित्त सहयोग –निधियों को चुराया जाना तत्काल  प्रभाव से 

बंद किया जाये.कर-अपवंचना  समाप्त की जाये.
अपरिग्रह-जमाखोरों,सटोरियों,जुअरियों,हवाला व्यापारियों,पर तत्काल प्रभाव से लगाम कासी जाये और बाज़ार में मूल्यों को उचित स्तर पर आने दिया जाये.कहीं नोटों को बोरों में भर कर रखने कि भी जगह नहीं है तो अधिकांश गरीब जनता भूख से त्राहि त्राहि कर रही है इस विषमता को तत्काल दूर किया जाये.
ब्रह्मचर्य -धन का असमान और अन्यायी वितरण ब्रह्मचर्य  व्यवस्था को खोखला कर रहा हैऔर इंदिरा नगर, लखनऊ के कल्याण अपार्टमेन्ट जैसे अनैतिक व्यवहारों को प्रचलित कर रहा है.
अतः आर्थिक विषमता को अविलम्ब दूर किया जाये.चूँकि हम देखते हैं कि व्यवहार में धर्मं का कहीं भी पालन नहीं किया जा रहा है इसीलिए तो आन्दोलनों का बोल बाला हो रहा है. दंतेवाडा त्रासदी खेदजनक है किन्तु इसकी प्रेरणा स्त्रोत वह सामाजिक दुर्व्यवस्था है जिसके तहत गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है.कहाँ हैं धर्मं का पालन कराने वाले?पाखंड और ढोंग तो धर्मं नहीं है,बल्कि यह ढोंग और पाखण्ड का ही दुष्परिनाम है कि शोषण और उत्पीडन की घटनाएँ बदती जा रही हैं.जब क्रिया होगी तो प्रतिक्रिया होगी ही.



शुद्द रहे व्यवहार नहीं,अच्छे आचार नहीं.
इसीलिए तो आज ,सुखी कोई परिवार नहीं.



समय का तकाजा है कि हम देश,समाज ,परिवार और विश्व को खुशहाल बनाने हेतु संयम पूर्वक धर्म का पालन करें.झूठ ,ढोंग-पाखंड की प्रवृत्ति को त्यागें और सब के भले में अपने भले को खोजें.



यदि करम खोटें हैं तो प्रभु के गुण गाने से क्या 
होगा?
किया न परहेज़ तो दवा खाने से क्या होगा?

आईये मिलकर संकल्प करें कि कोई किसी का शोषण न करे,किसी का उत्पीडन न हो,सब खुशहाल हों.फिर कोई दंतेवाडा सरीखी त्रासदी भी नहीं दोहराए.



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Tuesday, May 21, 2013

वामपंथी दलों की एकता समय की मांग---डॉ गिरीश


 कामरेड डॉ गिरीश ,राज्य सचिव -भाकपा,उत्तर प्रदेश

 देश के मौजूदा राजनीतिक,आर्थिक व सामाजिक हालात ऐसे हो गए हैं कि आज के सभी वामपंथी दल राष्ट्रीय क्षितिज पर एकजुट होकर देश के राजनीतिक विकल्प के रूप मे अपने को  प्रदर्शित करें तो इसमे कोई शक नहीं कि उनकी अतीत की खोई हुई ताकत का एहसास भी फिर से हो जाएगा और उन्हें अपना वजूद भी नए परिवेश मे बनाए रखने का मार्ग अवश्य ही मिल जाएगा। केवल उन्हें नयी राजनीतिक स्थिति में देश के किसान,मजदूर,दलित,शोषित की समस्याओं को तरजीह देने तथा आम जनता को जातिवाद के चंगुल से निकालने और उसके हितों की सुरक्षा के लिए नयी सोच का संचार करने का संकल्प लेकर काम करने को वरीयता देनी होगी। इस स्थिति की आवश्यकता इस बात के लिए भी महसूस की जा रही क्योंकि आज के जो बड़े राजनीतिक दल हैं वे दलगत -जातीय-क्षेत्रीय राजनीति के सहारे अपने को सर्वोच्च सत्ता पाने की होड़ को वरीयता देने में जुटे हैं और इन्ही मुद्दों के आधार पर उनकी राजनीतिक शक्ति का भी प्रदर्शन हो जा रहा है। ऐसी स्थिति में जातियों के नेता जिनकी संख्या उनके समाज की संख्या के अनुपात में काफी कम होती है,वे ही राजनीतिक लाभ उठाते हैं और कभी-कभी तो ऐसे लोग अपने ही समाज के प्रति कठोर बनने में भी संकोच नहीं करते हैं जिसके कारण उनका एक बड़ा वर्ग असंतुष्ट होता है और जब ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा हो जाती है तो संबन्धित व्यक्ति को अपनी कसक का इजहार करके सबक सिखाने का काम करते हैं। ऐसी स्थिति होने पर समाज के उन चंद लोगों को अपने पर केवल पक्षतावा करने के अतिरिक्त कुछ कर पाना मुश्किल हो जाता है और इनकी अहमियत भी समाप्त सी हो जाती है और फिर नए सिरे से यही स्थिति जन्म लेती है जिसके बदले हुए परिणाम आने स्वभाविक होते हैं। शायद इस समय कुछ ऐसा ही होने की स्थिति के आसार बन रहे हैं।
इतिहास के झरोखे से देखें तो रूस मे क्रांति आने के बाद 1925 मे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनी और इसके बाद समाजवाद के रास्ते पर देश के चलने की स्थिति का प्रादुर्भाव हुआ। भारत मे देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए आंदोलन चल रहा था। इस समय भारत की आज़ादी के लिए कांग्रेस के नेतृत्व  में जो आंदोलन चल रहा था उसके अंतर्गत अंग्रेजों की व्यवस्था को सुधारने वाला सुझाव देने और अपने आंदोलन को गति देने का काम किया जा रहा था। शहीद भगत सिंह ने उस समय रूस की क्रान्ति से प्रभावित होकर समाजवादी व्यवस्था के निर्माण की बात को तरजीह दी और कहा कि ऐसी स्थिति में गोरे के जाने और काले अंग्रेज़ के सत्ता मे आने के बाद किसान,मजदूर,गरीब व दलित की सत्ता में भागीदारी नहीं हो पाएगी। यह स्थिति ज़्यादा दिन नहीं चली और कम्युनिस्ट पार्टी जो कांग्रेस के कयादत में काम कर रही थी उसके 1929 में कामरेड मौलाना हसरत मोहानी ने कांग्रेस के कानपुर के अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा जिससे नाराज़ होकर गांधी जी ने स्वंयसेवकों के जरिये उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जिस पर उन्होने सात दिन का अनशन भी किया। इस प्रकरण के कारण कांग्रेस में गरम दल व नरम दल की स्थिति बनी और 1931 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित कर दिया गया। इस समय तक कांग्रेस में बड़े-बड़े बैरिस्टर ,वकील व अन्य आर्थिक -सम्पन्न लोगों के होने के बाद भी जनांदोलन की स्थिति नहीं बन पायी थी। इस स्थिति के कारण कम्युनिस्ट पार्टी में किसान,मजदूर,दलित व अन्य सामाजिक लोगों को अलग-अलग जोड़ने के लिए छोटे-छोटे संगठनों का निर्माण किया।

कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने मिल कर 1920 में आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक)  तथा शहीद भगत सिंह ने 1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी बनाई जो बाद में हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी बनी,नौजवान भारत सभा का गठन भी इन्हीं दिनों हुआ। इसके अलावा स्वामी सहजानन्द सरस्वती ,राहुल सांकृत्यायन और दूसरे कम्युनिस्ट नेताओं की पहल पर अखिल भारतीय किसान सभा तथा आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन का भी गठन हुआ। आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन का सम्मेलन 12 से 14 अगस्त को अमीनाबाद के गंगा प्रसाद हाल में हुआ इसमें जवाहर लाल नेहरू ने भी भाग लिया था और फेडरेशन के पहले राष्ट्रीय महासचिव लखनऊ के प्रेम नारायण भार्गव बने थे। इसके बाद 1936 में ही प्रगतिशील लेखक संघ तथा 1941 में जननाट्य संघ (इप्टा)का गठन हुआ। 1949 में जमींदारी प्रथा की समाप्ती तथा 1950 के बाद देश के विकास के लिए बनने वाली प्रथम पंचवर्षीय योजना के निर्माण में भूमिका निभाने का कम्युनिस्टों ने योगदान किया। ज़मीनें बंटवाने के लिए विशेष भूमिका का निर्वहन किया और स्थिति यह रही कि आंदोलन चला कर सीतापुर व लखीमपुर में नौ हज़ार एकड़ भूमि को गरीबों में बांटने का काम किया गया। इस प्रकार कम्युनिस्ट दल के लोग कांग्रेस को किसान व मजदूरों के हित में काम करने को बाध्य कर रहे थे।

परन्तु इसी दौरान चीन ने 1962 में देश पर आक्रमण किया। इसके बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में चीन के आक्रमण के समर्थक और विरोधी गुटों में पहले आंतरिक चर्चा शुरू हुई और इस स्थिति में जब तेजी आई तो पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक आहूत की गई। इसी बैठक में चीन के आक्रमण की निन्दा किए जाने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया जिसका पार्टी के 32 लोगों ने विरोध किया। बाद में कई अन्य मुद्दों को लेकर 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हो गया और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो गया। चीन के हमले का समर्थन करने वाले 32 लोग मार्क्सवादी पार्टी में चले गए। इस स्थिति के बाद भी भाकपा कांग्रेस के साथ मिल कर काम कर रही थी किन्तु इन दोनों दलों का असर कांग्रेस के लोगों पर भी पड़ा और 1969 में कांग्रेस 'इंडिकेट' और 'सिंडीकेट' में विभाजित हो गई। 1969 में सी पी एम के बीच में एक नया विभाजन हुआ जिसमें नक्सलवादी आंदोलन के लोगों ने चारू मजूमदार के नेतृत्व में सी पी एम एल (माले)का गठन किया। इसके बाद भी इस दल में कई विभाजन हुये। इस बीच भी वामपंथी दलों के दबाव ने राजाओं-महाराजाओं के प्रवि -पर्स को वापस लेने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण  करने को कांग्रेस को बाध्य किया।

