Saturday, September 14, 2019

लोकतंत्र तभी तक फल-फूल सकता है, जब तक ख़बरों में सच्चाई हो ------ रवीश कुमार







नई दिल्ली: हिंदी पत्रकारिता के लिए गौरव का दिन है. आज फिलीपीन्स की राजधानी मनीला में एनडीटीवी इंडिया के रवीश कुमार को रेमॉन मैगसेसे सम्मान प्रदान किया गया है. उनको सम्मान देने वालों ने माना है कि रवीश कुमार उन लोगों की आवाज़ बनते हैं जिनकी आवाज़ कोई और नहीं सुनता. पिछले दो दशकों में एनडीटीवी में अलग-अलग भूमिकाओं में और अलग-अलग कार्यक्रमों के ज़रिए रवीश कुमार ने पत्रकारिता के नए मानक बनाए हैं. एक दौर में रवीश की रिपोर्ट देश की सबसे मार्मिक टीवी पत्रकारिता का हिस्सा बनता रहा. बाद में प्राइम टाइम की उनकी बहसें अपने जन सरोकारों के लिए जानी गईं. और जब सत्ता ने उनके कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया तो रवीश ने जैसे प्राइम टाइम को ही नहीं, टीवी पत्रकारिता को ही नई परिभाषा दे डाली. सरकारी नौकरियों और इम्तिहानों के बहुत मामूली समझे जाने वाले मुद्दों को, शिक्षा और विश्वविद्यालयों के उपेक्षित परिसरों को उन्होंने प्राइम टाइम में लिया और लाखों-लाख छात्रों और नौजवानों की नई उम्मीद बन बैठे. जिस दौर में पूरी की पूरी टीवी पत्रकारिता तमाशे में बदल गई है- राष्ट्रवादी उन्माद के सामूहिक कोरस का नाम हो गई है, उस दौर में रवीश की शांत-संयत आवाज़ हिंदी पत्रकारिता को उनकी गरिमा लौटाती रही है. मनीला में रेमॉन मैगसेसे सम्मान से पहले अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा कि अब लोकतंत्र को नागरिक पत्रकार की बचाएंगे और वे ख़ुद ऐसे ही नागरिक पत्रकार की भूमिका में हैं.

