Wednesday, September 19, 2018

देवी - देवता , अहिल्या और दुर्गा पूजा ------ विजय राजबली माथुर

*** *** भारतवर्ष को श्रेष्ठ =आर्ष=आर्य होने के कारण आर्यावृत भी कहा जाता था फारसी आक्रांताओं ने इनको हेय और निकृष्ट मानते हुये अपनी भाषा की एक गंदी गाली ' हिन्दू ' से विभूषित किया था। बौद्ध ग्रन्थों में हिंसा देने वालों को हिन्दू कहने का उल्लेख है किन्तु विद्वजन ढोंग- पाखंड को हिन्दू के रूप में पूजने का उपक्रम करते रहते हैं उनको मालूम होना चाहिए था कि ' देवता ' वह होता है जो देता है और लेता नहीं है ; जैसे नदी, वृक्ष, अग्नि, जल,वायु, धरती व आकाश आदि ।***  ***

"आज   देश के हालात कुछ  वैसे हैं :-मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों -२ दवा की। करम खोटे हैं तो ईश्वर  के गुण गाने से क्या होगा ,किया  परहेज़ न कभी  तो दवा खाने से क्या होगा.. आज की युवा शक्ति को तो मानो सांप   सूंघ  गया है वह कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं है और हो भी क्यों ? इस  सब के पीछे कुत्सित मानसिकता वाले बुर्जुआ लोग ही हैं । वैसे तो वे बड़े सुधारवादी ,समन्वय वादी बने फिरते हैं,किन्तु यदि उनके ड्रामा को सच समझ कर उनसे मार्ग दर्शन माँगा जाये तो वे गुमनामी में चले जाते हैं,लेकिन चुप न बैठ कर युवा चेहरे को मोहरा बना कर अपनी खीझ उतार डालते हैं । 
ऐसा नहीं है कि यह सब आज हो रहा है.गोस्वामी तुलसीदास ,कबीर ,रैदास ,नानक ,स्वामी दयानंद ,स्वामी विवेकानंद जैसे महान विचारकों को अपने -२ समय में भारी विरोध का सामना करना पड़ा था .१३ अप्रैल २००८ के हिंदुस्तान ,आगरा के अंक में नवरात्र की देवियों के सम्बन्ध में किशोर चंद चौबे साहब का शोधपरक लेख प्रकाशित हुआ था ,आपकी सुविधा के लिए उसकी स्केन प्रस्तुत कर रहे हैं
चैत्र और शरद नव रात्रों मे ढ़ोंगी-पाखंडी ढ़ोल-नगाड़ों से खुराफात करते हैं और खुद को देवी-भक्त घोषित करते हैं। ये नौ देवियाँ क्या हैं?चौबे साहब ने अच्छे और सरल ढंग से समझाया है किन्तु आम जनता की कौन कहे ?हमारे इंटरनेटी विद्वान भी मानने को तैयार न होंगे।
इन बदलते मौसमो मे उपरोक्त वर्णित औषद्धियों के सेवन से मानव मात्र को स्वस्थ रखने की कल्पना की गई थी। इन औषद्धियों से नौ दिन तक विशेष रूप से हवन करते थे जो ' धूम्र चिकित्सा ' का वैज्ञानिक आधार है। लेकिन आज क्या हो रहा है? भगवान =GOD=खुदा के दलालों (पुरोहितवादियों) ने मानव-मानव को लड़ा कर अपनी-अपनी दुकाने चला रखी हैं और मानव 'उल्टे उस्तरे' से उनके द्वारा ठगा जा रहा है। 'साईं बाबा','संतोषी माता','वैभव लक्ष्मी' नामक ठगी के नए स्तम्भ और ईजाद कर लिए गए हैं। जितना विज्ञान तरक्की कर रहा बताया जा रहा है उतना ही ज्यादा ढोंग-पाखंड का प्रचार होता जा रहा है जो पूर्णतः'अवैज्ञानिक' है।
एलोपैथी तो सिर्फ इतना भर जानती और मानती है कि,रोग का कारण बेक्टीरिया होते हैं और उन्हें नष्ट करने से उपचार हो जाता है। अब इसी पद्धति के विशेषज्ञ मानने लगे हैं कि न तो सभी बेक्टीरिया को नष्ट करना चाहिए और न ही अब एंटी बायोटिक दवाओ का असर रह गया है। पंचम वेद -'आयुर्वेद' मे 'वात-कफ-पित्त' के बिगड़ने को सभी रोगों का मूल माना है और यह निष्कर्ष पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है।


भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु)+I (अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)-इन पाँच तत्वों से मिल कर सम्पूर्ण सृष्टि बनती है जिसमे वनस्पतियाँ और प्राणी सभी शामिल हैं।


