Saturday, October 31, 2015

करवा चौथ जैसे भेद -भाव मूलक उपवास स्त्री को दंड से अधिक कुछ नहीं हैं --- विजय राजबली माथुर

 ***** पाँच वर्ष पूर्व ब्लाग-पोस्ट के माध्यम से नारियों/महिलाओं को 'करवा चौथ' जैसे कुत्सित एवं वीभत्स कु-पर्व के संबंध में सचेत करने का प्रयास किया था। लेकिन समाज में यह संक्रामक रोग और अधिक तेज़ी से फैल गया है। व्यापार/उद्योग जगत के मुनाफे की जुगत ने ढोंग-पाखंड एवं अंध-विश्वास में बेतहाशा वृद्धि की है। लेकिन अब कुछ जागरूक महिलाएं इस कु-प्रथा के विरोध में भी सामने आई हैं, परंतु विरोध का तरीका ऐसा नहीं है कि जिसका समाज पर कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ सके  और यह कु-प्रथा जड़-मूल से समाप्त हो सके। अपने पोस्ट द्वारा सकारात्मक व 'तर्क' के आधार पर मैंने विश्लेषण प्रस्तुत किया था किन्तु दुर्भाग्य यह है कि जो ढ़ोंगी हैं वे तो मानने से रहे किन्तु जो प्रगतिशील हैं वे एथीस्टवाद के अंध-विश्वास में कुतर्क के साथ व्यंग्य तो कर सकते हैं जबकि सकारात्मक - तर्क स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। पिछली पोस्ट द्वारा भी ऐसे ही प्रगतिशील कुतार्किक व्यंग्य के संदर्भ में सकारात्मक-तर्क प्रस्तुत किया था। जब तक हम सकारात्मक-तर्क के आधार पर ढोंगियों-पाखंडियों-आडंबरधारियों का पर्दाफाश नहीं करते तब तक मात्र व्यंग्य और मखौल से उनको शिकस्त देना संभव नहीं है। पौराणिक पोंगा-पंडितों ने ढोंगियों व एथीस्ट वादियों दोनों को समान रूप से जकड़ा हुआ है जिससे दोनों ही मुक्त नहीं होना चाहते हैं जिसका लाभ लुटेरे व्यापारियों को  होता है व हानि देश की अबोध जनता को हो रही है। उदाहरणार्थ संस्कृत में 'महिष' का अर्थ भैंस से है जिस संदर्भ में कहा जाता है कि 'अक्ल बड़ी या भैंस?' उसी संदर्भ में जड़ता के लिए 'महिषासुर' शब्द का प्रयोग हुआ है परंतु साम्राज्यवादियो से प्रेरित 'मूल निवासी आंदोलन' के हिमायती इसे पौराणिक पोंगापंथियों द्वारा कु-व्याख्यायित महीषासुर को अपना नायक बताते हुये अर्थ का अनर्थ करके वस्तुतः पोंगापंथी-ब्राह्मणों को मजबूती प्रदान कर देते हैं। ऐसा ही एथीस्ट वादी भी करते हैं। युद्ध एक कला भी है और विज्ञान भी। अतः जब तक कलात्मक ढंग से विज्ञान सम्मत युद्ध पोंगा-पंथियों के विरुद्ध नहीं छेड़ा जाता तब तक व्यंग्य और एथीस्ट वाद ढोंगवाद को ही मजबूती जैसे देता आ रहा है वैसे ही आगे भी देता रहेगा। 

Tuesday, October 12, 2010
मातृ शक्ति अपना महत्व पहचाने  :
वीर शिरोमणि झाँसी वाली रानी लक्ष्मी बाई (जिन्होंने १८५७ की क्रांति में साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता को ज़बरदस्त चुनौती दी थी )हों या उनसे भी पूर्व वीर क्षत्र साल की माँ रानी सारंधा हों (जिन्होंने विदेशी शत्रु के सम्मुख घुटने टेकने की बजाय अपने मरणासन पति राजा चम्पत राय को कटार भोंक कर स्वंय भी प्राणाहुति दे दी थी )या रानी पद्मावती और उनकी सहयोगी साथिने हों ऐसे अनगिनत विभूतिया हमारे देश में हुई हैं जो व्यवस्था से टकरा कर अमर हो गईं और एक मिसाल छोड़ गईं आने वाली पीढियो के लिए ,परन्तु खेद है कि आज हमारी मातृ  शक्ति इन कुर्बानियों  को भुला चुकी है . यों तो ऋतु परिवर्तन पर स्वास्थ्य रक्षा हेतु नवरात्र पर्व का सृजन हुआ है और उपवास स्त्री -पुरुष सभी के लिए बताया गया है परन्तु करवा चौथ जैसे भेद -भाव मूलक उपवास स्त्री को दंड से अधिक कुछ नहीं हैं ,उसका कोई औचित्य नहीं है .नवरात्रों का उपवास हमारे स्थूल ,कारण और सूक्ष्म शरीर की शुद्धि  करता है.लोग भ्रम वश इसे व्रत कहते हैं जबकि व्रत का मतलब संकल्प से होता है.जैसे कोई सिगरेट,शराब आदि बुरी आदतें  छोड़ने का संकल्प ले तो यह व्रत होगा .
श्री श्री रवि शंकर कहते हैं -उपवास के द्वारा शरीर विषाक्त पदार्थों से मुक्त हो जाता है ,मौन द्वारा वचनों में शुद्धता आती है और बातूनी मन शांत होता है और ध्यान के द्वारा अपने अस्तित्व की गहराईयों में डूब कर हमें आत्म निरीक्षण का अवसर मिलता है .यह आंतरिक यात्रा हमारे बुरे कर्मों को समाप्त करती है.नवरात्र आत्मा अथवा प्राण का उत्सव है जिसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात जड़ता ),शुम्भ -निशुम्भ (गर्व और शर्म )और मधु -कैटभ (अत्यधिक राग -द्वेष )को नष्ट किया जा सकता है .जड़ता ,गहरी नकारात्मकता और
मनोग्रंथियां (रक्त्बीजासुर ),बेमतलब का वितर्क (चंड -मुंड )और धुंधली दृष्टि (धूम्र लोचन )को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठा कर ही दूर किया जा सकता है .

 आज जनता इन विद्वानों का मान तो करती है परन्तु उनके द्वारा बताई बातों को मानने को कतई तैयार नहीं है .हमारे ब्लॉग जगत के एक विद्वान कमेन्ट करने में बहुत माहिर हैं ,मैंने उनसे इस समस्या पर मार्ग दर्शन माँगा तो वह पलायन कर गए .
http://krantiswar.blogspot.in/2010/10/blog-post_12.html

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Neelima Chauhan
30-10-2015 
https://www.facebook.com/neelima.chauhan.334/posts/1022235507799837?pnref=story


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 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Thursday, October 29, 2015

पार्वती , शिव : नेहा और दयानन्द --- विजय राजबली माथुर

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महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में शोध सहायक हैं : नेहा नरुका

 नेहा नरुका की कविता 'पार्वती योनि'


ऐसा क्या किया था शिव तुमने ?
रची थी कौन-सी लीला ? ? ?
जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग

माताएं बेटों के यश, धन व पुत्रादि के लिए
पतिव्रताएँ पति की लंबी उम्र के लिए
अच्छे घर-वर के लिए कुवाँरियाँ
पूजती है तुम्हारे लिंग को,

दूध-दही-गुड़-फल-मेवा वगैरह
अर्पित होता है तुम्हारे लिंग पर
रोली, चंदन, महावर से
आड़ी-तिरछी लकीरें काढ़कर,
सजाया जाता है उसे
फिर ढोक देकर बारंबार
गाती हैं आरती
उच्चारती हैं एक सौ आठ नाम

तुम्हारे लिंग को दूध से धोकर
माथे पर लगाती है टीका
जीभ पर रखकर
बड़े स्वाद से स्वीकार करती हैं
लिंग पर चढ़े हुए प्रसाद को

वे नहीं जानती कि यह
पार्वती की योनि में स्थित
तुम्हारा लिंग है,
वे इसे भगवान समझती हैं,
अवतारी मानती हैं,
तुम्हारा लिंग गर्व से इठलाता
समाया रहता है पार्वती योनि में,
और उससे बहता रहता है
दूध, दही और नैवेद्य...
जिसे लाँघना निषेध है
इसलिए वे औरतें
करतीं हैं आधी परिक्रमा

वे नहीं सोच पातीं
कि यदि लिंग का अर्थ
स्त्रीलिंग या पुल्लिंग दोनों है
तो इसका नाम पार्वती लिंग क्यों नहीं ?
और यदि लिंग केवल पुरूषांग है
तो फिर इसे पार्वती योनि भी
क्यों न कहा जाए ?

लिंगपूजकों ने
चूँकि नहीं पढ़ा ‘कुमारसंभव’
और पढ़ा तो ‘कामसूत्र’ भी नहीं होगा,
सच जानते ही कितना हैं?
हालांकि पढ़े-लिखे हैं

कुछ ने पढ़ी है केवल स्त्री-सुबोधिनी
वे अगर पढ़ते और जान पाते
कि कैसे धर्म, समाज और सत्ता
मिलकर दमन करते हैं योनि का,

अगर कहीं वेद-पुराणऔर इतिहास के
महान मोटे ग्रन्थों की सच्चाई!
औरत समझ जाए
तो फिर वे पूछ सकती हैं
संभोग के इस शास्त्रीय प्रतीक के-
स्त्री-पुरूष के समरस होने की मुद्रा के-
दो नाम नहीं हो सकते थे क्या?
वे पढ़ लेंगी
तो निश्चित ही पूछेंगी,
कि इस दृश्य को गढ़ने वाले
कलाकारों की जीभ
क्या पितृसमर्पित सम्राटों ने कटवा दी थी
क्या बदले में भेंट कर दी गईं थीं
लाखों अशर्फियां,
कि गूंगे हो गए शिल्पकार
और बता नहीं पाए
कि संभोग के इस प्रतीक में
एक और सहयोगी है
जिसे पार्वती योनि कहते हैं

(नेहा नरुका महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में शोध सहायक हैं.)
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https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10200676321340190&set=a.4103782722655.2166144.1525600017&type=3&theater






  ( यह व्याख्या तो तभी अस्तित्व में आ सकी जब ब्राह्मणवादी पोंगा-पंडितों ने पुरानों में वेदों की कु-व्याख्या प्रस्तुत की। इसी प्रकार पोंगा पंडितों ने कृष्ण को भी बदनाम करवाया है। जब तक पोंगापंडितवाद रहेगा ऐसी ही व्याख्याएँ सामने आएंगी ही। उत्तर है , नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है,लेकिन कोई स्वीकार करेगा भी या यों ही सब भटकते,गुमराह होते व गलत अर्थों के फेर में फंसे रहेंगे?)
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शिव अर्थात कल्याणकारी :

शिव-रात्रि पर ही मूल शंकर को बोद्ध  हुआ था और वह शिव अर्थात कल्याणकारी की खोज में निकल पड़े थे और आचार्य डॉ.रविदत्त शर्मा के शब्दों में उन्हें जो बोद्ध हुआ वह यह है :-

जिस में शिव का दर्शन हो,वही रात्रि है शिवरात्रि.
करे कल्याण जीवन का,वही रात्रि है शिवरात्रि..
कभी मन में विचार ही नहीं,शिव कौन है क्या है?
जो दिन में ही भटकते हैं;सुझाए  क्या उन्हें रात्रि..
शिव को खोजने वाला,फकत स्वामी दयानंद था.
उसी ने हमको बतलाया,कि होती क्या है शिवरात्रि..
शिव ईश्वर है जो संसार का कल्याण करता है.
आत्म कल्याण करने के लिए आती है शिवरात्रि..
धतूरा भांग खा कर भी,कहीं कल्याण होता है?
जो दुर्व्यसनों में खोये,उनको ठुकराती है शिवरात्रि..
सदियाँ ही नहीं युग बीत जायेंगे जो अब भी न संभले.
जीवन भर रहेगी रात्रि,न आयेगी शिवरात्रि..
आर्यों के लिए यह पर्व एक पैगाम देता है.
उपासक सच्चे शिव के बनने से होती है शिव रात्रि..
प्रकृति में लिप्त भक्तों  ,नेत्र  तो    खोलो.
ज्ञान के नेत्र से देखोगे,तो समझोगे शिवरात्रि..
ऋषि की बात मानो अब न भटको रहस्य को समझो.

यह तो बोद्ध रात्रि है,जिसे  कहते हो शिवरात्रि..

ग्रेषम का अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत है कि,ख़राब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है.ठीक यही हाल समाज,धर्म व राजनीति क़े क्षेत्र में चल रहा है.

दुनिया लूटो,मक्कर से.
रोटी खाओ,घी-शक्कर से.
   एवं
अब सच्चे साधक धक्के खाते हैं .
फरेबी आज मजे-मौज  उड़ाते हैं.



'शैव' व 'वैष्णव' दृष्टिकोण की बात कुछ विद्वान उठाते हैं तो कुछ प्रत्यक्ष पोंगापंथ का समर्थन करते हैं तो कुछ 'नास्तिक' अप्रत्यक्ष रूप से पोंगापंथ को ही पुष्ट करते हैं। सार यह कि 'सत्य ' को साधारण जन के सामने न आने देना ही इनका लक्ष्य होता है। सावन या श्रावण मास में सोमवार के दिन 'शिव' पर जल चढ़ाने के नाम पर, शिव रात्रि पर भी तांडव करना और साधारण जनता का उत्पीड़न करना इन पोंगापंथियों का गोरख धंधा है। 
'परिक्रमा' क्या थी ?: 


वस्तुतः प्राचीन काल में जब छोटे छोटे नगर राज्य (CITY STATES) थे और वर्षा काल में साधारण जन 'कृषि कार्य' में व्यस्त होता था तब शासक की ओर से राज्य की सेना नगर राज्य के चारों ओर परिक्रमा (गश्त) किया करती थी और यह सम्पूर्ण वर्षा काल में चलने वाली निरंतर प्रक्रिया थी जिसका उद्देश्य दूसरे राज्य द्वारा अपने राज्य की व अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना था। कालांतर में जब छोटे राज्य समाप्त हो गए तब इस प्रक्रिया का औचित्य भी समाप्त हो गया। किन्तु ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों ने अपने व अपने पोषक व्यापारियों के हितों की रक्षार्थ धर्म की संज्ञा से सजा कर शिव के जलाभिषेक के नाम पर 'कांवड़िया' प्रथा का सूत्रपात किया जो आज भी अपना तांडव जारी रखे हुये है। अफसोस की बात यह है कि पोंगापंथ का पर्दाफाश करने के बजाए 'नास्तिकवादी' विद्वान भी पोंगापंथ को ही बढ़ावा दे रहे हैं और सच्चाई का विरोध कर रहे हैं। 

यदि हम अपने देश  व समाज को पिछड़ेपन से निकाल कर ,अपने खोये हुए गौरव को पुनः पाना चाहते हैं,सोने की चिड़िया क़े नाम से पुकारे जाने वाले देश से गरीबी को मिटाना चाहते हैं,भूख और अशिक्षा को हटाना चाहते हैंतो हमें "ॐ नमः शिवाय च "क़े अर्थ को ठीक से समझना ,मानना और उस पर चलना होगा तभी हम अपने देश को "सत्यम,शिवम्,सुन्दरम"बना सकते हैं.आज की युवा पीढी ही इस कार्य को करने में सक्षम हो सकती है.अतः युवा -वर्ग का आह्वान है कि, वह सत्य-न्याय-नियम और नीति पर चलने का संकल्प ले और इसके विपरीत आचरण करने वालों को सामजिक उपेक्षा का सामना करने पर बाध्य कर दे तभी हम अपने भारत का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं.काश ऐसा हो सकेगा?हम ऐसी आशा तो संजो ही सकते हैं.

 " ओ ३ म नमः शिवाय च" कहने पर उसका मतलब यह होता है.:-*
*अ +उ +म अर्थात आत्मा +परमात्मा +प्रकृति 
च अर्थात तथा/ एवं / और 
शिवाय -हितकारी,दुःख हारी ,सुख-स्वरूप 

नमः नमस्ते या प्रणाम या वंदना या नमन 


"ॐ नमः शिवाय च का अर्थ है-Salutation To That Lord The Benefactor of all "यह कथन है संत श्याम जी पाराशर का.अर्थात हम अपनी मातृ -भूमि भारत को नमन करते हैं.वस्तुतः यदि हम भारत का मान-चित्र और शंकर जी का चित्र एक साथ रख कर तुलना करें तो उन महान संत क़े विचारों को ठीक से समझ सकते हैं.शंकर या शिव जी क़े माथे पर अर्ध-चंद्राकार हिमाच्छादित हिमालय पर्वत ही तो है.जटा से निकलती हुई गंगा -तिब्बत स्थित (अब चीन क़े कब्जे में)मानसरोवर झील से गंगा जी क़े उदगम की ही निशानी बता रही है.नंदी(बैल)की सवारी इस बात की ओर इशारा है कि,हमारा भारत एक कृषि -प्रधान देश है.क्योंकि ,आज ट्रेक्टर-युग में भी बैल ही सर्वत्र हल जोतने का मुख्य आधार है.शिव द्वारा सिंह-चर्म को धारण करना संकेत करता है कि,भारत वीर-बांकुरों का देश है.शिव क़े आभूषण(परस्पर विरोधी जीव)यह दर्शाते हैंकि,भारत "विविधताओं में एकता वाला देश है."यहाँ संसार में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र चेरापूंजी है तो संसार का सर्वाधिक रेगिस्तानी इलाका थार का मरुस्थल भी है.विभिन्न भाषाएं बोली जाती हैं तो पोशाकों में भी विविधता है.बंगाल में धोती-कुर्ता व धोती ब्लाउज का चलन है तो पंजाब में सलवार -कुर्ता व कुर्ता-पायजामा पहना जाता है.तमिलनाडु व केरल में तहमद प्रचलित है तो आदिवासी क्षेत्रों में पुरुष व महिला मात्र गोपनीय अंगों को ही ढकते हैं.पश्चिम और उत्तर भारत में गेहूं अधिक पाया जाता है तो पूर्व व दक्षिण भारत में चावल का भात खाया जाता है.विभिन्न प्रकार क़े शिव जी क़े गण इस बात का द्योतक हैं कि, यहाँ विभिन्न मत-मतान्तर क़े अनुयायी सुगमता पूर्वक रहते हैं.शिव जी की अर्धांगिनी -पार्वती जी हमारे देश भारत की संस्कृति (Culture )ही तो है.भारतीय संस्कृति में विविधता व अनेकता तो है परन्तु साथ ही साथ वह कुछ  मौलिक सूत्रों द्वारा एकता में भी आबद्ध हैं.हमारे यहाँ धर्म की अवधारणा-धारण करने योग्य से है.हमारे देश में धर्म का प्रवर्तन किसी महापुरुष विशेष द्वारा नहीं हुआ है जिस प्रकार इस्लाम क़े प्रवर्तक हजरत मोहम्मद व ईसाईयत क़े प्रवर्तक ईसा मसीह थे.हमारे यहाँ राम अथवा कृष्ण धर्म क़े प्रवर्तक नहीं बल्कि धर्म की ही उपज थे.राम और कृष्ण क़े रूप में मोक्ष -प्राप्त आत्माओं का अवतरण धर्म की रक्षा हेतु ही,बुराइयों पर प्रहार करने क़े लिये हुआ था.उन्होंने कोई व्यक्तिगत धर्म नहीं प्रतिपादित किया था.आज जिन मतों को विभिन्न धर्म क़े नाम से पुकारा जा रहा है ;वास्तव में वे भिन्न-भिन्न उपासना-पद्धतियाँ हैं न कि,कोई धर्म अलग से हैं.लेकिन आप देखते हैं कि,लोग धर्म क़े नाम पर भी विद्वेष फैलाने में कामयाब हो जाते हैं.

भक्ति?"भक्ति"शब्द ढाई अक्षरों क़े मेल से बना है."भ "अर्थात भजन .कर्म दो प्रकार क़े होते हैं -सकाम और निष्काम,इनमे से निष्काम कर्म का (आधा क) और त्याग हेतु "ति" लेकर "भक्ति"होती है.आज भक्ति है कहाँ ?

 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Wednesday, October 28, 2015

आर्यसमाज, भंगी शब्द और वास्तविकता --- विजय राजबली माथुर








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सत्य,सत्य होता है और इसे अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता। एक न एक दिन लोगों को सत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा तथा ढोंग एवं पाखण्ड का भांडा फूटेगा ही फूटेगा। राम और कृष्ण को पूजनीय बना कर उनके अनुकरणीय आचरण से बचने का जो स्वांग ढोंगियों तथा पाखंडियों ने रच रखा है उस पर प्रहार करने का मैं निरंतर लेखन-क्रम जारी रखे हुये हूँ हालांकि इस तथ्य से भी अवगत हूँ कि आज के इस अहंकारमय आपा-धापी के युग में 'सत्य ' को न कोई सुनना चाहता है न ही समझना, सब अपने-अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त अपनी ही धुन में मस्त हैं। फिर भी कुछ पुराने लेखन के अंश पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ :




May 29, 2012 · Edited · 
आर्य न कोई जाति थी न है। आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ। अर्थात श्रेष्ठ कार्यों को करने वाले सभी व्यक्ति आर्य हैं। 'कृंणवनतों विश्वार्यम' के अनुसार सम्पूर्ण विश्व को आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाना है। लेन पूल,कर्नल टाड आदि-आदि विदेशी और आर सी मजूमदार सरीखे भारतीय इतिहासकारों ने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ती हेतु आर्यों को एक जाति के रूप मे निरूपित करके बेकार का झगड़ा खड़ा किया है।
अब से लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व जब मानव-सृष्टि इस पृथ्वी पर हुई तो विश्व मे तीन स्थानों-
1-मध्य यूरोप,
2- मध्य अफ्रीका ,
3-मध्य एशिया –मे एक साथ ‘युवा स्त्री और युवा पुरुषों’के जोड़े सृजित हुये। भौगोलिक स्थिति की भिन्नता से तीनों के रूप-रंग ,कद-काठी मे भिन्नता हुई। इन लोगों के माध्यम से जन-संख्या वृद्धि होती रही। जहां-जहां प्रकृति ने राह दी वहाँ-वहाँ सभ्यता और संस्कृति का विकास होता गया और जहां प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीं-वहीं रुक गया।
मध्य एशिया के ‘त्रिवृष्टि’जो अब तिब्बत कहलाता है उत्पन्न मानव तीव्र विकास कर सके जबकि दूसरी जगहों के मानव पिछड़ गए। आबादी बढ्ने पर त्रिवृष्टि के लोग दक्षिण के निर्जन प्रदेश आर्यावृत्त मे आकर बसने लगे।जब ‘जंबू द्वीप’उत्तर की ओर ‘आर्यावृत्त’ से जुड़ गया तो यह आबादी उधर भी फ़ेल गई। चूंकि आबादी का यह विस्तार निर्जन प्रदेशों की ओर था अतः किसी को उजाड़ने,परास्त करने का प्रश्न ही न था। साम्राज्यवादियों ने फूट परस्ती की नीतियों के तहत आर्य को जाति बता कर व्यर्थ का बखेड़ा खड़ा किया है। त्रिवृष्टि से आर्यावृत्त आए इन श्रेष्ठ लोगों अर्थात आर्यों ने सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराने का बीड़ा उठाया। इस क्रम मे जिन विद्वानों ने पश्चिम से प्रस्थान किया उनका पहला पड़ाव जहाँ स्थापित हुआ उसे ‘आर्यनगर’ कहा गया जो बाद मे एर्यान और फिर ईरान कहलाया। ईरान के अंतिम शासक तक ने खुद को आर्य मेहर रज़ा पहलवी कहा। आगे बढ़ कर ये आर्य मध्य एशिया होकर यूरोप पहुंचे। यूरोपीयो ने खुद को मूल आर्य घोषित करके भारत पर आक्रमण की झूठी कहाने गढ़ दी जो आज भी यहाँ जातीय वैमनस्य का कारण है।
‘तक्षक’ और ‘मय’ऋषियों के नेतृत्व मे पूर्व दिशा से विद्वान वर्तमान साईबेरिया के ब्लादिवोस्तक होते हुये उत्तरी अमेरिका महाद्वीप के अलास्का (जो केनाडा के उत्तर मे यू एस ए के कब्जे वाला क्षेत्र है)से दक्षिण की ओर बढ़े। ‘तक्षक’ ऋषि ने जहां पड़ाव डाला वह आज भी उनके नाम पर ही ‘टेक्सास’ कहलाता है जहां जान एफ केनेडी को गोली मारी गई थी। ‘मय’ ऋषि दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के जिस स्थान पर रुके वह आज भी उनके नाम पर ‘मेक्सिको’ कहलाता है।
दक्षिण दिशा से जाने वाले ऋषियों का नेतृत्व ‘पुलत्स्य’ मुनि ने किया था जो वर्तमान आस्ट्रेलिया पहुंचे थे। उनके पुत्र ‘विश्रवा’मुनि महत्वाकांक्षी थे। वह वर्तमान श्रीलंका पहुंचे और शासक ‘सोमाली’ को आस्ट्रेलिया के पास के द्वीप भेज दिया जो आज भी उसी के नाम पर ‘सोमाली लैंड’कहलाता है। विश्रवा के बाद उनके तीन पुत्रों मे सत्ता संघर्ष हुआ और बीच के रावण ने बड़े कुबेर को भगा कर और छोटे विभीषण को मिला कर राज्य हसगात कर लिया। वह साम्राज्यवादी था। उसने साईबेरिया के शासक (जहां 06 माह का दिन और 06 माह की रात होती है अर्थात उत्तरी ध्रुव प्रदेश)’कुंभकर्ण’तथा पाताल-वर्तमान यू एस ए के शासक ‘एरावन’ को मिला कर भारत –भू के आर्यों को चारों ओर से घेर लिया और खुद अपने गुट को ‘रक्षस’=रक्षा करने वाले (उसका दावा था कि यह गुट आर्य सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने वाला है)कहा जो बाद मे अपभ्रंश होकर ‘राक्षस’कहलाया।
राम-रावण संघर्ष आर्यों और आर्यों के मध्य राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद का संघर्ष था जिसे विदेशी इतिहासकारों और उनके भारतीय चाटुकारों ने आर्य-द्रविड़ संघर्ष बता कर भारत और श्रीलंका मे आज तक जातीय तनाव /संघर्ष फैला रखा है।
जब अब आपने यह विषय उठाया है तो विदेशियों के कुतर्क और विकृति को ठुकराने का यही सही वक्त हो सकता है। जनता के बीच इस विभ्रम को दूर किया जाना चाहिए कि ‘आर्य’ कोई जाति थी या है। विश्व का कोई भी व्यक्ति जो श्रेष्ठ कर्म करे आर्य था और अब  भी होगा।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/364918650236784

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तब उपरोक्त पर आए कमेन्ट और जवाब ये हैं :
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Comments

Giridhari Goswami : Bramhan ka matlab bhi gunwan hi hota hai, wishwash nahi to manusmriti me hi dekh len, fir bramhan aaj jaati ke rup me kyo jaani jati hai? usi prakar Arya bhi ek jaati hi hai, chahe uska arth kuchh bhi ho!
May 30, 2012 at 9:41pm

Vijai RajBali Mathur: गिरधारी गोस्वामी जी ज़िद्द या पूर्वाग्रह जो हों उनका निदान संभव नहीं। 'ब्राह्मण' का मतलब यदि गुणवान या जातिसूचक है तो निश्चय ही गलत मतलब निकाला गया है। 'ब्राह्मण' उसके लिए प्रयुक्त होता था जो 'ब्रह्माण्ड का ज्ञाता' होता था। आज कौन है?इसलिए आज ब्राह्मण भी कोई नहीं है। आर्य को जाति वे लोग अवश्य ही मानेंगे जो साम्राज्यवाद के जाल से बाहर नहीं निकाल पा रहे हैं। ये सब डिग्रियाँ =उपाधियाँ होती थीं वंशानुगत नहीं था । वंशानुगत/जाति का सिद्धान्त 'मानवता' का विरोधी है। लोग वैदिक को पौराणिक =पोंगापंथ से मिलाकर तौलते हैं वहीं से भ्रम फैलता है। खुद मनुस्मृति 'करमानुसार' उपाधि को मानती है। पौराणिक व्याख्यान शोषणपरक ,उत्पीडंकारी है उसे स्वीकार करना मानव-मानव मे भेद को स्वीकार करना है।
May 31, 2012 at 4:07pm · Like

Danda Lakhnavi :सराहनीय व्याख्या ......बधाई ....माथुर जी!

May 31, 2012 at 4:13pm · Unlike · 1


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विजयादशमी पर्व लोग इस धारणा के साथ आज मना रहे हैं कि इस दिन राम ने रावण का संहार किया था। परंतु वास्तविकता यह है कि इस दिन राम ने सुग्रीव के नेतृत्व वाली सेना का किष्किंधा की राजधानी 'पंपापुर' से लंका की ओर प्रस्थान कराया था। कालांतर में इस दिवस को विजय दिवस के रूप में मनाया जाने लगा और मेला तमाशा होने लगा। 
रावण दस दिशाओं यथा- पूर्व,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण,ईशान,आग्नेय,वावव्य,नेरीत्य,आकाश (अन्तरिक्ष ) और पाताल (भू-गर्भ )का ज्ञाता और प्रकांड विद्वान था इसी लिए राम ने लक्ष्मण को उससे शिक्षा ग्रहण करने हेतु उसकी मृत्यु शैय्या के पास भेजा था। 
राम का रावण से संघर्ष उसके 'विसतारवाद' व 'साम्राज्यवाद' के विरुद्ध था। सीता को तो एक कूटनीति के तहत लंका में गुप्तचरी करने हेतु भिजवाया गया था । लेकिन पोंगा-पंडितवाद ने सब कुछ गुड-गोबर कर दिया है। व्यापारियों के टी वी सीरियल ने ढोंग का सुदृढीकरण ही किया है। 'रामायण का ऐतिहासिक महत्व' पुस्तक,पुरातात्विक खोजों की प्रकाशित खबरों तथा वैज्ञानिक/सामाजिक विश्लेषणों के आधार पर 1982 में यह लेख आगरा के एक साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित हुआ था



17 अगस्त 2014
"जन्म गत ब्राह्मण चाहे खुद को कितना भी एथीस्ट घोषित करें होते हैं घोर जातिवादी वे नहीं चाहते कि सच्चाई कभी भी जनता के समक्ष स्पष्ट हो क्योंकि उस सूरत में व्यापार जगत के भले के लिए पोंगा पंथियों द्वारा की गई भ्रामक व्याख्याओं की पोल खुल जाएगी और परोपजीवी जाति की आजीविका संकट में पड़ जाएगी। 
तुलसी दास जी द्वारा लिखित रामचरित मानस की क्रांतिकारिता,राजनीतिक सूझ-बूझ और कूटनीति के सफल प्रयोग पर पर्दा ढके रहने हेतु मानस में ऐसे लोगों के पूर्वजों ने प्रक्षेपक घुसा कर तुलसी दास जी को बदनाम करने का षड्यंत्र किया है तथा राम को अवतारी घोषित करके उनके कृत्यों को अलौकिक कह कर जनता को बहका रखा है। ढ़ोल,गंवार .... वाले प्रक्षेपक द्वारा बहुसंख्यक तथा कथित दलितों को तुलसी और मानस से दूर रखा जाता है क्योंकि यदि वे समझ गए कि 'काग भुशुंडी' से 'गरुण' को उपदेश दिलाने वाले तुलसी दास उनके शत्रु नहीं मित्र थे। पार्वती अर्थात एक महिला की जिज्ञासा पर शिव ने 'काग भुशुंडी-गरुण संवाद' सुनाया जो तुलसी द्वारा मानस के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसी वजह से काशी के ब्राह्मण तुलसी दास की जान के पीछे पड़ गए थे उनकी पांडु-लिपियाँ जला देते थे तभी उनको 'मस्जिद' में शरण लेकर जान बचानी पड़ी थी और अयोध्या आकर ग्रंथ की रचना करनी पड़ी थी । इसके द्वारा तत्कालीन मुगल-सत्ता को उखाड़ फेंकने का जनता से आह्वान किया गया था । साम्राज्यवादी रावण का संहार राम व सीता की सम्मिलित कूटनीति का परिणाम था। ऐसी सच्चाई जनता समझ जाये तो ब्राह्मणों व व्यापारियों का शोषण समाप्त करने को एकजुट जो हो जाएगी। अतः विभिन्न राजनीतिक दलों में घुस कर ब्राह्मणवादी जनता में फूट डालने के उपक्रम करते रहते हैं। क्या जनता को जागरूक करना पागलपन होता है?"
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 आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों मे स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था और उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ जी ने पूर्ण सहमति व्यक्त की थी। आज उनके ही शब्दों को आप सब को भेंट करता हूँ। ---

प्रत्येक प्राणी के शरीर मे 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर मे -'चित्त'(मन)पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' मे अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः यह  पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन मे दी जाती थीं। 

आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने मे भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना आदि ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को पहचान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें।.........................................................

 पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
 'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।  


आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-

1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था। 

ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। 

 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। 





यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।
http://krantiswar.blogspot.in/2012/11/blog-post_16.html

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दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि विद्वान व योग्य लेखक भी संकीर्ण ब्राहमनवाद को ही सही मानते हुये प्रतिक्रिया दे रहे हैं जैसा कि उपरोक्त फोटो स्कैन से सिद्ध होता है कि 'महर्षि वाल्मीकि' के संदर्भ में 'आर्यसमाज' व आर एस एस को इन विद्वानों ने एक समान तौल दिया है। 
आर्यसमाज की स्थापना 1857 की स्वातन्त्र्य क्रांति के विफल होने पर 1875 में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा की गई थी जिसका उद्देश्य 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' के उन्मूलन के साथ-साथ देश की आज़ादी के लिए संघर्ष चलाना था। शुरू-शुरू में आर्यसमाज का प्रसार छावनियों में ही किया गया था। ब्रिटिश सरकार दयानन्द को REVOLUTIONARY SAINT कहती थी और उनके आंदोलन को कुचलने के लिए 1885 में रिटायर्ड़ ICS एलेन आक्टावियन ह्यूम (A O HUME) को प्रेरित करके  वाईसराय लार्ड डफरिन ने कांग्रेस की स्थापना  करवाई थी जिसके प्रथम अध्यक्ष  थे वोमेश चंद (W C ) बनर्जी । आर्यसमाजियों ने इस कांग्रेस में प्रविष्ट होकर इसे स्वतन्त्रता आंदोलन चलाने के लिए बाध्य कर दिया था जैसा कि,  डॉ पट्टाभि सीता रम्मेया ने 'कांग्रेस का इतिहास' पुस्तक में लिखा भी है कि गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। 1916 में मुस्लिम लीग को ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन के जरिये तथा 1920 में हिंदूमहासभा को लाला लाजपत राय व मदन मोहन मालवीय के जरिये तथा इसके सैन्य संगठन के रूप में 1925 में आर एस एस की स्थापना   डॉ हेडगेवार के जरिये ब्रिटिश शासन को बचाए रखने के लिए अंग्रेज़ सरकार ने करवाई थी। इन संगठनों ने गांधी जी के स्वातन्त्र्य आंदोलन को विफल करने हेतु देश को साप्रदायिकता की भट्टी में झोंक दिया जिसके परिणाम स्वरूप 1947 में साम्राज्यवादी देश विभाजन हुआ जिसे धार्मिक/सांप्रदायिक विभाजन की संज्ञा दी जाती है ( जबकि यह शुद्ध साम्राज्यवादी विभाजन है )। 

कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये महान विद्वान आर्यसमाज व आर एस एस के मूल चरित्र को समझे बगैर ही दोनों को एक समान बता रहे हैं। आर एस एस ने जैसे विभिन्न राजनीतिक दलों में घुसपैठ बनाई है उसी प्रकार सामाजिक संगठनों में भी और आज आर्यसमाजी संगठनों में भी आर एस एस के लोग हावी दीख रहे हैं किन्तु शुद्ध आर्यसमाजी आर एस एस विरोधी ही होता है। 

 आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा के जब सूरज प्रकाश कुमार साहब प्रधान थे तब उन्होने क्षेत्रीय वाल्मीकि बस्ती में प्रत्येक पूर्णमासी को प्रवचन कराने की व्यवस्था की थी जिससे इस समाज को ब्राह्मणवादी जकड़न से बाहर निकाला जाये। ऐसी ही एक बैठक में आचार्य विश्वदेव जी द्वारा 'भंगी' शब्द प्रयुक्त किए जाने पर इस समाज के एक बुजुर्ग साहब ने कड़ी आपत्ति की थी और उनसे इस शब्द की उत्पत्ति का स्त्रोत बताने को कहा था। व्याकरणाचार्य होते हुये भी विश्वदेव जी 'भंगी' शब्द की उत्तपत्ति का स्त्रोत नहीं बता पाये थे और हार मानते हुये उन्होने उन वृद्ध सज्जन से ही बताने का निवेदन किया था।  

उन साहब ने जो बताया उसे विश्वदेव जी ने भी स्वीकार कर लिया था :
भंगी= जो भंग करे अर्थात जो किसी नियम, मर्यादा,चीज़ या परंपरा को भंग करे वह 'भंगी' होता है। 
1 )- पारिवारिक मर्यादा,
2 )- सामाजिक मर्यादा,
3 )- राजनीतिक मर्यादा , 
4 )- राष्ट्रीय मर्यादा। 
इन चार में किसी एक भी मर्यादा को भंग करने वाला 'भंगी' कहलाता था। न यह कोई समुदाय था न ही जाति। परंतु उपर्युक्त संदर्भ में दोनों विद्वानों ने वास्तविक तथ्यों की उपेक्षा सिर्फ इसलिए ही की है क्योंकि वे ब्राह्मणवादी/साम्राज्यवादी मानसिकता से उबर नहीं पा रहे हैं। जब विद्वान ही जागरूक नहीं होना चाहते तब जनता से क्या अपेक्षा की जा सकती है?
 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
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Wednesday, October 21, 2015

'रावण वध’भारतीय ऋषियों द्वारा नियोजित एवं पूर्व निर्धारित योजना थी ------ विजय राजबली माथुर

 एक निवेदन-

आज कुछ लोगों को यह प्रयास हास्यास्पद इसलिए लग सकता है क्योंकि आम धारणा है कि हमारा देश जाहिलों का देश था और हमें विज्ञान से विदेशियों ने परिचित कराया है.जबकि यह कोरा भ्रम ही है.वस्तुतः हमारा प्राचीन विज्ञान जितना  आगे था उसके किसी भी कोने तक आधुनिक विज्ञान पहुंचा ही नहीं है.हमारे पोंगा-पंथियों की मेहरबानी से हमारा समस्त विज्ञान विदेशी अपहृत कर ले गये और हम उनके परमुखापेक्षी बन गये ,इसीलिये मेरा उद्देश्य "अपने सुप्त ज्ञान को जनता जाग्रत करे" ऐसे आलेख प्रस्तुत करना है.मैं प्रयास ही कर सकता हूँ ,किसी को भी मानने या स्वीकार करने क़े लिये बाध्य नहीं कर सकता न ही कोई विवाद खड़ा करना चाहता हूँ .हाँ देश-हित और जन-कल्याण की भावना में ऐसे प्रयास जारी ज़रूर रखूंगा.  मैं देश-भक्त जनता से यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि,हमारी परम्परा में देश-हित,राष्ट्र-हित सर्वोपरी रहे हैं.