Ramon Magsaysay Award लेने के बाद रवीश कुमार ने कहीं 10 बड़ी बातें   : 
1-जब से रमोन मैगसेसे पुरस्कार की घोषणा हुई है मेरे आस पास की दुनिया बदल गई है। जब से मनीला आया हूँ आप सभी के सत्कार ने मेरा दिल जीत लिया है. आपका सत्कार आपके सम्मान से भी ऊँचा है. आपने पहले घर बुलाया, मेहमान से परिवार का बनाया और तब आज सम्मान के लिए सब जमा हुए हैं.
2-आमतौर पर पुरस्कार के दिन देने वाले और लेने वाले मिलते हैं और फिर दोनों कभी नहीं मिलते हैं. आपके यहां ऐसा नहीं है. आपने इस अहसास से भर दिया है कि ज़रूर कुछ अच्छा किया होगा तभी आपने चुना है. वर्ना हम सब सामान्य लोग हैं. आपके प्यार ने मुझे पहले से ज्यादा ज़िम्मेदार और विनम्र बना दिया है. 
3-हर जंग जीतने के लिए नहीं लड़ी जाती, कुछ जंग सिर्फ इसलिए लड़ी जाती हैं, ताकि दुनिया को बताया जा सके, कोई है, जो लड़ रहा है.  रवीश कुमार ने कहा कि दुनिया असमानता को हेल्थ और इकोनॉमिक आधार पर मापती है, मगर वक्त आ गया है कि हम ज्ञान असमानता को भी मापें. 
4-आज जब अच्छी शिक्षा खास शहरों तक सिमटकर रह गई है, हम सोच भी नहीं सकते कि कस्बों और गांवों में ज्ञान असमानता के क्या ख़तरनाक नतीजे हो रहे हैं. ज़ाहिर है, उनके लिए व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी का प्रोपेगंडा ही ज्ञान का स्रोत है. युवाओं को बेहतर शिक्षा नहीं पाने दी गई है, इसलिए हम उन्हें पूरी तरह दोष नहीं दे सकते. 
इस संदर्भ में मीडिया के संकट को समझना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. अगर मीडिया भी व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी का काम करने लगे, तब समाज पर कितना बुरा असर पड़ेगा.
5-अच्छी बात है कि भारत के लोग समझने लगे हैं. तभी मुझे आ रही बधाइयों में बधाई के अलावा मीडिया के 'उद्दंड' हो जाने पर भी चिंताएं भरी हुई हैं. इसलिए मैं खुद के लिए तो बहुत ख़ुश हूं, लेकिन जिस पेशे की दुनिया से आता हूं, उसकी हालत उदास भी करती है.
6-क्या हम समाचार रिपोर्टिंग की पवित्रता को बहाल कर सकते हैं. मुझे भरोसा है कि दर्शक रिपोर्टिंग में सच्चाई, अलग-अलग प्लेटफॉर्मों और आवाज़ों की भिन्नता को महत्व देंगे. लोकतंत्र तभी तक फल-फूल सकता है, जब तक ख़बरों में सच्चाई हो. 
7-मैं रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार स्वीकार करता हूं. इसलिए कि यह पुरस्कार मुझे नहीं, हिन्दी के तमाम पाठकों और दर्शकों को मिल रहा है, जिनके इलाक़े में ज्ञान असमानता ज्यादा गहरी है, इसके बाद भी उनके भीतर अच्छी सूचना और शिक्षा की भूख काफी गहरी है. 
8 -बहुत से युवा पत्रकार इसे गंभीरता से देख रहे हैं. वे पत्रकारिता के उस मतलब को बदल देंगे, जो आज हो गया है. मुमकिन है, वे लड़ाई हार जाएं, लेकिन लड़ने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है. हमेशा जीतने के लिए ही नहीं, यह बताने के लिए भी लड़ा जाता है कि कोई था, जो मैदान में उतरा था.
 9--भारत का मीडिया संकट में है और यह संकट ढांचागत है, अचानक नहीं हुआ है, रैन्डम भी नहीं है. पत्रकार होना अब व्यक्तिगत प्रयास हो गया है, क्योंकि समाचार संगठन और उनके कॉरपोरेट एक्ज़ीक्यूटिव अब ऐसे पत्रकारों को नौकरियां छोड़ देने के लिए मजबूर कर रहे हैं, जो समझौता नहीं करते. फिर भी यह देखना हौसला देता है कि ऐसे और भी हैं, जो जान और नौकरी की परवाह किए बिना पत्रकारिता कर रहे हैं.
10-फ्रीलांस पत्रकारिता से ही जीवनयापन कर रही कई महिला पत्रकार अपनी आवाज़ उठा रही हैं. जब कश्मीर में इंटरनेट शटडाउन किया गया, पूरा मीडिया सरकार के साथ चला गया, लेकिन कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने सच दिखाने की हिम्मत की, और ट्रोलों की फौज का सामना किया. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि संगठनों और उनके नेताओं से कब सवाल किए जाएंगे?

https://khabar.ndtv.com/news/india/ravish-kumar-after-receiving-ramon-magsaysay-award-2098016?browserpush=true



Pawan Karan
3 hrs(14-09-2019 )
नमस्कार! मैं रवीश कुमार......शंभूनाथ शुक्ल !

मैंने रवीश कुमार के साथ कई बार लंबी बैठकें कीं और उनसे कोई ‘क्रांतिकारी’ चर्चा करने की बजाय इस व्यक्ति को करीब से देखने और समझने का प्रयास किया। गाजियाबाद के वैशाली इलाक़े में स्थित एक अपार्टमेंट के ग्यारहवें माले के जिस फ़्लैट में वे रहते हैं, वह असाधारण सिर्फ इस मामले में है कि चारों तरफ पुस्तकें ही पुस्तकें दिखती हैं। अलमारी में भी और टेबल पर भी। टीवी पर सूट-टाई में दिखने वाले रवीश घर में सिर्फ टी-शर्ट और लोअर में ही मिले। चाहे सुबह हो या शाम। और इतना सहज अंदाज़ कि उनके घर में हर एक का स्वागत है, चाहे कोई बिल्डिंग में काम करने वाला मजदूर, उनके घर आकर एक गिलास पानी की डिमांड करे या कोई लंबी कार से आया आदमी उनके साथ सेल्फी खिंचवाने को आतुर दिखे। हर एक को वे अपने ड्राइंग रूम में पड़े सोफे पर प्यार से बिठाते हैं, भले वह वह अपने गंदे जूतों से बिछी कालीन को धूल-धूसरित करता रहे। चूंकि उनकी पत्नी बंगाली हैं और बंगाली घरों में प्रवेश करने के पूर्व जूते देहरी पर ही उतारने का चलन है, इसलिए मैं तो जब भी उनके घर जाता हूँ, जूते उतार कर ही घुसता हूँ। यह एक बंग गृहणी की संस्कृति का सम्मान है।