1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपात काल लागू कियाथा। इस समय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1977 में अपनी कान्फरेंस में  कांग्रेस के इस मूव का विरोध किया जबकि दल के अध्यक्ष एस .ए . डांगे ने न केवल इस निर्णय का विरोध किया बल्कि 'आल इंडिया कम्युनिस्ट पार्टी' का गठन कर डाला और अपनी पुत्री रोज़ा देश पांडे को इसका अध्यक्ष बनवाया। हालांकि डांगे के नेतृत्व वाली पार्टी उनके जीवन काल में ही समाप्त हो गई। इस प्रकार वामपंथी दल केरल,त्रिपुरा और  पश्चिम बंगाल में सी पी आई,सी पी एम,आर एस पी,फारवर्ड ब्लाक आदि संयुक्त रूप से मिलकर चुनाव में शिरकत करते हैं जिसके कारण इन राज्यों में वामपंथी दलों की सरकारें भी बनती हैं किन्तु अन्य राज्यों में इंनका यत्र-तत्र ही प्रतिनिधितित्व होता रहा है। यही स्थिति कमोबेश उत्तर प्रदेश में भी रही है। उत्तर प्रदेश में सी पी आई के सर्वाधिक 16 विधायक राज्य विधानसभा में पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा के समय में रहे जबकि सी पी एम के चार विधायक एक साथ राज्य विधानसभा में पहुँच सके। सांसदों की स्थिति भी उत्तर प्रदेश से कम ही रही है।

बहरहाल उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति में 1980 के बाद कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का प्रादुर्भाव हुआ। इसी दौरान भारतीय जनता पार्टी बड़े स्वरूप में आई। बहुजन समाज पार्टी भी अपने अन्तिम रूप में आने के पूर्व कई आवरण में जनता के समक्ष प्रदर्शित हुई है। परन्तु यह दल अपने स्वरूप में परिवर्तन करने के बाद भी दलित राजनीति को वर्चस्व देने की हिमायती रही है। समाजवादी पार्टी के 'क्रांति रथ' के सहारे मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीति को शिखर तक ले जाने का काम किया। भाजपा ने भी अयोध्या के विवादित ढांचे के प्रकरण को उछाल कर अपने वर्चस्व को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश की। इन स्थितियों मे कांग्रेस के खिलाफ अन्य राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से काम करने में जुटे  रहे जिसके कारण वह कमजोर हुई और क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ्ने लगा। 1989 में अयोध्या में विवादित ढांचे को लेकर तनावपूर्ण स्थिति निर्मित हुई और उसमे उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई और विरोधी दल की भूमिका में आ गई। 1991 में भाजपा की प्रदेश में मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। यह सरकार 1992 में अयोध्या का विवादित ढांचा गिरने के बाद गिर गई। दूसरी ओर संयुक्त दलों की सरकारों का दौर शुरू हो गया। इसी दरम्यान समाजवादी पार्टी ने सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ सशक्त मोर्चा खोलने के लिए वामपंथी दलों का भरपूर दोहन किया और इसके बदले उन्हें विधानसभा चुनावों में सीटों को देकर उनकी मदद करने और अपने दल के प्रत्याशी नहीं उतारने का वादा किया। यह वादा ज़्यादा दिनों तक नहीं चला । इसी बीच सपा ने बसपा के साथ मिलकर प्रदेश में सरकार का गठन किया। हालांकि यह गठबंधन ज़्यादा समय तक नहीं चल पाया। नौवें दशक के उत्तरार्ध में होने वाले विधानसभा चुनावों में वामपंथी दल मिलकर और समझौते के आधार पर चुनाव लड़ने का काम करते रहे और इसके कारण 2007 तक विधानसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का प्रतिनिधित्व रहा किन्तु 2007 व 2012 के सामान्य विधानसभा चुनाव में इन दलों का अस्तित्व विधानसभा में समाप्त हो गया। इन दोनों विधानसभा चुनावों में भी वामपंथी दल एक होकर कुछ नहीं कर पाये। आज इन दोनों दलों को सपा,भाजपा,कांग्रेस व बसपा की ओर से किसी प्रकार का जुडने का संकेत नहीं मिल रहा है। आज ये वामपंथी दल सांप्रदायिकता के विरोध में सपा का साथ देने तथा आज़ादी की लड़ाई से लेकर आज़ादी के बाद तक कांग्रेस के साथ मदद करने वाले का सहारा देने वाला कोई नहीं है और इन दोनों ही दलों को आज़ादी के आंदोलन के समय जिस प्रकार किसानों,मजदूरों,दलितों व शोषितों व समाज के अन्य सभी तबके के लोगों को संगठित करने की नीति को किया और जिसके आधार पर अपनी वर्चस्वता हासिल की थी,उसी स्थिति और उसी रणनीति को आज भी अपनाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। इस आवश्यकता की प्रतिपूर्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सभी वामपंथी दलों को एकजुट होकर नए राजनीतिक विकल्प के रूप में सक्रिय होने की नीति से काम करने पर ज़ोर दिया जाये तो आधुनिक परिवेश में राजनीतिक स्थिति में सुधार आने में कोई बाधा नहीं आने वाली है। ऐसा उस स्थिति में और भी आवश्यक हो जाता है जब लोग स्वार्थी राजनीति के चक्कर में फंस कर अंधेरे में गुम सा हो जाने से परेशानी की स्थिति में सहारे की ज़रूरत का एहसास करने लगे हों। भले ही लोगों का यह एहसास आम जनमानस की वाणी नहीं बन पाया हो किन्तु यह हकीकत है और इस दिशा में आपसी कटुता और स्वार्थी नीति को त्याग कर एक होकर समर्पित भाव से जनता की सेवा भावना को वरीयता दिये जाने पर स्थिति स्पष्ट हो जाएगी और नई रोशनी भी मिलेगी जो भविष्य में बेहतर समय के प्रतीक के रूप में बनकर दिखेगी।



