जन-संस्कृति मंच के तत्वावधान में 23 जूलाई 2015 को सम्पन्न गोष्ठी :प्रो .डॉ मेनेजर पांडे ------
विभिन्न अखबारों तथा विद्वानों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों में डॉ पांडे द्वारा व्यक्त कुछ महत्वपूर्ण विचार प्रकाशित होने से रह गए हैं जबकि उनके वक्तव्य में वे शामिल थे । ऐसे ही प्रमुख विचारों को यहाँ लेने का प्रयास किया जा रहा है।
डॉ पांडे ने यह भी कहा था कि हमारे देश में वर्तमान लोकतन्त्र सिर्फ चुनाव कराने तक ही सीमित है उसके बाद इसमें जन की भागीदारी नहीं है जबकि 1789 ई . की फ्रांसीसी राज्य -क्रान्ति द्वारा जिस जनतंत्र की स्थापना की गई थी वह 'स्वतन्त्रता', 'समता' और 'बंधुत्व' पर आधारित था। अब्राहम लिंकन ने भी जनतंत्र को 'जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए' शासन कहा था। लेकिन चुनावों के बाद हमारे यहाँ 'जन' उपेक्षित हो जाता है । संसद और विधायिकाओं में जो लोग चुन कर पहुँचते हैं वे करोड़पति व्यापारी व उद्योगपति होते हैं वे ही नीतियाँ बनाते हैं जो उनके व्यापारिक हितों की पूर्ती करती हैं उनका जन सरोकारों से कोई वास्ता नहीं होता है। उनके कथन की पुष्टि 25 जूलाई 2015 को 'हिंदुस्तान' में प्रकाशित रामचन्द्र गुहा के इस लेख से भी होती है।
1857 के स्वातंत्र्य समर में भाग लेने वाली वन-जातियों को कुचलने हेतु 1871 में क्रिमिनल ट्राईबल एक्ट बनाया गया था जिसे बाद में नेहरू जी ने डिनोटिफाईड करवाया था तब से अब ये जातियाँ डिनोटिफाईड ट्राईब्स कहलाती हैं इनको नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं वे मतदाता नहीं हैं।
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'सरस्वती' का संपादक बनने हेतु आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी जी ने अपनी जमी जमाई सुविधा सम्पन्न रेलवे की रु 50/-मासिक वेतन की नौकरी छोड़ कर रु 20/- मासिक की नौकरी कर ली थी। उनका कहना था कि, "साहित्य में वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप,तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। " साहित्य साधना के लिए उन्होने 'पत्रकारिता' को अपनाया था।
आज के माहौल में साहित्यकारों पर जो साम्राज्यवादी/ब्राह्मण वादी हमले हो रहे हैं और नरेंद्र डोभाल, गोविंद पानसरे व एम एम काल्बुर्गी सरीखे विद्वानों को मौत के घाट उतारा गया है शोद्ध छात्र रोहित वेमुला को मौत के मुंह में धकेला गया है तथा कुछ पत्रकार फासिस्टों के दलाल बन कर जन-विरोधी कार्यों में संलग्न हैं जैसा कि नामचीन TV चेनल्स ने फर्जी वीडियो चला कर JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार को षड्यंत्र पूर्वक जेल भिजवाया है उनको आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी के व्यक्तिव व कृतित्व से प्रेरणा लेनी चाहिए कि, ब्राह्मण कुल में जन्मने के बावजूद वह लिंग-भेद व दक़ियानूसी विचारों के विरोधी रहे।
केवल ब्राह्मण वाद का उन्मूलन ही आज देश को एकजुट रखने में सहायक हो सकता है अन्यथा ये पुरोहितवाद देश को खंड-खंड करने पर आमादा है ही।
आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी सरीखे विद्वानों के विचारों का सहारा लेकर ब्राह्मण वाद/साम्राज्यवाद पर प्रहार किया जाए तो जन-समर्थन हासिल करने में सहायता मिल सकती है।