सत्य,सत्य होता है और इसे अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता.एक न एक दिन लोगों को सत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा तथा ढोंग एवं पाखण्ड का भांडा फूटेगा ही फूटेगा.राम और कृष्ण को पूजनीय बना कर उनके अनुकरणीय आचरण से बचने का जो स्वांग ढोंगियों तथा पाखंडियों ने रच रखा है उस पर प्रहार करने का यह मेरा छोटा सा प्रयास था.


प्रस्तुत आलेख मूल रूप से आगरा से प्रकाशित साप्ताहिक सप्तदिवा क़े २७ अक्तूबर १९८२ एवं ३ नवम्बर १९८२ क़े अंकों में दो किश्तों में पूर्व में ही प्रकाशित हो चुका है  तथा इस ब्लॉग पर भी पहले प्रकाशित किया जा चुका है.पूर्व में प्रकाशित इस आलेख की अशुद्धियों को यथासम्भव सुधारते हुए तथा पाठकों की सुविधा क़े लिये यहाँ पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है।

जिन लोगों की बुद्धि और मस्तिष्क पैर के तलवों मे रहता हो उनसे 'तर्क' की अपेक्षा नहीं की जा सकती है वे तो ढोंग-पाखंड-आडंबर को बढ़ावा देने  मे अपना 'कार्पोरेटी' हित देखते हैं क्योंकि वे जन-कल्याण की भावना से कोसों दूर हैं। प्रस्तुत विश्लेषण अपने संक्षिप्त रूप मे 'मेरठ कालेज पत्रिका',मेरठ मे भी 1971 मे प्रकाशित हुआ था।
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आज से दो अरब वर्ष पूर्व हमारी पृथ्वी और सूर्य एक थे.एस्त्रोनोमिक युग में सर्पिल,निहारिका,एवं नक्षत्रों का सूर्य से पृथक विकास हुआ.इस विकास से सूर्य के ऊपर उनका आकर्षण बल आने लगा .नक्षत्र और सूर्य अपने अपने कक्षों में रहते थे तथा ग्रह एवं नक्षत्र सूर्य की परिक्रमा किया करते थे.एक बार पुछल तारा अपने कक्ष से सरक गया और सूर्य के आकर्षण बल से उससे टकरा गया,परिणामतः सूर्य के और दो टुकड़े चंद्रमा और पृथ्वी उससे अलग हो गए और सूर्य  की परिक्रमा करने लगे.यह सब हुआ कास्मिक युग में.ऐजोइक युग में वाह्य सतह पिघली अवस्था में,पृथ्वी का ठोस और गोला रूप विकसित होने लगा,किन्तु उसकी बाहरी सतह अर्ध ठोस थी.अब भारी वायु मंडल बना अतः पृथ्वी की आंच ताप कम हुई और राख जम गयी.जिससे पृथ्वी के पपडे  का निर्माण हुआ.महासमुद्रों व महाद्वीपों  की तलहटी का निर्माण तथा पर्वतों का विकास हुआ,ज्वालामुखी के विस्फोट हुए और उससे ओक्सिजन निकल कर वायुमंडल में HYDROGEN से प्रतिकृत हुई जिससे करोड़ों वर्षों तक पर्वतीय चट्टानों पर वर्षा हुई तथा जल का उदभव हुआ;जल समुद्रों व झीलों के गड्ढों में भर गया.उस समय दक्षिण भारत एक द्वीप  था तथा अरब सागर मालाबार तट तक विस्तृत समुद्र उत्तरी भारत को ढके हुए था;लंका एक पृथक द्वीप था.किन्तु जब नागराज हिमालय पर्वत की सृष्टि हुई तब इयोजोइक युग में वर्षा के वेग के कारण  उससे ऊपर मिटटी पिघली बर्फ के साथ समुद्र तल  में एकत्र हुई और उसे पीछे हट जाना पड़ा तथा उत्तरी भारत का विकास हुआ.इसी युग में अब से लगभग तीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय  वनस्पतियों व बीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय  का उदभव हुआ.एक कोशिकाएं ही भ्रूण विकास के साथ समय प्रत्येक जंतु विकास की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं.सबसे प्राचीन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाए जाते,अस्तु उस समय लार्वा थे,जीवोत्पत्ति नहीं हुई थी.उसके बाद वाली चट्टानों में (लगभग बीस करोड़ वर्ष पूर्व)प्रत्जीवों (protojoa) के अवशेष मिलते हैं अथार्त सर्व प्रथम जंतु ये ही हैं.जंतु आकस्मिक ढंग से कूद कर(ईश्वरीय प्रेरणा के कारण ) बड़े जंतु नहीं हो गए,बल्कि सरलतम रूपों का प्रादुर्भाव हुआ है जिन के मध्य हजारों माध्यमिक तिरोहित कड़ियाँ हैं.मछलियों से उभय जीवी (AMFIBIAN) उभय जीवी से सर्पक (reptile) तथा सर्पकों से पक्षी (birds) और स्तनधारी (mamals) धीरे-धीरे विकास कर सके हैं.तब कहीं जा कर सैकोजोइक युग में मानव उत्पत्ति हुई।(यह गणना आधुनिक विज्ञान क़े आधार पर है,परतु अब से दस लाख वर्ष पूर्व मानव की उत्पत्ति तिब्बत ,मध्य एशिया और अफ्रीका में एक साथ युवा पुरुष -महिला क़े रूप में हुई)

अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था.इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था.कोई किसी की संपति (asset) न थी,समूहों का नेत्रत्व मातृसत्तात्मक  (mother oriented) था.इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाषाण काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है.परिवार के सम्बन्ध में यह अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मातृ सत्तामक समूह रहे हों).इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था.मानव के ह्रास विकास की कहानी सतत संघर्षों को कहानी है.malthas के अनुसार उत्पन्न संतानों में आहार ,आवास,तथा प्रजनन के अवसरों के लिए –‘जीवन के लिए संघर्ष’ हुआ करता है जिसमे प्रिंस डी लेमार्क के अनुसार व्यवहार तथा अव्यवहार’ के सिद्दंतानुसार योग्यता ही जीवित रहती है’.अथार्त जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी वहीँ वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया.कालांतर में तेज बुद्धि मनुष्य ने पत्थर और काष्ठ के उपकरणों तथा शस्त्रों का अविष्कार किया तथा जीवन पद्धति को और सरल बना लिया.इसे उत्तर पाषाण काल’ की संज्ञा दी गयी.पत्थरों के घर्षण से अग्नि का अविष्कार हुआ और मांस को भून कर खाया जाने लगा.धीरे धीरे मनुष्य ने देखा की फल खा कर फेके गए बीज किस प्रकार अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का आकार ग्रहण कर लेते हैं.एतदर्थ उपयोगी पशुओं को अपना दास बनाकर मनुष्य कृषि करने लगा.यहाँ विशेष स्मरणीय तथ्य यह है की जहाँ कृषि उपयोगी सुविधाओं का आभाव रहा वहां का जीवन पूर्ववत ही था.इस दृष्टि से गंगा-यमुना का दोआबा विशेष लाभदायक रहा और यहाँ उच्च कोटि की सभ्यता का विकास हुआ जो आर्य सभ्यता कहलाती है और यह क्षेत्र आर्यावर्त.कालांतर में यह जाति सभ्य,सुसंगठित व सुशिक्षित होती गयी.व्यापर कला-कौशल और दर्शन में भी यह जाति  सभ्य थी.इसकी सभ्यता और संस्कृति तथा नागरिक जीवन एक उच्च कोटि के आदर्श थे.भारतीय इतिहास में यह काल त्रेता युग’ कें नाम से जाना जाता है और इस का समय ६५०० इ. पू.  आँका गया है(यह गणना आधुनिक गणकों की है,परन्तु अब से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व राम का काल आंका गया है तो त्रेता युग  भी उतना ही पुराना होगा) .आर्यजन काफी विद्वान थे.उन्होंने अपनी आर्य सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रसार किया.इस प्रकार आर्य जाति  और भारतीय सभ्यता संस्कृति गंगा-सरस्वती के तट से पश्चिम की और फैली.लगभग चार हजार वर्ष पश्चात् २५०० इ.पू.आर्यों ने सिन्धु नदी की घाटी में एक सुद्रढ़ एवं सुगठित सभ्यता का विकास किया.यही नहीं आर्य भूमि से स्वाहा और स्वधा के मन्त्र पूर्व की और भी फैले तथा आर्यों के संस्कृतिक प्रभाव से ही इसी समय नील और हवांग हो की घाटियों में भी समरूप सभ्यताओं का विकास हो सका.
भारत से आर्यों की एक शाखा पूर्व में कोहिमा के मार्ग से चीन,जापान होते हुए अलास्का के रास्ते  राकी पर्वत श्रेणियों में पहुच कर पाताल लोक(वर्तमान अमेरिका महाद्वीपों में अपनी संस्कृति एवं साम्राज्य बनाने में समर्थ हुई.मय ऋषि के नेत्रतव में मयक्षिको (मेक्सिको) तथा तक्षक ऋषि के नेत्रत्व में तकसास  (टेक्सास) के आर्य उपनिवेश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं कालांतर में कोलंबस द्वारा नयी दुनिया की खोज के बाद इन के वंशजों को red indians कहकर निर्ममता से नष्ट किया गया.

