Kashish News Sep 27, 2018 हमर बिहार
सभ्यता की शुरुआत और अंत का मिलनः अनिता गौतम
पटनाः कहते हैं सभ्यता की शुरुआत में लोग नंगे रहते थे, इंसान और जानवरों की जिंदगी में कोई फर्क नहीं था। समय के साथ सब कुछ सभ्य और सुव्यवस्थित होता गया। यौन उत्पीडन से बचाव और परिवार की खूबसूरती को बनाये रखने के लिए विवाह जैसी संस्था बनायी गयी। स्त्री पुरुष को पति पत्नी के रूप में स्थापित करने और एक दूसरे के प्रति समर्पण के लिए कुछ सामाजिक दायरे बने। विवाहेत्तर संबंधों को रोकने के लिए और परिवार को टूटने से बचाने के लिए कानून और समाज की मदद लेने व्यवथा की गयी।
आज देश में एक बार फिर से नंगई की वकालत हो रही है। क्षुधा की तृप्ति से ज्यादा अहमियत यौन तृप्ति को दी जा रही है। आपसी सहमति से बनने वाला कोई भी विवाहेतर यौन-संबंध अब कानूनन अपराध नहीं रहा। यह स्त्री और पुरुष या यूँ कहें कि पति और पत्नी दोनों के लिए जायज हो गया है। सिंगल स्त्री पुरुष तो पहले से ही अपने मन की करने के लिए आजाद हैं। प्रगतिशील दिखने और बनने की चाहत में दुर्भाग्य पूर्ण है कि यौन तृप्ति के लिए तो हमारे देश में नित नये नये फैसले हो रहें हैं लेकिन इनके दूरगामी दुष्प्रभावों पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है।
रोटी कपड़ा और मकान की शर्तों पर अपने संविधान के साथ हम आजाद हुए थे लेकिन दुर्भाग्यवश आज भी हम उन्हीं तकलीफों से जूझ रहे हैं। आज भी देश में एक बड़ी आबादी सर पर छत के लिए तरस रही है। मूलभूत संरचनाओं के अभाव में सुन्दर भौगोलिक खाकों के वावजूद हम अपेक्षित तरक्की नहीं कर पाये हैं। ऐसे में चंद लोगों को संतुष्ट करने के लिए, लिए गये फैसले का सीधा असर उस अवाम को झेलना पड़ेगा, जहां पति पत्नी के बीच 'वो'के लिए कोई जगह नहीं है। विवाहेत्तर संबंध के लिए जितनी सहजता से फैसला आया है उतना ही कठिन होगा इसे धरातल पर लाना।
न्यायलय ने इसे लागू करने में जो जल्दबाजी की उस से बेहतर एक सर्वे ही करा लिया होता ताकि इसके अच्छे बुरे प्रभाव तो सामने आ जाते। कानूनी जामा पहना दिये जाने के बाद पति पत्नी विवाहेत्तर संबंध तो बना भी लें पर उन परिवारों का क्या, उन बच्चों का क्या जो विवाह के बीच की अहम कड़ी होते हैं। हमारी सामाजिक व्यवस्था में विवाह न सिर्फ स्त्री पुरुष का बल्कि दो परिवार का भी मिलन होता है।
इतना ही नहीं, इस फैसले की आड़ में वेश्यावृति को बढ़ावा मिल सकता है, स्त्री के शारीरिक शोषण का पक्ष मजबूत हो सकता है। स्त्रियां अपने ही परिवार के बीच असुरक्षित हो जाएंगी। बहुत सारे मजाक के रिश्ते अब गलत उम्मीद लगा कर बैठ जाएंगे। पति पत्नी का रिश्ता भी शक की निगाहों से देखा जाने लगेगा। इतना ही नहीं सामाजिक अराजकता के साथ साथ शारीरिक बीमारियों को भी आमंत्रण देगा यह कानून।पश्चिमी देशों की नकल में सोच को प्रगति शील बनाने, स्त्रियों की दशा सुधारने बाल मजदूरी खत्म करने एवं शिक्षा को बेहतर बनाने जैसे कदम उठाये जाने की जरूरत पर बल दिया जाना चाहिए था।
स्त्री और पुरुष दोनों की सुरक्षा और सम्मान पति पत्नी के खूबसूरत रिश्ते में है। इसे तोड़ने और अति आधुनिक बनाने की नयी परिभाषा गढ़ने में कहीं ऐसी सड़ांध न फैल जाये जिसके दुर्गन्ध में न सिर्फ परिवार बल्कि मानवता ही दम तोड़ दे।
इतिहास गवाह है, विवाहेत्तर संबंध पहले भी बनते आये हैं और छुप छुपाकर आज भी बन रहे हैं पर उनका समाज पर बहुत ज्यादा असर कभी नही पड़ा है क्योंकि इसे छूत की तरह फैलने से रोकने के लिए कई व्यवस्था पहले थी। लेकिन अब जब इसे कानूनी मान्यता मिल गयी है तो ऐसा लगता है मानों जिस सामाजिक बुराई को सरकारी आदेशों से नहीं रोका जा सके उसे जायज कर दिया जाये। फिर तो समय के साथ बहुत कुछ जायज हो जाये इस से इंकार नहीं किया जा सकता है। बहरहाल शारीरिक भूख मिटाने के लिए नये नये उपाय वाले फैसले से अच्छा होता पेट की भूख को मिटाने के लिए सख्त फैसले होते। जन मानस की प्राथमिकताएं तय होती और देश को वैचारिक मजबूती देने एवं उसके अनुरूप तरक्की की परिभाषा गढ़ी जाती।
साभार :
https://kashishnews.com/news/104/%E0%A4%B8%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%86%E0%A4%A4-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%A8%E0%A4%83-%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%97%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%AE
~विजय राजबली माथुर ©
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