Saturday, July 21, 2018

संसद में राहुल - मोदी मिलाप : जो न समझे वे गफलत में ------ विजय राजबली माथुर













पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंघा राव साहब ने पदमुक्त होने के बाद अपने उपन्यास ' The Insider ' में उल्लेख किया है कि, हम लोकतन्त्र के भ्रमजाल में जी रहे हैं। 

वस्तुतः आज संसद और विधायिकाओं में जन- प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित लोग अधिकतर किसी न किसी व्यवसायिक घराने से संबंध रखते हैं और वे अपने वर्ग के लोगों के हक में निर्णय लेते हैं न कि जनता के हक में। 
यही गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर हो जाये तो विपक्ष को अपना गठबंधन बनाने में आसानी हो जाये वरना अभी तो कुछ विपक्ष इधर कुछ उधर भटक रहा है और यही आर एस एस की नीति है कि , सत्ता और विपक्ष दोनों पर उसका नियंत्रण रहे । 1980 में इन्दिरा गांधी और 1985 में राजीव गांधी आर एस एस के सहयोग से बहुमत पा सके थे इसीलिए उनको खुश करने के लिए अयोध्या से ताला खुलवाया था और 1992 में कांग्रेस शासन में ही विवादित ढांचा गिराया गया जिसके बाद तेजी से भाजपा की बढ़त हुई थी और वर्तमान मोदी सरकार मनमोहन सिंह की कृपा का फल है। लेकिन कांग्रेस-भाजपा विरोधी विपक्ष जनता से कटा होने के कारण उसके लिए कांग्रेस का साथ देना मजबूरी हो जाती है। राहुल गांधी खुद को मोदी से अधिक हिन्दू होने का दावा कर रहे हैं और चूंकि मोदी - शाह गठजोड़ आर एस एस को कबजाने की कोशिश कर रहा है इसलिए राहुल कांग्रेस को आर एस एस का समर्थन मिल सकता है।  
इस संदर्भ में  पी यू सी एल नेता सीमा आज़ाद जी का दृष्टिकोण यह है --- '' भाजपा को हराकर कांग्रेस को सत्ता में ले आने पर भी भाजपा और उनके अनुसंगी संगठन समाज में बने ही रहेंगे और अपना काम करते रहेंगे। कांग्रेस उन पर रोक लगायेगी ऐसा सोचना भी नासमझी है, उल्टे पिछली घटनायंे बताती हैं कि कांग्रेस सहित दूसरे चुनावी दल उनके साम्प्रदायिक कर्मांे को अपने हित के लिए इस्तेमाल ही करती रही है। ''
(https://www.facebook.com/seema.azad.33/posts/2509223352636533


एक बहुत ही सोची - समझी रणनीति के तहत जनता के मध्य यह प्रचारित करा दिया गया है कि, राजनेता भ्रष्ट होते हैं और भले लोगों को राजनीति में नहीं आना चाहिए। जब देश आज़ाद हुआ तब आज़ादी के आंदोलन से तपे तपाये नेता राजनीति में आए थे और तब राजनीतिक आदर्श उच्च थे। धीरे - धीरे व्यापारी वर्ग राजनीतिज्ञों को प्रभावित करने लगा और अपने हक में नियम - कानून बनवाने लगा। वर्तमान में राजनीतिज्ञों के नाम पर व्यापारी, उद्योगपति और कारपोरेट घराने संसद व विधानसभाओं में काबिज हैं। ऐसे में गरीब जनता, किसान और मजदूर के हक की बातें कहाँ से विधायिका में उठ सकती हैं ? 
12 जून 1975 को तत्कालीन पी एम इन्दिरा गांधी का चुनाव इलाहाबाद हाई कोर्ट में रद्द घोषित करने वाले न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा साहब के एक रिश्तेदार वकील प्रोफेसर साहब ने अपने छात्रों को ऐसा परिणाम आ सकने  का आभास पहले ही दे दिया था जो उनकी निडरता व निष्पक्षता से पूर्ण परिचित थे। उन प्रोफेसर सिन्हा साहब ने ही 1974 - 75 के छात्रों को बता दिया था कि , जिस प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक गतिविधियेँ चल रही हैं उनके अनुसार  1980 से भारत में भी श्रम - न्यायालयों  (Labour Court ) से श्रमिकों के विरुद्ध फैसले होने लगेंगे। 
एमर्जेंसी के दौरान सम्पन्न ' देवरस - इन्दिरा ' गुप्त समझौते के अंतर्गत 1980 में संघ के समर्थन से इन्दिरा गांधी के पुनः सत्तासीन होने पर श्रमिक विरोधी निर्णय श्रम न्यायालयों से होने शुरू हो गए थे। संघ के समर्थन से ही 1984 में पी एम बने उनके पुत्र राजीव गांधी तो सरकार कारपोरेट की तर्ज पर चलाने लगे थे। उदाहरण के तौर पर शिक्षा मंत्रालय का नामांतरण मानव संसाधन मंत्रालय किया जाना है। 
1991 में पी एम बने नरसिंघा राव साहब के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने जिन उदारीकरण की नीतियों को लागू किया उनको न्यूयार्क जाकर एल के आडवाणी साहब ने उनकी अर्थात भाजपा की नीतियों का चुराया जाना बताया था। उनके बाद बाजपेयी साहब के वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा साहब ने उन नीतियों को ही जारी रखा तथा फिर पी एम बनने पर मनमोहन सिंह जी ने वही नीतियाँ जारी रखीं और आजके पी एम मोदी साहब भी वही नीतियाँ चला रहे हैं। इस प्रकार संघ अर्थात व्यापारियो, उद्योगपतियों व कारपोरेट घरानों का शुभचिंतक राजनीति में मजबूत होता गया है। भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई अंतर है ही नहीं। अतः पूर्व राष्ट्रपति मुखर्जी साहब द्वारा नागपूर जाकर संघ को मजबूती देने का प्रयास अनायास नहीं है जनतंत्र पर हावी होते कारपोरेट तंत्र का यह स्व्भाविक परिणाम है। 

 परंतु 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध जैसी भयानक गलती फिर भाकपा द्वारा दोहराई गई है  पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के संघ कार्यक्रम में दिये भाषण की सराहना करके। : 

इसी प्रकार संघ प्रमुख मोहन भागवत साहब की सीख के अनुसार राहुल गांधी द्वारा 20 जूलाई 2018 को पी एम मोदी को गले लगाने की घटना की भी अनेक भाकपा नेताओं ने सराहना करते समय 1980 से चल रहे संघ - कांग्रेस के परस्परिक रिश्तों को नजरंदाज कर दिया है। इसका खामियाजा देश और जनता को भुगतना होगा। 
 ~विजय राजबली माथुर ©
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22-07-2018 

Sunday, July 15, 2018

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ------ सत्य दर्शन

  


सत्य दर्शन
चरैवेति चरैवेति -पं. राहुल सांकृत्यायन
(9 अप्रैल 1893 -14 अप्रैल 1963) 125 जयंती वर्ष विशेष


’’मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों, में वैसे तो बेधडक बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडत राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ। उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वत्ता के समक्ष अपने को बौना महसूस करता हूँ।‘‘    ------ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

ऐतरेय ब्राह्मण के “चरैवेति चरैवेति” - कठोर परिश्रम करने वाले व्यक्ति को ही भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं, एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं। ऐसे समय में जबकि कंप्‍यूटर पर एक क्‍लिक के जरिये इंटरनेट सारी जानकारी हमारे सामने लेकर आ जाता है, ऐसे में राहुल सांकृत्‍यायन एक ऐसा व्‍यक्‍तित्‍व था, जिसने दुर्लभ ग्रंथों की खोज के लिए दुनिया के कई हिस्‍सों की यात्राएं की और आप आश्‍चर्य करेंगे की उन्‍हीं खोजे गए ग्रंथों को वे हजारों मील दूर पहाड़ों व नदियों के बीच भटकने के बाद, खच्चरों पर लादकर देश ले आए।

राहुलजी के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष है-स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भागीदारी। भारत को आजादी मिले यह उनका सपना था और इस सपने को साकार करने के लिए वे असहयोग आंदोलन में निर्भय कूद पडे। शहीदों का बलिदान उन्हें भीतर तक झकझोरता था। राहुल सांकृत्यायन ने अपने एक भाषण में कहा था- ’’चौरी-चौरा कांड में शहीद होने वालों का खून देश-माता का चंदन होगा।‘‘

राहुल आजीवन एक महान् बौद्धिक-योद्धा की तरह असत्य, अन्याय और अंधविश्वास से जूझते रहे। राहुल जी सनातनी ब्राम्हण परिवार में पैदा होने के बावजूद पंडे- पुजारियों और उनके धार्मिक आडंबरों के कट्टर विरोधी थे । वे बौद्धिकवाद के प्रबल समर्थक थे ।राहुल जी अपने एक निबंध “धर्म और ईश्वर “ में लिखते हैं - मनुष्य जाति की शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उससे उत्पन्न मिथ्या विश्वासों का समूह ही धर्म है । हलांकि इस पर लेखकों के गहरे मतभेद हैं । यह बातें उन्होंने अपनी बौद्धिकता के आधार पर कही । राहुल जी एक दुर्लभ एवं स्वच्छंद व्यक्तित्व वाले थे । वह अपने दायरे स्वयं बनाते एवं तोड़ते थे । जो उनकी जीवन यात्रा में स्पष्ट दिखता है

परिवार का नाम केदारनाथ पांडे था और जब वैष्णव बने तो नया नाम मिला स्वामी राम उदार दास और उसके बाद श्रीलंका यात्रा और अध्यापन के दौरान बौद्ध धर्म से प्रभावित हो बौद्ध धर्म स्वीकार किया तो वह नया नामकरण हुआ "राहुल" । सांकृत्यायन गोत्र में पैदा होने के कारन राहुल के आगे सां कृत्यायन लगाया और इस प्रकार केदारनाथ और राम अवतार दास के नाम मिला "राहुल संकृत्यायन" ।

एक घुमक्‍कड़ी, यायावर, महाविद्वान और जिज्ञासु भारत में हुआ, जिसका नाम था राहुल सांकृत्‍यायन। राहुल सांकृत्‍यान को भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में महापंडित की उपाधि दी जाती है। हिंदी के लेखक, साहित्‍यकार, यायावर, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार के रूप में पहचाने जाने वाले इस शख्‍स के आगे नेहरू से लेकर उस दौर के सभी विद्वान नतमस्‍तक थे।

यात्राएं जिदंगी की रवानगी को तरोताजा करती हैं और उसकी रहस्‍यों की परतों को खोलने का सबसे बेहतरीन और अलहदा जरिया होती हैं। यदि किताब के चंद पन्‍ने दिल और दिमाग के अंदर हलचल पैदा करते हैं, तो वहीं एक छोटी सी यात्रा अनुभव बनकर किताबी ज्ञान को सबसे परिपक्‍व और गहरा बनाती है।

वैसे भी घुम्‍मकड़ी और यायावरी जिंदगी किसे पसंद नहीं। देश, दुनिया, जंगल, शहर, नगर, ग्राम घूमते हुए, कई तरह के समाज, संस्‍कृति, साहित्‍य, धर्म, दर्शन को जानना उसे समझना यह सब यात्राओं और घुमक्‍कड़ी के जरिये ही तो हो सकता है। यात्राएं अलग-अलग तरह लोगों के आचार-विचार, जीवन शैली और रहन-सहन से परिचित कराती है। यही वजह है कि दुनिया में यात्रियों ने ही अपने रोमांच, साहस, हिम्‍मत और जिज्ञासा के बूते दुनिया को खोजने और जोड़ने का काम किया।

फिर चाहे वह पुर्तगाली यात्री वास्‍कोडिगामा हो, जो अपनी अदम्‍य इच्‍छाशक्‍ति, जिज्ञासा के बूते सीधे समुद्री रास्‍ते से भारत पहुंचा और भारत की महान सभ्‍यता, संस्‍कृति की जानकारी दुनिया को दी, या फिर क्रिस्‍टोफर कोलंबस हो, जो भीषण समुद्री लहरों में अपनी हिम्‍मत और साहस के बूते यूरोप को अमेरिका से परिचित करा पाया। ऐसे ही चीन यात्री ह्यान सांग था, जिसने भारतीय संस्‍कृति को बेहद गहराई से जाना, समझा और उसकी एक मुकम्‍मल तस्‍वीर अपनी तरह से पूरी दुनिया के सामने रखी।

अगस्तीन ने कहा है कि “संसार एक महान पुस्तक है। जो घर से बाहर नहीं निकलते वे केवल इस पुस्तक का एक पृष्ठ ही पढ़ पाते है।“ यात्रा से कौतूहल एवं जिज्ञासा जैसी स्वस्थ मनोवृतियों का उदय होता है जो मानव को विकासोन्मुख बनाती है, नवीन विचारों का संचार करती है, तथा सहिष्णुता, स्नेह, भातृत्व एवं उदारता की भावनाओं को जागृत करती है।

व्यवहारकुशलता के साथ-साथ मनुष्य के व्यक्तित्व में मौलिकता तथा विचारों में दृढ़ता प्रदान करती है। उसमें मनुष्य पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाता है। राहुलजी स्वभाव से यायावर थे। अनवरत यात्रा ही उनका उद्वेश्य था न कि कोई मंजिल। उनकी यात्रा मात्र भूगोल की नहीं वरन् मन, विचार, अवचेतन एवं चेतना के स्थानान्तरण की है। सचमुच राहुलजी का संपूर्ण साहित्य यायावरी का चलचित्र ही है।