1-वात=आकाश +वायु
2-कफ=भूमि +जल
3-पित्त=अग्नि


'आयुर्वेद' मे पाँच तत्वों को उनके यौगिकों के आधार पर तीन तत्वों मे समायोजित कर लिया गया है। इसी लिए 'वैद्य' रोगी के हाथ की कलाई पर स्थित 'नाड़ी' पर अपने हाथ की तीन अंगुलियाँ रख कर इन तीन तत्वों की उसके शरीर मे स्थिति का आंकलन करते हैं। (1 )वात का प्रभाव 'तर्जनी',(2 )कफ का -'अनामिका',(3 )पित्त का 'मध्यमा' अंगुली पर ज्ञात किया जाता है।


 * अंगुष्ठ के तुरंत बाद वाली उंगली 'तर्जनी' है जो हाथ मे ब्रहस्पति -गुरु ग्रह का प्रतिनिधित्व करती है। 'गुरु'ग्रह गैसों का पिटारा है। वायु भी गैसों का संग्रह ही है।


 * तर्जनी के बाद की सबसे बड़ी उंगली ही 'मध्यमा' है जो शनि का प्रतिनिधित्व करती है। शनि को ज्योतिष मे 'आयु' का कारक ग्रह माना गया है और आयुर्वेद मे इसकी उंगली पित्त -ऊर्जा की स्थिति की सूचक है।


 * मध्यमा के तुरंत बाद की उंगली 'अनामिका' है जो हाथ मे सूर्य का प्रतिनिधित्व करती है। ज्योतिष मे सूर्य को 'आत्मा' का कारक मानते हैं और हाथ मे यह उंगली आयुर्वेद के अनुसार  कफ की द्योतक है।


इन तीन उँगलियों पर पड़ने वाली नाड़ी की धमक वैद्य को रोगी के शरीर मे न्यूनता अथवा अधिकता का भान करा देती है जिसके अनुसार उपचार किया जाता है। जिस तत्व की अधिकता रोग का कारक है उसके शमन हेतु उसके विपरीत गुण वाले तत्व की औषद्धिया दी जाती हैं। जिस तत्व की न्यूनता होती है उसकी वृद्धि हेतु उसी तत्व वाले गुण की औषद्धिया दी जाती हैं। हमारे आयुर्वेद मे 'बेक्टीरिया' से रोग की उत्पत्ति मानने की सनक नहीं होती है,यह विशुद्ध प्राकृतिक  और वैज्ञानिक रूप से रोग की खोज करके उपचार करता है इसी लिए इसे आयु का विज्ञान =आयुर्वेद कहते हैं। 'आयुर्वेद' मे 'शल्य'चिकत्सा =सर्जरी का व्यापक महत्व था। गौतम बुद्ध के समय तक 'मस्तिष्क' तक की शल्य चिकित्सा होती थी और सिर दर्द का इलाज भी इस विधि से संभव था। 'बौद्ध' मत के विरोध की आंधी मे पोंगा-पंथियों ने मूल पांडु लिपियों और अनेक ग्रन्थों को जला डाला जिसका परिणाम यह हुआ कि  आगे से  आयुर्वेद मे शोद्ध होना बंद हो गया। उसके बाद 1100 वर्षों की गुलामी मे 'पौराणिकों' ने और ज्यादा ढोंग-पाखंड का कहर बरपाया । संत कबीर आदि ने इस ढोंग-पाखंड का विरोध उस काल मे किया और आधुनिक काल मे स्वामी दयानंद,स्वामी विवेकानंद आदि ने। किन्तु आचार्य श्री राम शर्मा आदि ने इनके प्रयासों पर पानी फेर दिया और ढोंग-पाखंड का आज इतना बोल बाला है कि अनेकों ढोंगियों ने खुद को आज भगवान घोषित कर दिया है।
राजनेता जनता को जाग्रत करने के बजाए जनता को दिग्भ्रमित करने के प्रयासों में लुटेरे व शोषकों की मन - मुराद पूरी करने में लगे हुये हैं : 


जब अर्थ का अनर्थ किया जाएगा तब उसकी प्रतिक्रिया भी वैसी ही होगी : 




  





भारतवर्ष को श्रेष्ठ =आर्ष=आर्य होने के कारण आर्यावृत भी कहा जाता था फारसी आक्रांताओं ने इनको हेय और निकृष्ट मानते हुये अपनी भाषा की एक गंदी गाली ' हिन्दू ' से विभूषित किया था। बौद्ध ग्रन्थों में हिंसा देने वालों को हिन्दू कहने का उल्लेख है किन्तु विद्वजन ढोंग- पाखंड को हिन्दू के रूप में पूजने का उपक्रम करते रहते हैं उनको मालूम होना चाहिए था कि ' देवता ' वह होता है जो देता है और लेता नहीं है ; जैसे नदी, वृक्ष, अग्नि, जल,वायु, धरती व आकाश आदि ।  
~विजय राजबली माथुर ©

No comments: