2014 में जिस प्रकार केजरीवाल बनारस में मोदी के खिलाफ चुनाव में सिर्फ इसलिए खड़े हो गए थे कि, विपक्ष को बाँट कर मोदी को बहुत आसान जीत दिला सकें उसी प्रकार 2019 में विपक्ष को झांसा देकर मोदी को जीत दिलाने के लिए वह सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को फुसलाने में लगे हैं। केजारीवाल के मकड़जाल में फँसने से बचने के लिए अखिलेश जी को इन कुछ बातों पर गंभीरता से मनन करना चाहिए। : ( 1 ) जंगल में धुआँ देख कर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि, आग लगी है। ( 2 ) किसी गर्भिणी को देख कर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि, संभोग हुआ है। जबकि आधिकारिक रूप से कहने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है किन्तु ये अनुमान बिलकुल सटीक होते हैं। साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा के स्वार्थ लोलुप लोग आसानी से आर एस एस की चाल का शिकार खुद - ब - खुद बन चुके हैं । ऐसे लोग न घर के होते हैं न घाट के। सन 2011 में जब राष्ट्रपति चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी और मनमोहन सिंह जी को राष्ट्रपति बना कर प्रणव मुखर्जी साहब को पी एम बनाने की कवायद शुरू हुई तब जापान की यात्रा से लौटते में विमान में सिंह साहब ने पत्रकारों से कहा था कि , वह जहां हैं वहीं ठीक हैं बल्कि , तीसरी बार भी पी एम बनने के लिए प्रस्तुत है। जब सोनिया जी इलाज के वास्ते विदेश गईं तब सिंह साहब की प्रेरणा से हज़ारे / रामदेव आदि ने कारपोरेट भ्रष्टाचार के संरक्षण में जनलोकपाल आंदोलन खड़ा कर दिया जिसका उद्देश्य संघ / भाजपा / कारपोरेट जगत को लाभ पहुंचाना था। आज की एन डी ए सरकार के गठन में सौ से भी अधिक भाजपाई बने कांग्रेसियों का प्रबल योगदान है। जनसंघ युग में ब्रिटेन व यू एस ए की तरह दो पार्टी शासन की वकालत उनका उद्देश्य था। उस पर अमल करने का मौका उनको अब मिला है जब भाजपा केंद्र की सत्ता में और आ आ पा उसके विरोध की मुखर पार्टी के रूप में सामने है। आ आ पा का उद्देश्य कांग्रेस, कम्युनिस्ट, समाजवादी,अंबेडकरवादी आदि समेत सम्पूर्ण विपक्ष को ध्वस्त कर खुद को स्थापित करना है। भाजपा के विपक्ष में आ आ पा और आ आ पा के विपक्ष में भाजपा को दिखाना आर एस एस की रणनीति है। बनारस में मोदी साहब को आसान जीत दिलाने के लिए केजरीवाल साहब ने वहाँ पहुँच कर भाजपा विरोधियों को ध्वस्त कर दिया था और पुरस्कार स्वरूप दिल्ली में थमपिंग मेजारिटी से उनकी सरकार का गठन हो गया तथा कांग्रेस समेत सम्पूर्ण विपक्ष ध्वस्त हो गया।
अभी भी जो लोग आ आ पा में विश्वास बनाए रखते हैं वे वस्तुतः अप्रत्यक्ष रूप से मोदी और भाजपा को ही मजबूत बनाने में लगे हुये हैं। यदि अखिलेश जी भी केजरीवाल के मददगार बनते हैं तो स्पष्ट है कि , वह अप्रत्यक्ष रूप से मोदी को ही लाभ पहुंचाने में सहायता कर रहे हैं उस स्थिति में मोदी / भाजपा / आर एस एस विरोधी दलों को सपा से दूरी बना कर चलना चाहिए।