“सैर कर दुनिया में गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहाँ?“

पढ़कर केदारनाथ (राहुलजी का बचपन का नाम) के किशोर-मन में दुनिया को देखने की अदम्य लालसा जगी जो जीवन-पर्यन्त कायम रही। नियमित शिक्षा से वंचित एवं अत्यल्प औपचारिक शिक्षा (मात्र 8वीं कक्षा तक) के बावजूद स्वाध्याय के बल पर राहुलजी भारतीय संस्कृति, इतिहास, वेद, दर्शन एवं विश्व की अनेक भाषाओं के मर्मज्ञ विद्वान बने तथा 150 पुस्तकों की रचना की। वर्णन की कला में उन्हें महारथ हासिल था।

उनकी अद्भुत तर्कशक्ति, विश्लेषण की निपुणता और अनुपम ज्ञान भंडार से प्रभावित होकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापण्डित की उपाधि दी। संस्कृत और पालि भाषा का गहरा ज्ञान तथा नैपुण्य प्रवीणता के लिए श्रीलंका के बौद्ध संघ ने उन्हें कृपिटकाचार्य की उपाधि से विभूषित किया। लेकिन कैसी विडंवना है कि उन्हें किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय द्वारा पढ़ाने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया मात्र इस कारण से की उन्हें कोई औपचारिक डिग्री नहीं थी!

 1958 में उन्हें मध्य ’एशिया का इतिहास‘ पुस्तक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 1963 मे ‘पदमभूषण‘ से नवाजा गया। बौद्ध दर्शन के उद्भट रूसी विद्वान प्रो0 स्करवास्तकी ने लेनिनग्राड विश्वविद्यालय से संबंधित अपने संस्मरण में लिखा है कि विश्व में एकमात्र राहुल सांकृत्यायन ही ऐसे विद्वान है जो मेरे बाद उस विषय को विश्वसनीयता एवं दक्षता के साथ पढ़ा सकते है। उन्हें लेनिनग्राड विश्वविद्यालय दो बार 1937-38 एवं 1947-48 में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त कर उनकी सुयोग्यता एवं अतुल ज्ञान को विश्वस्तरीय मान्यता प्रदान किया।

21 वीं सदी में जब सूचना क्रांति के माध्यम से समग्र विश्व सिमटकर एक वैश्विक गाँव का आकार ले रहा है और इंटरनेट की सुविधा से माउस के क्लिक करते ही विश्व का विपुल ज्ञान भंडार सामने स्क्रीन पर उपलब्ध हो जाता है, यह अविश्वसनीय एवं विस्मयकारी प्रतीत होगा कि 20 वीं सदी के पूर्वाद्ध में हजारों मील दुर्गम एवं खतरनाक पहाडि़यों, जंगलों एवं नदियों के रास्ते पैदल कष्टसा ध्य यात्रा कर राहुल जी तिब्बत की राजधानी लहासा से दुलर्भ ग्रंथों एवं पाडुलिपियों को खच्चरों पर लादकर अपने देश लाये, जो आज भी पटना म्यूजियम में संरक्षित है।

यह एक प्रीतिकर समाचार है कि 4 मार्च, 2015 को सेंट्रल यूनिवर्सिटी आँफ तिब्बतीयन स्टडीज, सारनाथ एवं पटना म्यूजियम के बीच एम0ओ0यू0 हस्ताक्षरित किया गया है जिसके तहत राहुल सांकृत्यायन द्वारा लगभग तिब्बत से भारत लाई गयी और तिब्बती भाषा में लिखी लगभग 800 वर्ष पुराना 7.28 लाख पांडुलिपियों के डिजिटलाइजेशन के साथ उनका हिन्दी में अनुवाद किया जायगा। इससे निःसंदेह शोध और अध्ययन के नये क्षितिज खुलेंगे। बिहार सरकार द्वारा दुर्लभ एवं काफी पुरानी पांडुलिपियों के संरक्षण संबंधी पहल सराहनीय है तथा महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि है।

राहुलजी ओजस्वी वक्ता थे। उनका भाषणचार्तुय विख्यात है। उनका भाषण तथ्यपरक, प्रवाहपूर्ण तथा प्रभावी होता था। सरल शब्दों के सटीक प्रयोग से संप्रेषण पूर्ण और सहज हो जाता था और श्रोताओं के अन्तःकरण में समावेश कर जाता था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, जो हिन्दी के प्रखर वक्ता थे, राहुलजी की भाषण कला की प्रशंसा करते कहा थाः “मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों में वैसे बेधड़क बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ।

उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वता के समक्ष में अपने को बौना महसूस करता हूँ।“ वे शब्द-सामथ्र्य एवं सार्थक अभिव्यक्ति के मूर्तिमान रूप में थे। आत्म-नियंत्रण एवं आत्मानुशासन में वे अपनी उपमा आप थे। वे मृदुभाषी थे लेकिन उनकी लेखनी आक्रोश एवं बल उगलती थी। उनका अध्यवसाय अनुपम था। वे लगातार 18 घंटे तक साहित्य सर्जना में लीन रहते थे।इस प्रज्ञाशील मनीषी के व्यक्तित्व की आणविक शक्ति, सार्वदेशिक दृष्टि तथा ऐतिहासिक ज्ञान, दर्शन, संस्कृति, भाषा एवं यात्रा-साहित्य के क्षेत्र में रचनात्मक अवदान सदैव स्मरणीय रहेगा।

1919 में जलियाँवाला बाग कांड ने उनके अंदर राष्ट्रीयता की भावना को उद्वेलित किया। ब्रिटिश शासन के खिलाफ लिखने और भाषण देने के लिए उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया था। राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश शासन के कारण भारतीय समाज, संस्कृति, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था सभी संक्रमणकाल की दुःस्थिति को झेल रहे थे।

तीन साल तक कैद की सजा भोगते हुए उन्होंने कुरान का संस्कृत में अनुवाद कर डाला। जेल से छुटने के बाद वे डा0 राजेन्द्र प्रसाद के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। 1927 में इंडियन नेशनल कांग्रेस अधिवेशन के बाद जब डा0 राजेन्द्र प्रसाद श्रीलंका गये थे तो राहुल जी उनके गाइड की भूमिका निभाए थे। बिहार के किसान आन्दोलन में भी राहुल जी ने अहम भूमिका निभायी थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद किसान आंदोलन के शीर्ष नेता सहजानंद सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक ‘हुंकार‘ का उन्होंने संपादन भी किया ।

डा0 श्रीराम शर्मा ने अपने निबंध “राहुलजी रोगशैया पर“, में लिखा है कि उनके मस्तिष्क में वृहस्पति और पाँवों में शनीचर का निवास रहा है। उनकी रचनाधर्मिता मात्र कलात्मकता को प्रदर्शित न कर समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म एवं दर्शन इत्यादि के रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है और जीवन-सापेक्ष बन कर तमाम प्रगतिशील शक्तियों को संघर्ष और गतिशीलता की ओर प्रवृत करती है।

जिस प्रकार उनके पैर अनवरत बढ़ते रहे, उसी प्रकार हाथ की लेखनी भी कभी नहीं रूकी। लिखने के लिए वे अनुकूल मानसिक अवस्था या शांत वातावरण का कभी इंतजार नहीं किया बल्कि ट्रेन में, जहाज पर, बस पड़ाव पर, रास्ते में, सराय में, शिविर एवं जेल में भी उनकी लेखनी अविराम चलती रही। उनकी प्रसिद्ध कीर्ति, ‘वोल्गा से गंगा तक‘ जो 22 लघु कहानियों का संग्रह है 6000 (ईसा पूर्व) से 1942 तक दो महान नदियों के बेसिनों के बीच पनपी सभ्यताओं, मानव समाज का आर्थिक एवं सामाजिक अध्ययन तथा लगभग 7500 साल के ऐतिहासिक परिस्थितियों का काल्पिनक विवरण प्रस्तुत करता है।

भाषा और साहित्य के संबंध में राहुल जी कहते हैं-“भाषा और साहित्य, धारा के रूप में चलता है फर्क इतना ही है कि नदी को हम देश की पृष्ठभूमि में देखते हैं जब कि भाषा देश और भूमि दोनों की पृष्ठभूमि को लिए आगे बढ़ती है।“ स्थानीय बोलियों एवं जनपदीय भाषाओं का सम्मान करना राहुल जी की नैसर्गिक विशेषता थी।

लोकनाट्य परंपरा उनके लिए संस्कृति का सक्षम वाहक था। इसलिए उन्होंने भोजपुरी नाटकों की रचना की। वे नियमित रूप से संस्कृत में अपनी डायरी लिखते थे। जिसका उपयोग उन्होंने आत्मकथा में किया है।राहुलजी भाषात्मक एकता के प्रबल पोषक थे। अपने राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रभाषा को अनिवार्य मानते थे। बिना भाषा के राष्ट्र गूंगा है, ऐसा उनका मत था। वे राष्ट्रभाषा एवं अन्य जनपदीय भाषाओं के उन्नयन में कोई अन्र्तविरोध नहीं देखते थे।

