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नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रहस्यपूर्ण मृत्यु के विवाद के बाद अब पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु के लगभग 50 वर्षों बाद उसे रहस्यपूर्ण बताते हुये जांच की मांग की गई है। वैसे तो ताशकंद समझौता होने के बाद जनसंघ ने सारी दिल्ली को काले झंडों से पाट दिया था जो शास्त्री जी की वापसी पर विरोध जताने के लिए था। किन्तु ताशकंद में उनकी मृत्यु की खबर मिलने के बाद वे झंडे हटा लिए गए थे। उस समय के अखबारों में ऐसी खबरें मिल जाएंगी। यह भी खबर उडी थी कि लाल बहादुर जी के बड़े सुपुत्र हरी किशन शास्त्री ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री व गृह मंत्री गुलज़ारी लाल नंदा जी से मिल कर अपने पिता की मृत्यु पर संदेह प्रकट किया था। लेकिन नंदा जी ने उनको पारिवारिक संकट से बचने हेतु चुप रहने की सलाह दी थी और बाद में उनको लोकसभा सदस्य बनवा दिया था।
मोरारजी देसाई को कांग्रेस संसदीय दल में परास्त कर इन्दिरा जी प्रधानमंत्री बन गईं थीं 1967 के आम चुनाव के बाद फिर मोरारजी देसाई ने उनको चुनौती दी थी । इस बार इंदिराजी ने उनको उप-प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री बना कर समझौता कर लिया किन्तु बनवाने वालों के लिए 'गूंगी गुड़िया' न सिद्ध हुईं तो के कामराज नाडार ( जो राष्ट्रपति राधा कृष्णन से मिल कर नेहरू जी को पदच्युत करने का असफल प्रयास कर चुके थे), एस निजलिंगप्पा, एस के पाटिल,अतुल घोष और मंत्रीमंडल से बर्खास्त मोरारजी देसाई ने मिल कर 1969 में 111 सांसदों का अलग गुट बना कर 'कांग्रेस ओ ' का गठन कर लिया था। हरी कृष्ण शास्त्री भी इस गुट में शामिल हो गए थे। 1972 के मध्यावधी चुनावों में कांग्रेस ओ के टिकट पर चौगुटा मोर्चा के समर्थन से वह मेरठ संसदीय क्षेत्र से प्रत्याशी थे। तब पहली बार जनसंघ ने उनको 'ताशकंद के शहीद' का पुत्र कह कर प्रचारित किया था। बाद में उनकी पत्नि रीता शास्त्री भाजपा सांसद भी रही हैं।
1989 में जब वी पी सिंह ने सुनील शास्त्री को हरा कर संसदीय सीट जीती तब अनिल शास्त्री को अपने मंत्रीमंडल में शामिल किया था। लेकिन तब अनिल शास्त्री ने उन वी पी सिंह के समक्ष अपने पिता की मृत्यु की जांच की मांग नहीं रखी जो खुद शास्त्री जी को पिता-तुल्य मानते थे। वी पी सिंह ने केंद्र में मोरारजी की जनता पार्टी सरकार बनने के बाद विदेशों में इंदिरा जी की एमर्जेंसी के पक्ष में प्रचार किया था और जनसंघ तब जनता पार्टी में विलीन था। लेकिन 1989 में भाजपा का वी पी सिंह को समर्थन व अनिल शास्त्री का केंद्रीय मंत्री होना भी शास्त्री जी की मृत्यु के संबंध में कोई विवाद न उठा सका था, क्यों?
मोदी के नेतृत्व में सरकार गठन के एक वर्ष उपरांत अनिल शास्त्री ने ताशकंद में शास्त्री जी की मृत्यु की पीछे विदेशी हाथ कह कर अप्रत्यक्ष रूप से साम्यवादी रूस की तरफ इशारा किया है। 1945 में हुये विमान हादसे को षड्यंत्र बताने की थ्यौरी में भी नेताजी को रूस के सईबेरिया की जेल में गिरफ्तार होना बताया जाता है। 'सारदानन्द' तथा 'गुमनामी बाबा' दो अलग -अलग हस्तियों को नेताजी बताया जाता है। फाइलें सार्वजनिक करके नेताजी की मृत्यु के विवाद को गहराया जा रहा है लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि मोदी सरकार के गठन के बाद जो फाइलें नष्ट की गईं थीं उनको सार्वजनिक न करने का कारण क्या था ?
नेताजी की मृत्यु के संबंध में नेहरू जी व शास्त्री जी की मृत्यु के संबंध में इंदिराजी को जनता की नज़रों में गिरा कर भाजपा को मनोवैज्ञानिक जीत दिलाना और सरकार की मजबूती को चिरस्थाई बनाना ही इस अभियान का लक्ष्य है। दुर्भाग्य यह है कि जो साम्यवादी/वामपंथी खुद को भाजपा/संघ की फासिस्ट नीतियों के प्रबल विरोधी बताते हैं उनका नेतृत्व जन्मना ब्राह्मणों अथवा ब्राह्मण वादियों के हाथ में है जो वस्तुतः अपनी कार्यशैली से भाजपा/संघ की फासिस्टी प्रवृति को दृढ़ता प्रदान कर रही है। गैर वामपंथी और गैर भाजपाई दल भी 'मूल निवासी' की भूल- भुलैया में भटक कर या पोंगापंथी आस्थाओं में उलझ कर अंततः भाजपा/संघ को ही मजबूत करते प्रतीत हो रहे हैं। पाकिस्तान के जरिये अमेरिका और चीन भारत को घेरते जा रहे हैं। चीन का हौआ दिखा कर अमेरिका भारत की भाजपाई सरकार को अपने चंगुल में जकड़ता जा रहा है ।
दिवास्वप्न देखने वाले वामपंथी मोदी सरकार के अपदस्थ होने के लक्षण गिनाते जा रहे हैं और अपने कार्यकर्ताओं तथा जनता को विभ्रम में रख रहे हैं।यदि नेताजी व शास्त्री जी के विषय में बोलते हुये नेहरू जी व इन्दिरा जी का बचाव किया गया तो जनता के बीच देशद्रोही के रूप में प्रचारित किया जाएगा। मार्क्स और भगत सिंह के नाम पर 'नास्तिकता' - एथीस्टवाद का जो नशा साम्यवादियों/वामपंथियों ने चढ़ा रखा है उसके उतरने के कोई लक्षण या संकेत नहीं मिल रहे हैं। संप्रदायों को विभिन्न धर्म बताया जा रहा है। धर्म निरपेक्षता के मंत्र जाप से फासिस्ट शक्तियों को परास्त करने के झूठे आश्वासन दिये जा रहे हैं। सीधे-सीधे यह नहीं कहा जा रहा है कि जिसे 'धर्म' कहा जा रहा है वह तो 'अधर्म' है। वास्तविक धर्म को बताने-समझाने को नास्तिकता की ओट में तैयार नहीं हैं। कारण वही ब्राह्मण वादी नेतृत्व की निजी तिकड़में । बात नेताजी व शास्त्री जी की मृत्यु की नहीं है बल्कि जनता पर आसन्न संकट को टालने की है। उसके लिए गहन व गूढ अध्यन का सहारा लेकर भारतीय दर्शन यथा- वेद आदि (लेकिन पुराणों से नहीं जो ब्राह्मणों को प्रिय हैं ) से साम्यवाद के सिद्धांतों को सिद्ध करते हुये जनता के बीच जाएँगे तभी जन-समर्थन हासिल करके फासिस्टों को गलत सिद्ध करते हुये परास्त किया जा सकेगा।
~विजय राजबली माथुर ©
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नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रहस्यपूर्ण मृत्यु के विवाद के बाद अब पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु के लगभग 50 वर्षों बाद उसे रहस्यपूर्ण बताते हुये जांच की मांग की गई है। वैसे तो ताशकंद समझौता होने के बाद जनसंघ ने सारी दिल्ली को काले झंडों से पाट दिया था जो शास्त्री जी की वापसी पर विरोध जताने के लिए था। किन्तु ताशकंद में उनकी मृत्यु की खबर मिलने के बाद वे झंडे हटा लिए गए थे। उस समय के अखबारों में ऐसी खबरें मिल जाएंगी। यह भी खबर उडी थी कि लाल बहादुर जी के बड़े सुपुत्र हरी किशन शास्त्री ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री व गृह मंत्री गुलज़ारी लाल नंदा जी से मिल कर अपने पिता की मृत्यु पर संदेह प्रकट किया था। लेकिन नंदा जी ने उनको पारिवारिक संकट से बचने हेतु चुप रहने की सलाह दी थी और बाद में उनको लोकसभा सदस्य बनवा दिया था।
मोरारजी देसाई को कांग्रेस संसदीय दल में परास्त कर इन्दिरा जी प्रधानमंत्री बन गईं थीं 1967 के आम चुनाव के बाद फिर मोरारजी देसाई ने उनको चुनौती दी थी । इस बार इंदिराजी ने उनको उप-प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री बना कर समझौता कर लिया किन्तु बनवाने वालों के लिए 'गूंगी गुड़िया' न सिद्ध हुईं तो के कामराज नाडार ( जो राष्ट्रपति राधा कृष्णन से मिल कर नेहरू जी को पदच्युत करने का असफल प्रयास कर चुके थे), एस निजलिंगप्पा, एस के पाटिल,अतुल घोष और मंत्रीमंडल से बर्खास्त मोरारजी देसाई ने मिल कर 1969 में 111 सांसदों का अलग गुट बना कर 'कांग्रेस ओ ' का गठन कर लिया था। हरी कृष्ण शास्त्री भी इस गुट में शामिल हो गए थे। 1972 के मध्यावधी चुनावों में कांग्रेस ओ के टिकट पर चौगुटा मोर्चा के समर्थन से वह मेरठ संसदीय क्षेत्र से प्रत्याशी थे। तब पहली बार जनसंघ ने उनको 'ताशकंद के शहीद' का पुत्र कह कर प्रचारित किया था। बाद में उनकी पत्नि रीता शास्त्री भाजपा सांसद भी रही हैं।
1989 में जब वी पी सिंह ने सुनील शास्त्री को हरा कर संसदीय सीट जीती तब अनिल शास्त्री को अपने मंत्रीमंडल में शामिल किया था। लेकिन तब अनिल शास्त्री ने उन वी पी सिंह के समक्ष अपने पिता की मृत्यु की जांच की मांग नहीं रखी जो खुद शास्त्री जी को पिता-तुल्य मानते थे। वी पी सिंह ने केंद्र में मोरारजी की जनता पार्टी सरकार बनने के बाद विदेशों में इंदिरा जी की एमर्जेंसी के पक्ष में प्रचार किया था और जनसंघ तब जनता पार्टी में विलीन था। लेकिन 1989 में भाजपा का वी पी सिंह को समर्थन व अनिल शास्त्री का केंद्रीय मंत्री होना भी शास्त्री जी की मृत्यु के संबंध में कोई विवाद न उठा सका था, क्यों?
