Thursday, December 13, 2018

किसान विरोधी कारपोरेट ने साधुओं और संतों की दीवार खड़ी कर दी है ------ अरुण कुमार त्रिपाठी

  
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*किसान का असली टकराव कॉरपोरेट से है और कॉरपोरेट ने उसकी राह में भावनात्मक मुद्दों को जगाकर साधुओं और संतों की दीवार खड़ी कर दी है
**धर्माचार्यों का एक तबका सत्ता-सुविधा के लिए देश को बांटने में लगा है जबकि कृषक वर्ग उसे जोड़ रहा है
साधु-संत को पूजें या किसान-मजदूर को
*** किसान अगर पूरी दुनिया में डब्ल्यूटीओ की नीतियों से टकरा रहे हैं और भारत में आत्महत्या कर रहे हैं तो साधु संन्यासी और धर्मगुरु लगातार फल-फूल रहे हैं।
****आज साधु-संन्यासी परजीवी हो चले हैं। उन्हें सत्ता का चस्का लग गया है। उन्हीं को आगे करके और उन्हें आश्रम के लिए जमीनें देकर 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर किया जा रहा है। यह कानून किसानों के पक्ष में और कॉरपोरेट के जमीन अधिग्रहण के विरुद्ध एक ढाल बनकर आया था और इसे लाने वाली यूपीए सरकार की पराजय में इसकी बड़ी भूमिका थी। इस तरह साधु-संन्यासी संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का रास्ता बना रहे हैं और देश को धर्म व जाति के आधार पर बांट रहे हैं। इसे किसान-मजदूर और उनका मध्यवर्गीय समर्थक ही जोड़ सकता है। 

छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बीजेपी सरकारों की पराजय को किसानों की नाराजगी से जोड़कर देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि किसानों की अनदेखी करने के कारण ही वहां बीजेपी सरकारों की यह हालत हुई। इस समय किसानों का मुद्दा हमारे बौद्धिकों और राजनेताओं को तेजी से आकर्षित कर रहा है। पिछले 29 और 30 नवंबर को जब दिल्ली की सड़कों पर देश भर के किसान उतरे तो कई विश्लेषकों को भारतीय राजनीति में सेक्युलर मुद्दों के उभरने की संभावना दिखी। 

उन्हें लगा कि राम मंदिर और गाय से हटकर समाज अब रोजी-रोटी और आमदनी के विषयों पर सोचेगा। राजधानी के मीडिया के एक हिस्से ने उसे महज ट्रैफिक जाम वाली घटना नहीं माना। लेकिन सवाल उठता है कि क्या साधु-संन्यासियों को आगे करके धर्म के बहाने राजनीति करने की योजना को किसानों और खेती के अस्तित्व की लड़ाई से विफल किया जा सकता है और उसे सद्भाव की ओर मोड़ा जा सकता है/ क्या भारतीय समाज में उभारी जा रही धर्म की छद्म चेतना का जवाब गांव, गरीब और किसान के मुद्दे से दिया जा सकता है। 

स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने किसानों की दशा पर ‘मोदी राज में किसानः डबल आमद या डबल आफत’ नामक किताब लिखी है। उनका मानना है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में किसान सबसे ज्यादा दुखी और परेशान रहा है। माना जा सकता है कि धर्म की राजनीति करने वाली और साधु-संन्यासियों को किसानों के मुकाबले ज्यादा अहमियत देने वाली इस सरकार के राज में किसानों को छला जाना आसान हो गया है। इस राज में यह जानते हुए उस पर गोलियां चलाई जाती हैं कि वैसा करने वाली पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार अपनी तीन दशक की सत्ता से हाथ धो बैठी थी। लेकिन यह दक्षिणपंथी राजनीति वामपंथियों से ज्यादा चतुर है। वह कभी राम के नाम पर, कभी गाय के नाम पर तो कभी गंगा के नाम पर लोगों को छलती है और असल में कॉरपोरेट के अजेंडा को लागू करती है। किसान दिल्ली में दो दिन की रैली करके वापस नहीं लौट पाए होंगे कि नौ दिसंबर को दिल्ली में राम मंदिर के लिए विशाल धर्म सभा की तैयारी जोर पकड़ने लगी। निश्चित तौर पर किसानों की दुर्दशा और साधु-संन्यासियों का वैश्विक बाजार पिछले 30 सालों से चल रहे उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रमुख लक्षण के तौर पर उभरा है। 