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भारत-पाक घनिष्ठता होने नहीं दी जाएगी ---विजय राजबली माथुर






यों तो उपरोक्त समाचारों की स्कैन कापियाँ ही यह बताने में सक्षम हैं कि,यू एस ए कभी भी भारत और पाकिस्तान के मध्य घनिष्ठता नहीं होने देगा;फिर भी एक बार और स्पष्ट कर देने में कोई हर्ज नहीं है। 

1857 ई की प्रथम 'क्रांति' की पारस्परिक फूट से हुई असफलता ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को 'फूट डालो और शासन करो' की नीति अपनाने को प्रेरित किया था। दूसरी तरफ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 ई में 'आर्यसमाज' की स्थापना द्वारा अहिंसक स्वतन्त्रता आंदोलन प्रारम्भ कर दिया था। उसे गतिहीन करने हेतु ब्रिटिश वाईसराय लार्ड डफरिन ने अपने चहेते पूर्व ICS एलेन आकटावियन हयूम के सहयोग से 1885 ई में 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना कारवाई जो तब ब्रिटिश साम्राज्य के 'सेफ़्टी वाल्व' के रूप में कार्य करती थी। अतः महर्षि दयानंद की प्रेरणा से आर्यसमाजी गण इस कांग्रेस में शामिल हो गए और उसे स्वाधीनता आंदोलन चलाने के लिए बाध्य किया गया। 'कांग्रेस का इतिहास' के लेखक डॉ पट्टाभि सीता रम्मईया ने स्वीकार किया है कि सत्याग्रह आंदोलनों में जेल जाने वाले 85 प्रतिशत लोग आर्यसमाजी थे। 

अतः 1905 में बंगाल का सांप्रदायिक विभाजन करके ब्रिटिश सरकार ने 1906 में ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन के माध्यम से 'मुस्लिम लीग' की स्थापना मुस्लिमों में सांप्रदायिकता भरने हेतु करवाई। 1920 में लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय के माध्यम से 'हिन्दू महासभा' की स्थापना तथाकथित हिंदुओं में सांप्रदायिकता भरने हेतु करवाई जो मुस्लिम लीग की भांति सफल न हो सकी। राम प्रसाद 'बिस्मिल',चंद्र शेखर'आज़ाद',भगत सिंह'आज़ाद' आदि क्रांतिकारियों द्वारा स्थापित 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' क्रांति द्वारा ब्रिटिश शासन को उखाड़ने हेतु कटिबद्ध हो गई थी। अतः पूर्व क्रांतिकारी दामोदर विनायक सावरकर को आगे करके ब्रिटिश सरकार ने RSS की स्थापना 1925 में  करवाई जिसे जमींदारों व व्यापारियों का समर्थन हासिल हो गया और इस संगठन ने मुस्लिमों के विरुद्ध हिंदुओं को लामबंद करके देश को सांप्रदायिक दंगों की भट्ठी में झोंक दिया। 1940 में मुस्लिम लीग ने भारत से अलग देश 'पाकिस्तान' की मांग रखी जिसे ब्रिटिश सरकार का समर्थन हासिल था। 1947 में 'भारत' और 'पाकिस्तान' दो देश तो बन गए किन्तु ब्रिटिश साम्राज्य भी टूट चुका था और उसका स्थान USA ने ले लिया था। 

कश्मीर-लद्दाख क्षेत्र में 'प्लेटिनम'(http://vidrohiswar.blogspot.in/2011/07/blog-post.html) जो 'यूरेनियम' के निर्माण में सहायक होता है की प्रचुरता के कारण यू एस ए की निगाह 'काश्मीर' पर लग गई और उसने ब्रिटिश वाईसराय रहे भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंट बेटेन के सहयोग से पाकिस्तान को उकसा कर काश्मीर पर आक्रमण करवा दिया था। तब से अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर पाकिस्तान कई युद्ध भारत से लड़ चुका है लेकिन 1/4 भाग हथियाने के बावजूद वह काश्मीर नहीं ले सका है। चीन का भी समर्थन पाकिस्तान को है और रूस ने भी कभी भी भारत को शक्ति-सम्पन्न नहीं होने देना चाहा है। दूसरी तरफ रफी अहमद किदवई और सरदार पटेल ने मिल कर संविधान में धारा 370 के अंतर्गत गैर काश्मीरियों के उस क्षेत्र में भूमि खरीदने को प्रतिबंधित करा दिया जिससे अमेरिकी मंसूबे ध्वस्त हो गए। 