जिस देश में शिक्षा का स्तर इतना अद्भुत हो कि धर्म के नाम पर आसानी से, फिर चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान, एक-दूसरे को जान से मारा जा सकता हो, जहाँ अभिभावक इतने समझदार हों कि अपने ही बच्चों के स्कूल के सामने, बड़ी-बड़ी गाड़ियों में सवार, एक-दूसरे पर ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न मारते-फेंकते हों, इस बात से बेपरवाह कि उनका अपना बच्चा भी इस शोर से उपजे प्रदूषण का शिकार हो रहा है, जिस देश में ख़ुद के रहने की जगह भले ही न बची हो लेकिन सदियों पुराना, बड़े से बड़ा कबाड़ भी लोग दिल से चिपका कर रखते हों, जहाँ सड़कों पर ख़ुद के चलने की जगह भले ही न बची हो लेकिन तमाम कंडम और कूड़ा गाड़ियाँ आस-पास मुस्कुराती, चिढ़ाती, जगह घेरे खड़ी नज़र आ जाती हों, जिस देश में कोई ख़ुद से एक भी पौधा न लगाता हो लेकिन बड़ी शान के साथ अपनी अलग-अलग क़िस्म की, ढेरों धुआँ उगलती गाड़ियों में बैठकर, बड़े अधिकार के साथ वातावरण को अशांत और प्रदूषित करने की भरपूर सामर्थ्य रखता हो, जिस देश में एक हज़ार का एक पिज़्ज़ा खा जाने वाले लोग भी घर में काम करने वाले की तनख़्वाह और रिक्शे वाले, सब्ज़ी वाले के साथ एक-एक पैसे की हुज्जत से बाज़ न आते हों, जहाँ आज भी दूरदर्शन वालों को सिखाना पड़ता हो कि हाथों को साबुन से धोना कितना ज़रूरी है, जहाँ राह चलते साफ-सुथरी सड़क पर चाट के पत्तल को हवा में उड़ा देना लोग अपनी शान समझते हों, जिस देश में नदियों का पानी, जिस पानी के बिना आप जीवित नहीं रह सकते, वह पानी स्वयं आपके अत्यधिक कूड़े-कचरे से भयभीय अपने ख़ुद के जीवन की भीख माँगता फिरता हो, जिस देश में अमीर-ग़रीब के बीच की खाई ऐसी हो कि अमीर 'अ से आसमान' पर रहता हो और ग़रीब 'ग से गर्त' में.... एक राजा जैसा और दूसरा उस राजा के लिए सुविधाएँ उत्पन्न करने वाली एक मशीन या साधन जैसा, जिस देश में सड़कों और यातायात का हाल ऐसा हो कि लोग बीमारी से ज़्यादा एक्सीडेंट्स में मरने लगें, जिस देश में बेहतर मेडिकल सुविधाओं का लगभग अकाल-अभाव हो, जिस देश में बेकारी, बेरोज़गारी इतनी हो कि लोग खाली बैठे केवल विध्वंसात्मक गतिविधियों का ही ताना-बाना बुनते हों, जहाँ घर के बूढ़े-बुज़ुर्गों के आशीर्वाद से ज़्यादा लोगों की आस्था बाबाओं के ढोंग और चमत्कारों में हो, जिस देश में बढ़ती आबादी का आलम उसके ज़र्रे- ज़र्रे को लील जाने को बेताब दिखता हो, जिस देश के लोग शारीरिक से ज़्यादा मानसिक बीमारियों के शिकार हों, जिस देश में एक लड़की को छेड़ना, उसका बलात्कार कर देना सबसे बड़ा मनोरंजन हो, जहाँ न्याय व्यवस्था सिरे से चरमरा चुकी हो, जहाँ सुरक्षा करने वाली पुलिस से लोग ख़ुद को सबसे ज़्यादा असुरक्षित महसूस करने लगे हों, जिस देश की आबादी के लगभग अस्सी प्रतिशत ने, जो कि किसान और मज़दूर हैं, दिन भर की मज़दूरी और उससे मिलने वाली दिहाड़ी के अलावा कभी कोई दूसरा सपना पालने की हिम्मत तक ना की हो, जिस देश का मीडिया इंसान मात्र के कष्ट-दुखों से ज़्यादा हर दिन, एक बिकने वाली ख़बर की तलाश में रहता हो और जिस देश की राजनीति हर मुद्दे में सिर्फ़ और सिर्फ़, राजनीति तलाशती हो, ऐसे में, इस देश का और यहाँ के लोगों का, कोई 'योग' बिचारा भला क्या बना या उखाड़ लेगा......