पहले हिंदू बैरागी, फिर आर्यसमाजी ,फिर बौद्ध और फिर 1939 में कम्युनिस्ट ।विवेकानंद की तरह राहुल जी भी नवजागरण के शिखर पुरूष थे । राहुल जी रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में पैदा होकर भी धर्मांधता का विरोध करते रहे । जो राहुल जी की बड़ी विशेषता थी। राहुल जी के चरित्र में सादगी, स्वध्याय, निर्भीकता, त्याग ,लोकोन्मुखता, दिमागी खुलापन, बहुआयामिता, विवेकपरकता, कला प्रेम, देशभक्ति ,स्वच्छंद भ्रमण, पुरातत्व इतिहास से लगाव एवं क्षमा जैसे गुण समाहित थे । यही सब मिलाकर उनके व्यक्तित्व को महान व बहुआयामी बनाते हैं ।

 किसानों के सच्चे हिमायती थे। साहित्य व घुमक्कड़ीपन से इतर जब जमींदारों द्वारा किसानों के हक़ों पर बर्बरतापूर्वक कब्जा किया जा रहा था । तब राहुल जी किसानों की लड़ाई लड़ने के लिए नागार्जुन जी व अन्य सहयोगियों के साथ 20 जनवरी 1939 को छपरा पहुंचे । सभी प्रभावशाली लोगों से मिले किसानो की व्यथा सुनाई । किन्तु सुनवाई न होते देख स्वयं हँसिया लेकर गन्ना काटने के लिए खेत में खुद उतर गए ।

जमींदारों की तरफ से राहुल जी पर लाठी से हमला कराया गया । राहुल जी का सिर फट गया । खून से लथपथ हो गए और उल्टा गिरफ्तार कर उन्हें छपरा जेल भेज दिया गया ।इस आंदोलन में नागार्जुन जी भी उनके साथ थे । राहुल जी डटे रहे ।राहुल जी को चोट लगने की खबर जब अखबारों में छपी । तो पूरा बिहार आंदोलित हो उठा। इसी घटना पर प्रसिद्ध हिंदी अख़बार “साप्ताहिक जनता” में मनोरंजन जी की कविता छपी ।

राहुल के सिर से खून गिरे,
फिर क्यों वह खून न उबल उठे
साधु के शोणित से फिर क्यों ?
सोने की लंका जल उठे ।

उस समय यह कविता लोगों की जुबान पर चढ़ गई ।

राहुल जी को स्वस्थ होने में लंबा समय लगा। क्योंकि घाव गंभीर थी। फिर भी वह लड़ते रहे । आखिरकार 1 अप्रैल 1939 को पूरे बिहार में राहुल पर प्रहार विरोधी दिवस मनाया गया । जेल में रहते हुए ही राहुल जी ने 14 मार्च 1939 को चर्चित पुस्तक “तुम्हारी क्षय” लिखना आरंभ किया । दूसरी तरफ केस चलता रहा।

7 अप्रैल 1939 को सीवान अदालत ने धारा 379 के तहत 3 माह की कैद और 30 का जुर्माना राहुल जी सहित आंदोलनकारियों पर लगाया । उस वक्त के “जनता साप्ताहिक” के संपादक व प्रसिद्ध साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी ने जोरदार संपादकीय लिखा। उन्होंने अदालत के फैसले को अविवेकपूर्ण बताते हुए लिखा कि - “एक विश्वविख्यात महात्मा की कीमत 10 रुपये आंकी गई” ।ऐसे थे राहुल सांकृत्यायन ।राहुल जी ने वास्तव में किसानों की लड़ाई पूरी निष्ठा से लड़ी। इसमें राहुल जी का बराबर साथ दिया नागार्जुन जी ने ।


आज़ादी की लड़ाई में चार बार जेल जाने वाले जिस महान स्वतंत्रता सेनानी लेखक यायावर इतिहासकार हिंदी सेवी महापंडित राहुल सांकृत्यायन की विद्वत्ता का लोहा प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने माना था उन राहुल जी की 125वीं जयंती मनाने का प्रस्ताव गत एक साल से मोदी सरकार के पास लंबित है और अभी तक इस संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया गया है ।
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~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, July 7, 2018

मेरठ कालेज, मेरठ के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष सत्यपाल मलिक जी से संबन्धित संस्मरण ------ विजय राजबली माथुर