एक तरफ पाकिस्तान से सैन्य आक्रमण तो दूसरी तरफ RSS से धारा 370 पर सांप्रदायिक आक्रमण यू एस ए करवाता रहता है ताकि वह काश्मीर के 'प्लेटिनम' पर अधिकार करके उससे 'यूरेनियम' हासिल कर सके जो परमाणू बम और ऊर्जा दोनों के काम आता है। पाकिस्तान मे पूर्व अमेरिकी राजदूत कैमरन मंटेर ने पाकिस्तान के मनोनीत प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ साहब को भारत के प्रति नर्म रुख न रखने को इसी हेतु कहा गया है। अमेरिकी इशारे पर ही वहाँ के सेनाध्यक्ष ने भी उनको ऐसा ही संकेत दिया है। अतः स्पष्ट है कि,अपने तमाम नेक इरादों के बावजूद भी नवाज़ शरीफ साहब भारत के साथ सौम्य संबंध न रख सकेंगे।



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Tuesday, May 14, 2013

जब मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने संयुक्त सरकार बनाई ---विजय राजबली माथुर

अल्लाह बख्श जी की पुण्य तिथि 14 मई पर विशेष :

 
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शमसुल इस्लाम साहब बधाई एवं धन्यवाद के पात्र हैं जो इतिहास के पन्नों मे छिपी सच्चाई को सब के सामने लाये हैं। यह एक अकाट्य सत्य है कि,1947 में हुआ देश-विभाजन एक 'साम्राज्यवादी साजिश' था जिसे धर्म पर आधारित बताया गया जबकि वह 'सांप्रदायिक' प्रथक्करण था। वस्तुतः 'साम्राज्यवाद' और 'सांप्रदायिकता' सहोदरी हैं। भारत में साप्रदायिकता का विष-वमन  ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा 1857 ई . की प्रथम 'क्रान्ति' को कुचलने के बाद किया गया था। मुगल सम्राट और शायर बहादुर शाह 'जफर' के नेतृत्व मे सम्पन्न हुई इस क्रांति मे मराठे भी तहे-दिल से शामिल थे । अवध की बेगम और झांसी की रानी एक साथ थीं। अतः 'फूट डालो और शासन करो' की नीति के तहत ब्रिटिश साम्राज्यवादियों  ने तथा कथित हिंदुओं एवं मुस्लिमों को सांप्रदायिक आधार पर टकराने का वातावरण सृजित किया। लेकिन क्यों और कैसे?-----

अपनी युवावस्था में 1857 की क्रांति में भाग ले चुके महर्षि स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने 1875 ई .की  चैत्र प्रतिपदा को 'आर्यसमाज' की स्थापना की जिसका मूल उद्देश्य 'स्व-राज्य'प्राप्ति था। शुरू-शुरू में आर्यसमाजों की स्थापना वहाँ-वहाँ की गई थी जहां-जहां ब्रिटिश छावनियाँ थीं। ब्रिटिश शासकों ने महर्षि दयानन्द को 'क्रांतिकारी सन्यासी' (REVOLUTIONARY SAINT) की संज्ञा दी थी। आर्यसमाज के 'स्व-राज्य'आंदोलन से भयभीत होकर वाईस राय लार्ड डफरिन ने अपने चहेते अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन (A. O.)हयूम के सहयोग से वोमेश चंद्र (W.C.)बेनर्जी जो परिवर्तित क्रिश्चियन थे की अध्यक्षता में 1885 ई .में  इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य के 'सेफ़्टी वाल्व'के रूप मे करवाई थी। किन्तु महर्षि दयानन्द की प्रेरणा पर आर्यसमाजियों ने कांग्रेस में प्रवेश कर उसे स्वाधीनता आंदोलन चलाने पर विवश कर दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' नामक पुस्तक में लेखक -पट्टाभि सीता रमईय्या ने स्वीकार किया है कि देश की आज़ादी के आंदोलन में जेल जाने वाले 'सत्याग्रहियों'में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। 

अतः 1905 में बंगाल का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर करके ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को प्रेरित करके ब्रिटिश शासकों ने 'मुस्लिमलीग'की स्थापना 1906 ई .में करवाई। मुस्लिम लीग का कार्य 1857 की क्रांति की भावना को उलट कर मुस्लिमों में हिंदुओं के प्रति नफरत भरना  था  जिसमें वह सफल रही। इस सफलता से उत्साहित होकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने लाला लाजपत राय एवं मदन मोहन मालवीय के माध्यम से 'हिंदूमहासभा'का गठन 1920 ई .में करवाया जो हिंदुओं को मुस्लिमों के विरुद्ध एक जुट करने में लग गई किन्तु सफल न हो सकी। अतः पूर्व क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को मिलाकर ब्रिटिश सरकार ने RSS का गठन 1925 ई .में करवाया। RSS और हिन्दू महासभा मिल कर हिंदुओं में मुस्लिमों के प्रति नफरत भरने मे कामयाब हो गए। 

