Thursday, June 26, 2014

सावधान झूठ का खेल शुरू हो चुका है ---विजय राजबली माथुर

" मधुकर दत्तात्रेय (उर्फ बाला साहब) देवरस चाहते हैं कि,संघ उनके जीवन काल मे सत्ता पर काबिज हो जाये। इसके लिए डा जयदत्त पन्त के मतानुसार उन्होने लक्ष्य रखा था कि,शहरों का 2 प्रतिशत और गावों का 3 प्रतिशत जनसमर्थन प्राप्त कर लिया जाये जो संभवतः रामजन्म भूमि आंदोलन बनाम आडवाणी कमल रथ यात्रा से पूरा हो गया लगता है।"
http://krantiswar.blogspot.in/2011/09/blog-post_25.html

उपरोक्त पोस्ट के माध्यम से मैंने 1991 में व्यक्त विचारों को प्रकाशित किया था। 2014 के चुनाव परिणामों से उसकी पुष्टि भी हो गई है। कुल मतदान का 31 प्रतिशत वोट हासिल करके भाजपा (अप्रत्यक्ष रूप से RSS) सत्तासीन है, इसी ब्लाग के माध्यम से लगातार आगाह करता रहा हूँ परंतु मेरी हैसियत ही क्या है जो कोई मेरे विचारों पर ध्यान देता?

रियूमर स्पीच्युटिंग सोसाईटी ने अपना अफवाह फैलाने का कार्य बदस्तूर शुरू कर दिया है और इस बार मोहरा बनाया गया है नेताजी सुभाष चंद्र बोस को । फेसबुक पर नेताजी के संबंध में RSS समर्थक अखबार द्वारा भ्रामक प्रचार किया गया है जिसका कुछ वांम समर्थकों पर यह प्रभाव हुआ है कि वे नेताजी को संकीर्ण जातिवादी और श्रमिक विरोधी मान बैठे। नेताजी सुभाष खुद को साम्यवादी विचार धारा का वाहक कहते थे और देश में समाजवादी व्यवस्था स्थापित किए जाने के हामी थे। जिस प्रकार पुराणों के माध्यम से 'राम' व 'कृष्ण' का चारित्रिक पतन किया गया है उसी प्रकार वर्तमान में आधुनिक जन-नायकों के चरित्र हनन का सिलसिला शुरू किया गया है। यदि अभी से इसका डट कर मुक़ाबला नहीं किया गया तो दुष्प्रचारक अपने उद्देश्य में उसी प्रकार सफल हो जाएँगे जिस प्रकार जनता का वोट हासिल करने मे सफल हो गए थे। 

कामरेड बाला साहब देवाधे धन्यवाद के पात्र हैं जिनके सद प्रयत्नों से सच्चाई का तुरंत खुलासा भी हो गया है। इसी प्रकार हम सब को सतत जागरूक रहना होगा व जनता को भ्रमित होने से बचाना होगा।






लन्दन के फुटपाथ पर दो भारतीय रुके और
जूते पोलिश करने वाले से एक व्यक्ति ने जूते पोलिश करने को कहा ...

जूते पोलिश हो गये ..
पैसे चुका दिए और वो दोनों अगले जूते पोलिश करने वाले के
पास पहुँच गये !

वहां पहुँच कर भी उन्होंने वही किया...
जो व्यक्ति अभी जूते पोलिश करवाके आया था,

उसने फिर जूते पोलिश करवाए और पैसे चूका कर
अगले जूते पोलिश करने वाले के पास चला गया...........

जब उस व्यक्ति ने 7-8 बार पोलिश किये हुए ~
जूतो को पोलिश करवाया तो .....
उसके साथ के व्यक्ति के सब्र का बाँध टूट पड़ा.....
उसने पूछ ही लिया

" भाई जब एक बार में तुम्हारे जूते पोलिश हो चुके तो
बार-बार क्यों पोलिश करवा रहे हो"?

प्रथम व्यक्ति बोला
" ये अंग्रेज मेरे देश में राज़ कर रहे हैं,
मुझे इन घमंडी अंग्रेजो से जूते साफ़ करवाने में बड़ा मज़ा आता है !!