* 12 जून 1975 को तत्कालीन पी एम इन्दिरा गांधी का चुनाव इलाहाबाद हाई कोर्ट में रद्द घोषित करने वाले न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा साहब के एक रिश्तेदार वकील प्रोफेसर साहब ने अपने छात्रों को ऐसा परिणाम आ सक्ने का आभास पहले ही दे दिया था जो उनकी निडरता व निष्पक्षता से पूर्ण परिचित थे।
** उन प्रोफेसर सिन्हा साहब ने ही । 1974 - 75 के छात्रों को बता दिया था कि , जिस प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक गतिविधियेँ चल रही हैं उनके अनुसार 1980 से भारत में भी श्रम - न्यायालयों (Labour Court ) से श्रमिजस्टिस सिन्हा ने नहीं लिया फेवर : *** शाँति भूषण लिखते हैं, "मैं जस्टिस सिन्हा का तबादला हिमाचल प्रदेश करना चाहता था ताकि वहाँ जब कोई पद ख़ाली हो तो वो वहाँ के मुख्य न्यायाधीश बन सकें. जब उन तक ये पेशकश पहुंचाई गई तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया. वो बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति नहीं थे और इस बात से ही संतुष्ट थे कि उन्हें सिर्फ़ एक ईमानदार और काबिल शख़्स के रूप में याद किया जाए."कों के विरुद्ध फैसले होने लगेंगे।
जस्टिस सिन्हा जिन्हें झुका नहीं सकीं इंदिरा गांधी : रेहान फज़ल बीबीसी संवाददाता 12 मई 2017
जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा 12 जून, 1975 की सुबह इंदिरा गांधी के वरिष्ठ निजी सचिव एनके सेशन एक सफ़दरजंग रोड पर प्रधानमंत्री निवास के अपने छोटे से दफ़्तर में टेलिप्रिंटर से आने वाली हर ख़बर पर नज़र रखे हुए थे. उनको इंतज़ार था इलाहाबाद से आने वाली एक बड़ी ख़बर का और वो काफ़ी नर्वस थे. ठीक 9 बजकर 55 मिनट पर जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के कमरा नंबर 24 में प्रवेश किया. जैसे ही दुबले पतले 55 वर्षीय, जस्टिस सिन्हा ने अपना आसन ग्रहण किया, उनके पेशकार ने घोषणा की, "भाइयों और बहनों, राजनारायण की याचिका पर जब जज साहब फ़ैसला सुनाएं तो कोई ताली नहीं बजाएगा." फ़ैसला जो भारी पड़ा इंदिरा गांधी पर... आख़िर दम तक झुके नहीं जस्टिस सिन्हा जस्टिस सिन्हा के सामने उनका 255 पन्नों का दस्तावेज़ रखा हुआ था, जिस पर उनका फ़ैसला लिखा हुआ था. जस्टिस सिन्हा ने कहा, "मैं इस केस से जुड़े हुए सभी मुद्दों पर जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ, उन्हें पढ़ूंगा." वो कुछ पलों के लिए ठिठके और फिर बोले, "याचिका स्वीकृत की जाती है." अदालत में मौजूद भीड़ को सहसा विश्वास नहीं हुआ कि वो क्या सुन रही है. कुछ सेकंड बाद पूरी अदालत में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी. सभी रिपोर्टर्स अपने संपादकों से संपर्क करने बाहर दौड़े. वहाँ से 600 किलोमीटर दूर दिल्ली में जब एनके सेशन ने ये फ़्लैश टेलिप्रिंटर पर पढ़ा तो उनका मुंह पीला पड़ गया. सबसे पहले राजीव गांधी ने सुनाई अपनी मां को यह ख़बर : उसमें लिखा था, "मिसेज़ गाँधी अनसीटेड." उन्होंने टेलिप्रिंटर मशीन से पन्ना फाड़ा और उस कमरे की ओर दौड़े जहाँ इंदिरा गाँधी बैठी हुई थीं. इंदिरा गाँधी के जीवनीकार प्रणय गुप्ते अपनी किताब 'मदर इंडिया' में लिखते हैं, "सेशन जब वहाँ पहुंचे तो राजीव गांधी, इंदिरा के कमरे के बाहर खड़े थे. उन्होंने यूएनआई पर आया वो फ़्लैश राजीव को पकड़ा दिया. राजीव गांधी पहले शख़्स थे जिन्होंने ये ख़बर सबसे पहले इंदिरा गाँधी को सुनाई." 1971 में रायबरेली सीट से चुनाव हारने के बाद राजनारायण ने उन्हें हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग में इंदिरा दोषी पाई गईं : जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को दो मुद्दों पर चुनाव में अनुचित साधन अपनाने का दोषी पाया. पहला तो ये कि इंदिरा गांधी के सचिवालय में काम करने वाले यशपाल कपूर को उनका चुनाव एजेंट बनाया गया जबकि वो अभी भी सरकारी अफ़सर थे. उन्होंने 7 जनवरी से इंदिरा गांधी के लिए चुनाव प्रचार करना शुरू कर दिया जबकि 13 जनवरी को उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दिया जिसे अंतत: 25 जनवरी को स्वीकार किया गया. जस्टिस सिन्हा ने एक और आरोप में इंदिरा गांधी को दोषी पाया, वो था अपनी चुनाव सभाओं के मंच बनवाने में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की मदद लेना. इन अधिकारियों ने कथित रूप से उन सभाओं के लिए सरकारी ख़र्चे पर लाउड स्पीकरों और शामियानों की व्यवस्था कराई. हांलाकि बाद में लंदन के 'द टाइम्स' अख़बार ने टिप्पणी की, "ये फ़ैसला उसी तरह का था जैसे प्रधानमंत्री को ट्रैफ़िक नियम के उल्लंघन करने के लिए उनके पद से बर्ख़ास्त कर दिया जाए." जस्टिस सिन्हा ने सबको किया हैरान : उस मुक़दमें में राज नारायण के वकील रहे शाँति भूषण अपनी आत्मकथा 'कोर्टिंग डेस्टिनी' में लिखते हैं, "जब मैंने बहस शुरू की तो मुझे लगा कि जज इस मुक़दमें को कोई ख़ास महत्व नहीं दे रहे हैं. लेकिन तीसरे दिन के बाद से मैंने नोट किया कि उन पर मेरी दलीलों का असर होने लगा है और वो नोट्स लेने लगे हैं." अपना फ़ैसला सुनाने से पहले उन्होंने अपने निजी सचिव मन्ना लाल से कहा, "मैं नहीं चाहता कि आप ये फ़ैसला सुनाने से पहले किसी को इसकी भनक भी लगने दे, यहाँ तक कि अपनी पत्नी को भी नहीं. ये एक बड़ी ज़िम्मेदारी है. क्या आप इसे उठाने के लिए तैयार हैं?" निजी सचिव ने जस्टिस सिन्हा को भरोसा दिलवाया कि वो इस बारे में आश्वस्त रहें. 'इंदिरा गांधी ने जस्टिस सिन्हा पर बनवाया था दबाव ' : इस मुक़दमे में राजनारायण के वकील शाँति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण अपनी किताब 'द केस दैट शुक इंडिया' में लिखते हैं, "सिन्हा अपना फ़ैसला सुकून के माहौल में लिखना चाहते थे. लेकिन जैसे ही अदालत बंद हुई, उनके यहाँ इलाहाबाद के एक कांग्रेस संसद सदस्य रोज़ रोज़ आने लगे.'' उन्होंने लिखा है, ''इस पर सिन्हा बहुत नाराज़ हुए और उन्हें उनसे कहना पड़ा कि वो उनके यहाँ न आएं. लेकिन जब वो इस पर भी नहीं माने तो सिन्हा ने अपने पड़ोसी जस्टिस पारिख से कहा कि वो उन साहब को समझाएं कि वो उन्हें परेशान न करें.'' जस्टिस सिन्हा अपने घर से ग़ायब हो गए : प्रशांत भूषण ने लिखा है, ''जब इसका भी कोई असर नहीं हुआ तो सिन्हा अपने ही घर में 'गायब' हो गए और कई दिनों तक अपने घर के बरामदे तक में नहीं देखे गए. उनके यहाँ आने वाले हर शख़्स से कहा गया कि वो उज्जैन गए हुए हैं जहाँ उनके भाई रहा करते थे.'' उन्होंने लिखा है, ''इस बीच उन्होंने एक फ़ोन कॉल तक नहीं रिसीव किया.. इस तरह 28 मई से 7 जून, 1975 तक कोई, यहाँ तक कि उनके नज़दीकी दोस्त तक उनसे नहीं मिल सके." यही नहीं जस्टिस सिन्हा के फ़ैसले को प्रभावित करने की एक कोशिश और हुई थी. सुप्रीम कोर्ट भेजने का दिया गया लालाच : शाँतिभूषण लिखते हैं, "न्यायमूर्ति सिन्हा गोल्फ़ खेलने के शौकीन थे. एक बार गोल्फ़ खेलते हुए उन्होंने मुझे एक क़िस्सा बताया था. जब ये याचिका सुनी जा रही थी तो जस्टिस डीएस माथुर इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हुआ करते थे.'' उन्होंने लिखा है, ''वो मेरे घर पहले कभी नहीं आए थे. लेकिन जब इस केस की बहस अपने चरम पर थी, तो एक दिन वो मेरे यहाँ अपनी पत्नी समेत आ पहुंचे. जस्टिस माथुर इंदिरा गाँधी के उस समय के निजी डॉक्टर केपी माथुर के निकट संबंधी थे.'' शांतिभूषण की किताब के मुताबिक, ''उन्होंने मुझे स्रोत न पूछे जाने की शर्त पर बताया कि उन्हें पता चला है कि सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए मेरे नाम पर विचार हो रहा है. जैसे ही ये फ़ैसला आएगा, आपको सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया जाएगा. मैंने उनसे कुछ भी नहीं कहा." जस्टिस माथुर से लिया गया इस्तीफा : दिलचस्प बात ये थी कि जनता पार्टी सरकार के सत्ता में आने पर इन्हीं जस्टिस माथुर को चरण सिंह ने एक महत्वपूर्ण जाँच आयोग का अध्यक्ष बना दिया. शाँति भूषण लिखते हैं कि जब वो विदेश यात्रा से वापस आए तो उन्होंने चरण सिंह को वो बात बताई जो उन्हें 1976 में गोल्फ़ खेलते हुए जस्टिस सिन्हा ने बताई थी. शाँति भूषण लिखते हैं, "मैंने जस्टिस सिन्हा को पत्र लिख कर पूछा कि क्या वो जस्टिस माथुर के बारे उस बात की पुष्टि कर सकते हैं जो उन्होंने कुछ साल पहले उन्हें बताई थी. जस्टिस सिन्हा ने तुरंत उस पत्र का जवाब देते हुए कहा कि ये सारी बातें सही हैं. चरण सिंह ने वो पत्र जस्टिस माथुर को उनकी टिप्पणी के लिए आगे बढ़ा दिया. माथुर ने तुरंत जाँच आयोग से इस्तीफ़ा दे दिया." जस्टिस सिन्हा पर फ़ैसला टालने का था दबाव : 7 जून तक जस्टिस सिन्हा ने फ़ैसला डिक्टेट करा दिया था. तभी उनके पास चीफ़ जस्टिस माथुर का देहरादून से फ़ोन आया. चूंकि ये फ़ोन चीफ़ जस्टिस का था, इसलिए उन्हें ये फ़ोन लेना पड़ा. माथुर ने उनसे कहा कि गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव पीपी नैयर ने उनसे मिल कर अनुरोध किया है कि फ़ैसले को जुलाई तक स्थगित कर दिया जाए. प्रशाँत भूषण लिखते हैं, "यह अनुरोध सुनते ही जस्टिस सिन्हा नाराज़ हो गए. वो तुरंत हाई कोर्ट गए और रजिस्ट्रार को आदेश दिया कि वो दोनों पक्षों को सूचित कर दें कि फ़ैसला 12 जून को सुनाया जाएगा." जस्टिस सिन्हा पर लगा दी गई थी सीआईडी : कुलदीप नैयर अपनी किताब 'द जजमेंट' में लिखते हैं कि सरकार के लिए फ़ैसला इतना महत्वपूर्ण था कि उसने सीआईडी के एक दल को इस बात की ज़िम्मेदारी दी थी कि किसी भी तरह ये पता लगाया जाए कि जस्टिस सिन्हा क्या फ़ैसला देने वाले हैं?'' उन्होंने