Tukaram Verma |
Tukaram Verma
19-12-2018"राजनीति और अच्छे लोग "
कितना प्रभावकारी और संतुष्टि प्रदायक लगता है यह वाक्य| अपने आप विचार कीजिये कि अच्छे लोगों की तलाश में आंदोलनों के गर्भ से जितने युवा राजनैतिक क्षेत्र को मिले उनमें से कितने लोग राष्ट्र को अच्छे मिले? और फिर वही प्रयास पुनः?
अच्छे लोगों की पहचान का क्या मानदंड है :-उच्च शिक्षा,प्रतिष्ठित परिवार,उच्च जाति,धन्नासेठी, राजशाही इतिहास अथवा "निष्कलंक सद्व्यवहारी समाज सेवा"|एक ऐसा राजनैतिक व्यक्ति जो जीवन पर्यंत अपने लिए छोटा-सा घर नहीं बना सका और मुख्यमंत्री केन्द्रीय मंत्री तथा भारतीय राजनीति का स्तम्भ रहा वह साहित्य नगरी में अभिनयी व्यक्ति से पराजित हुआ| कुछ समय बाद वह विजेता मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ| इस हर्जाने के लिए कौन उत्तरदायी होगा?
राजनीति में यदि गैर राजनैतिक लोग आयेंगे तो बंटाधार के सिवा कुछ नहीं होगा|हाँ जनता को अनैतिक भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलनी चाहिये और यह कार्य भी जनता ही कर सकती है| वह भलीभाँति जानती है कि उसके क्षेत्र में कौन राजनैतिक रूप से उनके लिए उपयोगी है और कौन छल बल के प्रयोग से उनके लिए समस्यायें खड़ी करता है|
राजनैतिक स्वच्छता हेतु चुनाव सुधारों की सर्वाधिक आवश्यकता है,बहुत कुछ सुधार के बाबजूद :-
१-अभी स्वतंत्र मतदान नहीं हो पाता है|
२-मतदाताओं के नाम मतदाता सूचि से अनधिकृत रूप से कटवाये जाते है और जुड़वाए जाते हैं|
३-प्रचार का तरीका अर्थ प्रधान है इसे रोकना होगा|
४-प्रचार तंत्र विशेष रूप से चैनल्स के विज्ञापन निष्पक्ष निर्वाचन को प्रभावित करते है और चैनल्स एजेंटों -सी भूमिका का निर्वहन करते हैं इन्हें रोका जाना चाहिये क्योंकि यह स्थिति आर्थिक दृष्टि से कमजोर प्रत्याशियों के प्रतिकूल जाती है |
५-राजनैतिक दलों पर यह प्रतिबन्ध लगना चाहिये कि वे अपराध प्रवृत्ति,जातीय,धार्मिक क्षेत्रीय उन्मादियों को टिकिट न दें ऐसे प्रत्याशियों से जनता नहीं भिड़ सकती यह कार्य पार्टी अथवा सत्ता को करना होगा|
६-समाज सेवा से जुड़े युवकों को अधिकतम अवसर मिलने चाहिये और उन्हें दलीय चाटुकारिता से बचाये रखने के हर संभव प्रयासों के साथ-साथ जनसेवा एवं स्पष्टवादिता के हेतु प्रोत्साहित करके नैतिक शक्ति संपन्न बनने देना चाहिये|
७-यह सच है कि राजनीति संतवृत्ति नहीं है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था छल,खल,और बल आधारित व्यवस्था भी नहीं है |साम,दाम,दण्ड,भेद की नीति से उभरे बिना लोकतंत्र अमानवीय ही रहेगा|
राजनैतिक दल और उनके द्वारा उगाये गये चंदा का जो २०% हिसाब जो वे देते हैं उसके अनुसार उनके पास हजारों करोड़ की बचत चुनावों में कितना व्यय कर चुके इसका कोई अनुमान नहीं, लेकिन सभी दलों के प्रत्याशियों का व्यय लगभग एक संसदीय सीट पर २५ करोड़ रुपए सभी सांसदों का अनुमानित व्यय १५००० करोड़|
यह उस भारत का चुनावी खर्च है जिसमें किसी मजदूर को २०० प्रतिदिन कमाने में ८ घंटे हड्डी तोड़ श्रम करना आदत है और कभी-कभी
उसे यह मजदूरी मिलती भी नहीं है और यदि मिलती है तो बहुत अपमान जनक स्थिति से गुजरने की बाद| इस २०० रूपए में कम से कम चार लोगों का भोजन और अन्य खर्चे|
करोड़ों की आवादी ऐसी है जिसे मजदूरी भी सुलभ नहीं और यह राजनैतिक दल इन सबके वोट लेकर इन पर क्या व्यवहार कर रहे हैं उसको समाज के सामने लाने में पत्रकार,साहित्यकारों की चुप्पी| कभी-कभी सरकार से आर्थिक लाभ और अन्य सुविधायें लेने के लिए इनकी बेशर्म चाटुकारिता|
आखिर हम किधर जा रहे हैं ? प्रतिदिन किस हद तक इन लोगों के सम्मान में होने वाले आयोजन और इनकी जय-जयकार करते हुए बुद्धिजीवियों के द्वारा पढ़े जाने वाले कसीदे| अफ़सोस इनके लिए हम आपस में बहस करते हैं और इन्हें अपनी किस स्वार्थी प्रवृत्ति और रूचि के तहत एक दल से दूसरे दल के लोगों को श्रेष्ठ कहते हैं| कदाचित हम लोगों की इसी दुर्वृत्ति के कारण यह राजनैतिक दल आज इस स्थिति पर पहुँचे हैं| हम लोगों ने इन्हें जाति-धर्म क्षेत्र भाषा और अपने तुच्छ हितों को ध्यान में रखकर अपना अमूल्य मत बेच दिया, न राष्ट्र का ध्यान रक्खा न समाज का| यह जानते हुए कि किस प्रत्याशी का कैसा आचरण और कैसी सोच तथा समझ है उनके गुण-अवगुणों को नज़र अंदाज किया इसी का परिणाम पूरे राजनैतिक कुए में अनैतिक अर्थ की भाँग घोल दी गई, जिसके नशे ने इन्हें मदांध बना दिया|
दोस्तो! वक्त है राजनैतिक लोगों का नहीं अपना आत्मनिरीक्षण करें फिर निर्णय लें कि आने वाले चुनाव में हमें क्या भूमिका निभानी चाहिये,यदि आप देश के हितैषी होने का दावा करते हैं तो अन्यथा जड़ता की जंजीरों में बंधे हुए सिसकते रहिये और अनैतिकता की चादर को ओढ़कर घूमिये तथा सोइए|
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~विजय राजबली माथुर ©
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