वह थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस..!!!
www.nationalparivartan.com













 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Tuesday, June 17, 2014

समाज को 'धर्म' का 'मर्म' समझाना ही होगा ---विजय राजबली माथुर

  

http://dlvr.it/60WrY9
बाबा ने की विदेश महिला से छेड़छाड़, गिरफ्तार
www.liveaaryaavart.com
उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद में एक फ्रांसीसी महिला के साथ एक बाबा ने छेड़छाड़ की। विदेश महिला ने इस संबंध में रिपोर्ट दर्ज कराई है। पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है। 
14 जून 2014 को समाज शास्त्र के प्रोफेसर साहब का यह लेख प्रकाशित हुआ और अगले ही दिन प्रधानमंत्री साहब के निर्वाचन क्षेत्र जिसे देश की सांस्कृतिक राजधानी पुकारा जाता है में यह घटना घटित हुई। समाज को संवेदनशील कैसे बनाया जाएगा जब ढोंगियों,पाखंडियों,आडंबरकारियों को 'बाबा','साधू','सन्यासी','धार्मिक प्रचारक','बापू'  आदि-आदि उपाधियाँ दी जाती रहेंगी। 

वस्तुतः पाँच हज़ार वर्ष पूर्व महाभारत काल के बाद 'धर्म' ='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का लोप हो गया और उसके स्थान पर 'ढोंग-पाखंड-आडंबर-शोषण-उत्पीड़न' को धर्म कहा जाने लगा। 'वेदों' का जो मूल मंत्र -'कृणवंतों  विश्वमार्यम  ...' था अर्थात समस्त विश्व को 'आर्य'=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना था उसे ब्राह्मणों द्वारा शासकों की मिली-भगत से ठुकरा दिया गया। 'अहं','स्वार्थ','उत्पीड़न'को महत्व दिया जाने लगा। 'यज्ञ'=हवन में जीव हिंसा की जाने लगी। इन सब पाखंड और कुरीतियों के विरुद्ध गौतम बुद्ध ने लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व बुलंद आवाज़ उठाई और लोग उनसे प्रभावित होकर पुनः कल्याण -मार्ग पर चलने लगे तब शोषकों के समर्थक शासकों एवं ब्राह्मणों ने षड्यंत्र पूर्वक महात्मा बुद्ध को 'दशावतार' घोषित करके उनकी ही पूजा शुरू करा दी। 'बौद्ध मठ' और 'विहार' उजाड़ डाले गए बौद्ध साहित्य जला डाला गया। परिणामतः गुमराह हुई जनता पुनः 'वेद' और 'धर्म' से विलग ही रही और लुटेरों तथा ढोंगियों की 'पौ बारह' ही रही।

यह अधर्म को धर्म बताने -मानने का ही परिणाम था कि देश ग्यारह-बारह सौ वर्षों तक गुलाम रहा। गुलाम देश में शासकों की शह पर ब्राह्मणों ने  'कुरान' की तर्ज पर 'पुराण' को महत्व देकर जनता के दमन -उत्पीड़न व शोषण का मार्ग मजबूत किया था जो आज भी बदस्तूर जारी है। पुराणों के माध्यम से भारतीय महापुरुषों का चरित्र हनन बखूबी किया गया है। उदाहरणार्थ 'भागवत पुराण' में जिन राधा के साथ कृष्ण की रास-लीला का वर्णन है वह राधा 'ब्रह्म पुराण' के अनुसार भी  योगीराज श्री कृष्ण की मामी  ही थीं जो माँ-तुल्य हुईं परंतु पोंगापंथी ब्राह्मण राधा और कृष्ण को प्रेमी-प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत करते हैं । आप एक तरफ भागवत पुराण को पूज्य मानेंगे और समाज में बलात्कार की समस्या पर चिंता भी व्यक्त करेंगे तो 'मूर्ख' किसको बना रहे हैं?चरित्र-भ्रष्ट,चरित्र हींन लोगों के प्रिय ग्रंथ भागवत के लेखक के संबंध में स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि वह गर्भ में ही क्यों नहीं मर गया था जो समाज को इतना भ्रष्ट व निकृष्ट ग्रंथ देकर गुमराह कर गया। क्या छोटा और क्या मोटा व्यापारी,उद्योगपति व कारपोरेट जगत खटमल और जोंक की भांति दूसरों का खून चूसने  वालों के भरोसे पर 'भागवत सप्ताह' आयोजित करके जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने का उपक्रम करता रहता है जबकि प्रगतिशील,वैज्ञानिक विचार धारा के 'एथीस्टवादी' इस अधर्म को 'धर्म' की संज्ञा देकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पोंगापंथ को ही मजबूत करते रहते हैं। 

