Saturday, September 28, 2019

जीत गए तो 71 , हार गये तो 62 ------ मनीष सिंह / संतोष कुमार झा






Santosh Kumar Jha
28-09-2019 
Manish singh
https://www.facebook.com/manish.janmitram/posts/2450682738349362

हर सितारे का एक वक्त होता है। उसके बनने का, चमकने का और धूमिल हो जाने का भी..। नेपोलियन के लिए वाटरलू, हिटलर के लिए ईस्टर्न फ्रंट और नेहरू के लिए चीन..

15 अगस्त 1947 में आजाद भारत की सीमाएं, ब्रिटिश भारत से विरासत में मिली। पश्चिमी सीमा तो बंटवारे में ब्रिटिश ने रेडक्लिफ लाइन से तय कर दी थी। कश्मीर बाद में हमसे जुड़ा, जुड़ने के पहले कुछ हिस्सा पाक दबा चुका था। वहां एक्चुअल कन्ट्रोल की लाइन को फोर्टिफाइ कर सेफ किया गया। मगर पूर्वी सीमा बड़ी अस्पस्ट थी।

पूर्वी सीमाओ का रिफरेंस पॉइंट, अंग्रेजो के दो सौ साल के राज दौरान अलग अलग सन्धियों से तय होनी थी। अंग्रेज युद्ध मे "इलाके" जीत लेते थे, इलाके खरीद भी लेते थे (कुमाऊँ गढ़वाल नेपालियों से खरीदा), इलाके लीज पर लेते थे ( गिलगित बल्टिस्तान, 1930 में कश्मीर राजा से 60 साल की लीज पर लिया था)। इन्ही सन्धियों को रिफरेंस पॉइंट लेकर भारत को अपनी सीमा तय करनी थी, जिसमे पड़ोसी की भी मंजूरी हो।

पर सन्धियों में इलाके लिखे होते हैं, कागज पर डॉटेड लाइन बना दी जाती है, मान ली जाती है। जमीनी बार्डर अलग चीज है,वह जमीन पर पक्की लाइन खींचकर तय की जाती है। इसलिए जॉइंट बॉर्डर कमीशन बनते, सर्वे होता, नक़्शे के आधार पर जमीनी लाइन खिंचती थी।

मगर चीन के साथ ब्रिटीश ऐसा कर नही पाए। पहली बात ये, मजे की.. की ब्रिटिश के लिए चीन से सीमा मिली ही नही थी। वो तिब्बत था, जिसपर ढीला कन्ट्रोल चीन राजा का था जरूर, मगर तिब्बतियन ट्राइब्स लगभग स्वतंत्र थे। ब्रिटिश ने तिब्बतियों को कई झड़पों में दबाया। फिर 1914 में शिमला में एक कान्फ्रेंस हुई। तिब्बती और ब्रिटिश इंडियन अफसरों ने समझौता करके बार्डर तय किये गए। अरुणाचल के इलाके तय करती इस रेखा को "मैकमेंहन लाइन" कहा गया। कई स्थानों पर इस लाइन ने तिब्बती इलाके, ब्रिटिश भारत मे दिखाए। तिब्बती कमजोर थे, दस्तखत कर गए। सो टेक्निकली तिब्बती कल्चर कई इलाके नक़्शे में ब्रिटिश सरकार के हो गए। मगर जमीन पर अंग्रेजो ने इन्हें न अपने प्रशासन में लिया, न फोर्टिफाइ किया। तवांग ऐसा ही इलाका था, जिसका जिक्र आगे आएगा।

47 में इन्ही सीमाओ (नक्शों) को हमनें विरासत में पाया। तिब्बत तो मित्र था, कोई समस्या नही थी। पर समस्या आयी जब माओइस्ट चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। तिब्बत अब चीन था, अग्रेसिव था, अब कम्युनिस्ट भी था, रूस की बैकिंग थी। भारत को देश हुए जुम्मा जुम्मा दो साल हुए थे। सेना कम थी, पश्चिम में पाकिस्तान से उलझी हुई थी। तो पूर्व में चीन से उलझना बेवकूफी थी। नेहरू ने दो चीजें तय की। एक- चीन को संतुष्ट रखना, दो- सीमा मामले पर मैकमैहन लाइन पर दृढ़ रहना।

खुश करने के लिए चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता दी, तब जबकि पूरे पश्चिम ने माओ को चीन का अधिकृत शासक मानने से इनकार कर दिया था। चीन की यूएन में परमानेंट सीट होल्ड हुई, तो नेहरू ने उसकी वकालत की। चीन की सीट इंडिया को दिए जाने के लालच से भी खुद को बचाया।

दूसरी ओर, सीमा के मसले पर चीन के भारतीय राजदूत पणिक्कर के द्वारा मैकमैहन लाइन को फाइनल मानने का संदेश भेजा। चाइनीज पीएम चाऊ का जवाब-"हमे अपनी मित्रता, और सांस्कृतिक आदान प्रदान पर ध्यान देना चाहिए. सीमा का मसला, जैसी परम्पराये हैं, उस आधार पर देख लेंगे"। अब समझना कठिन था की मैकमैहन पर चीन उत्तर हां है या ना??

नेहरू ने टेस्ट किया। तवांग, जो था मैकमैहन लाइन में हमारी ओर, मगर था तिब्बती इलाका। 1951 में भारतीय प्रशासन वहां पहुंचा औऱ अपने नियंत्रण में ले लिया। पहली बार आजाद भारत ने मैकमैहन लाइन को एक्सरसाइज किया। देश झूम उठा। चीन की कोई प्रतिक्रिया नही आई। हमने इसे मैकमैहन लाइन पर चीन की स्वीकृति माना। अरुणाचल और नॉर्थ ईस्ट में मसला सुलझने का सन्देश समझा गया।

मगर 1952 में एक घटना हुई। ऊपर अक्साई चिन नाम का इलाका है। इसे ब्रिटिश मैप्स में कश्मीर.. (अब भारत) मे दिखाया गया था। इन नक्शो को ब्रिटिश सर्वेयर्स ने एकतरफा बनाया था, और तिब्बत/ चीन को अप्रूवल के लिये भेजा था। तिब्बत या चीन की ओर से कभी वेरिफाई करने का रिकार्ड नही है। ठंडा, निर्जन रेगिस्तान जैसे इस इलाके में कश्मीर राजा, या तिब्बतीयों, या अंग्रेजो ने सुरक्षा या गश्त की जहमत कभी नही की थी। इस अन्डिफेंडेड इलाके से होकर चीन ने एक सड़क बना ली थी।

सड़क थी जिनजियांग इलाके को तिब्बत से जोड़ने के लिए। वहां विद्रोह होते रहते थे। सेना पहुंचाने के लिए उसकी जरूरत थी। मगर विरासत में मिले नक़्शे के लिहाज से हिंदुस्तानी इलाके का वॉयलेशन था। हिंदुस्तान चीत्कार उठा। "नेहरूऊऊऊ.., सुई के नोक के बराबर भारत भूमि चीन को मत देना"।

नेहरू ऐसी वारमोंगरिंग के खतरे समझते थे। समझाने की कोशिश की- "बंजर पहाड़ है, ज्यादा पंगा मत लो"। तो हमने गंजा सिर दिखा दिया-" इस सिर पर कुछ नही उगता, तो कटवा दें क्या??" .

बिल्कुल नही। अब सीमा पर चौकसी मजबूत की जाने लगी। सेना में खूब भर्ती होने लगी। नेशनल डिफेंस कालेज, एनसीसी वगेरह उसी दौर में आये। और आये कृष्णा मेनन। बड़े योग्य, ज्ञानी, प्रॉफेशनल और उतने ही बदतमीज डिफेंस मिनिस्टर। पूर्वी सीमा के लिए अलग से नई कोर बनी। पहाड़ो में सड़कें, हवाई अड्डे बनने लगे।

चीन देख रहा था, आपत्ति कर रहा था। नेहरू ने उसे भी सन्तुष्ट रखने की कोशिश की। 1954 में पंचशील समझौता किया। याने तिब्बत पर चाइनीज अधिकार स्वीकार कर लिया। हिंदी चीनी भाई भाई कहलाए। नेहरू यूएन में उंसके पक्ष में बोलते रहे। मगर फिर धर्मसंकट आ गया।

1958 में दलाई लामा भारत भाग आये। नेहरू ने खुद मिलकर समझाया, मगर लामा वापस जाने को तैयार नही हुए। भारत मे बैठकर तिब्बत की निर्वासित सरकार बना ली। उधर नई नई शुरू हो गई बॉर्डर पेट्रोल में रोज रोज चाइनीज सेना का सामना होता। इसे हमारी फारवर्ड पॉलिसी कहा गया। रोज हेडलाइन्स बनती, संसद में बहस होती, चीन की निगाह में भारत होस्टाइल होता जा रहा था। सीमा पर उसने भी इन्फ्रास्ट्रक्चर और फॉर्मेशन बढ़ाने शुरू किए। उसकी भी खबरें बनती, याने और हेडलाइन, और बहस...

उधर पाकिस्तान में एक जनरल ने सत्ता हाथ मे ले ली। भारत मे जनरल थिमैया और बदतमीज मेनन की रोज किचकीच होती। इसमे नए इलाके में घुसकर पेट्रोलिंग के मुद्दे शामिल थे। थिमैया ने इस्तीफा तक दे दिया, नेहरू के कहने पर वापस लिया। इस किचकिच और अविश्वास का फायदा मिला- बीएम कौल को। कहते है कि वे नेहरू और मेनन के विश्वाशपात्र थे। दर्जन भर अफसर दरकिनार कर उन्हें उप सेनाध्यक्ष बनाया गया, और नई नवेली ईस्टर्न कमांड उनको दी गयी। अपनी जान में नेहरू, मेनन और कौल ..सेना और सीमा मजबूत करने में जुटे थे।

1960 में चाऊ भारत आये। एक प्रस्ताव दिया। नीचे मैकमोहन लाइन हम मान लेते हैं, इस तरह नेफा (अरुणाचल) आपका।। ऊपर अक्साई चिन पर हमारा अधिकार स्वीकार कर लो। बॉर्डर पर झड़पें रोकने के लिए दोनो सेनाएं, स्टेटस क्वो से 20 किमी पीछे लौट जाएं। भारत ने मना कर दिया। काहे सर पे बाल नही, मगर सर थोड़ी कटा सकते हैं। इसलिए- "सीमा वहीं बनाएंगे"

1961 आया। भारत की सेना ने गोआ जीत लिया। यूएन में भी पुर्तगाल को नेहरू ने सुलट लिया। याने सेना भी मजबूत है, और विश्व मे हमारी पकड़ भी। छप्पनिया देश का और क्या सबूत चाहिए। उधर पूर्वी सीमा पर झड़पें खूनी हो चली थी। युद्ध आसन्न था।

20 अक्टूबर 1962 को चीन ने अक्साई चिन इलाके पर धावा बोला। नीचे तवांग के इलाके में भी उसकी फौजें घुसी। नेहरू देश से बाहर थे। भागे भागे आए, तो पता चला, बहादुर जनरल कौल हार्ट अटैक के नाम पर दिल्ली आकर भर्ती थे। उन्हें वापस मोर्चे पर दौड़ाया। वर्ल्ड कम्युनिटी से सहयोग चाहा। मगर सितारे उल्टे चल रहे थे।

क्यूबा का मिसाइल संकट चल रहा था। जब रूस ने अपने परमाणु मिसाइल क्यूबा में लगाकर सारे अमरीका को घेरे में ले रखा हो, अमरीका ने तैनाती तुरन्त न हटाने पर रूस पर सारी मिसाइल तान रखी हो, जब सारा विश्व परमाणु युद्ध के मुहाने पर खड़ा हो। उस वक्त एशिया की पहाड़ियों पर लड़ रहे, तीसरी दुनिया के दो देशों के बीच- बचाव की फुर्सत किसे। हम पिटते रहे.. गाते रहे - कर चले हम फिदा ...।

18 दिन का क्यूबा संकट खत्म हुआ। रूस को फुर्सत मिली, तो चीन को समझाया। चीन का उद्देश्य भारत को सबक सिखाना था। काफी टेरेट्रीज जीत चुका था। 19 नवम्बर को उसने एकतरफा युद्ध विराम कर दिया। भारत की निर्णायक हार हो चुकी थी। अक्साई चिन और अरुणाचल में वो जितना देने को तैयार था, उससे आगे आकर कब्जा कर गया। आज भी वे कब्जे बरक़रार हैं।

इसे सैनिक असफलता कहें, कूटनीतिक असफ़लता कहे, राजनैतिक असफलता कहे, या नेहरू की निजी असफलता.. भारत का मान मर्दन पूरा हो चुका था। मेनन- कौल के इस्तीफे आये। नेहरू अस्ताचल में चले गए। डेढ़ साल बाद मर गए। एसटीडी/एड्स से तो नही.. मगर हार्ट अटैक से।

चीन, नेहरू का वाटरलू था। वाटरलू नेपोलियन की महानता को खत्म नही करता, मगर पूर्ण विराम तो लगाता ही है। चीन से हार के लिए नेहरू जिम्मेदार थे, कोई शक नही। मगर अनिच्छुक नेहरू को इस तरफ धकेलने के लिए उस वक्त की संसद, अखबारो और जनमानस को भी एक छटाँक जिम्मा लेना चाहिए।

नक्शों पर, सैंकड़ो साल पहले.. किसी और के विजयोत्सव के दौरान खींची गई रेखाओं के आधार पर, हम आज विजयी भाव लेकर पड़ोसियों से युद्ध की ताल ठोकें। वर्तमान को नकार दें। सड़को पर, संसद में , मीडिया में , गली कूचों पर " सीमा वहीँ बनाएंगे" का वीरभाव दिखाएं। ये राष्ट्रीय भाव जगाने को अच्छा है, शायद चुनाव जीतने के लिए भी। मगर युद्ध न प्रधानमंत्री को लड़ना होता है, न मीडिया, न सांसदो को, न जनरल को, न गली कूचों बैठी गर्वोंन्मत जनता को। मरते बस सैनिक है।


वे सैनिक, कोई सिख, कोई जाट मराठा, कोई गुरखा कोई मद्रासी... हाड़मांस के आम इंसान, जो सर्द पहाड़ी पर हमारी आपकी शेखी की पताका लेकर ऊंचे से ऊंचा फहराने के लिए वर्दी डालकर जान देते है। जीत गए तो 71 , हार गये तो 62

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  ~विजय राजबली माथुर ©

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