जहां एक ओर आर्यसमाजियों के प्रभाव से कांग्रेस 'संप्रदाय निरपेक्ष'रही वहीं मुस्लिमों में 'मुस्लिम लीग' के विरोध को जगा कर 1940 ई .में दिल्ली में 'आज़ाद मुस्लिम कान्फरेंस' का आयोजन सिंध प्रांत की  सरकार के मुखिया 'अल्लाह बख्श 'जी ने किया। उन्होने 1942 ई .के 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन का समर्थन भी किया जिस कारण 10 अक्तूबर 1942 ई .को उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और सिंध मे उनके स्थान पर 'हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग'की संयुक्त सरकार बनी जो ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की संरक्षक थी। इस संयुक्त सरकार ने 14 मई 1943 ई .को अल्लाह बख्श जैसे देश-भक्त और अखंड-भारत समर्थक की क्रूर व निर्मम हत्या करा दी। 

RSS/हिन्दू महासभा/मुस्लिम लीग गठबंधन भारत-विभाजन की ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति में सहायक रहा और छल -बल से सफल रहा।  आज़ादी के बाद आर्यसमाज में RSS के लोग घुस पैठ कर गए और उसको सांप्रदायिक रंग में रंगने लगे जो महर्षि दयानन्द की नीतियों के विपरीत है। इसी लिए 'अहिंसा' का समर्थक आर्यसमाज आज RSS की 'लाठी-संस्कृति'से प्रभावित है जैसा कि हरियाणा में चले संघर्ष से सिद्ध हो रहा है जहां 'वंदनीय मातृ -शक्ति'का उद्घोष करने वाले आर्यसमाजियों ने महिला पुलिस सिपाहियों को घायल करने मे बहदुरी समझी है। यह न केवल महर्षि के आर्यसमाज के लिए अहितकर है बल्कि भारत की एकता व अक़छुणता के लिए भी घातक है।

यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि 1925 ई .में जब क्रांतिकारी कांग्रेसियों ने आज़ादी के आंदोलन को और 'धार' देने हेतु 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की तो उसमे महा पंडित राहुल सांकृत्यायन,गेंदा लाल दीक्षित एवं स्वामी सहजानन्द सरीखे कट्टर आर्यसमाजी भी देश-प्रेम की भावना से शामिल हुये और अपना सक्रिय सहयोग कम्युनिस्ट पार्टी को दिया। आज RSS के हस्तक्षेप के कारण आर्यसमाज और कम्युनिस्ट पार्टी परस्पर विरोधी हो गए हैं। संस्कृत महा विद्यालय ,हापुड़ के पूर्व प्राचार्य ओरेय्या वासी आचार्य राम किशोर जी जिनहोने 35 वर्ष RSS में रहने के बाद उसे 'राष्ट्र विरोधी' गतिविधियों में शामिल होने के कारण 1992 ई .के बाद छोड़ दिया था;आर्यसमाज-गुरुकुल,एटा में भी आचार्य रहे हैं और प्रभावशाली आर्यसमाजी प्रवचक हैं का कहना है कि "आर्यसमाज व कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियाँ तो एक समान हैं केवल कार्य -पद्धत्ति का अन्तरहै।"वस्तुतः आर्यसमाज के 'कर्तव्य दर्पण' और कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान मे आमदनी का एक प्रतिशत संगठन को देने की बातें  ही समान नहीं हैं बल्कि समस्त मानवता के कल्याण की भावना भी समान है। आज अल्लाह बख्श सरीखे अन्य बलिदानियों -राम प्रसाद 'बिस्मिल',अशफाक़ उल्लाह खान,चंद्र शेखर आज़ाद ,सरदार भगत सिंह के सपनों का भारत बनाने की दिशा 'भारत-पाक-बांग्ला देश महासंघ' बनाने की महती आवश्यकता है।

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Friday, May 10, 2013

गुमराह करने वाले ठगों से सावधान---विजय राजबली माथुर

 अगस्त 2012 अंक ---



उपरोक्त स्कैन उस पत्रिका के एक लेख का है जो लखनऊ में अगस्त 2012 के ब्लागर सम्मेलन में मुफ्त वितरित की गई थीं। लेखक शास्त्री जी ने 'वास्तु शास्त्र' के मान्य नियमों के विपरीत गुमराह करने वाली सलाह पाठकों को दी है जिसे 'लाल रेखांकित' कर दिया गया है। यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि पत्रिका के प्रबन्धक गण IBN 7 के कारिंदा उस ब्लागर के घनिष्ठ हैं जिसने पूना प्रवासी भृष्ट-धृष्ट-निकृष्ट-ठग ब्लागर को खुश करने हेतु-'ज्योतिष एक मीठा जहर' लेख अपने ब्लाग में दिया था। 

जो लोग इस लेख के अनुसार 'दक्षिण-पश्चिम'में 'शौचालय'बनाएँगे उनके परिवार की समृद्धि तो क्या होगी?उल्टे परिवार के मुखिया तथा पुरुष वर्ग के सदस्यों को स्वास्थ्य के लाले पड़ जाएँगे एवं अचल संपत्ति नष्ट होने तथा परिवार के बिखरने के लक्षण शीघ्र ही देखने को मिलेंगे। 

वास्तु शास्त्र क्या कहता है?