पश्चिम की ओर  हिन्दुकुश पर्वतमाला को पार कर आर्य जाति  आर्य नगर (ऐर्यान-ईरान) में प्रविष्ट हुई.कालांतर में यहाँ के प्रवासी आर्य,अ-सुर (सुरा न पीने के कारण) कहलाये.दुर्गम मार्ग की कठिनाइयों के कारण  इनका अपनी मातृ भूमि  आर्यावर्त से संचार संपर्क टूट सा गया,यही हाल धुर-पश्चिम -जर्मनी आदि में गए प्रवासी आर्यों का हुआ.एतदर्थ प्रभुसत्ता को लेकर निकटवर्ती  प्रवासी-अ-सुर आर्यों से गंगा-सिन्धु के मूल आर्यों का दीर्घकालीन भीषण देवासुर संग्राम हुआ.हिन्दुकुश से सिन्धु तक भारतीय आर्यों का  नेतृत्व  एक कुशल सेनानी इंद्र कर रहा था.यह विद्युत्  शास्त्र का प्रकांड विद्वान और हाईड्रोजन  बम का अविष्कारक था.इसके पास बर्फीली गैसें थीं.इसने युद्ध में सिन्धु-क्षेत्र  में असुरों को परास्त  किया,नदियों के बांध तोड़ दिए,निरीह गाँव में आग लगा दी और समस्त प्रदेश को पुरंदर (लूट) लिया.यद्यपि इस युद्ध में अंतिम विजय मूल भारतीय आर्यों की ही हुई और सभी प्रवासी(अ-सुर) आर्य पराग्मुख हुए.परन्तु सिन्धु घाटी के आर्यों को भी भीषण नुकसान हुआ।

आर्यों ने दक्षिण और सुदूर दक्षिण पूर्व की अनार्य जातियों में भी सांस्कृतिक  प्रसार किया.आस्ट्रेलिया (मूल द्रविड़ प्रदेश) में जाने वाले सांस्कृतिक  दल का नेतृत्व  पुलस्त्य मुनि कर रहे थे.उन्होंने आस्ट्रेलिया में एक राज्य की स्थापना की (आस्ट्रेलिया की मूल जाति  द्रविड़ उखड कर पश्चिम की और अग्रसर हुई तथा भारत के दक्षिणी -समुद्र तटीय निर्जन भाग पर बस गयी.समुद्र तटीय जाति  होने के कारण ये-निषाद जल मार्ग से व्यापार  करने लगे,पश्चिम के सिन्धी आर्यों से इनके घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध हो गए.) तथा लंका आदि द्वीपों से अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए उनकी मृत्यु के पश्चात् राजा  बनने  पर उन के पुत्र विश्र्व मुनि की गिद्ध दृष्टि लंका के वैभव की ओर गयी.उसने लंका पर आक्रमण किया और राजा  सोमाली को हराकर भगा दिया(सोमाली भागकर आस्ट्रेलिया के निकट एक निर्जन  द्वीप पर बस गया जो  उसी के नाम पर सोमालिया कहलाता है.)इस साम्राज्यवादी लंकेश्वर के तीन पुत्र थे-कुबेर,रावण,और विभीषण -ये तीनों परस्पर सौतेले भाई थे.पिता की म्रत्यु के पश्चात् तीनों में गद्दी के लिए संघर्ष हुआ.अंत में रावण को सफलता मिली.(आर्यावर्त से परे दक्षिण के ये आर्य स्वयं को रक्षस - राक्षस अथार्त आर्यावर्त और आर्य संस्कृति की रक्षा करने वाले ,कहते थे;परन्तु रावण मूल आर्यों की भांति सुरा न पीकर मदिरा का सेवन करता था इसलिए  वह भी अ-सुर अथार्त सुरा  न पीने वाला कहलाया) विभीषण ने धैर्य पूर्वक रावण की प्रभुसत्ता को स्वीकार किया तथा उस का विदेश मंत्री बना और कुबेर अपने पुष्पक विमान द्वारा भागकर आर्यावर्त चला आया.प्रयाग के भारद्वाज मुनि उसके नाना थे.उनकी सहायता से वह स्वर्गलोक (वर्तमान हिमांचल प्रदेश) में एक राज्य स्थापित करने में सफल हुआ.किन्तु रावण ने चैन की साँस न ली,वह कुबेर के पीछे हाथ धो कर पड़ गया था.उसने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया अनेक छोटे छोटे राजाओं को परस्त करता हुआ वह बाली क़े राज्य में घुस आया. बाली ने ६ माह तक उसकी सेना को घेरे रखा अंत में दोनों क़े मध्य यह फ्रेंडली एलायंस हो गया कि यदि रावण और बाली की ताकतों पर कोई तीसरी ताकत आक्रमण करे तो  वे एक दूसरे की मदद करेंगे.,अब रावण ने स्वर्ग लोक तक सीढी बनवाने अथार्त सब आर्य राजाओं को क्रमानुसार विजय करने का निश्चय किया.उस समय आर्यावर्त में कैकय,वज्जि,काशी,कोशल,मिथिला आदि १६ प्रमुख जनपद थे.कहा जाता है कि  एक बार रावण ईरान,कंधार आदि को जीतता हुआ कैकय राज्य  वर्तमान गंधार प्रदेश (रावलपिंडी के निकट जो अब पाकिस्तान में है) तक पहुँच  गया.यही राज्य स्वर्गलोक (हिमाचल प्रदेश) अंतिम सीढ़ी (आर्य राज्य) था.किन्तु रावण इस सीढ़ी को बनवा (जीत) न सका.कैकेय राज्य को सभी शक्तिशाली राज्यों से सहायता मिल रही थी.उधर पश्चिम क़े  प्रवासी अ-सुर आर्यों से आर्यावर्त के आर्यों का संघर्ष चल ही रहा था अतः रावण को उनका समर्थन प्राप्त होना सहज और स्वाभाविक था.अतः कैकेय भू पर ही खूब जम कर देवासुर संग्राम हुआ.इस संघर्ष में कोशल नरेश दशरथ ने अमिट योगदान  दिया.उन्हीं क़े  असीम शौर्य पराक्रम से कैकेय राज्य की स्वतंत्रता स्थिर रही और रावण  को वापस लौटना पड़ा जिसका उसे मृत्यु  पर्यंत खेद रहा. कैकेय क़े राजा ने दशरथ से प्रसन्न होकर अपनी पुत्री कैकयी का विवाह कर दिया;तत्कालीन प्रथा क़े अनुसार विवाह क़े अवसर पर दिये जाने वाले दो वरदानों में से दशरथ ने कैकयी से फिर मांग लेने को कहा.


बस यहीं से रावण के वध के निमित्त योजना तैयार की जाने लगी.कुबेर के नाना भरद्वाज ऋषि ने आर्यावर्त के समस्त ऋषियों की एक आपातकालीन बैठक प्रयाग में बुलाई.दशरथ के प्रधान मंत्री  वशिष्ठ मुनि भी विशेष आमंत्रण से इस सभा में भाग लेने गए थे.ऋषियों ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया जिसके अनुसार दशरथ का जो प्रथम पुत्र उत्पन्न होउसका नामकरणराम’ हो तथा उसे राष्ट्र रक्षा के लिए १४ वर्ष का वनवास करके रावण के साम्राज्यवादी इरादों को नेस्तनाबूत करना था.इस योजना को आदिकवि  वाल्मीकि ने जो इस सभा क़े अध्यक्ष थे,संस्कृत साहित्य में काव्यमयी भाषा में अलंकृत किया.अवकाशप्राप्त रघुवंशी राजा और रॉकेट क़े आविष्कारक विश्वामित्र ने दशरथ क़े पुत्रों का गुरु बनने और उनके पथ प्रदर्शक क़े रूप में काम करने का भार ग्रहण किया.वशिष्ठ ने किसी भी कीमत पर राम को रावण वध से पूर्व शासन  संचालन न करने देने की शपथ खाई.इस योजना को अत्यंत गुप्त रखा गया.

आर्यावर्त क़े चुनिन्दा सेनापतियों तथा कुशल वैज्ञानिकों (वायु-नरों या वानरों) को रावण वध में सहायता करने हेतु दक्षिण प्रदेश में निवास करने की आज्ञा मिली.  सौभाग्यवश दशरथ के चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः राम,भारत,लक्ष्मण,शत्रुहन ऋषियों की योजना के अनुरूप ही वशिष्ठ ने रखे.राम और लक्ष्मण को कुछ बड़े होने पर युद्ध,दर्शन,और राष्ट्रवादी धार्मिकता की की दीक्षा देने  के लिए विश्वामित्र अपने आश्रम ले गए.उन्होंने राम को उन के निमित्त तैयार ऋषियों की राष्ट्रीय  योजना का परिज्ञान कराया तथा युद्ध एवं दर्शन की शिक्षा दी.आर्यावर्त की पौर्वात्य और पाश्चात्य दो महान शक्तियों में चली आ रही कुलगत  शत्रुता का अंत करने के उद्देश्य से विश्वमित्र राम और लक्ष्मण को अपने साथ जनक की पुत्री सीता  के स्वयंवर में मिथिला ले गए.उन्होंने राम को ऋषि योजनानुकूल  जनक का धनुष तोड़ने  की प्रतिज्ञा  का परिज्ञान कराकर उसे तोड़ने  की तकनीकी  कला समझा दी.इस प्रकार राम-सीता के विवाह द्वारा समस्त  आर्यावर्त एकता के सूत्र में आबद्ध हो गया।