जब भी मैं गया रवीश अपनी छोटी बिटिया से खेलते मिले। और उसकी तर्कबुद्धि से परास्त होते भी। उनकी सारी गम्भीरता और वाक-पटुता इस पांच या छह साल की बच्ची के आगे गायब हो जाती है। पर बच्ची है बड़ी खिलंदड़ी और कुशाग्र। उनके ड्राइंग रूम का बड़ा-सा एलईडी टीवी दिखावटी है। रवीश का कहना है कि वे कभी टीवी नहीं खोलते। बस पढ़ते हैं या अपनी बिटिया की शंकाओं का समाधान करते हैं। इसी ड्राइंग रूम में एक म्यूजिक सिस्टम है, जिसमें से मद्धम आवाज़ में सुर-लहरियां निकला करती हैं। वे बैठे बात कर रहे थे कि अचानक इंटरकाम पर बेल बजी। रवीश ने खुद जाकर फोन उठाया। नीचे आया बंदा रवीश को अपनी भतीजी की शादी में बुलाना चाहता था, और इसी वास्ते वह उन्हें न्योता देने आया था। रवीश ने उसे ऊपर बुला लिया। उसने कार्ड दिया और कहा भाई को बता देता हूँ, लेकिन फोन मिला नहीं तो रवीश के साथ सेल्फी लेकर उसे व्हाट्सएप पर भाई को भेज दी। रवीश से मिलकर वह अभिभूत था। रवीश ने उसको बचन दिया कि आएँगे। उसके जाने के बाद मैंने पूछा कि कौन था, तो रवीश ने बताया कि एसी की सफाई करता है। रवीश की यही सहजता मन को छूती है। इतना ख्यातनाम पत्रकार कि हारवर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र जिसे सुनने के लिए बुलाते हैं, जिसे विश्व विश्व का प्रख्यात रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला है। वह व्यक्ति एसी साफ़ करने वाले की भतीजी की शादी में जाने को तैयार है।

‘एक डरा हुआ पत्रकार एक डरा हुआ नागरिक पैदा करता है’ का स्लोगन देने वाले रवीश उन सारे डरे हुए लोगों के साथ हैं, जो अपना डर बाहर निकालना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि लोग उन्हें अपना डर बताएं, वे उन्हें प्लेटफ़ॉर्म देंगे। मालूम हो कि उनका अपना ब्लॉग ही इतना लोकप्रिय है कि वह देश में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लॉग है। और उनका प्राइम टाइम सबसे ज्यादा देखा जाने वाला शो।

एक पत्रकार का आकलन उसकी लेखन-शैली या प्रस्तुतीकरण के कौशल से नहीं होता। उसका आकलन उसके द्वारा उठाये गए सवालों और मुद्दों से होता है। पत्रकार का अपने समय के सरोकारों और उन पर तत्कालीन सरकार के रवैये की समीक्षा करना, ज्यादा बड़ा कर्म है। वह कैसा लिखता है, या किस तरह चीजों को पेश करता है, यह उसकी व्यावसायिक कुशलता है। लेकिन प्राथमिकता नहीं। रवीश कुमार में यही खूबी, उन्हें आज के तमाम पत्रकारों से अलग करती है। रवीश कुमार के प्रोफेशनलिज्म में सिर्फ कौशल ही नहीं एकेडेमिक्स का भी योगदान है। रवीश की नजर तीक्ष्ण है और उनका टारगेट रहा है कि आजादी के बाद शहरीकरण ने किस तरह कुछ लोगों को सदा-सदा के लिए पीछे छोड़ दिया है, उनकी व्यथा को दिखाना। रवीश कुमार की यह प्रतिबद्घता उन्हें कहीं न कहीं आज के चालू पत्रकारिता के मानकों से अलग करती है। जब पत्रकारिता के मायने सिर्फ चटख-मटक दुनिया को दिखाना और उसके लिए चिंता व्यक्त करना हो गया हो तब रवीश उस दुनिया के स्याह रंग की फिक्र करते हैं। आज स्थिति यह है, कि जब भी मैं किसी पत्रकारिता संस्थान में जाता हूँ, और वहाँ के छात्रों से पूछता हूँ, कि कोर्स पूरा क्या बनना चाहते हो, तो उनका जवाब होता है, टीवी एंकर या टीवी रिपोर्टर। कोई भी अखबार में नहीं जाना चाहता। क्योंकि टीवी में चकाचौंध है, जगमगाहट है और नाम है। लेकिन इसके विपरीत अखबार में निल बटा सन्नाटा! हर उभरते पत्रकार की मंजिल होती है, रवीश कुमार बन जाना। लेकिन कोई भी रवीश की तरह पढ़ना नहीं चाहता। रवीश की तरह अपने को रोज़मर्रा की घटनाओं से जोड़ना नहीं चाहता, रवीश की तरह वह विश्लेषण नहीं करना चाहता। मगर वह बनना रवीश चाहता है।