जिस वर्ष 1969 में मैंने मेरठ कालेज, मेरठ में बी ए में प्रवेश लिया छात्र संघ के अध्यक्ष श्री सत्यपाल मलिक ( वर्तमान राज्यपाल,बिहार )ही थे। कालेज के प्राचार्य थे डॉ वी पुरी किन्तु वह अपनी प्राचार्य परिषद के पदाधिकारी बन जाने के कारण त्याग - पत्र दे गए और कार्यवाहक प्राचार्य डॉ बी भट्टाचार्य ने तमाम आरोप लगा कर श्री सत्यपाल मलिक को कालेज से निष्कासित कर दिया था। परंतु श्री मलिक अक्सर ही कालेज आते रहते व छात्रों  से मिलते रहते थे और अपना समर्थन व्यक्त करते रहते थे। उनसे संबन्धित जो संस्मरण मैं पूर्व में व्यक्त कर चुका हूँ  ज्यों का त्यों उद्धृत कर पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ  : 


" पिछले वर्षों तक कालेज यूनियन क़े प्रेसीडेंट रहे सत्यपाल मलिक (जो भारतीय क्रांति दल,इंदिरा कांग्रेस ,जन-मोर्चा,जनता दल होते हुए अब भाजपा में हैं और वी.पी.सिंह सरकार में उप-मंत्री भी रह चुके ) को डा.भट्टाचार्य ने कालेज से निष्कासित कर दिया और उनके विरुद्ध डी.एम.से इजेक्शन नोटिस जारी करा दिया। 
नतीजतन सत्यपाल मलिक यूनियन क़े चुनावों से बाहर हो गये और उनके साथ उपाद्यक्ष रहे राजेन्द्र सिंह यादव (जो बाद में वहीं अध्यापक भी बने ) और महामंत्री रहे तेजपाल सिंह क्रमशः समाजवादी युवजन सभा तथा भा.क्र.द .क़े समर्थन से एक -दूसरे क़े विरुद्ध अध्यक्ष पद क़े उम्मीदवार बन बैठे।  बाज़ी कांग्रेस समर्थित महावीर प्रसाद जैन क़े हाथ लग गई और वह प्रेसिडेंट बन गये।  महामंत्री पद पर विनोद गौड (श्री स.ध.इ.कालेज क़े अध्यापक लक्ष्मीकांत गौड क़े पुत्र थे और जिन्हें ए.बी.वी.पी.का समर्थन था)चुने गये।  यह एम्.पी.जैन क़े लिए विकट स्थिति थी और मजबूरी भी लेकिन प्राचार्य महोदय बहुत खुश हुए कि, दो प्रमुख पदाधिकारी दो विपरीत धाराओं क़े होने क़े कारण एकमत नहीं हो सकेंगे। लेकिन मुख्यमंत्री चौ.चरण सिंह ने छात्र संघों की सदस्यता को ऐच्छिक बना कर सारे छात्र नेताओं को आन्दोलन क़े एक मंच पर खड़ा कर दिया। 
ताला पड़े यूनियन आफिस क़े सामने कालेज क़े अन्दर १९७० में जो सभा हुई उसमें पूर्व महामंत्री विनोद गौड ने दीवार पर चढ़ काला झंडा फहराया और पूर्व प्रेसीडेंट महावीर प्रसाद जैन ने उन्हें उतरने पर गले लगाया तो सत्यपाल मलिक जी ने पीठ थपथपाई और राजेन्द्र सिंह यादव ने हाथ मिलाया।  इस सभा में सत्यपाल मलिक जी ने जो भाषण दिया उसकी ख़ास -ख़ास बातें ज्यों की त्यों याद हैं (कहीं किसी रणनीति क़े तहत वही कोई खण्डन न कर दें )। सत्यपाल मलिक जी ने आगरा और बलिया क़े छात्रों को ललकारते हुए, फिराक गोरखपुरी क़े हवाले से कहा था कि, उ .प्र .में आगरा /बलिया डायगनल में जितने आन्दोलन हुए सारे प्रदेश में सफल होकर पूरे देश में छा  गये और उनका व्यापक प्रभाव पड़ा। (श्री मलिक द्वारा दी  यह सूचना ही मुझे आगरा में बसने क़े लिए प्रेरित कर गई थी )। मेरठ /कानपुर डायगनल में प्रारम्भ सारे आन्दोलन विफल हुए चाहे वह १८५७ ई .की प्रथम क्रांति हो,सरदार पटेल का किसान आन्दोलन या फिर, भा .क .पा .की स्थापना क़े साथ चला आन्दोलन  हो। श्री मलिक चाहते थे कि आगरा क़े छात्र मेरठ क़े छात्रों का पूरा समर्थन करें। श्री मलिक ने यह भी कहा था कि,वह चौ.चरण सिंह का सम्मान  करते हैं,उनके कारखानों से चौ.सा :को पर्याप्त चन्दा दिया जाता है लेकिन अगर चौ.सा : छात्र संघों की अनिवार्य सदस्यता बहाल किये बगैर मेरठ आयेंगे तो उन्हें चप्पलों की माला पहनाने वाले श्री मलिक पहले सदस्य होंगें। चौ.सा :वास्तव में अपना फैसला सही करने क़े बाद ही मेरठ पधारे भी थे और बाद में श्री सत्यपाल मलिक चौ. सा : की पार्टी से बागपत क्षेत्र क़े विधायक भी बने और इमरजेंसी में चौ. सा :क़े जेल जाने पर चार अन्य भा.क्र.द.विधायक लेकर इंका.में शामिल हुए। 