राम के विवाह के दो वर्ष पश्चात् प्रधानमंत्री वशिष्ठ ने दरबार (संसद) में राजा को उनकी वृद्धावस्था का आभास कराया और राम को उत्तराधिकार सौपकर अवकाश प्राप्त करने की  ओर संकेत दिया.राजा ने संसद के इस प्रस्ताव का स्वागत किया;सहर्ष ही दो दिवस की अल्पावधि में पद त्याग करने की  घोषणा की .एक ओर तो राम के राज्याभिषेक (शपथ ग्रहण समारोह) की  जोर शोर से तैय्यारियाँ आरंभ हो गयीं तो दूसरी ओर प्रधान मंत्री ने राम को सत्ता से पृथक  रखने की  साजिश शुरू की.मन्थरा को माध्यम बना कर कैकयी को आस्थगित वरदानों में इस अवसर पर प्रथम तो भरत के लिए राज्य व द्वितीय राम के लिए वनवास १४ वर्ष की  अवधि के लिए,दिलाने के लिए भड़काया,जिसमे उन्हें सफलता मिल गयी.इस प्रकार दशरथ की मौन स्वीकृति  दिलाकर राज्य की अंतिम मोहर दे कर राम-वनवास का घोषणा पत्र  राम को भेंट किया.राम,सीता  और लक्ष्मण को गंगा  पर (राज्य की  सीमा तक) छोड़ने  मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य सुमंत (विदेश मंत्री) को भेजा गया. अब राम के राष्ट्रीय कार्य-कलापों का श्री गणेश हुआ.सर्वप्रथम तो आर्यावर्त के प्रथम डिफेंस सेण्टर प्रयाग में भारद्वाज ऋषि के आश्रम पर राम ने उस राष्ट्रीय योजना का अध्ययन किया जिसके अनुसार उन्हें रावण  का वध करना था.भारद्वाज ऋषि ने राम को कूटनीति  की प्रबल शिक्षा दी.क्रमशः अग्रिम डिफेंस सेंटरों (विभिन्न ऋषियों के आश्रमों) का निरीक्षण  करते हुए राम ने पंचवटी में अपना दूसरा शिविर डाला जो आर्यावर्त से बाहर वा-नर प्रदेश में था जिस पर रावण के मित्र बाली का प्रभाव था.चित्रकूट में राम को अंतिम सेल्यूट  दे कर पुनीत कार्य के लिए विदा दे दी गयी थी.अतः अब राम ने अस्त्र (शस्त्र भी) धारण कर लिया था .पंचवटी में रहकर उन का कार्य प्रतिपक्षी को युद्ध के लिए विवश करना था.यहाँ रहकर उन्होंने लंका के विभिन्न गुप्तचरों तथा एजेंटों का वध किया.इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर राष्ट्रद्रोही जयंत का गर्व चूर किया खर-दूषण नामक  रावण  के दो बंधुओं का सर्वनाश किया.सतत अपमान के समाचारों को प्राप्त करते-करते रावण का खून खौलने  लगा उसने अपने मामा को (जो भांजे के प्रति भक्ति न रखकर स्वार्थान्धता वश  विदेशियों के प्रति लोभ पूर्ण  आस्था रखता था) राम के पास जाने का आदेश दिया और स्वयं वायुयान द्वारा गुप्तरूप से पहुँच गया.राम को मारीच की लोभ-लोलुपता तथा षड्यंत्र की सूचना लंका स्थित उनके गुप्तचर ने बे-तार के तार से दे दी थी अतः उन्होंने मारीच को दंड देने का निश्चय किया.वह उन्हें युद्ध में काफी दूर ले गया तथा छल से लक्ष्मण को भी संग्राम में भाग लेने को विवश किया.अब रावण ने भिक्षुक  के रूप में जा कर सीता को लक्ष्मण द्वारा की गयी इलेक्ट्रिक वायरिंग (लक्ष्मण रेखा) से बाहर  आकर दान देने के लिए विवश किया और उनका अपहरण कर विमान द्वारा लंका ले गया.


जब राम लक्ष्मण के साथ मारीच का वध कर के लौटे तो सीता को न पाकर और संवाददाता से पूर्ण समाचार पाकर राम ने अपने को भावी लक्ष्य की पूर्ती में सफल समझा.अब उन्हें उपनिवेशाकांक्षी रावण  के साम्राज्यवादी समझबूझ के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का मार्ग तो मिल गया था,किन्तु जब तक बाली- रावण friendly aliance था लंका पर आक्रमण करना एक बड़ी मूर्खता थी,यद्यपि  अयोध्या में शत्रुहन के नेतृत्व  में समस्त आर्यावर्त की सेना उन की सहायता के लिए तैयार खडी  थी.अतः बाली का पतन करना अवश्यम्भावी था.उसका अनुज सुग्रीव राज्याधिकार हस्तगत करने को लालायित था.इसलिए उसने सत्ता प्राप्त करने के पश्चात् रावण  वध में सहायता करने का वचन दिया.राम ने सुग्रीव का पक्ष ले कर बाली को द्वन्द युद्ध में मार डाला क्योंकि यदि राम (अवध से सेना बुलाकर उसके राज्य पर)प्रत्यक्ष आक्रमण करते तो बाली का बल दो-गुना हो जाता.(बाली रावण friendly allaince के अनुसार केवल बाली ही नहीं,बल्कि रावण की सेना से भी भारत भू पर ही युद्ध करना पड़ता) जो किसी भी हालत में भारत के हित में न था.यह आर्यावर्त की सुरक्षा के लिए संहारक  सिद्ध होता.राम को तो साम्राज्यवादियों के घर में ही उन को नष्ट करना था.उनका उद्देश्य लंका को आर्यावर्त में मिलाना नहीं था.अपितु भारतीय राष्ट्रीयता को एकता के सूत्र में आबद्ध करने के पश्चात् राम का अभीष्ट लंका में ही लंका वालों का ऐसा मंत्रिमंडल बनाना था जो आर्यावर्त के साथ सहयोग कर सके.विभीषण तो रावण  का प्रतिद्वंदी था ही,अतः राम ने उसे अपनी ओर तोड़ेने के लिए एयर मार्शल (पवन-सूत) हनुमान को अपना दूत बनाकर गुप्त रूप से लंका भेजा.उन्हें यह निर्देश था की यदि समझौता हो जाता है तो वह रावण के सामने अपने को अवश्य प्रकट कर दें .किन्तु हनुमान की Diplomacy यह है की उन्होंने रावण दरबार में बंदी के रूप में उपस्थित होने पर स्वयं को राम का शांती दूत बताया.इसी आधार पर विभीषण ने (जो सत्ता पिपासु हो कर भाई के प्रति विश्वासघात कर रहा था) अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक नियमों की आड़ में हनुमान को मुक्त करा दिया.परन्तु रावण के निर्देशानुसार लंका की वायु सेना ने लौट ते हुए हनुमान के यान की पूँछ पर प्रहार किया.कुशलता पूर्वक आत्मरक्षित हो कर हनुमान ने लंका में अग्नि बमों (नेपाम बमों) की वर्षा कर सेना का विध्वंस किया जिससे लंका का वैभव नष्ट हो गया तथा सैन्य शक्ति जर्जर हो गयी.रावण  ने संसद ( दरबार) में विभीषण पर राजद्रोह का  अभियोग लगाकर मंत्रिमंडल से निष्कासित कर दिया।

लंका को जर्जर और खोखला बनाकर राम ने जब आक्रमण किया तो इसकी घोषणा सुनते ही  मौके पर विभीषण अपने समर्थकों सहित राम की शरण में चला आया.राम ने उसी समय उसे रावण का उत्तराधिकारी घोषित किया और राज्याभिषेक भी कर दिया.इस प्रकार पारस्परिक द्वेष के कारण  वैभवशाली एवं सम्रद्ध लंका साम्राज्य का पतन और रावण का अंत हुआ.लंका में विभीषण की सरकार स्थापित हुई जिसने आर्यावर्त की अधीनता तथा राम को कर देना विवशता पूर्वक स्वीकार किया.लंका को आर्यावर्त के अधीन करदाता राज्य बनाकर राम ने किसी साम्राज्य की स्थापना नहीं की बल्कि उन्होंने राष्ट्रवाद की स्थापना कर आर्यावर्त में अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता की सुदृढ़  नींव डाली.

सीता लंका से मुक्त हो कर स्वदेश लौटीं.इस प्रकार रावण वध का एकमात्र कारण  सीता हरण नहीं कहा जा सकता,बल्कि 'रावण  वधभारतीय ऋषियों द्वारा नियोजित एवं पूर्व निर्धारित योजना थी;उसका सञ्चालन राष्ट्र के योग्य,कर्मठ एवं राजनीती निपुण कर्णधारों के हाथ में था जिसकी बागडोर कौशल-नरेश राम ने संभाली.राम के असीम त्याग,राष्ट्र-भक्ति और उच्चादर्शों के कारन ही आज हम उनका गुण गान करते हैं-मानो ईश्वर  इस देश की रक्षा के लिए स्वयं ही अवतरित हुए थे।

 ~विजय राजबली माथुर ©
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12-10-2016 

Friday, October 16, 2015

यह सोच नेताजी जैसे महान क्रांतिकारी का बहुत बड़ा अपमान है --- राजीव शुक्ला,पूर्व सांसद व मंत्री

मैं यह बात कतई मानने को तैयार नहीं हूं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस बीसों साल भारत में या दुनिया में कहीं भी रूप बदलकर, छिपकर जीवन गुजारते रहे। यह बात और यह सोच अपने आप में नेताजी जैसे महान क्रांतिकारी का बहुत बड़ा अपमान है। एक बेखौफ, जुझारू और वीर पुरुष भला इस तरह छिपकर अपनी जिंदगी क्यों गुजारना चाहेगा? जो लोग इस तरह की दलील देते हैं, लगता है कि उन्हें न तो सुभाष चंद्र बोस के स्वभाव के बारे में ठीक से पता है और न ही वे उनके अदम्य साहस को ही अच्छी तरह से पहचानते हैं। 

मेरे लिहाज से नेताजी सुभाष चंद्र बोस का परिवार प्रधानमंत्री से मिलकर सिर्फ यह जानना चाहता है कि विमान हादसे में उनकी मृत्यु हुई थी या नहीं? यदि नहीं, तो फिर उसके बाद वह कहां थे? यह किसी भी परिवार के लिए लाजमी है कि वह अपने किसी पूर्वज के बारे में जानकारी मांगे। 

मुझे शिकायत सिर्फ उन लोगों से है, जो तरह-तरह के इंटरव्यू और बयान देकर यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि अमुक व्यक्ति दरअसल नेताजी थे, जो साधु बनकर रहे, फलां व्यक्ति नेताजी थे, जो ताशकंद मैन बनकर     रूस में रहे। कोई कहता है कि सुभाष बाबू  करीब 30 साल तक गुमनाम बनकर अयोध्या में रहे, तो कोई यह कहता है कि वह पंजाब में रहे; कोई कहता है कि वह कई बरस तक बिहार में थे, तो कोई कहता है कि वह जर्मनी में रहे। दावे तो ऐसे भी किए गए कि एक बार बाबा जयगुरुदेव के समर्थकों ने उन्हें कानपुर के फूलबाग मैदान में सुभाष चंद्र बोस घोषित कर उनके प्रकट होने का नाटक कराया और उसके बाद वहां मौजूद लाखों लोगों ने बाबा के उन समर्थकों से जमकर मारपीट की। 

आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक के सी सुदर्शन स्वयं इस बात पर हमेशा विश्वास करते रहे कि नेताजी नोएडा में रहते थे। और तो और, नेताजी के गृह प्रदेश की राजधानी कोलकाता में तो आज भी ऐसे तमाम बंगाली परिवार आपको मिल जाएंगे, जो यह मानते हैं कि 118 साल की उम्र में भी नेताजी जिंदा हैं, और कहीं पर छिपे हुए हैं, जिनको भारत सरकार जान-बूझकर नहीं खोज रही है। 

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर नेताजी देश की आजादी के बाद भी वेश बदलकर  छिपकर  क्यों रहेंगे? ऐसा मानने वालों में कुछ लोगों का तर्क यह है कि क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध में उन्होंने ब्रिटेन के नेतृत्व वाले एलाइड देशों का विरोध किया था, इसलिए वह  ब्रिटिश सरकार के कानून के अधीन युद्ध अपराधी घोषित थे और अगर वह सामने आ जाते, तो उन्हें ब्रिटिश सरकार गिरफ्तार कर सकती थी। इसी डर से वह वेश बदलकर, और छिपकर रहे। मगर यह तर्क अपने आप में बेहद हल्का और अपमानजनक है। गुलाम भारत में आजादी की लड़ाई लड़ते हुए जो व्यक्ति ब्रिटिश सरकार की जेल से नहीं डरा और  गांधी के सिद्धांतों से असहमत होते हुए अपना सैनिक संगठन बनाकर लड़ाई के लिए तैयार था, वह आजाद भारत में, जहां अंग्रेजों का कुछ भी नहीं रह गया था, भला उनकी जेल से क्यों डरेगा? ऐसे लोगों का एक और तर्क हो सकता है कि आजादी के बाद भी ब्रिटिश सरकार भारत सरकार पर दबाव डालकर उन्हें इंग्लैंड ले जाती और उन्हें जेल में डाल देती। 

ऐसे लोगों से पूछने लायक एक ही सवाल है कि आजाद भारत में किस सरकार की इतनी हिम्मत हो सकती थी कि वह नेताजी को ब्रिटिश सरकार को सौंप देती? फिर अगर कोई हिमाकत करने की कोशिश भी करता, तो करोड़ों भारतीय उसके विरोध में खड़े हो जाते और जन भावनाएं अगर इतने बड़े पैमाने पर हों, तो भला किसकी ऐसी हिम्मत पड़ सकती है? और तो और, इन भावनाओं को देखते हुए भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी उनको देश के बाहर ले जाने पर रोक लगा देता और  फिर ब्रिटिश सरकार सालोंसाल अंतरराष्ट्रीय अदालत में लड़ती रहती। वैसे भी, ब्रिटेन की कोई सरकार सुभाष चंद्र्र बोस को सौंपने की मांग करती ही नहीं। इतना तो शायद   

अंग्रेज भी जानते थे कि यह काम कतई संभव नहीं है। कई बार ब्रिटेन ने खुद ही दुनिया के ऐसे बड़े लोगों के खिलाफ केस वापस ले लिए थे। वैसे आज भी न जाने कितने भारतीय अपराधी मजे से इंग्लैंड में रह रहे हैं और भारत सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद वहां की छोटी-छोटी अदालतें उन्हें भारत सरकार को नहीं सौंप रही हैं। फिर भला भारत सरकार नेताजी सुभाष चंद्र्र बोस को अंग्रेजों के हवाले क्यों कर देती? 

हाल ही में एक अभियान यह चला कि फैजाबाद के गुमनामी बाबा ही नेताजी थे। तमाम पत्रों का हवाला दिया गया, लेकिन कुछ साबित नहीं हो पाया। गुमनामी बाबा एक ऐसे साधु थे, जो परदे के  पीछे छिपकर रहते थे और किसी को अपना चेहरा नहीं दिखाते थे, इसलिए उन्हें नेताजी बताना लोगों को आसान लग रहा है। सवाल यह उठता है कि नेताजी भला फैजाबाद में क्यों रहेंगे? और फिर वह परदे के पीछे क्यों छिपेंगे? क्यों नहीं, उन्होंने कभी अपने भाई-भतीजे के परिवार से कोलकाता में मिलने की कोशिश की, उन्हें फोन क्यों नहीं किया, उन्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? जर्मनी में अपनी पत्नी और बेटी से कभी संपर्क क्यों नहीं किया? यह सब एक इंसान के लिए कैसे संभव है? चलिए, हम यह मान भी लें, तो आजाद हिंद फौज में जो लोग उनसे सबसे करीबी थे, उन तक उन्होंने कोई सूचना नहीं दी। 

सबसे बाद तक तो उनकी घनिष्ठ सहयोगी डॉक्टर लक्ष्मी सहगल जीवित रहीं और 98 वर्ष की उम्र में पिछले साल कानपुर में उनका निधन हुआ। उन्होंने भी कभी यह नहीं बताया कि नेताजी का कभी कोई संदेश उन्हें मिला। 
मेरा मानना है कि देश को इस तरह के विवाद से ऊपर उठकर नेताजी की स्मृति को संजोए रखना चाहिए और उससे प्रेरणा लेकर कई और नेताजी पैदा करने चाहिए, जो देश के लिए उतने ही समर्पित बन सकें। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं)
http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-Netaji-Subhash-Chandra-BoseIndiaWorld-Life-499414.html

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Aflatoon Afloo उन्होंने 'अंग्रेजों,भारत छोड़ो-करो या मरो' का आवाहन किया था।नेताजी ने रंगून से प्रसारित राष्ट्र के नाम रेडियो सन्देश में देश वासियों से इसका समर्थन करने के लिए कहा था।इसी सन्देश में गांधी को Father of Our Nation' संबोधित किया था।कस्तूरबा जब जेल में गुजरीं तो नेताजी ने राष्ट्रमाता कह कर श्रद्धान्जलि दी।

https://www.facebook.com/aflatoon.afloo/posts/10153901903873646?pnref=story


राजीव शुक्ला जी के विचार 'तर्कपूर्ण'हैं और स्वतः स्पष्ट हैं। वस्तुतः वर्तमान संघ नियंत्रित केंद्र की मोदी सरकार 'महात्मा गांधी' व जवाहर लाल नेहरू के स्वाधीनता संघर्ष में दिये योगदान को धूमिल करने हेतु नेताजी सुभाष चंद्र बोस व लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु को विवादास्पद मुद्दा बना कर देश की जनता को गुमराह कर रही है। जब 1905 के 'बंग- भंग' को ब्रिटिश सरकार को जनता की 'एकता' के आगे रद्द करना पड़ा तब उसने जनता को बांटने के लिए 'सांप्रदायिकता' का सहारा लिया। ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन (जो शासक थे ,जन-प्रतिनिधि नहीं ) के माध्यम से 'मुस्लिम लीग' की स्थापना करवाई तथा  पंडित मदन मोहन मालवीय एवं लाला लाजपत राय के माध्यम से 'हिन्दू महासभा ' की। हिंदूमहासभा की सैन्य शाखा के रूप में 1925 में आर एस एस अस्तित्व में आया जिसका आधार 'मुस्लिम विरोध' था। देश भीषण सांप्रदायिक दंगों की भट्ठी में झुलस गया और अंग्रेज़ सरकार की साम्राज्यवादी/सांप्रदायिक चाल के तहत पाकिस्तान व भारत दो देशों में बाँट गया। पाकिस्तान तो आज़ाद होते ही इंग्लैंड के साम्राज्यवादी उत्तराधिकारी यू एस ए के इशारों पर चलने लगा किन्तु भारत को जवाहर लाल नेहरू ने 'गुट निरपेक्ष ' रखा जो न तो इंग्लैंड न ही अमेरिका के आगे झुका बल्कि साम्यवादी रूस से सहायता लेकर 'आत्म निर्भर' बन गया। 

यह भारत की आत्मनिर्भरता ही अमेरिका की आँख का कांटा बन गई जिस कारण वह पाकिस्तान के माध्यम से भारत को 'युद्ध' में उलझाता रहा। 1965 , 1971 के युद्धों में पाक की करारी हार हुई और वह विभक्त भी हो गया। भारत में साम्राज्यवाद समर्थक आर एस एस आज़ादी के बाद से ही अमेरिका समर्थक रहा जिसे 1980 में इन्दिरा गांधी की सत्ता वापसी में मदद देने से अपनी शक्ति विस्तार का स्वर्ण अवसर प्राप्त हो गया है। 6 दिसंबर 1992 को विवादित बाबरी मस्जिद/राम मंदिर (जिसे ब्रिटिश सरकार ने अपनी सांप्रदायिक नीति के अंतर्गत विवादित बनवाया था ) को ढहा कर भारतीय संविधान को ढहाने की मुहिम सांप्रदायिक आधार पर संघ के निर्देश पर आडवाणी साहब द्वारा छेड़ दी गई। 

2014 के लोकसभा चुनावों के जरिये तत्कालीन पी एम मनमोहन सिंह जी की मदद से संघ को  मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनवाने का अवसर मिल गया है। तब से अब तक संविधान को हिलाने की कई कोशिशें हो रही हैं। जब संसद व विधानसभाओं में दो तिहाई बहुमत हासिल कर लिया जाएगा तब वर्तमान संविधान को ध्वस्त कर दिया जाएगा। तब तक के लिए देश की जनता को पुरानी  ब्रिटिश शैली से विभक्त करने के हर संभव प्रयास किए जाते रहेंगे। इसी कड़ी के रूप में नेताजी व शास्त्री जी की मृत्यु को विवादास्पद बना कर जनता का भावनात्मक दोहन किया जा रहा है। इसी हेतु महात्मा गांधी व जवाहर लाल नेहरू की छवि  खराब की जा रही है।  
------(विजय राजबली माथुर )


  ~विजय राजबली माथुर ©
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