लिखा है, ''वो लोग 11 जून की देर रात सिन्हा के निजी सचिव मन्ना लाल के घर भी गए. लेकिन मन्ना लाल ने उन्हें एक भी बात नहीं बताई. सच्चाई ये थी कि जस्टिस सिन्हा ने अंतिम क्षणों में अपने फ़ैसले के महत्वपूर्ण अंशों को जोड़ा था. सिन्हा के निजी सचिव पर भी बनाया गया दबाव : वो लिखते हैं, "बहलाने फुसलाने के बाद भी जब मन्ना लाल कुछ बताने के लिए तैयार नहीं हुए तो सीआईडी वालों ने उन्हें धमकाया, 'हम लोग आधे घंटे में फिर वापस आएंगे. हमें फ़ैसला बता दो, नहीं तो तुम्हें पता है कि तुम्हारे लिए अच्छा क्या है.' मन्ना लाल ने तुरंत अपने बीबी बच्चों को अपने रिश्तेदारों के यहाँ भेजा और जस्टिस सिन्हा के घर में जा कर शरण ले ली. उस रात तो मन्ना लाल बच गए, लेकिन जब अगली सुबह वो तैयार होने के लिए अपने घर पहुंचे, तो सीआईडी की कारों का एक काफ़िला उनके घर के सामने रुका." प्रशाँत भूषण लिखते हैं, "उन्होंने फिर मन्ना लाल से फ़ैसले के बारे में पूछा और यहाँ तक कहा कि इंदिरा गांधी खुद हॉटलाइन पर हैं. आप उन्हें ख़ुद फ़ैसले की जानकारी दे सकते हैं. मन्ना लाल ने कहा कि उन्हें देर हो रही है. वो फिर जस्टिस सिन्हा के घर पहुंच गए.'' प्रशांत भूषण ने लिखा है, ''मन्ना लाल की परेशानी यहीं ख़त्म नहीं हुई. फ़ैसला आने के बहुत दिनों बात तक सीआईडी वाले उनसे पूछते रहे कि जून में जस्टिस सिन्हा से मिलने कौन-कौन आया करता था? वो ये भी जानना चाहते थे कि जस्टिस सिन्हा की जीवनशैली में हाल में कोई बदलाव हुआ है या नहीं." जस्टिस सिन्हा की तुलना वाटरगेट कांड के जज जॉन सिरिका से : प्रशाँत भूषण की किताब 'द केस दैट शुक इंडिया' की भूमिका लिखते हुए तत्कालीन उप राष्ट्रपति मोहम्मद हिदायतउल्लाह ने जस्टिस सिन्हा की तुलना वाटरगेट कांड के जज जस्टिस जॉन सिरिका से की थी. उनके फ़ैसले की वजह से ही राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफ़ा देना पड़ा था. इस मुक़दमे की सुनवाई के दौरान ये पहला मौक़ा था जब भारत के किसी प्रधानमंत्री को गवाही के लिए हाई कोर्ट में बुलवाया गया था. कोर्ट में इंदिरा गांधी के आने पर खड़ा नहीं होने का आदेश : शाँति भूषण लिखते हैं, "इंदिरा गाँधी को अदालत कक्ष में बुलाने से पहले उन्होंने भरी अदालत में ऐलान किया कि अदालत की ये परंपरा है कि लोग तभी खड़े हों जब जज अदालत के अंदर घुसे. इसलिए जब कोई गवाह अदालत में घुसे तो वहाँ मौजूद कोई शख़्स खड़ा न हो.'' जब इंदिरा गांधी अदालत में घुसीं तो कोई भी उनके सम्मान में खड़ा नहीं हुआ, सिवाए उनके वकील एससी खरे के. वो भी सिर्फ़ आधे ही खड़े हुए. जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के लिए कटघरे में एक कुर्सी का इंतज़ाम करवाया, ताकि वो उस पर बैठ कर अपनी गवाही दे सकें." जब 1977 मे जनता पार्टी की सरकार बनी तो शाँति भूषण भारत के क़ानून मंत्री बने. जस्टिस सिन्हा ने नहीं लिया फेवर :