मोदी के नेतृत्व में सरकार गठन के एक वर्ष उपरांत अनिल शास्त्री ने ताशकंद में शास्त्री जी की मृत्यु की पीछे विदेशी हाथ कह कर अप्रत्यक्ष रूप से साम्यवादी रूस की तरफ इशारा किया है। 1945 में हुये विमान हादसे को षड्यंत्र बताने की थ्यौरी में भी नेताजी को रूस के सईबेरिया की जेल में गिरफ्तार होना बताया जाता है। 'सारदानन्द' तथा 'गुमनामी बाबा' दो अलग -अलग हस्तियों को नेताजी बताया जाता है। फाइलें सार्वजनिक करके नेताजी की मृत्यु के विवाद को गहराया जा रहा है लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि मोदी सरकार के गठन के बाद जो फाइलें नष्ट की गईं थीं उनको सार्वजनिक न करने का कारण क्या था ?
नेताजी की मृत्यु के संबंध में नेहरू जी व शास्त्री जी की मृत्यु के संबंध में इंदिराजी को जनता की नज़रों में गिरा कर भाजपा को मनोवैज्ञानिक जीत दिलाना और सरकार की मजबूती को चिरस्थाई बनाना ही इस अभियान का लक्ष्य है। दुर्भाग्य यह है कि जो साम्यवादी/वामपंथी खुद को भाजपा/संघ की फासिस्ट नीतियों के प्रबल विरोधी बताते हैं उनका नेतृत्व जन्मना ब्राह्मणों अथवा ब्राह्मण वादियों के हाथ में है जो वस्तुतः अपनी कार्यशैली से भाजपा/संघ की फासिस्टी प्रवृति को दृढ़ता प्रदान कर रही है। गैर वामपंथी और गैर भाजपाई दल भी 'मूल निवासी' की भूल- भुलैया में भटक कर या पोंगापंथी आस्थाओं में उलझ कर अंततः भाजपा/संघ को ही मजबूत करते प्रतीत हो रहे हैं। पाकिस्तान के जरिये अमेरिका और चीन भारत को घेरते जा रहे हैं। चीन का हौआ दिखा कर अमेरिका भारत की भाजपाई सरकार को अपने चंगुल में जकड़ता जा रहा है ।
दिवास्वप्न देखने वाले वामपंथी मोदी सरकार के अपदस्थ होने के लक्षण गिनाते जा रहे हैं और अपने कार्यकर्ताओं तथा जनता को विभ्रम में रख रहे हैं।यदि नेताजी व शास्त्री जी के विषय में बोलते हुये नेहरू जी व इन्दिरा जी का बचाव किया गया तो जनता के बीच देशद्रोही के रूप में प्रचारित किया जाएगा। मार्क्स और भगत सिंह के नाम पर 'नास्तिकता' - एथीस्टवाद का जो नशा साम्यवादियों/वामपंथियों ने चढ़ा रखा है उसके उतरने के कोई लक्षण या संकेत नहीं मिल रहे हैं। संप्रदायों को विभिन्न धर्म बताया जा रहा है। धर्म निरपेक्षता के मंत्र जाप से फासिस्ट शक्तियों को परास्त करने के झूठे आश्वासन दिये जा रहे हैं। सीधे-सीधे यह नहीं कहा जा रहा है कि जिसे 'धर्म' कहा जा रहा है वह तो 'अधर्म' है। वास्तविक धर्म को बताने-समझाने को नास्तिकता की ओट में तैयार नहीं हैं। कारण वही ब्राह्मण वादी नेतृत्व की निजी तिकड़में । बात नेताजी व शास्त्री जी की मृत्यु की नहीं है बल्कि जनता पर आसन्न संकट को टालने की है। उसके लिए गहन व गूढ अध्यन का सहारा लेकर भारतीय दर्शन यथा- वेद आदि (लेकिन पुराणों से नहीं जो ब्राह्मणों को प्रिय हैं ) से साम्यवाद के सिद्धांतों को सिद्ध करते हुये जनता के बीच जाएँगे तभी जन-समर्थन हासिल करके फासिस्टों को गलत सिद्ध करते हुये परास्त किया जा सकेगा।
~विजय राजबली माथुर ©
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