'पूर्व' और 'उत्तर' दिशाएँ नीची अथवा ढलान युक्त तथा हल्की होनी चाहिए। 

'पश्चिम' और 'दक्षिण'दिशाएँ  ऊंची तथा भारी होनी चाहिए। 

'उत्तर-पूर्व'=ईशान कोण 'जल' तत्व का होने के कारण कुआं,नल-कूप,बोरिंग आदि के लिए उत्तम है यहीं ध्यान-मेडीटेशन भी कर सकते हैं। पोंगा-पंथी यहीं 'मंदिर' बनवा देते हैं जबकि एक गृहस्थ परिवार में घर के भीतर मंदिर होना प्रबल वास्तु-दोष होता है। 

'दक्षिण-पूर्व'=आग्नेय कोण 'अग्नि'तत्व का होने के कारण 'रसोई घर' के लिए उत्तम है। 

'दक्षिण-पश्चिम'=नैऋत्य कोण 'ठोस' एवं 'भारी' जितना होगा उतना ही घर परिवार समृद्ध होगा। यहाँ स्टोर-गोदाम भी बना सकते हैं। परिवार के मुखिया का शयन कक्ष यहाँ उत्तम होता है। 

'उत्तर-पश्चिम'=वावव्य कोण में 'शौचालय',सेप्टिक टैंक,गंदे पानी की निकासी के लिए उत्तम स्थान है। आने वाले मेहमानों हेतु 'अतिथि कक्ष' यहाँ ठीक रहता है जिससे कि वे ज़्यादा दिन टिकें नहीं शीघ्र प्रस्थान करें। तैयार माल का स्टोरेज भी यहाँ ठीक रहता है जिससे वह स्टाक में सड़े नहीं शीघ्र बिक्री हो जाये। 

प्रस्तुत स्कैन कापी यह गलत सलाह  दिखा रही है कि,दक्षिण-पश्चिम में शौचालय होने से समृद्धि आती है। जो स्थान ऊंचा और भारी होना चाहिए वहाँ शौचालय/सेप्टिक टैंक आदि होने पर गड्ढा खुदने से वह स्थान बेहद नीचा हो जाएगा जो भारी दोष होता है। फिर यह स्थान परिवार के मुखिया का है जिसे वह शास्त्री जी अशुद्ध करवा रहे हैं। 

ईशान कोण = उत्तर पूर्व में शौचालय अथवा रसोई घर बनवाने से परिवार के मुखिया तथा पुरुष वर्ग के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। आगरा में एक शिक्षक महोदय ईशान में शौचालय बनवाने के बाद रुग्ण होते गए -हार्ट अटेक का भी उनको सामना करना पड़ा। ईशान की रसोई वाले एक अधिकारी को पेट में गोली लगने का सामना करना पड़ा और अंततः नौकरी से इस्तीफ़ा भी देना पड़ा।

अग्निकोण =दक्षिण पूर्व में शौचालय/सेप्टिक टैंक होने पर महिला वर्ग तथा मुख्य गृहिणी  के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। मैनपुरी में मुलायम सिंह जी के साथ शिक्षक रहे एक साहब की पत्नी का स्वास्थ्य आग्नेय के सेप्टिक टैंक के ही कारण खराब चलता रहा है।  
भारत वास्तु-दोष पर आधारित देश है-


समाज में कुछ लोग प्रगतिशीलता/विज्ञान के नाम पर ज्योतिष व वास्तु शास्त्र का विरोध करते हैं तो दूसरी ओर अधिकांश लोग पोंगा-पंथी ढोंग व आडंबर को ही सिरोधार्य करते हैं चाहे वे कितने ही उच्च पदस्थ अधिकारी और शिक्षित हों। आगरा में दैनिक जागरण के एक पत्रकार के घर वास्तु -हवन कराने से मुझे इसीलिए मना करना पड़ा था। उनको किसी पोंगा-पंथी ने मात्र 10 मिनट के अंदर हवन कराने का आश्वासन दिया था लेकिन वह दान-पुण्य के नाम पर पाँच प्रकार की मेवा,पाँच वस्त्र,पाँच बर्तन,पाँच मिठाईया,पाँच फल,और स्वर्ण आभूषण समेत अच्छी रकम दक्षिणा में मांग रहा था। पत्रकार महोदय को वह सब भेंट करना मंजूर था किन्तु समय अधिक लगाना नहीं चाहते थे। 

इसी प्रकार 23 जनवरी 2013 को लखनऊ में एक अधिशासी अभियंता जो आगरा से ही परिचित रहे हैं ने हवन तो मुझसे करा लिया किन्तु वह मुहूर्त किसी और से निकलवाया था जो उनके लिए ठीक न था एवं जो शुभ समय उसमे से चुन कर बताया वह भी उन्होने गुज़ार दिया था। मैंने उनको हवन कराने से इंकार कर दिया था किन्तु वह दोनों पति-पत्नी आगरा से चले आ रहे  संपर्कों के आधार पर मेरे घर आकर निवेदन कर गए थे कि वे सब रिशतेदारों को आमंत्रित कर चुके हैं अतः इस बार उनकी इज्ज़त बचा ली जाये। उनकी इज्ज़त भले ही बच गई हो परंतु हवन का प्रतिफल उनको न मिल सका। 