एक और आंदोलन है 'मूल निवासी' जो आर्य को 'ब्रिटिश साम्राज्यवादियों' द्वारा  कुप्रचारित षड्यंत्र के तहत  यूरोप की एक आक्रांता जाति ही मानता है । जबकि आर्य विश्व के किसी भी भाग का कोई भी व्यक्ति अपने आचरण व संस्कारों के आधार पर बन सकता है। आर्य शब्द का अर्थ ही है 'आर्ष'= 'श्रेष्ठ' । जो भी श्रेष्ठ है वह ही आर्य है। आज स्वामी दयानन्द सरस्वती का आर्यसमाज ब्रिटिश साम्राज्य के हित में गठित RSS द्वारा जकड़ लिया गया है इसलिए वहाँ भी आर्य को भुला कर 'हिन्दू-हिन्दू' का राग चलने लगा है। बौद्धों के विरुद्ध हिंसक कृत्य करने वालों को सर्व-प्रथम बौद्धों ने 'हिन्दू' संज्ञा दी थी फिर फारसी शासकों ने एक गंदी और भद्दी गाली के रूप में इस शब्द का प्रयोग यहाँ की गुलाम जनता के लिए किया था जिसे RSS 'गर्व' के रूप में मानता है। अफसोस की बात यह है कि प्रगतिशील,वैज्ञानिक लोग भी इस 'सत्य' को स्वीकार नहीं करते हैं और RSS के सिद्धांतों को ही मान्यता देते रहते हैं। 'एथीस्ट वादी' तो 'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य' का विरोध ही करते हैं तब समाज को संवेदनशील कौन बनाएगा?

यदि हम समाज की दुर्व्यवस्था से वास्तव में ही चिंतित हैं और उसे दूर करना चाहते हैं तो अधर्म को धर्म कहना बंद करके वास्तविक धर्म के मर्म को जनता को स्पष्ट समझाना होगा तभी सफल हो सकते हैं वर्ना तो जो चल रहा है और बिगड़ता ही जाएगा। 

सत्य क्या है?:

'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य'। 

अध्यात्म=अध्ययन +आत्मा =अपनी 'आत्मा' का अध्ययन। 

भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)। 

खुदा=चूंकि ये पांचों तत्व खुद ही बने हैं किसी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 

गाड=G(जेनरेट)+O(आपरेट)+D(डेसट्राय) करना ही इन तत्वों का कार्य है इसलिए ये ही GOD भी हैं। 

व्यापारियों,उद्योगपतियों,कारपोरेट कारोबारियों के हितों में गठित रिलीजन्स व संप्रदाय जनता को लूटने व उसका शोषण करने हेतु जो ढोंग-पाखंड-आडंबर आदि परोसते हैं वह सब 'अधर्म' है 'धर्म' नहीं। अतः अधर्म का विरोध और धर्म का समर्थन जब तक साम्यवादी व वामपंथी नहीं करेंगे तब तक जन-समर्थन हासिल नहीं कर सकेंगे बल्कि शोषकों को ही मजबूत करते रहेंगे जैसा कि 2014 के चुनाव परिणामों से सिद्ध भी हो चुका है।