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
विभिन्न अखबारों तथा विद्वानों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों में डॉ पांडे द्वारा व्यक्त कुछ महत्वपूर्ण विचार प्रकाशित होने से रह गए हैं जबकि उनके वक्तव्य में वे शामिल थे । ऐसे ही प्रमुख विचारों को यहाँ लेने का प्रयास किया जा रहा है।
डॉ पांडे ने यह भी कहा था कि हमारे देश में वर्तमान लोकतन्त्र सिर्फ चुनाव कराने तक ही सीमित है उसके बाद इसमें जन की भागीदारी नहीं है जबकि 1789 ई . की फ्रांसीसी राज्य -क्रान्ति द्वारा जिस जनतंत्र की स्थापना की गई थी वह 'स्वतन्त्रता', 'समता' और 'बंधुत्व' पर आधारित था। अब्राहम लिंकन ने भी जनतंत्र को 'जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए' शासन कहा था। लेकिन चुनावों के बाद हमारे यहाँ 'जन' उपेक्षित हो जाता है । संसद और विधायिकाओं में जो लोग चुन कर पहुँचते हैं वे करोड़पति व्यापारी व उद्योगपति होते हैं वे ही नीतियाँ बनाते हैं जो उनके व्यापारिक हितों की पूर्ती करती हैं उनका जन सरोकारों से कोई वास्ता नहीं होता है। उनके कथन की पुष्टि 25 जूलाई 2015 को 'हिंदुस्तान' में प्रकाशित रामचन्द्र गुहा के इस लेख से भी होती है।
1857 के स्वातंत्र्य समर में भाग लेने वाली वन-जातियों को कुचलने हेतु 1871 में क्रिमिनल ट्राईबल एक्ट बनाया गया था जिसे बाद में नेहरू जी ने डिनोटिफाईड करवाया था तब से अब ये जातियाँ डिनोटिफाईड ट्राईब्स कहलाती हैं इनको नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं वे मतदाता नहीं हैं।
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'सरस्वती' का संपादक बनने हेतु आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी जी ने अपनी जमी जमाई सुविधा सम्पन्न रेलवे की रु 50/-मासिक वेतन की नौकरी छोड़ कर रु 20/- मासिक की नौकरी कर ली थी। उनका कहना था कि, "साहित्य में वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप,तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पाई जाती। " साहित्य साधना के लिए उन्होने 'पत्रकारिता' को अपनाया था।
आज के माहौल में साहित्यकारों पर जो साम्राज्यवादी/ब्राह्मण वादी हमले हो रहे हैं और नरेंद्र डोभाल, गोविंद पानसरे व एम एम काल्बुर्गी सरीखे विद्वानों को मौत के घाट उतारा गया है शोद्ध छात्र रोहित वेमुला को मौत के मुंह में धकेला गया है तथा कुछ पत्रकार फासिस्टों के दलाल बन कर जन-विरोधी कार्यों में संलग्न हैं जैसा कि नामचीन TV चेनल्स ने फर्जी वीडियो चला कर JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार को षड्यंत्र पूर्वक जेल भिजवाया है उनको आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी के व्यक्तिव व कृतित्व से प्रेरणा लेनी चाहिए कि, ब्राह्मण कुल में जन्मने के बावजूद वह लिंग-भेद व दक़ियानूसी विचारों के विरोधी रहे।
केवल ब्राह्मण वाद का उन्मूलन ही आज देश को एकजुट रखने में सहायक हो सकता है अन्यथा ये पुरोहितवाद देश को खंड-खंड करने पर आमादा है ही।
आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी सरीखे विद्वानों के विचारों का सहारा लेकर ब्राह्मण वाद/साम्राज्यवाद पर प्रहार किया जाए तो जन-समर्थन हासिल करने में सहायता मिल सकती है।
~विजय राजबली माथुर ©
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