H2 O=पानी होता है किन्तु H2 O2 होने पर हाईड्रोजन पर आकसाईड बन कर उड़ जाता है तब पानी प्राप्त नहीं होता है। इसी प्रकार नियमानुसार किया गया 'हवन' ही फलप्रद होता है अन्यथा तो आडंबर के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। हमारा देश प्रकृति की ओर से 'वास्तु-दोष' पर आधारित देश है क्योंकि दक्षिण प्रदेश समुद्र तट के निकट होने के कारण नीचे हैं और उत्तरी प्रदेश 'हिमालय पर्वत' के कारण ऊंचे हैं एवं पूर्व में भी पर्वत श्रंखलाए वास्तु दोष ही निर्मित कर रही हैं। फिर भी हमारा देश तब तक 'सोने की चिड़िया'था जब तक वास्तु-दोष निवारणार्थ सिर्फ अंतिम संस्कार को छोड़ कर शेष 15 संस्कारों से पूर्व वैज्ञानिक-वास्तु-हवन होते रहे। हवन न करने अथवा अशुद्ध तरीकों से करने पर हमारा देश परास्त होते-होते आर्थिक रूप से पिछड़ गया और अभी भी पिछड़ा व कर्जदार ही है। क्या हम अपने अतीत के वैज्ञानिक वास्तु-शास्त्र को अपना कर पुनः समृद्ध हो सकेंगे?

मैंने इसी ब्लाग में पोस्ट्स के माध्यम से समय-समय पर जन-कल्याण हेतु ज्योतिष/वास्तु शास्त्र संबन्धित तथ्यों को दिया है जिसका विरोध लगातार पोंगा-पंथियों द्वारा किया गया है। फिर भी मेरा फर्ज है कि मैं अपनी तरफ से लोगों को आगाह कर दूँ इसी हेतु इस पोस्ट को दिया जा रहा है।

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Tuesday, May 7, 2013

नेहरू की नीतियों पर था टैगोर का असर-हिंदुस्तान 22/नवंबर/2008(आगरा संस्करण)


07 मई टैगोर जयंती पर विशेष: 

उपरोक्त स्कैन कापी मे सुप्रसिद्ध इतिहासकार द्वारा आधुनिक भारत के निर्माण में कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रभाव को बेहतर तरीके से समझाया गया है जो किसी भी स्पष्टीकरण का मोहताज नहीं है। हमारा राष्ट्र गीत भी कवीन्द्र रवीन्द्र लिखित ही है। 

'काबुली वाला','गीतांजली' आदि रवीन्द्र नाथ टैगोर की अमर कृतियाँ है। 

1967 में इंटर की पढ़ाई के दौरान 'इंगलिश एडीशनल आप्शनल'की एक पुस्तक में रवीन्द्र नाथ टैगोर जी द्वारा लिखी हुई कहानी के कुछ अंशों का भावानुवाद इसलिए देना चाह रहा हूँ कि,विगत दिनों 'भ्रष्ट' लोगों द्वारा 'भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन' बड़े ज़ोर-शोर से चलाये गए थे जिसके  बाद भ्रष्टाचार मे बेशर्मी हद से भी ज़्यादा बढ़ गई है। अभी हाल ही में रेल मंत्री के भांजे को सी बी आई ने 90 लाख की रिश्वत के साथ रंगे-हाथों पकड़ा है। 

उक्त कहानी मे रवीन्द्र नाथ जी ने बताया है कि,एक परिवार में पानी मिला दूध आने पर लाने वाले नौकर पर निगरानी के लिए एक पर्यवेक्षक को रखने का नतीजा यह रहा कि हिस्सेदारों के बढ़ जाने से दूध की गुणवत्ता और घट गई तथा पानी और अधिक मिलाया जाने लगा। जितने निरीक्षक बढ़ाए गए मिलावट उतनी ही बढ़ती गई। उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से रवीन्द्र नाथ जी के तब के आंकलन की सच्चाई ही परिपुष्ट होती है। 
नेहरू जी पर टैगोर जी के ही प्रभाव के कारण एक कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार केंद्रीय मंत्री रफी अहमद किदवई साहब के बाराबंकी में बनने वाले मकबरे हेतु नेहरू जी ने एस्टिमेट से दुगुनी धन राशि की स्वीकृति दी थी। पूछने पर उनका उत्तर था कि हम जैसा मकबरा बनवाना चाहते हैं वैसा मांगी गई रकम से 50 प्रतिशत भ्रष्टाचार के चलते नहीं बन पाएगा। अतः रकम दुगुनी करने पर आधी रकम तो मकबरे पर खर्च होगी ही तभी वह ठीक बन पाएगा। 

आज उदारीकरण की शासन-व्यवस्था में सब कुछ भ्रष्टाचार मय हो चुका है। NGOs भ्रष्टाचार को वैधता प्रदान करने के उपकरण हैं। 40 प्रतिशत की रकम विभागीय कर्मचारी/अधिकारी अपने हिस्से के रूप मे काट लेते हैं जिनके लिए एन जी ओ संचालकों को 'फर्जी' बिल दाखिल करने पड़ते हैं। मुश्किल से 10 प्रतिशत रकम ज़रूरतमन्द जनता पर खर्च हो पाती है। 

ये घटना-क्रम सुनने से 46 वर्ष पूर्व कोर्स में पढ़ी रवीन्द्र नाथ टैगोर जी की कहानी की यादें ताजा हो जाती हैं। उस कहानी का रचना काल तो और भी पहले का है। कितना दूरदर्शी थे हमारे गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर जी!



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