~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, June 7, 2014

घर-घर हो क्रांति तब सुधरेगा समाज ---विजय राजबली माथुर






बलात्कार जैसी हिंसा को औरत के वस्तुकरण से जोड़कर देखने की जरूरत है. यह औरत के खिलाफ अमानवीय हिंसाचार है जिसका संबंध हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के एकतरफा पुंसवादी पितृसत्ताक रवैये से है. इसे कला-संस्कृति के उन रूपों में भी खोजा जाना चाहिए जो केवल बाजारू धंधे की कैंसर जकड़ का शिकार हैं. अपनी (सीमित) जानकारी के आधार पर बता सकती हूँ कि भोजपुरी सिनेमा गंभीर रूप से औरतों के प्रति असंवेदनशील नजरिया रखता है. ऐसा नहीं है कि अन्य भाषाओं की फिल्मों में यह दिक्कत नहीं है लेकिन भोजपुरी में ताबड़तोड़ ऐसी ही फिल्मों और घटिया गानों का अम्बार लगाया जा रहा है. जो लोग यह कहते नहीं थकते कि सिनेमा का असर लोगों पर ज्यादा नहीं होता, वे पूरी तरह गलत हैं. ये फिल्में साफ्ट पोर्न का तीव्र गति से उत्पादन करती हैं जिनके कारण औरत औरत न दिख कर देह या मात्र अंग-विशेष नजर आती है. उनकी भूमिका नहीं वरन् शरीर हमें आकर्षित करता है. आगे चल कर यह वस्तुवादी नजरिया और भी अधिक विकृत होने लगता है. साफ्ट पोर्न की नियमित खुराक लेनेवालों को लगता है कि औरत पीड़ा, दुख और हिंसा में ही आनंद लेती है. कोई भी वस्तु यह नहीं कहती कि उसे तोड़ दो या नष्ट कर दो लेकिन औरत चाहती है कि उसे उत्पीड़ित किया जाए, तकलीफ दिया जाए. इसके एवज में वह आनंद में आपको सराबोर कर देगी. इसी कुंठित मानसिकता के कारण औरत हमेशा अमानवीय दरिंदगी का शिकार होती है. यह राजनीतिक या कानूनी मसला न होकर हमारी रुग्ण मानसिकता और बीमार रवैये की समस्या है.
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दोनों विदुषी महिलाओं ने यह स्वीकार किया है कि वर्तमान में चर्चित समस्या 'बलात्कार' राजनीतिक,कानूनी या सरकारी स्तर पर सुलझने वाली समस्या नहीं है।दोनों विद्वानों में  एक ने प्रत्यक्ष और दूसरी ने अप्रत्यक्ष रूप से सुझाया है कि इसके लिए परिवार के स्तर पर घरेलू पहल भी होना चाहिए। वस्तुतः इसी में समाधान अंतर्निहित है। 