बिहार के मोतिहारी ज़िले के गाँव जीतवार पुर के रवीश की शुरुआती शिक्षा पटना के लोयला स्कूल में हुई। फिर वहीं के बीएन कालेज से इंटर साइंस से किया। दिल्ली आए और देशबंधु कालेज से बीए किया। हिस्ट्री में एमए करने के लिए किरोड़ीमल कालेज में दाखिला लिया। एम.फिल, को बीच में ही छोड़ कर भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) से पत्रकारिता की पढ़ाई की। कुछ दिनों तक उन्होंने जनसत्ता के लिए फ्री-लांसिंग की। तब मंगलेश डबराल जनसत्ता के रविवारीय संस्करण के संपादक थे। मंगलेश जी इसी ‘रविवारी जनसत्ता’ के लिए उन्हें स्टोरी असाइन करते, और वे उसे लिख लाते। इसके बाद जब वो एनडीटीवी में गए, तो जाते ही एंकरिंग करने को नहीं मिली। बल्कि उनका काम था सुबह के शो “गुड मॉर्निंग इंडिया” के लिए चिट्ठियाँ छांटना। इस काम के बदले उन्हें पहले सौ रुपए रोज़ मिलते थे, जो बाद में बढ़ा कर डेढ़ सौ कर दिये गए। इस शो के दर्शक देश भर से चिट्ठियाँ भेजते थे। वे चिट्ठियाँ बोरों में भर कर आतीं, जिन्हें रवीश छांटते। इसके बाद वहीं पर अनुवादक हुए। फिर रिसर्च में लगाया गया। इसके बाद रिपोर्टर और तब एंकर। आज वे एनडीटीवी में संपादक हैं। और उनका शो “प्राइम टाइम” अकेला ऐसा शो है, जिसे देखने और समझने के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी।

जन-सरोकारों के उनके सवालों से कुढ़े कुछ लोग उनको मोदी विरोध या मोदी समर्थन के खाँचे में रख कर यह घोषणा कर देते हैं, कि वे मोदी विरोधी हैं, और इसीलिए उन्हें यह मैग्सेसे सम्मान मिला है। मुझे लगता है, कि ऐसे लोग धूर्त हैं। रवीश तब भी ऐसी ही रिपोर्टिंग करते थे, जब देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे। रवीश ने हर सरकार के कामकाज की समीक्षा की है। मेरा स्पष्ट मानना है, कि मोदी से न उनकी विरक्ति है न आसक्ति। जितना मैं उन्हें जानता हूँ, निजी बातचीत में कभी भी उन्होंने मोदी के प्रति घृणा या अनुराग का प्रदर्शन नहीं किया न कभी कांग्रेस का गुणगान किया। वे एक सच्चे और ईमानदार तथा जन सरोकारों से जुड़े पत्रकार हैं। कुछ उन्हें जबरिया एक जाति-विशेष के खाने में फ़िट कर देते हैं। उनका नाम रवीश कुमार पांडे बता कर उनके भाई पर लगे आरोपों का ताना मारने लगते हैं। पर जितना मुझे पता है, मैं अच्छी तरह जानता हूँ, कि उनके भाई ब्रजेश पांडेय अपनी ईमानदारी और कर्मठता के बूते ही बिहार कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में टिकटों के वितरण के वक़्त कुछ लोग उनसे फ़ेवर चाहते थे, लेकिन उन्होंने कोई सिफ़ारिश नहीं सुनी, पैसा नहीं लिया। इसलिए उनके विरुद्ध कांग्रेस और राजद वालों ने ही षड्यंत्र किया था। बाद में भाजपा के लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया। ब्रजेश जी की बेटी की शादी रुक गई। उन्हें बिहार में कोई वकील नहीं मिला। सच तो यह है, कि रवीश गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा के पत्रकार हैं। उन्हें बधाई दीजिये।
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  ~विजय राजबली माथुर ©

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