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हालाँकि, सरकार और पुलिस को चुनौती दे रहीं इन महिलाओं के सामने भी कई चुनौतियाँ है। चुनौतियाँ, इस प्रदर्शन को जारी रखने की और प्रदर्शन के मकसदों से न भटकने की। चुनौतियाँ, अपने परिवार को देखने की औरे बच्चों को संभालने की। लेकिन, ये औरतें हर चुनौतियों को मात दे रहीं हैं। हालाँकि, इस प्रदर्शन को उस जगह से हटाने के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में दो याचिकाएँ दायर की गई थी जिसमें पहले को तो कोर्ट ने खारिज कर दिया। लेकिन, दूसरी याचिका में कोर्ट ने पुलिस को कानून के तहत कार्रवाई करने का निर्देश दिया है। लिहाजा, अब पुलिस के सामने चुनौती है कि वह इस प्रदर्शन को कैसे हटाए। दरअसल, ये महिलाएँ शांतिपूर्वक इस प्रदर्शन को आगे बढ़ा रहीं हैं। अभी तक किसी भी हिंसा की घटना नहीं हुई है और यही इस प्रदर्शन की सबसे बड़ी खासियत है।
ये वही महिलाएँ हैं जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी मां-बहन कह कर तीन तलाक जैसी कुप्रथा से निजात दिलाने के लिए एक कानून को स्थापित किया। लेकिन, हमारे प्रधानमंत्री को उन माँ-बहनों की आवाज सुनाई नहीं दे रही है जो सर्दी की खामोश रातों में भी अपनी आवाज बुलंद कर रहीं हैं। ये वही महिलाएँ जिनमें से अधिकतर ने तीन तलाक पर सरकार के रुख की तारीफ की थी, तब भाजपा ने इन्हें अपनी मां-बहन बताया था। लेकिन, आज जब ये सीएए का विरोध कर रहीं हैं तब भाजपा सरकार का कोई प्रतिनिधि बात तक करने नहीं गया है। व्यापक स्तर पर यह अफवाह फैलाइ जा रही है कि प्रदर्शन करने वालों में अधिकांश मुस्लिम हैं। फिर सवाल है कि क्या मुस्लिमों की मांग की कोई प्रासंगिकता नहीं होती? क्या वे नागरिक नहीं हैं? अगर वे नागरिक हैं तो उनकी मांगों को अनसुना कर देना कितना मुनासिब है? सरकार भले ही इन महिलाओं की आवाज को अनसुना कर रही है। लेकिन, सबसे सुकून वाली बात यह है कि ये महिलाएँ गांधी के विचारों को सार्थक करती हुईं प्रतीत हो रही हैं।
1920 के बाद आंदोलनों में प्रमुखता से गांधी के पदार्पण के बाद महिलाओं की भूमिका निर्णायक तौर पर उभर सामने आई। असहयोग आंदोलन से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक में महिलाओं की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में तो महिलाओं ने तो बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। महिलाओं को आगे करने के पीछे गांधी की सोच थी कि महिलाएँ अहिंसक और सहनशील होती हैं। सत्ता के खिलाफ आंदोलन छेड़ने के लिए इन दोनों ही गुणों का होना जरूरी है। उनका मानना था कि आंदोलनों के प्रभावी होने के लिए उसका अहिंसक होना जरूरी है और लंबे समय तक जारी रखने के लिए सहनशीलता की जरूरत है। लिहाजा, आंदोलनों को लंबे समय तक जारी रखने के लिए उन्होंने महिलाओं की भागीदारी को जरूरी समझा। ऐसा लग रहा है मानो जैसे शाहीन बाग की ये महिलाएँ गांधी की इसी सोच को सार्थक करने की मुहिम में जुट गईं हों।
रिजवान अंसारी
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