मेरे विचार से लगभग 11 सौ वर्षों की गुलामी के दौरान हमारे देश के इतिहास और संस्कृति को विदेशी शासकों के हित में जिस प्रकार तोड़-मरोड़ दिया गया है उसे खुल कर ठुकरा देने की महती आवश्यकता है। कुरान की तर्ज़ पर चले पुराणों ने भारत के महापुरुषों का चरित्र हनन किया है और इसे अंजाम दिया है ढ़ोंगी-पाखंडी-आडंबरधारी पोंगापंथी ब्राह्मणों ने। आज भी ये पोंगापंथी ब्राह्मण व्यापारियों,उद्योगपतियों,कारपोरेट घरानों की प्रेरणा पर शोषित-उत्पीड़ित जनता को गुमराह करने हेतु पुराणों का खेल खेलते रहते हैं। उनके  इस अधर्म को तथाकथित प्रगतिशील और विज्ञानवादी 'एथीस्ट'लोग धर्म की संज्ञा देकर और अधिक पुष्ट कर देते हैं जिस कारण जनता के पास गुमराह होने व भटकने के सिवा कोई दूसरा विकल्प बचता ही नहीं है।  इन वैज्ञानिक प्रगतिशील एथीस्टवादियों में इतना भी नैतिक साहस नहीं है कि ये जनता को स्पष्ट समझा सकें कि जिसे धर्म बताया जाता है वह वास्तव में 'अधर्म' है । वस्तुतः 'धर्म' वह है जो मानव शरीर व मानव समाज को 'धारण करने हेतु आवश्यक है। ' 
'धर्म'=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
पोंगापंथी तो अपने निजी स्वार्थ में यह वास्तविकता नहीं बताते हैं परंतु प्रगतिशील,वैज्ञानिक एथीस्ट वादी भी धर्म का विरोध कर जनता को इन सद्गुणों से दूर रहने को कहते हैं। फिर जमाखोरी,टैक्स चोरी,हिंसा,उत्पीड़न,बलात्कार का बाज़ार नहीं गरम होगा तो क्या होगा?
'परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला होते हैं।'अतः पारिवारिक स्तर से अपने सदस्यों को वास्तविक 'धर्म' की शिक्षा दी जानी चाहिए और 'अधर्म'अर्थात पौराणिक ढोंग-पाखंड-आडंबर से बचने व दूर रहने की प्रेरणा दी जानी चाहिए। यदि 'भागवत पुराण' के नाम पर योगीराज श्री कृष्ण को चरित्र-भ्रष्ट बना कर अपनी मामी राधा के साथ रास लीला करते दिखाया व गुण गाँन  किया जाता रहेगा तो समाज से बलात्कार की समस्या को कैसे दूर किया जा सकता है?यदि प्रक्षेपक द्वारा यह दिखाया व बताया जाता रहेगा कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने विवाहित होते हुये भी स्वर्ण नखा (जिसे सूर्पनखा का संबोद्धन पौराणिकों ने दिया है )को लक्ष्मण के पास और लक्ष्मण ने राम के पास विवाह हेतु भेजा अर्थात उसे व्यर्थ परेशान किया तो समाज में किस मर्यादा की कल्पना की जा सकती है?
यदि एकमात्र युद्धीष्ठिर की पत्नी 'द्रौपदी' को पांचों पांडवों की पत्नी के रूप में चित्रित करते हुये 'चीर हरण' की गाथा गाई जाती रहेगी तो किस प्रकार महिला सम्मान की कल्पना की जा सकती है?
विदेशी शासकों का तो हित इसी में था कि यहाँ के महापुरुषों का चारित्रिक पतन प्रचारित किया जाये जिससे उनका अनुसरण करते हुये  भारतीय समाज पतित हो जाये और अपना विवेक खो बैठे जिससे उस पर सुगमता से शासन किया जा सके। और यही हुआ खटमल और जोंक की तरह दूसरों का खून चूसने वाली जाति के लोगों ने चंद चांदी के सिक्कों की खातिर विदेशी शासकों के हितों में महान चरित्रों का हनन करके 'पुराणों' के रूप में जनता के दिल-दिमाग में  ठूंस दिया जो आज भी बदस्तूर जारी है । 