जब भारत का एक हवाई जहाज लाहौर अपहरण कर ले जाकर फूंक दिया गया था तो हमारे कालेज में छात्रों व शिक्षकों की एक सभा हुई जिसमें प्रधानाचार्य -भट्टाचार्य सा :व सत्यपाल मलिक सा :अगल -बगल खड़े थे। मलिक जी ने प्रारंभिक भाषण में कहा कि,वह भट्टाचार्य जी का बहुत आदर करते हैं पर उन्होंने उन्हें अपने शिष्य लायक नहीं समझा। जुलूस में भी दोनों साथ चले थे जो पाकिस्तान सरकार क़े विरोध में था। राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारे यहाँ ऐसी ही एकता हमेशा रहती है,वरना अपने निष्कासन पर मलिक जी ने कहा था -इस नालायक प्रधानाचार्य ने मुझे नाजायज तरीके से निकाल  दिया है अब हम भी उन्हें हटा कर ही दम लेंगें। बहुत बाद में भट्टाचार्य जी ने तब त्याग -पत्र दिया जब उनकी पुत्री वंदना भट्टाचार्य को फिलासफी में लेक्चरार नियुक्त कर लिया गया। 
समाज-शास्त्र परिषद् की तरफ से बंगलादेश आन्दोलन पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था। उसमें समस्त छात्रों व शिक्षकों ने बंगलादेश की निर्वासित सरकार को मान्यता देने की मांग का समर्थन किया। सिर्फ एकमात्र वक्ता मैं ही था जिसने बंगलादेश की उस सरकार को मान्यता देने का विरोध किया था और उद्धरण डा.लोहिया की पुस्तक "इतिहास-चक्र "से लिए थे (यह पुस्तक एक गोष्ठी में द्वितीय पुरूस्कार क़े रूप में प्राप्त हुई थी )। मैंने कहा था कि,बंगलादेश हमारे लिए बफर स्टेट नहीं हो सकता और बाद में जिस प्रकार कुछ समय को छोड़ कर बंगलादेश की सरकारों ने हमारे देश क़े साथ व्यवहार किया मैं समझता हूँ कि,मैं गलत नहीं था। परन्तु मेरे बाद क़े सभी वक्ताओं चाहे छात्र थे या शिक्षक मेरे भाषण को उद्धृत करके मेरे विरुद्ध आलोचनात्मक बोले। विभागाध्यक्ष डा.आर .एस.यादव (मेरे भाषण क़े बीच में हाल में प्रविष्ट हुए थे) ने आधा भाषण मेरे वक्तव्य क़े विरुद्ध ही दिया। तत्कालीन छात्र नेता आर.एस.यादव भी दोबारा भाषण देकर मेरे विरुद्ध बोलना चाहते थे पर उन्हें दोबारा अनुमति नहीं मिली थी। गोष्ठी क़े सभापति कामर्स क़े H .O .D .डा.एल .ए.खान ने अपने  भाषण मेरी सराहना करते हुये कहा था  -
हम उस छात्र से सहमत हों या असहमत लेकिन मैं उसके साहस की सराहना करता हूँ कि,यह जानते हुये भी सारा माहौल बंगलादेश क़े पक्ष में है ,उसने विपक्ष में बोलने का फैसला किया और उन्होंने मुझसे इस साहस को बनाये रखने की उम्मीद भी ज़ाहिर की थी। 
मेरे लिए फख्र की बात थी की सिर्फ मुझे ही अध्यक्षीय भाषण में स्थान मिला था किसी अन्य वक्ता को नहीं। 
इस गोष्ठी क़े बाद राजेन्द्र सिंह जी ने एक बार जब सत्यपाल मलिक जी कालेज आये थे मेरी बात उनसे कही तो मलिक जी ने मुझसे कहा कि,वैसे तो तुमने जो कहा था -वह सही नहीं है,लेकिन अपनी बात ज़ोरदार ढंग से रखी ,उसकी उन्हें खुशी है.  '' 
शनिवार, 18 दिसंबर 2010
क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष (४ )
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 ~विजय राजबली माथुर ©
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