शाँति भूषण लिखते हैं, "मैं जस्टिस सिन्हा का तबादला हिमाचल प्रदेश करना चाहता था ताकि वहाँ जब कोई पद ख़ाली हो तो वो वहाँ के मुख्य न्यायाधीश बन सकें. जब उन तक ये पेशकश पहुंचाई गई तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया. वो बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति नहीं थे और इस बात से ही संतुष्ट थे कि उन्हें सिर्फ़ एक ईमानदार और काबिल शख़्स के रूप में याद किया जाए." https://www.bbc.com/hindi/india-39883488 ************************************************** फेसबुक कमेंट्स : . ॰
पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंघा राव साहब ने पदमुक्त होने के बाद अपने उपन्यास ' The Insider ' में उल्लेख किया है कि, हम लोकतन्त्र के भ्रमजाल में जी रहे हैं। वस्तुतः आज संसद और विधायिकाओं में जन- प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित लोग अधिकतर किसी न किसी व्यवसायिक घराने से संबंध रखते हैं और वे अपने वर्ग के लोगों के हक में निर्णय लेते हैं न कि जनता के हक में।
यही गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर हो जाये तो विपक्ष को अपना गठबंधन बनाने में आसानी हो जाये वरना अभी तो कुछ विपक्ष इधर कुछ उधर भटक रहा है और यही आर एस एस की नीति है कि , सत्ता और विपक्ष दोनों पर उसका नियंत्रण रहे । 1980 में इन्दिरा गांधी और 1985 में राजीव गांधी आर एस एस के सहयोग से बहुमत पा सके थे इसीलिए उनको खुश करने के लिए अयोध्या से ताला खुलवाया था और 1992 में कांग्रेस शासन में ही विवादित ढांचा गिराया गया जिसके बाद तेजी से भाजपा की बढ़त हुई थी और वर्तमान मोदी सरकार मनमोहन सिंह की कृपा का फल है। लेकिन कांग्रेस-भाजपा विरोधी विपक्ष जनता से कटा होने के कारण उसके लिए कांग्रेस का साथ देना मजबूरी हो जाती है।राहुल गांधी खुद को मोदी से अधिक हिन्दू होने का दावा कर रहे हैं और चूंकि मोदी - शाह गठजोड़ आर एस एस को कबजाने की कोशिश कर रहा है इसलिए राहुल कांग्रेस को आर एस एस का समर्थन मिल सकता है। इस संदर्भ में पी यू सी एल नेता सीमा आज़ाद जी का दृष्टिकोण यह है --- '' भाजपा को हराकर कांग्रेस को सत्ता में ले आने पर भी भाजपा और उनके अनुसंगी संगठन समाज में बने ही रहेंगे और अपना काम करते रहेंगे। कांग्रेस उन पर रोक लगायेगी ऐसा सोचना भी नासमझी है, उल्टे पिछली घटनायंे बताती हैं कि कांग्रेस सहित दूसरे चुनावी दल उनके साम्प्रदायिक कर्मांे को अपने हित के लिए इस्तेमाल ही करती रही है। '' (https://www.facebook.com/seema.azad.33/posts/2509223352636533 )
= एक बहुत ही सोची - समझी रणनीति के तहत जनता के मध्य यह प्रचारित करा दिया गया है कि, राजनेता भ्रष्ट होते हैं और भले लोगों को राजनीति में नहीं आना चाहिए। जब देश आज़ाद हुआ तब आज़ादी के आंदोलन से तपे तपाये नेता राजनीति में आए थे और तब राजनीतिक आदर्श उच्च थे। धीरे - धीरे व्यापारी वर्ग राजनीतिज्ञों को प्रभावित करने लगा और अपने हक में नियम - कानून बनवाने लगा। वर्तमान में राजनीतिज्ञों के नाम पर व्यापारी, उद्योगपति और कारपोरेट घराने संसद व विधानसभाओं में काबिज हैं। ऐसे में गरीब जनता, किसान और मजदूर के हक की बातें कहाँ से विधायिका में उठ सकती हैं ? 