उससे पहले समय-समय पर बुद्ध,महावीर आदि ने इन कुप्रथाओं का विरोध किया था  और जनता को जागरूक किया था  तो उन पर उनके जीवन काल में  इन पोंगापंथियों ने प्रहार किए  और उनके बाद उनको चमत्कारी अवतारी घोषित करके जनता को उनसे दूर कर दिया गया तभी तो विदेशी आक्रांताओं के आगमन पर उनका मुक़ाबला करने की बजाए देशवासियों ने पारस्परिक फूट के चलते उनका स्वागत ही किया। 
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आधुनिक युग में जब कुरीतियों पर प्रहार किया तब वाराणासी के ब्राह्मणों ने उन पर पथराव करवाया जिस प्रकार तुलसी दास की रामचरित मानस जला कर उनको वहाँ से हटा दिया था तब मस्जिद में शरण लेकर बच बचाकर तुलसी दास को अयोध्या आना पड़ा था। लेकिन दयानन्द ने इन ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया था। दयानन्द के विरोध में ब्रिटिश सरकार ने राधा स्वामी मत को खड़ा करवाया जिसका व्यापक प्रचार व प्रसार ब्रिटिश सरकार में प्रथम भारतीय पोस्ट मास्टर जेनरल के ओहदे पर रहे पूर्व सरकारी अधिकारी ने किया। 'सत्यार्थ प्रकाश' के खंडन हेतु 'यथार्थ प्रकाश' को लाया गया। दूसरी ओर ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा हेतु गठित RSS की घुसपैठ 'आर्यसमाज' में करवाई गई जिसके प्रभाव से आज आर्यसमाज भी RSS का पिछलग्गू बन कर दयानन्द के आदर्शों के विपरीत कार्यों में संलग्न हो गया रही सही कसर श्री राम शर्मा ने आर्यसमाज तोड़ कर गायत्री परिवार बना कर पूरी कर दी जिसने ढोंग-पाखंड-आडंबर को पुनः महिमामंडित कर दिया। 
प्रश्न यह है कि साधारण जनता को घर-घर जाकर कौन जाग्रत करेगा?व्यापार जगत के हितैषी पोंगापंथी तो कर ही नहीं सकते उनका तो कार्य ही जनता को गुमराह करके उल्टे उस्तरे से मूंढना है । 
प्रगतिशील,वैज्ञानिक साम्यवादी/वामपंथी तो 'एथीस्ट वादी' हैं उनका कार्य तो धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का विरोध करना व पोंगापंथियों के ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म के रूप में प्रचारित करना है और ऊपर से तुर्रा यह कि महर्षि कार्ल मार्क्स और शहीद भगत सिंह का ऐसा निर्देश है!वे यह नहीं बताते कि मार्क्स अथवा भगत सिंह ने लोक प्रचलित अधर्म-रिलीजन्स का विरोध किया था । ओल्ड टेस्टामेंट्स तथा प्रोटेस्टेंट्स के संघर्ष देखते हुये उन रिलीजन्स का मार्क्स ने विरोध किया है और भगत सिंह ने भी हिन्दू-इस्लाम मजहबों के संघर्ष देखते हुये उन मजहबों का विरोध किया है। न तो भगत सिंह ने न ही कार्ल मार्क्स ने धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का विरोध किया है जबकि एथीस्ट वादी वही कर रहे हैं जो उनके आदर्श महापुरुषों  द्वारा कहा  ही नहीं गया है। 
समाज और राष्ट्र में व्याप्त हर बुराई को दूर करने हेतु तथा व्यवस्था परिवर्तन हेतु जब तक साम्यवादी/वामपंथी शक्तियाँ जनता को वास्तविक धर्म का मर्म समझा कर अधर्म (ढोंग-पाखंड-आडंबर) से दूर रहने हेतु जाग्रत करने का अभियान अपने हाथ में नहीं ले लेतीं तब तक समाज से चोरी,डकैती,बलात्कार,लूट-मार,ठगी जैसे कुरीतियों को समाप्त नहीं किया जा सकता है। क्रांति के इच्छुक और तत्पर लोगों को पहले अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना होगा और फिर जनता को घर-घर जाकर क्रांति धर्म समझाना होगा तब जाकर समाज में सुधार की कोई गुंजाईश बनेगी वर्ना तो पोंगापंथी लुटेरे अपनी लामबंदी ढीली करने से रहे।