किसान अगर पूरी दुनिया में डब्ल्यूटीओ की नीतियों से टकरा रहे हैं और भारत में आत्महत्या कर रहे हैं तो साधु संन्यासी और धर्मगुरु लगातार फल-फूल रहे हैं। मीरा नंदा अपनी पुस्तक ‘द गॉड मार्केट’ में बताती हैं कि किस तरह वैश्वीकरण भारत को ज्यादा हिंदू बना रहा है और साधु व संन्यासियों का धंधा चल निकला है। यह सरकार साधुओं को भी सबक सिखाती है। इसके कुछ उदाहरण आसाराम, बाबा रामपाल और बाबा राम रहीम के रूप में देखे जा सकते हैं। लेकिन सरकार उन्हीं बाबाओं को सबक सिखाती है जो सरकार और उसके राजनीतिक इकबाल के लिए चुनौती खड़ी करते हैं। आम तौर पर यह गवर्नमेंट उन्हें फलने-फूलने का भरपूर मौका देती है जो उसके लिए नोट और वोट का इंतजाम करते हैं। इसका सबसे सुंदर प्रमाण प्रियंका पाठक नारायण अपनी पुस्तक ‘गॉडमैन टू टाइकून’ में पेश करती हैं। बाबा रामदेव की तरक्की की कहानी कहने वाली इस किताब को हाईकोर्ट ने प्रतिबंधित कर रखा है और इस पर सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई है। 

किसान का असली टकराव कॉरपोरेट से है और कॉरपोरेट ने उसकी राह में भावनात्मक मुद्दों को जगाकर साधुओं और संतों की दीवार खड़ी कर दी है। जो साधु संत कॉरपोरेट और उसके अनुकूल राजनीति का समर्थन करेंगे वे फलेंगे-फूलेंगे और जो उसका विरोध करेंगे उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा। स्वामी ज्ञानस्वरूपानंद का गंगा के लिए आमरण अनशन करके जान देने की घटना इसका प्रमाण है। वे कोई और नहीं बल्कि आईआईटी कानपुर के जाने माने प्रफेसर और भारत के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पहले सचिव जीडी अग्रवाल थे। उनका कहना था कि जब मोदी बनारस गए और कहा कि उन्हें मां गंगा ने बुलाया है तो उनको बहुत उम्मीद बनी थी। लेकिन अब उन्हें साफ लगता है कि गंगा के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह कंपनियों का भला करने के लिए किया जा रहा है।• सरकार के साथ 

साधु-संन्यासियों और किसानों का आज छत्तीस का रिश्ता कभी बड़ा घनिष्ठ रहा है। लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था तो यह समाज साधु और किसान की लंबे समय से जय-जयकार भी करता रहा है। अगर 1780 में बंगाल और बिहार में संन्यासियों और फकीरों का विद्रोह ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध हुआ था तो उसमें किसानों का शोषण भी मुद्दा था। इसी तरह 1857 में भी किसानों, सिपाहियों और संन्यासियों ने एक साथ मिलकर ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राज को हिला दिया था। बाबा रामचंद्र दास और स्वामी सहजानंद संन्यासी ही थे जिन्होंने किसान आंदोलन का नेतृत्व किया था। 


लेकिन आज साधु-संन्यासी परजीवी हो चले हैं। उन्हें सत्ता का चस्का लग गया है। उन्हीं को आगे करके और उन्हें आश्रम के लिए जमीनें देकर 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर किया जा रहा है। यह कानून किसानों के पक्ष में और कॉरपोरेट के जमीन अधिग्रहण के विरुद्ध एक ढाल बनकर आया था और इसे लाने वाली यूपीए सरकार की पराजय में इसकी बड़ी भूमिका थी। इस तरह साधु-संन्यासी संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का रास्ता बना रहे हैं और देश को धर्म व जाति के आधार पर बांट रहे हैं। इसे किसान-मजदूर और उनका मध्यवर्गीय समर्थक ही जोड़ सकता है।






~विजय राजबली माथुर ©

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