12 जून 1975 को तत्कालीन पी एम इन्दिरा गांधी का चुनाव इलाहाबाद हाई कोर्ट में रद्द घोषित करने वाले न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा साहब के एक रिश्तेदार वकील प्रोफेसर साहब ने अपने छात्रों को ऐसा परिणाम आ सक्ने का आभास पहले ही दे दिया था जो उनकी निडरता व निष्पक्षता से पूर्ण परिचित थे। उन प्रोफेसर सिन्हा साहब ने ही 1974 - 75 के छात्रों को बता दिया था कि , जिस प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक गतिविधियेँ चल रही हैं उनके अनुसार 1980 से भारत में भी श्रम - न्यायालयों (Labour Court ) से श्रमिकों के विरुद्ध फैसले होने लगेंगे। एमर्जेंसी के दौरान सम्पन्न ' देवरस - इन्दिरा ' गुप्त समझौते के अंतर्गत 1980 में संघ के समर्थन से इन्दिरा गांधी के पुनः सत्तासीन होने पर श्रमिक विरोधी निर्णय श्रम न्यायालयों से होने शुरू हो गए थे। संघ के समर्थन से ही 1984 में पी एम बने उनके पुत्र राजीव गांधी तो सरकार कारपोरेट की तर्ज पर चलाने लगे थे। उदाहरण के तौर पर शिक्षा मंत्रालय का नामांतरण मानव संसाधन मंत्रालय किया जाना है। 1991 में पी एम बने नरसिंघा राव साहब के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने जिन उदारीकरण की नीतियों को लागू किया उनको न्यूयार्क जाकर एल के आडवाणी साहब ने उनकी अर्थात भाजपा की नीतियों का चुराया जाना बताया था। उनके बाद बाजपेयी साहब के वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा साहब ने उन नीतियों को ही जारी रखा तथा फिर पी एम बनने पर मनमोहन सिंह जी ने वही नीतियाँ जारी रखीं और आजके पी एम मोदी साहब भी वही नीतियाँ चला रहे हैं। इस प्रकार संघ अर्थात व्यापारियो, उद्योगपतियों व कारपोरेट घरानों का शुभचिंतक राजनीति में मजबूत होता गया है। भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई अंतर है ही नहीं। अतः पूर्व राष्ट्रपति मुखर्जी साहब द्वारा नागपूर जाकर संघ को मजबूती देने का प्रयास अनायास नहीं है जनतंत्र पर हावी होते कारपोरेट तंत्र का यह स्व्भाविक परिणाम है। यह धारणा गलत है कि, मुखर्जी साहब कांग्रेस पृष्ठ - भूमि के थे । वस्तुतः 1967 के चुनावों के बाद इन्दिरा गांधी द्वारा हटाये गए शिक्षामंत्री हुमायूँ कबीर द्वारा गठित इन्दिरा विरोधी ' बांगला कांग्रेस ' से प्रणब मुखर्जी साहब ने राजनीति में पदार्पण किया था। बांगला कांग्रेस , जन कांग्रेस आदि द्वारा जब अमीनाबाद पार्क , लखनऊ में भारतीय क्रांति दल का गठन किया गया तब बाद में इन्दिरा जी द्वारा प्रणब मुखर्जी साहब को कांग्रेस में शामिल कर लिया गया था। न तो उनके न ही उनके पुत्र के निधन के बाद मुखर्जी साहब को पी एम बनने का मौका मिला। बल्कि इंदिराजी के निधन के बाद तो राजीव गांधी के विरुद्ध उन्होने ' समाजवादी कांग्रेस पार्टी ' का गठन कर लिया था फिर जिसका विलय 1989 में कांग्रेस में कर लिया था। 2004 और 2009 में भी उनको पी एम नहीं बनाया गया बल्कि 2012 में राष्ट्रपति बना कर सक्रिय राजनीति से अलग कर दिया गया। अतः संघ के बुलावे पर नागपूर जाकर मोदी के विकल्प के रूप में उन्होने स्वम्य को प्रस्तुत कर दिया है। परंतु 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध जैसी भयानक गलती फिर भाकपा द्वारा दोहराई गई है उनके संघ कार्यक्रम में दिये भाषण की सराहना करके। :