  ~विजय राजबली माथुर ©
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Monday, June 2, 2014

क्रांतिस्वर के चार वर्ष :नक्कारखाने में तूती की आवाज़ ---विजय राजबली माथुर



अखबार पढ़ने का शौक तो बचपन ही से था तभी तो बाबूजी लखनऊ में  रविवार  को   'स्वतंत्र भारत'का साप्ताहिक अंक 1959-60 में  6-7 वर्ष की उम्र से ही मुझे खरीद देते थे । फिर लखनऊ से बरेली जाने पर आफिस की क्लब से  क्रांतिकारियों के उपन्यास,धर्मयुग,साप्ताहिक हिंदुस्तान भी मेरे पढ़ने के  लिए ही ले आते थे। 1962 में उनके सिलीगुड़ी ट्रांसफर के बाद हम लोग शाहजहाँपुर में नानाजी के पास थे वहाँ नानाजी के एक भाई 'नेशनल हेराल्ड' लेते थे जब खाली मिलता था उसे पढ़ लेता था और हिन्दी में अर्थ नानाजी से पूछ कर समझ लेता था। 1968से 1974 तक मेरठ में फिर बाबूजी आफिस क्लब से धर्मयुग,साप्ताहिक हिंदुस्तान के अलावा सारिका,सरिता, तथा एक दिन पुराने हिंदुस्तान व नवभारत टाईम्स ले आते थे । पढ़ने के साथ-साथ अपने विचार लिखता चलता था और 1973 में 'पी सी टाईम्स' साप्ताहिक में मेरे कुछ लेख छपे भी।इससे पूर्व इसी वर्ष आगरा के 'पेडलर टाईम्स' में एक कविता तथा 'युग का चमत्कार' साप्ताहिक में एक लेख स्वामी दयानन्द'सरस्वती'पर 'अंधेरे उजाले' शीर्षक से छप चुका था। 1980 से 'सप्तदिवा साप्ताहिक',आगरा में अक्सर मेरे लेख छपते रहे इस पत्रिका से सहायक संपादक व फिर उप सम्पादक के रूप में सम्बद्ध भी रहा। बाद मे 2003 में साप्ताहिक 'ब्रह्मपुत्र समाचार' ,आगरा  में  भी मेरे लेख छपे वहीं  त्रैमासिक पत्रिका 'अग्रमंत्र ' में भी मेरे लेख स्थान पा सके बल्कि मुझे उप सम्पादक के रूप में सम्बद्ध भी किया गया जबकि वह पत्रिका वैश्य समुदाय की थी और कायस्थ होने के बावजूद मुझे अपवाद रूप से जोड़ा गया था। लखनऊ आने पर भी शुरू-शुरू में एक साप्ताहिक पत्र में मेरे लेख छपे। 

02 जून 2010 से ब्लाग 'क्रांतिस्वर' प्रारम्भ करने के बाद से समस्त  लेखन ब्लाग द्वारा ही हो रहा है फिर भी एक-दो पत्र-पत्रिकाओं ने कुछ ब्लाग-पोस्ट्स को प्रकाशित भी किया है। अगस्त 2010 से ही दूसरा ब्लाग 'विद्रोही स्व स्वर में' भी  प्रारम्भ हो गया था।इस ब्लाग में लखनऊ  से 1961 में  चल कर वापिस 2009 में लखनऊ लौटने तक का वर्णन करने का लक्ष्य था किन्तु कुछ वजहों से 1996 के बाद के घटनाक्रम लिख नहीं सके हैं।
'क्रांतिस्वर' 

इस ब्लाग  में राजनीति,ज्योतिष,सामाजिक,धार्मिक विषयों पर लेख दिये हैं और 'ढोंग-पाखंड-आडंबर'पर ज़बरदस्त प्रहार किया है। परिणामतः कुछ लोगों ने लामबंदी करके मेरे व मेरे परिवार को तबाह करने का अभियान चलाया हुआ है जिनमें निकटतम रिश्तेदार व अपनी पार्टी के लोग भी शामिल हैं। 

जन-कल्याण हेतु स्तुतियेँ देने हेतु 'जनहित में' नामक ब्लाग शुरू किया था जिसे 2011 के हज़ारे/केजरीवाल आंदोलन के विरोध में दो बार स्थगित किया था अब मोदी/केजरीवाल/हज़ारे/RSS के प्रति विरोध प्रकट करने हेतु प्राइवेट ब्लाग में तब्दील करके सार्वजनिक रूप से हटा लिया है। 

सर्वे भवन्तु सुखिनःसर्वे सन्तु निरामयः
इसके माध्यम से फेसबुक पर उपलब्ध स्वास्थ्य संबन्धित जानकारी को सार्वजनिक रूप से एक स्थान पर संग्रहित करके देना शुरू किया है। अपने पास उपलब्ध पूर्व जानकारी को भी इस ब्लाग के माध्यम से प्रकाशित किया है। 

कलम और कुदाल
इस ब्लाग के माध्यम से अपने विभिन पत्र-पत्रिकाओं में पूर्व-प्रकाशित लेख तथा खुद को पसंद औरों के लेख स्कैन कापी के रूप में लगाए हैं। कुछ विद्वानों के फेसबुक-नोट्स को भी इसके माध्यम से प्रकाशित किया है।

साम्यवाद (COMMUNISM)

इस ब्लाग का प्रारम्भ CPI के वरिष्ठ नेताओं संबंधी मेरे ब्लाग-पोस्ट्स एक पोंगापंथी किन्तु प्रभावशाली कामरेड द्वारा डिलीट करने व मुझे उस ब्लाग के एडमिन के रूप में हटाये जाने के बाद हुआ है। वस्तुतः वह बैंक कर्मी 'क्रांतिस्वर' में प्रकाशित मेरी कुछ ब्लाग पोस्ट्स को छल द्वारा डिलीट करना चाहता था इसीलिए उसने तिकड़म द्वारा पार्टी के ब्लाग में मुझे एडमिन बनाया था जिससे वह मेरा ID पासवर्ड हासिल कर सके। उसका यह मंसूबा पूरा न हो पाने के कारण उसने अपनी नापसंद के बर्द्धन जी व अंजान साहब से संबन्धित मेरे ब्लाग पोस्ट्स हटा कर मुझे एडमिनशिप से हटा दिया था। 
http://communistvijai.blogspot.in/2013/09/blog-post_11.html 
इस ब्लाग में अन्य कम्युनिस्ट विद्वानों के लेखों को भी स्थान दिया है जिस कारण खिन्न होकर  सीतापुर से संबन्धित उक्त बैंक कर्मी कामरेड ने छल द्वारा फेसबुक लिंक हेतु इस ब्लाग में झंझट खड़ा करवा दिया है। क्योंकि हमारे इस ब्लाग के कारण उनके द्वारा संचालित ब्लाग पर विजिट्स कम हो गए थे। बजाए अपनी गुणवत्ता सुधारने के उक्त विद्वेषी साहब ने इस ब्लाग पर झंझट  खड़ा करना उचित समझा है।

जन-साम्यवाद
साम्यवाद (COMMUNISM) ब्लाग पर झंझट लगने पर इस ब्लाग को शुरू किया था अतः इस पर भी उन लोगों द्वारा झंझट लगवा दिया गया है। 'सत्य' का सामना करने की हिम्मत न होने के कारण सत्य को उद्घाटित होने देने से रोकना ही उनको ठीक लगा है। 

जनहित में
साम्यवाद और जन-साम्यवाद दोनों नए ब्लाग्स में झंझट खड़ा करा दिये जाने से मुझे इस  एक और नए ब्लाग को शुरू करना पड़ा है। लेकिन उन टेढ़ी चाल वाले कामरेड ब्लागर साहब ने इस ब्लाग में भी झंझट खड़ा करा दिया है। 

ढोंग-पाखंड-आडंबर के विरुद्ध लड़ाई में साथ देने के बजाए 'एथीस्टवादी' उसमें अड़ंगा लगा कर अप्रत्यक्ष रूप से पोंगापंथियों की ही मदद कर रहे हैं। ऐसी मानसिकता की बहुलता के कारण ही जनता से साम्यवादी पार्टियां कटी-कटी रहती हैं। 

मुख्य रूप से 'क्रांतिस्वर' ब्लाग के माध्यम से तमाम झंझावातों के बावजूद हमारा अभियान जारी है और आजीवन जारी रहेगा। हालांकि मुझे यह भी मालुम  है की इस छल-छद्यम की दुनिया में मेरी आवाज़ 'नक्कारखाने में तूती की आवाज़' ही बनी रहेगी। सच्चाई किसी को कभी भी स्वीकार नहीं होगी और मैं सच्चाई का रास्ता कभी भी  छोडूंगा नहीं।

 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।